हरा-लैंस | मुकुट सक्सेना
हरा-लैंस | मुकुट सक्सेना

हरा-लैंस | मुकुट सक्सेना

हरा-लैंस | मुकुट सक्सेना

चंदन बन में आग लगाकर
हम सुगंध में डूबे हैं
अपनी ही जड़ काट रहे हैं
जाने क्या मंसूबे हैं

सरिताओं की स्वासें टूटी
प्राण गए शैवालों के
धँसी रेत में शंख, सीपियाँ
तल दरके हैं तालों के
पनघट तरसे बूँद-बूँद को
पंछी छाया को तरसे
शनैः-शनैः निःशेष हो रहे
जल, थल, नभचर ऊबे हैं।

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अब करील की कुंजें सपने
कंकरीट के जंगल हैं
था प्रकृति के हाथों मंगल
अपने हाथ अमंगल हैं
तार-तार ओजोन हो गई
और प्रदूषित दिशा-दिशा
फिर भी हरा लैंस पहने हम
कितने बड़े अजूबे हैं

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