हलफनामा : कविता के दक्खिन टोले से | अशोक कुमार पाण्डेय
हलफनामा : कविता के दक्खिन टोले से | अशोक कुमार पाण्डेय

हलफनामा : कविता के दक्खिन टोले से | अशोक कुमार पाण्डेय

हलफनामा : कविता के दक्खिन टोले से | अशोक कुमार पाण्डेय

एक

कत्ल की उस सर्द अँधेरी रात
हसन-हुसैन की याद में छलनी सीनों के करुण विलापों के बीच
जिस अनाम गाँव में जन्मा मैं
किसी शेषनाग के फन का सहारा हासिल नहीं था उसे
किसी देव की जटा से नहीं निकली थी उसके पास से बहने वाली नदी
किसी राजा का कोई सिंहासन दफन नहीं था उसकी मिट्टी में
यहाँ तक कि किसी गिरमिटिए ने भी कभी लौटकर नहीं तलाशीं उस धरती में अपनी जड़ें

कहने को कुछ बुजुर्ग कहते थे कि
गुजरा था वहाँ से फाह्यान और कार्तिक पूर्णिमा के मेले का जिक्र था उसके यात्रा विवरणों में
लेकिन न उनमें से किसी ने पढ़ी थी वह किताब
न उसे पढ़ते हुए कहीं मुझे मिला कोई जिक्र

इस कदर नाराजगी इतिहास की
कि कमबख्त इमरजेंसी भी लगी तो मेरे जन्म के छह महीने बाद
वैसे धोखा तो जन्म के दिन से ही शुरू हो गया था
दो दिन बाद जन्मता तो लाल किले पर समारोह का भ्रम पाल सकता था
इस तरह जल्दबाजी मिली विरासत में
और इतिहास बनने से चुक जाने की नियति भी…।

दो

वह टूटने का दौर था
पिछली सदी के जतन से गढ़े मुजस्सिमों और इस सदी के तमाम भ्रमों के टूटने का दौर

कितना कुछ टूटा

अयोध्या में एक मस्जिद टूटने के बहुत पहले इलाहाबाद रेडियो स्टेशन के किसी गलियारे में जवान रसूलन बाई की आदमकद तस्वीर के सामने चूड़िहारन रसूलन बाई खड़े-खड़े टूट रही थीं। सिद्धेश्वरी तब तक देवी बन चुकीं थी और रसूलन बाई की बाई रहीं।

यह प्यासा के बाद और गोधरा के पहले का वाकया है…

बारह साल जेल में रहकर लौटे श्याम बिहारी त्रिपाठी खंडहर में तब्दील होते अपने घर से निकल साइकल से ‘लोक लहर’ बाँटते हुए चाय की दुकान पर हमसे कह रहे थे ‘हम तो हार कर फिर लौट आए उसी पार्टी में, तुम लोगों की उम्र है, हारना मत बच्चा कामरेड…। और हम उदास हाथ उनके हाथों में दिए मुस्करा रहे थे।

यह नक्सलबारी के बाद और सोवियत संघ के बिखरने के ठीक पहले का वाकया है…

इस टूटने के बीच
हम कुछ बनाने को बजिद थे
हमारी आँखों में कुछ जाले थे
हमारे होठों पर कुछ अस्पष्ट बुद्बुदाहटें थीं

और तिलंगाना से नक्सलबारी होते हुए हमारे कंधों पर सवार इतिहास का एक रोशन पन्ना था जिसकी पूरी देह पर हार और उम्मीद के जुड़वा अक्षर छपे थे। सात रंग का समाजवाद था जो अपना पूरा चक्र घूमने के बाद सफेद हो चुका था। एक और क्रांति थी संसद भवन के भीतर सतमासे शिशु की तरह दम तोड़ती। इन सबके बीच एक फिल्म थी इन्कलाब जिसका नायक तीन घंटों में दुनिया बदलने के तमाम कामयाब नुस्खों से गुजरता हुआ नाचते-गाते संसद के गलियारों तक पहुँच चुका था।

एक और धारावाहिक था जिसे रोका रखा गया कई महीनों कि उसके नायक के सिर का गंजा हिस्सा बिल्कुल उस नेता से मिलता था जिसने हिमालय की बर्फ में बेजान पड़ी एक तोप को उत्तर प्रदेश के उस इंटर कालेज के मैदान में ला खड़ा किया था जिसमें अपने कंधों से ट्रालियाँ खींचते हम दोस्तों ने पहली बार परिवर्तन का वर्जित फल चखा था। वह हमारे बिल्कुल करीब था… इतना कि उस रात उसकी छायाएँ हमसे गलबहियाँ कर रहीं थीं और हम एक फकीर को राजा में तब्दील होते हुए देख रहे थे जैसे तहरीर को तस्वीर होते देखा हमने वर्षों बाद…।

See also  बँगले में | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

तीन

फिर एक रोज हास्टल के अध-अँधेरे कमरे में अपनी पहली शराबें पीते हुए हमने याद किया उन दिनों को जब अठारह से पहले ही नकली नामों से उँगलियों में नीले दाग लगवाए हमने और फिर भावुक हुए… रोए… चीखे… चिल्लाए… और कितनी-कितनी रातों सो नहीं पाए…

वे जागते रहने के बरस थे
जो बदल रहा था वह कहीं गहरे हमारे भीतर भी था
बेस्वाद कोका कोला की पहली बोतलें पीते
हम एक साथ गर्वोन्नत और शर्मिंदा थे

जब अर्थशास्त्र की कक्षा में पहली बार पूछा किसी ने विनिवेश का मतलब
तो तीसेक साल पुराने रजिस्टर के पन्ने अभिशप्त आत्मा की तरह फड़फड़ाए एकबारगी
और फिर दफन हो गए कहीं अपने ही भीतर

पुराने पन्ने पौराणिक पंक्षी नहीं होते
उनकी राख में आग भी नहीं रहती देर तक
झाड़ू के चंद अनमने तानों से बिखर जाते हैं हमेशा के लिए
वे बिखरे तो बिखर गया कितना कुछ भीतर-बाहर…।

और बिखरने का मतलब हमेशा मोतियों की माला का बिखरना नहीं होता न ही किसी पेशानी पर बिखर जाना जुल्फों का टूटे थर्मामीटर से बिखरते पारे जैसा भी बिखरता है बहुत कुछ।

See also  मनुष्यों की तरह | नरेश सक्सेना

चार

सब कुछ बदल रहा था इतनी तेजी से
कि अकसर रात को देखे सपने भोर होते-होते बदल जाते थे
और कई बार दोपहर होते-होते हम खिलाफ खड़े होते उनके
हम जवाबों की तलाश में भटक रहे थे
सड़कों पर, किताबों में, कविताओं में
और जवाब जो थे वे बस सिगरेट के फिल्टर की तरह
बहुत थोड़ी सी गर्द साफ करते हुए…
और बहुत सारा जहर भीतर भरते हुए हम नीलकंठ हुए जा रहे थे …

इतना जहर लिए हमें पार करनी थी उम्र की दहलीज
जहाँ प्रेम था हमारे इंतजार में
जहाँ एक नई दुनिया थी अपने तमाम जबड़े फैलाए
जहाँ बनिए की दुकान थी, सिगरेट के उधार थे
जरूरतों का सौदा बिछाए अनगिनत बाजार थे
हमें गुजरना था वहाँ से और खरीदार भी होना था
इन्हीं वक्तों में हमें नींद ए बेख्वाब भी सोना था

और फिर …उजाड़ दफ्तरों में बिकी हमारी प्रतिभाएँ
अखबारों के पन्ने काले करते उड़े हमारे बालों के रंग

वह जहर ही था हमारी आत्मा का अमृत
वह जहर ही था नारों की शक्ल में गूँजता हमारे भीतर कहीं
वह जहर ही था किसी दंतेवाड़ा के साथ धधक उठता
वह जहर ही था किसी सीमा आजाद के साथ उदास
वह जहर ही था कविताओं की शक्ल में उतरता हमारी आँखों से

See also  पूर्व प्रेमिकाएँ | घनश्याम कुमार देवांश

पाँच

हाँ, हम लगभग अभिशप्त हुए कवि होते जाने को। आजादी की तलाश में हम एक ऐसी दुनिया में आए जहाँ एक बहुत पुराना गाँव रहता था अपनी पूरी आन-बान के साथ। ढेर सारे कुल-कुनबे थे और चली ही आ रही थी उनकी रीत। आलोचक थे, संपादक थे, निर्णायक थे, विभागाध्यक्ष थे, पीठाध्यक्ष थे और इन पंच परमेश्वरों के सम्मुख हाथ जोड़े सर्वहारा कवियों की एक पूरी जमात जिनका सब कुछ हरने के बाद उन्हें पुरस्कार दे दिए जाते थे। पंचों की आलोचना वर्जित रीत थी और मौत से कम किसी सजा का प्रावधान नहीं था उस अलिखित संविधान में। हैरान आँखों से देखते-समझते सब हम जा बसे दक्खिन टोले में।

छह

और
पूरा हुआ जीवन का एक चक्र
खुद को छलते हुए खुद की ही जादूगरी से
बीस से चालीस के हुए और अब शराब के खुमार में भी नहीं आते आँसू
डर लगता है कि कहीं किसी रोज कह ही न बैठें किसी से
कि ऐसे ही चलती रही है दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी
और…
और जोर-जोर से कहने लगते हैं
बदलती ही रही है दुनिया और बदलती रहेगी…

Leave a comment

Leave a Reply