हरी मछली के खेल | रमेश बक्षी
हरी मछली के खेल | रमेश बक्षी

हरी मछली के खेल | रमेश बक्षी – Hari Machhali Ke Khel

हरी मछली के खेल | रमेश बक्षी

मुझे वह शाम अच्छी तरह याद है जब वह पठानकोट से उतरा था। उसे देखकर लगा था जेसे उसके सूट पर ही नहीं उसके शरीर पर भी गरम लोहा रखा गया है, तभी तो हर लहजा ऐसा व्यवस्थित है जैसे लांड्री से अभी-अभी निकाला गया हो-वह उसका स्टार्च नमस्कार, वह उसकी क्रीजदार मुस्कान, वह उसका नील लगा व्यवहार। मैंने यही सोचा था तब कि मेरी जिंदगी का ढर्रा भी कुछ बदलेगा। वह खुश था कि इस नये शहर में मैं मिल गया और उसे इतनी सहायता तो करूंगा ही कि किसी किस्म की कोई भी दिक्कत उसे नहीं होगी। मेरा एक दोस्त बंबई में है, उसने खत लिखकर उससे परिचय करवाया था। लिखा था उसने, ‘मेरा एक नजदीक दोस्त तुम्हारे भोपाल आ रहा है। वह बड़ा जिंदादिल और खुशफहम है। ध्यान रखना कि उसे कोई तकलीफ न हो। पता नहीं बंबई से आने वाला आदमी भोपाल में कैसे निभेगा? यह शक मुझे केवल इसलिए हो रहा है कि इस दौड़ते हुए शहर में रहने वालों की जिंदगी भी उसी रफ्तार से दौड़ने लगती है-शरीर में भी खून बहता नहीं, दौड़ता है। सोई हुई धूल भी गुजरते हुए पहियों के साथ दौड़ने लगती है फिर आदमी के तो क्या कहने! जैसे भी हो तुम उसे इस तरह रखना कि वह अकेला महसूस न करे और परेशान न रहे।’ यह खत पढ़कर ही उसकी एक तस्वीर जरूर बनी थी और जब पठानकोट से उतरकर उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा तो उस तस्वीर में तेज और गहरे रंग भर गए थे। मैं उसे अपने घर ले आया था। छोटे-से स्टेशन की बेमानी हरकत से हम बाहर निकले थे तो उसने चारों तरफ घूमकर शहर को एक नजर देखा था। पहला वाक्य था उसका, ‘आज वीकली हाली-डे है या कोई स्ट्राइक चल रही है?’ मैं बेमतलब हँस दिया था, ‘तेज उजाले से जब हलके उजाले में आते हैं न, तो आँखों पर अंधेरा आ लटकता है। आप बंबई की चकाचौंध से यहाँ आ गए हैं शायद इसी कारण सब-कुछ सुनसान दीख रहा है।’ फिर उसकी नजर टैक्सी के ड्राइवर पर चली गई थी, ‘क्यों, यहाँ क्या स्पीड पर कंट्रोल लगा हुआ है जो तुम इतने धीमे चल रहे हो?’ पता नहीं टैक्सी वाला नाराज हो गया इस वाक्य से या उसने इस वाक्य को अपनी मशीन का अपमान समझा कि ओंठ दबाकर जरा-सा बोला, यहाँ चढ़ाइयाँ हैं।’

लकड़ी के टाल गुजरते रहे। हलके पीले उजेले में लेटी हुई सड़क चुपचाप सरकती रही। किनारे-किनारे लोग ऐसे चल रहे थे जैसे छुट्टी पर हों। एकाध बस के पास से हम गुजरे, एकंध तांगा खुड़-खुड़ करता मोड़ पर रुक गया, एकाध साइकिल वाला साइकिल को धकाता हाँफते हुए चढ़ाई पर दिखा। उसने सिगरेट जला ली थी और बोला था, ‘शहर कितनी दूर है?’ मैं चौंक गया था, ‘हम शहर के बीचों बीच हैं इस समय।’ उसने कश खींचा था, ‘यह इधर तालाब है क्या?’ पुल पुख्ता के ऊपर दाईं तरफ छोटे तालाब में सैकड़ों उजेले लुकाछिपी खेल रहे थे। मैंने उत्साहित होकर कहा, ‘हाँ, यहाँ दो तालाब हैं और तालाबों के किनारे शहर बसा है, आपको जरूर पंसद आएगा।’ वह हँस दिया, ‘बंबई समुद्र के बीच बसा है और खारे पानी की लहरें चेहरों पर नमक जमाया करती है।’ मैंने भी हँस देना उचित समझा था, ‘लेकिन यहाँ का पानी मीठा है।’ उसने सिगरेट फेंक दी, ‘सो ठीक है लेकिन मीठे से नमकीन चीज बेहतर होती है।’

अरेरा पहाड़ी पीछे छूट गई। बस-स्टाप गुजरे रहे थे-सोती हुई दुकानें, लौटते हुए ठेले और बंद होती गुमटियाँ। …मेरी बस्ती की सरहद शुरू हो गई थी। एक के बाद एक लगे हुए क्वार्टर, नीम-नींद में डूबी हुईं कालोनी। वही बोला, ‘और ये डिब्बे किस चीज के हैं?’ मैं फिर चौंका, ‘डिब्बे?’ फिर उसके चेहरे पर आई लकीरों से समझ गया कि यह कालोनी के मकानों को डिब्बे कह रहा है। बोला मैं, ‘यही टी.टी. नगर है।’ उसने सिर हिलाया, ‘क्या ये रेलवे के हैं? टी. टी. रहते हैं इनमें?’ मैंने उसकी बात को लतीफे की तरह सुना, ‘नहीं, इसमें तो रेल में सफर करने वाले ही रहते हैं।’ अब वह खुलकर हँस दिया था।

चाय पीते में वह बोला, ‘आज ट्रेन में एक ऐसी सनसनीखेज घटना हो गई कि सारी यात्रा बड़े मजे में गुजरी।’ मैं उसकी घटना सुनने को तैयार हो गया, ‘घटना क्या है एक भ्रिलर है, सुनेंगे तो चौंक जाएँगे।’ उसने चाय का पूरा प्याला एक ही घूँट में खाली कर दिया और बोला, ‘रात कोई बारह-एक बजे की बात है। मैं सेकंड क्लास में यात्रा कर रहा था और उसी में यह घटना हुई। दो कोई पति-पत्नी आ बैठे। आपस में वे कुछ बातें कर रहे थे! ममला ये था और वही सनातन मामला कि पति-पत्नी का पंसद नहीं करता था, या यूँ समझिए कि पत्नी पुरानी पड़ गई थी। काफी तेज चख-चख दोनों में हुई। पत्नी का आरोप भी वही सनातनी था कि उसने उसकी बहन को छेड़ा क्यों? मुझे नींद तो आ रही थी। ऊपर के बर्थ पर बिस्तर भी लगाए था मैं, लेकिन उन बातों में बड़ा मजा आ रहा था। शायद पति ने उस बात को टालने की गरज से कहा था-अरे तो कौन-सा जुलुम कर दिया, मुझे अधिकार नहीं है अपनी साली को छेड़ने का…? बस, पत्नी फूट-फूटकर रोने लगी। फिर वह उठी और दरवाजे पर जा खड़ी हुई। एक खटके में सारा काम हुआ कि वह पति को गाली देती उस साठ-सत्तर की स्पीड में दौड़ती ट्रेन में से कूद पड़ी। पति जोर से चिल्लाया और जंजीर खींचने के बजाय वह भी डिब्बे से कूद गया। डिब्बे में हलचल मच गई और मैंने जंजीर खींच दी। इसी कारण ट्रेन तीन घंटे लेट हो गई आज। दौड़कर देखा गया तो दोनों मरे हुए मिले। गार्ड ने पंचनामा किया। लाशों को ट्रेन में चढ़ाया…!’ वह विस्तार के साथ बतलाता रहा कि कैसे जरा-सी बात ने दो लोगों की जान ले ली। उसका चेहरा पीला तो था लेकिन चमक थी उस पर। वह जब किस्सा सुना रहा था तो मैंने देखा कि उसकी बाईं कनपटी पर दो नीलों नसें एक-दूसरी में उलझी ऊपर फूल गई हैं और शायद चमड़ी के पीलेपन से वे किसी हरी मछली की तरह उछली हुई लग रही हैं। मैं बोला, ‘मृत्यु को इतने नजदीक से देखने के कारण शायद फिर नींद नहीं आई होगी आपको?’ उसने हँसकर उत्तर दिया था, ‘वहाँ की फास्ट लाइफ में मृत्यु कोई मतलब नहीं रखती। मृत्यु बड़ी साधारण बात है…! यह जरूर है कि ऐसी बातों से जीवन में दौड़-धूप बनी रहती है।’

‘किताबें तो काफी हैं आपके पास।’ कमरे में भरी अलमारी को देखकर वह बोला था, ‘और मुझे पढ़ने का बड़ा शौक है।’

मुझे खुशी उसकी इस बात से हुई कि चलो इसका किताबों में तो मन लगेगा। उत्साह से मैंने कहा, ‘ले लीजिए आपको जो भी किताब पंसद हो।’ वह अलमारी के पास घूमता बोला-‘किस-किस की किताबें हैं आपकी इस लायब्रेरी में?’

‘हर तरह की’-मैंने बतलाया था-‘खासकर फिलॉसफी की। प्लेटो और अरस्तू से कामू तक का दर्शन यहाँ मिल जाएगा। साथ ही सीरियस किस्म का फिक्शन भी है। बतलाइए किसकी किताब दूँ? आपकी पंसद क्या है?’ उसका पीला चेहरा जैसे सफेद हो गयज्ञ। बोला, ‘फिलॉसफी और सीरियस फिक्शन तो मैं नहीं पचा सकता। पेरी मेसन का कोई नया डिटेक्टिव हो तो दीजिए या आपकी हिंदी में भी कुछ जासूसी चीजें आती होंगी। बंबई में किसी ने कोई नाम बतलाया था – सम आवारालाल और सम देवकी नंदना…?’

वह राधाकृष्णन की एक पुस्तक पर उँगली घुमाता बोल रहा था और मैं उसका चेहरा देखे जा रहा था। फिर स्टेशन से येलो सीरीज की कोई पुस्तक ले आया। बताया उसने कि वह रात भर पढ़ता रहा। पूछा मैंने कि क्या है पुस्तक में तो वह किस्सा सुनाने जमकर बैठ गया, ‘यह नये किस्म का डिटेक्टिव है। मर्डर नहीं रेप-केस का इन्वेस्टीगेशन है, इसमें नींद की गोलियाँ खिलाकर एक अमेरिकन ब्लांडी को बेहोश कर दिया गया है और पाँच लोगों ने उस पर बलात्कार किया है। फुटप्रिंट्स और फिंगरप्रिंट्स से जब खोज की गई तो उस लड़की के पाँचों चाचा आरोप में पकड़े गए। पुलिस में इन पाँचों ने ही रिपोर्ट लिखवाई थीं…।’ वह सुनाता रहा और मैं सुनने की बजाय उसकी पीली कनपट पर उछली हुईं हरी मछली को देखता रहा। मछली धीरे-धीरे हिल रही थी।

एक शाम वह मेरे पास आया, ‘निकलो यार घर से बाहर, आज तो बहोत डल है सारा एटमासफीयर। कहाँ किस शहर में आ फंसा मैं। बसें दौड़ती हैं तो बैठी हुई सवारियाँ मुर्दों की तरह लगती हैं-सिनेमा है तो फिल्में बीस साल पुरानी-लड़कियाँ हैं तो समुद्र किनारे उगी हुई वीड की तरह।’ मैं उसके साथ-साथ चल रहा था। कहीं यूक्लिप्ट्स के बच्चे, कहीं बूढे़ गुलमोहर-उखड़ी हुई सड़कें, अफीम खाकर बैठे हुए बंगले। …मैं उसकी दृष्टि से भोपाल को देखने की कोशिश कर रहा था। सच, कहीं कुछ नहीं था। कभी कोई गजब का एक्‍सीडेंट नहीं होता कि एक साथ तीस-पैंतीस लोग मर जाएँ। कभी कोई थ्रीलिंग आत्महत्या नहीं होती, इतनी गरीबी है, ऐसी बेरोजगारी है। ऐसा क्यों नहीं होता कि परिवार के पाँच, दस या पंद्रह लोग एक साथ दुनिया से निराश होकर जमाने की शिकायत करते हुए तालाब में जा डूबें? राजधानी होने के कारण राजनीतिक सनसनी हमेशा बनी रहती है फिर ऐसा क्यों नहीं होता कि एक-दो एम.एल.ए. के बीच छूरे-चाकू चल जाए? इतने बुर्कें चलते-फिरते रहते हैं, इनमें से कोई नकाब-पोश नकबजनी करने वाला क्यों पैदा नहीं होता? इतना सूना और बियाबान शहर है-जहाँ दृष्टि फेंको वहीं एक न एक झाड़ी नजर आती है लेकिन कोई बलात्कार की घटना नहीं होती?…

‘इसी तालाब की बात कर रहे थे न तुम?’ वह बोला था, ‘लगता तो अच्छा है।’

‘यह सबसे खूबसूरत पाइंट है यहाँ का। दूर तक दीखता तालाब समुद्र का आभास देता है। यह उधर शामला हिल है। वहाँ सूने पत्थर के ऊपर घंटों बैठा रहा जा सकता है। पहाड़ी बड़ी खूबसूरत है, रात को आसपास की बत्तियाँ इसमें झांकती रहती हैं और…।’ मैं सहसा रुक गया क्योंकि मैंने उसके चेहरे की तरफ देख लिया था। मेरी इच्छा हो रही थी कि झील और नावों और कमलपत्तों और सजी हुई बादियों के बारे में दो-चार शेर सुनाऊं और इसे मुग्ध कर दूँ लेकिन वह कहीं खो गया था। मैं फिर भी बोला, ‘मैं इसे तालाब नहीं कहता, झील ही कहता हूँ।’ वह फिर हँस दिया, ‘और मैं बंबई के समुद्र को तालाब कहता हूँ। केवल जुहू पर और वह भी पूनम की रात, उठते हुए ज्वार में लगता है कि समुद्र भी कोई हस्ती रखता है। समुद्र के नाम से तो शरब के नशे में चूर किसी पंजाबी लड़की का ख्याल आता है…।’ फिर उसने ठंडी साँसें छोड़कर कहा, ‘लेकिन समुद्र भी क्या करे, बेचारा ड्राय एरिया में फँस गया।’ तभी ब्रेंक लगने की खिंची और कसी हुई आवाज ने हमें चौंका दिया-एक पैदल चलती लड़की गिर गई थी और ट्रक वाले ने ब्रेक लगा दिया था। लड़की से ट्रक केवल एक इंच की दूरी पर रुका था। वह लड़की को गिरते देख दौड़ पड़ा और घटनास्थल पर पहुँच गया। ड्राइवर हक्का-बक्का हो गया था और दो-चार लोग इक्ट्ठे हो गए थे। लड़की घबरा जाने से गिर गई थी। वह उठ खड़ी हुई और सलवार पर से धूल झाड़ने लगी। उसने ड्राइवर को खरी-खोटी सुनाई और लड़की की तरफ घूम गया, ‘चोट तो नहीं आई आपको? गलती इस ड्राइवर की है, आप तो लैफ्ट से जा रही थीं वही राइट की तरफ रूख करके ड्राइव कर रहा था।’

उस घटना ने वह भुला दिया कि हम झील के दर्पन किनारे खड़े हैं और दुलहन बनी पहाड़ियाँ दर्पन में झांक-झांककर नीली ओढ़नी को सिर पर रख रही हैं…

मैं ट्रक तक दौड़कर जाने में हाँफ गया था लेकिन मेरे दोस्त की कनपटी पर जो पीलापन सोया हुआ था उसी में से एक हरी मछली ऊपर उछल आई थी और सतह पर तैर रही थी। वह तैर रही थी और उसके पंख काँप रहे थे।

एक शाम फ्लावर-शो था। उतरती जनवरी और सीजनल फूलों का बसंती मौसम। पिछले साल एस्टर को पहला इनाम मिला था। बड़े सूरजमुखी जैसे आकार का एस्टर और एक ही पौधे में कुल जमा अड़तालीस फूल। हलका मोतिया रंग और पत्ते नाम को नहीं। मैंने सोचा मजे में कटेगी शाम, तो उस साथ ले लिया। यूँ प्रदर्शनी काफी बड़ी थी लेकिन उसने पाँच मिनट में सारा राउंड ले लिया। मैं पुरस्कार मिले पैंजी वाले गमले के सामने खड़ा था- काले रंग की पैंजी ऐसा काला रंग पैंजी में कहाँ मिलता है और हर फूल बड़ी तितली के आकार का। फूल मेरी कमजोरी है-रंग, गंध, रूप किसी में भी गले तक डूबते मुझे देर नहीं लगती। वह शायद मेरी इस हरकत को देख रहा था सो मेरे कंधे पर हाथ रख उसने मुझे डूबने से बचा लिया, ‘वो देखो!’ देखने को कुछ नहीं था-एक लड़की नकाब उलटे फूलों को देखती चली जा रही थी। पूछा मैंने, ‘कोई परिचित है?’ उसने कोई उत्तर नहीं दिया लेकिन मुझे अपने साथ घसीट लिया, ‘आओ तो, इसे जरा फालों करेंगे।’ …उससे कुछ ही गज की दूरी पर हम दोनों चल रहे थे। वह रुकती तो हम रुक जाते, वह चलती तो हम भी चलने लगते।

‘कुछ आया समझ में?’ उसी ने पूछा मुझसे।

मैं हँस भर दिया, ‘लड़की तो अच्छी है।’

‘नहीं। ये नहीं पूछ रहा था। वह बोला, ‘वह जो काली पैंट वाला आदमी है, वह उसके पीछे लगा हुआ है। यह तो साफ हे कि इन दोनों का कोई रिश्ता नहीं है आपस में, लेकिन वह जानता जरूर है इसे!’

फिर उसने फूल देख चुकने पर नकाब डाल दिया और शहर की तरफ चल दी। काले पैंट वाला उसने नजदीक पहुँच गया। ऐसा लगा जैसे पीछे जाते में कोई बात हुई हो। लड़की ने किसी बात के लिए मना कर दिया था काले पैंट वाला जेबों में दोनों हाथ ठूँस एक मिनट कुछ तमत माया-सा खड़ा रहा फिर तीर की तरह लपककर नकाबपोश के पास पहुँच गया। फिर छोटी-सी कोई बात हुई और वह जैसे राजी हो गईं गुजरते हुए एक ताँगे को रोककर वे दोनों उसमें बैठ गए।

‘देक्खा!’ उसने मेरे कंधे पर एक धौल जमा दिया। मैंने देखा उसकी कनपटी पर वह हरी मछली फिर उछल आई थी ओर पानी की सतह पर तैर रही थी।

उसने अपनी बीबी को मायके भेज दिया था और उन दिनों अकेला था। वह कुछ बोलता तो यही, ‘बड़ा डल चल रहा है। कहीं कुछ होता ही नहीं। मेरा तो ख्याल है कि दुनिया घूमते-घूमते अपनी धुरी पर कुछ समय के लिए रुक गई है जैसे! अखबार में योजना-फाजना की बातें छपती रहती हैं और सड़कों पर बसें चलती रहती हैं और ऑफिस इतना मरियल है कि सब लोग ममी लगते हैं वहाँ। कोई बात पैदा हो इसलिए एक टाइपिस्ट को मैंने कल छू दिया था-वह नाराज हो जाती, चिल्ला देती, मुझे पीट देती लेकिन कुछ नहीं हुआ। हें-हें करके हँस दी जैसे मेरे ही लिए क्वांरी बैठी थी।’

‘तुम उठो तो, चलो कहीं चलेंगे।’ मैंने उसे उठा दिया।

‘न हो तो कोई अच्छे किस्म का ठर्रा ही पिएँ यार।’ वह मेरे साथ था, ‘तुम तो गधे हो साले, शराब में भी रंग और स्वाद देखते हो। ठेठ ठर्रे का ठाठ हो तो ऐसा लगेगा जैसे समुद्र में नहा रहे हों। और तो और यहाँ ड्राय भी नहीं है। बंबई में रहता है पीने का मजा। छिपकर किसी गली में से गली में जाते हैं, फिर किसी घर के अंदर घर में दाखिल होते हैं, फिर दो-चार दरवाजे खुलते हैं, फिर एक घूँट में गिलास खाली करना होता है। मेरी सलाह है कि तुम साल छह महीने बंबई हो ओ तो तुम्हारा खून जरा पिघलेगा।’

चलते-चलते मैंने सोचा था कि जब भी मैं इससे आँखें उधार लेकर यहाँ की जिंदगी को देखता हूँ सब-कुछ रसहीन लगने लगता है। सबेरे से शाम तक का एक रूटीन है और हम लोग चुपचाप उसमें बैल की तरह खटते रहते हैं। …सबेरे नीद खुल जाती है-न तब कोई स्वप्न याद रहता है, न किसी नशे की खुमारी शेष होती है, न शरीर में कोई स्फूर्ति रहती है। जैसे सोते हैं वैसे के वैसे ही जग जाते हैं। वही पाजामा बांधे, वही कुरता पहने, वैसे ही बालों को जमाए हम उठ खड़े होते हैं। फिर चाय पी लेते हैं-एक प्याला या दो प्याला या ढाई प्याला। फिर अखबार देख लेते हैं – एक-दो उद्घाटन के समाचार, एक-दो शिकायतें, एक-दो लंबे भाषण, पुरानी फिल्मों के विज्ञापन। सच तो यह है कि अखबार को फेंक देने को जी चाहने लगता है। फिर नहा लेते हैं। फिर कोई से भी कपड़े पहन लेते हैं। फिर सप-सप खाना खा लेते हैं। फिर बस के लिए स्टाप पर खड़े हो जाते हैं। कई-कई चेहरे लेकिन सब एक जैसे, ईंट के ढेर हों जैसे-चपटे, चौरस चरखी में पिले हुए। वहाँ बस आसानी से मिल ही जाती है, आसानी से ऑफिस पहुँच ही जाते हैं। ऑफिस तो घड़ी है ही-साढ़े दस से साढ़े पाँच धीरे-धीरे बजते रहते हैं। फिर जैसा जाना था, वैसा ही आना होता है। आ गए घ। बच्चे हुए तो उनकी दुवाई ले आए। बूढ़े माँ-बाप हुए तो उनकी खाँसी सुनते रहे। क्वाँरे हुए तो नौ ही सो गए बीवी के चेहरे को तकते हुए छत और बीबी का चेहरा एक जैसा हो जाता है- सफेद, वर्गाकार, टिमटिम करते जीरो बल्ब और दो-चार छिपकलियों को समेटे। बच्चों की रीं-रीं, बूढ़ों की खें-खें और बीमार कुत्तों के भौंकने की आवाजें। सारा जीवन ऐसा लगता है जैसे बंद तालाब के किनारे गंदे पानी में पत्ते सड़ रहे हों। या तो एक दुर्गंध शामियाने की तरह तनी रहती है या फिर कोई कराह फर्श की तरह बिछी रहती है।

उस आदमी की इतनी बड़ी सोहबत के बाद उस दिन ही मुझे अहसास हुआ था कि वाकई जिंदगी डल है। कहीं कुछ नहीं हो रहा है, एक कुहरे में हम लोग डूबे हुए हैं।

हम दोनों चले चल रहे थे। मैं कहीं खो गया था और वह चुप हो गया था। मैंने ही चुप्पी तोड़ी, ‘दोनों साथ चलते हुए भी चुप हो जाएँ तो यूँ लगता है जैसे शरीर से किसी ने सारा खून खींच लिया हो।’

‘तभी तो मैं शिकायत करता हूँ’- उसने कहा था, मैं जब बंबई से आया था तब अगर मेरा पोस्टमार्टम किया जाता न तो मेरे दिल में से डबलफास्ट इलेक्ट्रिक ट्रेन निकलती, मेरे खून में तुम्हें लिफ्ट से सातवीं मंजिल पर जाने की गर्मी महसूस होती, मेरे फेफड़ों में पूनम का समुद्र सिर पटकता दिखता, मेरी सोई हुई आँखों में गेट-वे ऑफ इंडिया के लांच और ताजमहल के परदेशी दिखते, मेरे कान के परदे किसी फास्ट ट्यून से फट गए पाए जाते…!’

‘और तुम्हारे दिमाग में से क्या निकलता?’ मैंने प्रश्न पूछकर उसे रोक दिया था।

‘मेरी खोपड़ी बीच अम्ब्रेला की तरह टँगी होती और उसकी छाँह में कोई ब्लाँडी नहाने के बाद काला चश्मा लगाए लेटी होती।’ उसकी हँसी में मेरी हँसी जुड़ गई थी और लगा जैसे कुहरा कुछ तो कटा है।

‘और यहाँ क्या है?’ उसका वही उदास वाक्य आती हुई बस की धूल में खो गया… डिब्बे-के-डिब्बे मकान, डिब्बे में तंदूरी गोश्त सरीखे परिवार, खूब लंबी और लंबी सड़कें एकदम सुनसान। कहीं किनारे एक पेड़, कहीं दो पेड़, बहत हुए तो तीन पेड़। फुर्र से बस गुजर जाती है – धूल उठती है और बैठ जाती है। बसों का एक जैसा नीला और नीला कच्च रंग, खुड़-खुड़ करते ताँगे, खड़-खड़ करती साइकिलें, ईटनुमा चेहरे। एक पहाड़ी जैसे सो रही है, दूसरी पहाड़ी जैसे बेवा हो गई है, तीसरी पहाड़ी जैसे इसका मर्द बीमार है। एक छोटा तालाब जैसे रो चुका है, एक बड़ा तालाब जैसे रोने को है। बाजार जैसे साल भर में आज ही लगा है, बाजार की चीजें जैसे किसी कबाड़ी ने बटोरी हैं। यहाँ के निवासी ऐसे लगते हैं जैसे तालाब में किसी ने अंडे दिए थे और उनमें से सब पैदा हुए है, अभी-अभी अंडा फूटा है और सफेद झिल्ली में से चें-चें कर सब बाहर आ रहे हैं। परदेशी ऐसे हैं जैसे इस झूले में ऊपर से बरसे हैं और अब रेंग-रेंगकर दीवार पर चढ़ रहे हैं।…

‘मुझे वह बात ठीक लगती है। केवल तुम मिलाने के लिए ही वह शब्द नहीं आया है – ‘उसने कहा था’ – जहाँ खाने के लिए जर्दा, साँस लेने के लिए गर्दा, प्यार करने के लिए पर्दा तकदीर में लिखा हो वहाँ का मर्द जरूर ताजिया हो जाएगा या हुसैन।’ वह हँसा तब तक हम लोग कॉफी-हाउस जा पहुँचे थे।

मैंने पूछा, ‘अच्‍छा अब अगर तुम्हारा पोस्टमार्टम हो तो…?’

‘अब मेरे खून में से बड़े तालाब का पानी निकलेगा और उस पानी में नहाती हुई भैसें नजर आएँगी।’ वह हँस जरूर रहा था लेकिन हरी मछली कहीं चली गई थी-केवल एक पीला रंग था चेहरे पर जो कभी सिकुड़ जाता और कभी फैल जाता था।

ऐन सबेरे आकर उसने मुझे आवाज मारी।

‘सुना?’

‘क्या?’ मेरी आँखें ठीक से खुली ही नहीं थीं।

‘कैनेडी को गोली मार दी गई-टेक्सास के डलस में। मैं कहता हूँ वर्ल्ड की यह सबसे बड़ी खबर है। गोली प्रेसीडेंट को और वह भी अमरीका में! कहीं ऐसा न हो कि साउथ और नार्थ में बाकायदा युद्ध शुरू हो जाए।’ वह बोले जा रहा था, ‘खबर पढ़ी तब से मैं बेचैन हूँ कि आखिर गोली किसने मारी होगी?’

कैनेडी वाला समाचार उसके लिए किसी भी जासूसी खबर से कम थ्रीलिंग नहीं था। वह इतना उत्तेजित था कि ठीक से बैठ भी नहीं पा रहा था। उसने कई अंदाज लगाए – ‘हो सकता है सबीक मिली हुई साजिश हो यह, या यह भी हो सकता है कि एक ग्रुप ने ही यह सब करवाया हो लेकिन वह पकड़ा जरूर जाएगा, बच नहीं सकता।’ फिर कुछ देर बाद ही पता लग गया कि ओसवाल्ड को गिरफ्तार कर लिया गया है तो उसका दिमाग फिर एक नई दिशा में दौड़ने लगा, ‘होता यह है कि बड़ा खूनी अपने किए का परिणाम जरूर जानता है। अगर वह असली खूनी होता तो जरूर अपने को ही पिस्तौल मार लेता… बात कुछ और होना चाहिए।’ फिर जब पता लगा कि रूबी ने ओसवाल्ड को फँसता देख उसे बचा लिया होगा यानी इस भव-बाधा से छुट्टी दिला दी। या यह भी हो सकता है कि कैनेडी का हत्यारा कभी नहीं पकड़ा जाए…!’

सबेरे-दुपहर-शाम हर समय वह सोचता रहता कि बात क्या हुई होगी। एक दिन तो बोला, ‘मुझे लगता यह है कि उस ड्राइवर की पत्नी से ओसवाल्ड के गलत संबंध थे और उसकी पत्नी की सजिश से ही वह उस ड्राइवर को विदा कर देना चाहता था। यानी मारना चाहता था ड्राइवर को और मर गए कैनेडी…!’

उसका चेहरा तना हुआ था और मैंने देखा कि उस ऐन सबेरे से अब तक उसकी कनपटी पर वह हरी मछली ऐसे जमकर बैठी है जैसे किसी ने उसे आलपिन से टाँक दिया हो।

मैंने उसे खुद ही स्टोव में पंप करते देखा तो पूछा, ‘क्या बात है, कहाँ गया नौकर तुम्हारा?’

‘साला भाग गया या यूँ समझ लो मैंने भगा दिया।’ वह यह कहते बड़ा प्रसन्न था।

‘ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं?’ मैंने दुबारा पूछा।

‘हो न सकें, लेकिन हुई हैं एक साथ ही।’ उसने स्टोव पर चाय के लिए पानी चढ़ा दिा और लगा सुनाने, ‘मेरा नौकर था तो हरकती हीं सामने वाले की बरौनी को देखा करता था हमेशा। मैंने इस बात को भाँप लिया था। सोचा अगर यह मोहब्बत तूल पकड़े तो जरा रोशनी रहेगी ही। मैंने नौकर से सब बातें पूछीं तो वह यह कह मरा कि हाँ बाबूजी, दिल तो मेरा उस बरौनी के आगे-पीछे ही घूम करता है। – यूँ वो बरौनी ही नाक-नक्शे की अच्छी और ऊपर से फूटती हुई जवानी, …मैंने अपने नौकर को एक लव-लेटर लिखवा दिया। वही सब बातें मेरे दिल की रानी, मेरे सपनों की मलिका वगैरा-वगैरा और यह भी जुड़वा दिया कि मेरी मोहब्बत के बरतन जूठे पड़े हैं दिल के आँगन में, आकर इनको माँज दे। …मैं समझा ये था कि जरा शगल रहेगा उस पत्र-व्यवहार से लेकिन बरौनी रानी अपढ़ निकलीं। चिट्ठी ले जाकर उसने अपने मालिक को दे दी और डंडे लेकर दो-चार लोग आ गए। क्या करता मैं, उस नौकर को भगा दिया मैंने पीछे के दरवाजे से…।’ पानी उबल गया था और वही हरी मछली नाचने लगी थी।

तपमान भी नहीं बदलता कि एक तारीख को दूसरी से अलग करके देखा जा सके। चाय के प्याले हमारे सामने होते और वह रस ले-लेकर किस्से सुनाता…

‘बात मलाबार की है। वह भी एक पहाड़ी है लेकिन ऐसी बुर्के वाली नहीं, फूलों वाला शर्ट पहने रहती है। नीचे उतरने को कई टेढे़-मेढ़े रास्ते हैं वहाँ। जाने क्या घटना हुई थी कि मैं बड़ी उत्तेजना में था मस्त, सीटी बजाता हुआ पगडंडियों पर से नीचे लुढ़क रहा था। शाम का समय था वह। उसी समय सीसा सुनाई दी। मैंने जो घूमकर देखा तो दोनों खड़े हो गए। एक तो मेरी इच्छा हुई कि दोनों को धमकी दूँ लेकिन आदमी की आँखें बड़ी जाहिल थीं सो थोड़ा डर गया। मैं कुछ कहूँ इससे पहले वही बोल दिया, ‘क्या बात है रे?’ जरूरी यह था कि मैं ‘कुछ नहीं’ कहकर चल देता या फिर और भी तेज आवाज में उसे डाँट देता लेकिन उस समय मुझे नहीं सूझा और मैं भौंचक खड़ा रह गया। बात की बात में उसने मुझे कसकर एक घूँसा जमाया। मैं जान छोड़कर भागा लेकिन नीचे आकर देखा कि मेरी कमर पर खून है। उसने चाकू मारा था…’ फिर उसने बुश्शर्ट ऊँचा करके कमर पर बना चाकू का घाव बतलाया था।

‘और एक बार भैया मैं लेखकों-फेखकों के बीच फँस गया। एक कोई कवि बड़ी ऊँचाई पर पहुँ रहा था। उसके ऊँचाई पर पहुँचने का राज यह था कि वह बड़ी ओरिजनल मूर्खता किया करता था! कह देता-जिस कहानी में मुक्त संभोग का वर्णन होगा वही आज जीवित रहेगी। जिस नारी के चार से ज्यादा प्रेमी होंगे वही सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत कर सकती है। जो कवि अनिवार्य रूप से अविवाहित है और शाब्दिक वासना या अस्वाभाविक व्यभिचार में बिलीव करता है वही आज के युग के फ्रस्ट्रेशन को जबान दे सकता है और वही महान कवि है। …दोस्तों ने तय यह किया कि इसकी पिटाई हो जाए। मेरा खून तत्काल खौलने लगा। मैंने एक स्वर्गीय कवि के नाम से इसकी एक कविता छपवा दी। अब साहब हंगामा मचा कि यह कविता किसकी है? मैंने स्वर्गीय कवि की डायरी में से इसकी कविता निकाल दी और बड़ी सफाई से इस ओरिजल थिंकर को चोर साबित कर दिया।…’ किस्सा सुनाते-सुनाते उसका चेहरा फड़क रहा था।

‘एक और मजेदार किस्सा ये हुआ कि माटुंगा में मेरा ए दोस्ता रहता था। छोटा-सा परिवार था। उसकी बीवी को टी.बी. थी। सारी जिंदगी बीमारी से भार हुए जा रही थी। चिड़चिड़ा स्वभाव हो गया था और वह आत्महत्या तक की बात सोचने लगा था। एक दिन गुस्से में वह बीवी को पीठ बैठा। वह टी.बी. की थर्ड स्टेज पर थी और यूँ ही एक-पसली रह गई थी। बीवी बेहोश हुई और वह डॉक्टर ले आया। डॉक्टर समझ गया कि इसने इसको पीटा है और इसी से यह सिंक हो रही है। दो-एक घंटे में उसकी बीवी चल बसी। डॉक्टर गले पड़ गया कि इसका पोस्टमार्टम होगा पहले, इसको तो तुमने मार डाला है। वह दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया। उस डॉक्टर का मुँह इतना ज्यादा फटा हुआ था कि मैंने पाँच सौ डाल दिए फिर भी खुला का खुला। जैसे-तैसे दो सौ और डाले तब वह डॉक्टर चुप हुआ मेरा वह दोस्त फें-फें कर भावुक होकर रोने लगा कि हाय, मैंने चाँटा मारा और तू मर गई… मैंने कहा इस तरह रोना ही है तो पाखाने में जाकर रो, और क्यों डॉक्टर का मुँह खुलवाता है।…’ उसने जब किस्सा खत्म किया तो वही प्यारी-सी हरी मछली कनपटी पर आ बैठी थी जैसे खूब खुश हो!’

एक दिन सबेरे-सबेरे उसने मुझे पुकारा, ‘यार, इस कुहरे को काटने की एक तरकीब सोची है।’ वह बड़े उत्साह में था जैसे कोई दूर की कौड़ी लेकर आया हो। बोला-‘बीवी काखत आया है कि वह मायके में बड़ी मौज में है, उसकी दोनों बहनें भी वहाँ आ गई हैं और मुझे वहाँ बुलाया है।’

‘तो तुम चले जाओ आज ही। वहाँ की डलनेस से थोड़ी राहत तो मिलगी ही।’ मैंने सुझाया।

‘हटाव यार! ससुराल को तो मैं बोरडम का दलदल समझता हूँ। मेरी रूह भी वहाँ नहीं जाएगी।’ इतना कहते उसने जेब से एक पोस्टकार्ड निकाला और पेन मेरे हाथ में दे दिया, ‘मेरी बीवी यह तो जानती है कि हम दोनों नजदीकी दोस्त हैं, उसका तुम पर भरोसा भी है, तो एक खत लिख दो –

‘लिखना कि – आदरणीय या पूज्य या जो भी ठीक समझो-भाभी जी…’ वह बेहद गंभीर होकर बोल रहा था, ‘मैं बड़े दुख के साथ आपको यह सूचित कर रहा हूँ कि कल भैया ऑफिस से लौटते हुए एक ट्रक की चपेट में आ गए। उनका एक हाथ और एक पैर टूट चुका है, वे तब से ही बेहोश हैं …’

मैंने उसकी तरफ घूरकर देखा, ‘यह सब मैं क्यों लिखूँ? इन सब झूठी बातों का क्या मतलब? तुम्हारा वाकई एक्सीडेंट हो जाए तब भी मैं तो ऐसा खत नहीं लिख सकता। भाभीजी बेचारी घबरा नहीं जाएँगी इससे?’

‘घबराए नहीं इसीलिए तो मैं केवल एक्सीडेंट की बात लिखवा रहा हूँ नहीं तो सीधे एक्सपायर्ड का तार करवा देता तुमसे।’

‘मैं कुछ भी नहीं कर सकता। न तार कर सकता हूँ न पोस्टकार्ड ही लिख सकता हूँ।’ मैंने उसे पोस्टकार्ड लौटा दिया।

‘यार जरा शगल रहेगा।’

‘तुम्हारे शगल की…।’ एक आंचलिक गाली दी मैंने उसे-‘समझ में नहीं आता कि ओढ़ी हुई उत्तेजना ही तुम्हें क्यों पसंद है…!’

यह कहता हुआ कि मैं निहायत घटिया और बोर किस्म का आदमी हूँ वह चला गया। जाते-जाते यह भी कह गया कि गालिब ने जिन हजार लोगों की चर्चा की है उनमें से एक मैं भी हूँ।

उसके दूसरे दिन की बात है। मैं चाय पीकर अखबार की प्रतीक्षा कर रहा था कि हॉर्न सुनाई दिया। इतने सबेरे उसके सिवाय कोई और नहीं आता मेरे घर। सोच रहा था पता नहीं यह टैक्सी में बैठाकर कहाँ ले जाएगा कि रोती-बिसूरती भाभी जी मेरे सामने आ खड़ी हुईं। घबराई हुई बोलीं, ‘क्या हुआ भैया, कैसे हो गया यह एक्सीडेंट? हमें तो जब से तार मिला है हम बेहद परेशान हैं, बताओ कौन-से अस्पताल में हैं, तुम अभी साथ ही चले चलो भैया।’

‘घबराइए नहीं भाभीजी…।’ पहले तो मेरी इच्छा हुई कि इन्हें ही डाँट दूँ – जो अपने पति की ठर्रेबाज आदतों को ठीक से नहीं जानती, फिर यह सोच-कर कि ये घबराई हुई हैं और मुझे नम्रता ही दिखानी चाहिए मैं उनके साथ जाने को एकदम तैयार हो गया। पता लगा कि वे स्टेशन से सीधी यहाँ आ गई हैं और घर की चाबी मिल जाए तो पहले सामान घर पटक दें। टैक्सी बढ़ी ही थी कि मोड़ पर मुझे वह दिख गया। मैंने टैक्सी रुकवा ली। वह एक गली की तरफ मुँह किए खड़ा था और सिगरेट फूँक रहा था। मैंने और गौर से देखा तो पता लगा कि गली में दो मुर्गे लड़ रहे हें-एक सफेद मुर्गे पर बुरी तरह टूट रहा है, मुर्गे की चोंच लहूलुहान हो गई है और सफेद मुर्गे की गरदन से सारे बाल झर गए हैं।

मैं टैक्सी से उतरा तब तक भाभीजी ने देख ही लिया, ‘अरे, वे तो वो खड़े।’

‘हाँ, वही हैं।’ मेरे यह कहने से बेचारी परेशान हो गईं और जाने क्या बोलती खुद भी टैक्सी से उतर आईं।

जब सफेद मुर्गा बुरी तरह पिटकर भागा और लाल ने उसका पीछा किया तो उससे आँखें मिलीं।

पत्नी को देखते ही वह बोला, ‘गजब हो गया।’ उसका चेहरा खिला था, मैं समझा था सफेद मुर्गा लाल वाले को पीट देगा लेकिन हो गया उल्टा।’ …उसकी आँखें, पिटकर भागते हुए मुर्गे का पीछा कर रही थीं।

मैंने धर आकर आइने में देखा था – ठीक वैसी की वैसी एक हरी मछली मेरी कनपटी पर भी उछल आई है, उसके पंख हिल रहे हैं, वह तैर रही है।

Download PDF (हरी मछली के खेल )

हरी मछली के खेल – Hari Machhali Ke Khel

Download PDF: Hari Machhali Ke Khel in Hindi PDF

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *