बड़े तालाब के किनारे लिसोड़े के अंगूर गुच्छे खूब फले थे। हरे पीले रंग के गुच्छे। थोड़ी ही दूर पर जंगल जलेबियाँ पेड़ों पर लदी थीं। पूरे माहौल में धानी रंग की खूशबू भरी थी। उसे वो वहीं कहीं ढूँढ़ती रहती थी

अकेले भटकने का तो उसे रोग लग गया था। कहाँ किसी की सुननी थी। उसे तो सनक लगी थी किसी से मिलने की। किसी रंग में कितना पीला कितना लाल मिला है सब दिखता है उसको। बड़े तालाब के पास बेहया के पेड़ों के बैंगनी फूलों से भी उसको खूशबू आती थी। कभी कभी लगता है कि उसे हर रंग का स्वाद पता है। वो दूब चबा के भी देख चुकी थी। रात में झींगुर की झन झन के साथ जुगनुओं की बारिश होने लगती है वहाँ। तालाब के पास तारों की बारिश देख कर उसको लगता था कि वो वहीं बैठ जाए। ऐसा उसके साथ तब से हुआ जब से वो गूलर की गप में पड़ी। घना हल्का सा ओंदा विशाल गूलर का पेड़। उसके पोर पोर में नन्हीं बूँदें बसीं थी। वो पूरी दोपहर गूलर बटोरती रहती थी। गूलर के नन्हें नन्हें फलों को फोड़ कर देखती रहती थी। तभी एक पका गूलर उस पर आ गिरा। उसमें से उड़ता भुनगा भनभनाने लगा। फिर क्या उसको और मजेदार काम मिल गया। वो गूलरों की सारी कोठरियाँ खोलने लगी। उसमें से उड़ते कीड़ों में गुम होने लगी।

दोपहर के वक्त हवा गरम होके खेतों से ऊपर उठने लगती है। गर्म बवंडर उसे हमेशा से चकरघिन्नी की तरह लगता था। कभी-कभी वो उसकी तरह गोल घूम के भी देखती थी। बाल में दुपहरिया के फूलों को लगा के वो खुद भी बवंडर की तरह लगने लगी थी। ये सब उसी गूलर की वजह से हुआ है।

किस्सा यूँ था कि गूलर के पेड़ और उसके अनदेखे फूल में उसकी दिलचस्पी दादी ने जगा दी थी। दादी बातें भी यूँ करती थी मानो तहखाने का दरवाजा खोल रही हो। जरा भी अफनाए या डरे तो बस समझो दरवाजा बंद।

“…गूलर का फूल जो देख ले उसका जीवन बन जाय…”

“तो क्या अब तक किसी ने नहीं देखा है…”

“ऐसे तो नाय ब देखा तो है…”

“त कहाँ कईसन रहा?”

बस तहखाने का दरवाजा खुल गया। दादी बोलने लगीं।

“हम दौरी भर गेहूँ लै के जाँत पीसत रहे जाँत गाढ़ चलत रहा। इतना आदमी के परिवार में घर में काम करई वाला कोई नहीं। हम भिनसारे उठते ही जाँता चलावै लागत रहे। एक ओरी महुआ चुअत रहा दूसरी ओरी हमार आस… हम गावत रहे कि रोवत का कही…

दो हुए के गए भसुरू, एक ओहै के आए हो ना…

भसुरू कहाँ छोड़ा लहुरा भइयवा हो ना,

कहवा ही मारा भसुरू, कहवा ढकेला होना भसुरू,

कौने विरक्ष ओटकौल हो ना…

भसुरू कौन नगरिया दफनौला हो ना”

फिर दादी इसका मतलब समझाने बैठ जाती थी।

“इसका मतलब न बताओ दादी फिर क्या हुआ?”

“…तबई चक्की हलुक चलई लाग। ऊ हमरे गोड़े (पैर) में गोड़ फँसाए गावइ लाग।

ऊँचवई मारे भौजी, खलवा ढकेले हो ना

भौजी वृक्ष बट पे ओटकौले हो ना…”

झूले की तरह एक पेंग तुम्हारा एक मेरा। श्रम से उपजा संतुलन और संगीत का लयबद्ध गान का ऐसा बखान दादी करने लगती कि लड़की को अपने पैर में लगी चोट की याद न रही।

“फिर क्या हुआ?”

“बादर गहरा गए और टूट के बरसने लगे। हम भाग के आँगन में ऊपला उठाने चले गए। फिर लौट के आए तो वो अछन्न। हम सोचे के कतऊ चली ग होई। हमार त रोज के काम रहा, तेरह साल के रहे जब बिहई के आय रहे। अगले दिन भिनसारे धान कूटइ बैठे। एक दौरी धान केऊ साथ कुटवाई वाला नहीं। कूटत कूटत हमार हाथ भर ग। तबई लाग केऊ हमार मूसल पकड़ लेहे ब औ मूसर हलूक होई ग। तब ऊ हमरे दुसरेव हाथ म मूसर थमाय दिहेस। फिर का, दनादन हमार हाथ चलइ लाग। हमरे हँसी से चाऊर के भूसी उड़ई लाग।”

“तो वो कौन थी? वो आपकी मदद क्यों करती थी?”

“अरे कोई और नहीं वो तो गुलरी का फूल रही…”

“लेकिन वो तो किसी को नहीं मिलता…”

“इ त कहइ के बात अहई। जेका गुलरी के फूल मिल जाय ओकर काम आसान होई जा थ पानी के घड़ा हलुक होई जाथ”

“लेकिन आपको कहाँ मिली?”

“एक बार की बात है तुम्हारे बब्बा तब बड़ा रिसिहा गुस्सैल रहेन तोहार पापा पेट में रहेन और बड़कऊ बस खड़ा होई सिखै रहेन। तोहरे बब्बा कतहूँ जात रहेन। कहाँ जात रहेन कौनो रिश्तेदारी में… केकरे ईहाँ…”

“ये सब मत बताओ। ये बताओ कि तुमको गूलर का फूल कैसे मिला?”

“हाँ त बब्बा जात रहेन हमार जिऊ कच्चा भ रहा। बड़कऊ जोर जोर से रोवत रहेन। हमई न मालूम का भ हम एक रहपट (झापड़) मार दिहा। तोहार बब्बा होई समय उठे और हमका बल भर मारे। बस उही दिना ओसे हम पहली बार मिले।”

“तो फिर मतलब वो कहाँ मिली?”

दादी कुछ गुम सी हो गईं थी

“आपकी बड़ी खराब आदत है दो बात बोल के चुप हो जाना, आगे तो बताओ।”

“हाँ त हमार जिऊ कच्चा भ रहा जिऊ केहेस की गंगा माई हमका लील लेती। रिस के मारे हम रात भर नहीं सोवा। भिनसरे भागे इनारा के ओरी। वही कुआँ जो गूलर के पेड़ के पास है। हम कूदने जा ही रहे थे कि किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और हमको डाँटा। हम लऊट आए मनुक रास्ते में बड़ा मीठा पका आम गिरा पाए। पेट में बच्चा रहा। पाय के मन ठीक होय गया। हम सोचे की बगिया में बिनोद के चाची रही होएगी वही हमको पकड़ी होंगी। लेकिन लऊटे तब पता लगा कि ऊ अपने माइके गई हैं…।”

“तो आपका मतलब जिसने आपकी जान बचाई वो कोई और औरत थी?”

“अरे कौन का ऊ त गुलरी के फूल रही…”

तब से कितनी बार बादल बरसे। लिसोड़ा कट के खत्म हो गया और गूलर का पेड़ छँटते छँटते ठूँठ में बदल गया। बड़ा तालाब पट के मंदिर में बदल गया। वो लड़की थी कि मन से गूलर के फूल वाली बात न गई। बचपन का एक बड़ा हिस्सा उसने इस रहस्य को समझने में निकाल दिया कभी कभी वो खुद गूलर का फूल बन कर देखती। शहर की आपाधापी में आज वो बहुत थक गई गयी थी।

ट्रेन में वो किसी तरह घुसी थी बस समझो भीड़ ने उसे अंदर ठेल दिया था भीड़ में ही उसे किसी ने खड़े होने की जगह दे दी थी। बमुश्किल वो डिब्बे में खड़ी थी। आदमी पर आदमी गिरा हुआ था। ऐसी भीड़ कि लग रहा था कि दम निकल जाएगा। उसके आँख के आगे काले-नीले धब्बों की कौंध होने लगी। माथा घूम रहा था। उसे लगा वो नहीं बचेगी तभी न मालूम कहीं से पानी की बोतल आ गई। कोई खड़ा हो गया और उसने उसको बिठा दिया। चाय का एक कप हवा में तैरता हुआ उस तक आ गया। साँस में साँस आ गई। उसने फिर सर घुमाया और फिर वही बचपन के बौराए मन की तरह गूलर का फूल ढूँढ़ने लगी। फिर कुछ समझ के मुस्कुरा पड़ी।

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