हरसिंगार झरे | जगदीश व्योम
हरसिंगार झरे | जगदीश व्योम
सारी रात
महक बिखराकर
हरसिंगार झरे।
सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामो्शी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे।
वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की जद से
अब आखिर
बाहर कौन करे।
सघन गंध
फैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे।