हम दीप जलाते हैं | राजेंद्र गौतम
हम दीप जलाते हैं | राजेंद्र गौतम

हम दीप जलाते हैं | राजेंद्र गौतम

हम दीप जलाते हैं | राजेंद्र गौतम

यह रोड़े-कंकड़-सा जो कुछ अटपटा सुनाते हैं
गीतों की इससे नई एक हम सड़क बनाते हैं।

फिर सुविधाओं के रथ पर चढ़कर
आएँ आप मजे से
फिर जयजयकारों के मुखड़े हों
दोनों ओर सजे से
हम टायर के जूतों-से छीजे संवेदन पहने हैं
आक्रोशी मुद्रा-तारकोल भी हमीं बिछाते हैं।

हम हैं कविता के राजपथिक कब ?
हम तो अंत्यज हैं
स्वागत में रोज बिछा करते हैं
हम केवल रज हैं
लेकिन जितना भी डामर है इस पथ पर बिछा हुआ
खुद रक्त-स्वेद अपना ही इसमें रोज मिलाते हैं।

हम जिन हाथों को किए हुए हैं
पीछे सकुचा कर
इनकी रिसती अंगुलियों ने ही
तोड़े हैं पत्थर
तुम तो बैठे हो मुक्त गद्य की मीनारों पर जाकर
पर झोपड़ियों में छंदों के हम दीप जलाते हैं।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *