घास का रंग | नरेंद्र जैन
घास का रंग | नरेंद्र जैन

घास का रंग | नरेंद्र जैन

घास का रंग | नरेंद्र जैन

घास कमर तक ऊँची हो आई है 
हरी और ताजा 
जब हवा चलती है घास जमीन पर बिछ-बिछ जाती है 
वह दोबारा उठ खड़ी होती है 
हाथ में दराँती लिए वह एक कोने में बैठा है 
घास का एक गट्ठर तैयार कर चुका वह 
नीम, अमरूद, जाटौन, केवड़ा, तुलसी आदि के पौधे 
उसके आसपास हैं वह सब उसे घास काटते देख रहे 
कभी कभार तोते आते हैं अमरूद पर वे कुछ फल 
कुतरते हैं और उड़ जाते हैं उनका रंग और घास का 
रंग एक है। बरामदे में कहीं चिड़िया चहकती है कभी 
हवा के बहते ही पीतल की घंटियाँ बजने लगती हैं

हवा है कि मिला जुला संगीत बहता है, दराँती की 
आवाज, दरवाजे के पल्ले की आवाज, वाहन की यांत्रिक ध्वनि 
और कभी लोहे पर पड़ती हथौड़े की आवाज, गोया दराँती, 
हथौड़ा, पल्ला सब वाद्य हैं और धुन बजा रहे हैं 
घास काटते-काटते अब वह गुनगुना रहा कोई गीत है 
या कोई दोहा, स्वर धीमा है, घास जरूर उसे सुन रही। 
गली से अभी-अभी वह गुजरा है जिसके कंधों पर 
बहुत से ढोलक हैं, उसकी अँगुलियाँ सतत ढोलक बजा 
रहीं। कद्दू, लौकी, गिलकी और तुरही की बेलों का 
हरा जाल अब ढोलक सुन रहा, हर कहीं हवा और 
धूप का साम्राज्य फैला है। पत्थर की एक मेज के आसपास 
कोई नहीं है। मेज के पायों से चीटियों का मौन जुलूस 
निकल रहा है, सृष्टि का सबसे मौन जुलूस, एक अंतहीन 
मानव शृंखला आगे बढ़ी जा रही है जैसे

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कभी कभार जब सन्नाटा छाया रहता है, मेज के पास 
एक शख्स बैठा पाया जाता है। जब धूप की शहतीर 
आसमान की सीध से नीचे गिरती है, धूप का 
प्रतिबिंब उसके प्याले में दिखलाई देता है।

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