जीनियस | मोहन राकेश
जीनियस | मोहन राकेश

जीनियस | मोहन राकेश – Genius

जीनियस | मोहन राकेश

जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था।

मैं उस आदमी को ध्यान से देख रहा था। मेरे साथी ने बताया था कि यह जीनियस है और मैंने सहज ही इस बात पर विश्वास कर लिया था। उससे पहले मेरा जीनियस से प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ था। इतना मैं जानता था कि अब वह पहला ज़माना नहीं है जब एक सदी में कोई एकाध ही जीनियस हुआ करता था। आज के ज़माने को जीनियस पैदा करने की नज़र से कमाल हासिल है। रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी जीनियस की चर्चा सुनने को मिल जाती है। मगर जीनियस की चर्चा सुनना और बात है, और एक जीनियस को अपने सामने देखना बिलकुल दूसरी बात। तो मैं उसे ग़ौर से देख रहा था। उसके भूरे बाल उलझकर माथे पर आ गये थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ थीं, हालाँकि उम्र सत्ताईस-अट्‌ठाईस साल से ज़्यादा नहीं थी। होंठों पर एक स्थायी मुस्कराहट दिखाई देती थी,फिर भी चेहरे का भाव गम्भीर था। वह सिगरेट का कश खींचकर नीचे का होंठ ज़रा आगे को फैला देता था जिससे धुआँ बजाय सीधा जाने के ऊपर की तरफ़ उठ जाता था। उसकी आँखें निर्विकार भाव से सामने देख रही थी। हाथ मशीनी ढंग से कॉफ़ी की प्याली को होंठों तक ले जाते थे, हल्का-सा घूँट अन्दर जाता था और प्याली वापस सॉसर में पहुँच जाती थी।

“हूँ!” कई क्षणों के बाद उसके मुँह से यह स्वर निकला। मुझे लगा कि उसकी ‘हूँ’ साधारण आदमी की ‘हूँ’ से बहुत भिन्न है।

“मेरे मित्र आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे,” मैंने वक़्त की ज़रूरत समझते हुए बात आरम्भ की। जीनियस के माथे के बल गहरे हो गये और उसके होंठों पर मुस्कराहट ज़रा और फैल गयी।

“मैंने इनसे कहा था कि चलिए आपका परिचय करा दूँ,” मेरे साथी ने कहा। साथ ही उसकी आँखें झपकीं और उसके दो-एक दाँत बाहर दिखाई दे गये। मुझे एक क्षण के लिए सन्देह हुआ कि कहीं यह संकेत स्वयं उसी के जीनियस होने का परिचायक तो नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण उसकी सधी हुई मुद्रा देखकर मेरा सन्देह जाता रहा। जीनियस एक पल आँखें मूँदे रहा। फिर उसने इस तरह विस्मय के साथ आँखें खोलीं जैसे वह यह निश्चय न कर पा रहा हो कि अपने आसपास बैठे हुए लोगों के साथ उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है। उसके फैले हुए होंठ ज़रा सिकुड़ गये। उसने सिगरेट का एक कश खींचा और तम्बाकू का धुआँ सरसराता हुआ ऊपर को उठने लगा, तो उसने कहा, “देखिए,ये सिर्फ़ आपको बना रहे हैं। मैं जीनियस-वीनियस कुछ नहीं, साधारण आदमी हूँ।”

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मैंने अपने साथी की तरफ़ देखा कि शायद उसके किसी संकेत से पता चले कि मुझे क्या कहना चाहिए। मगर वह दम साधे पत्थर के बुत की तरह गम्भीर बैठा था। मैंने फिर जीनियस की तरफ़ देखा। वह भी अपनी जगह निश्चल था। बुश्शर्ट के खुले होने से उसकी बालों से भरी छाती का काफ़ी भाग बाहर दिखाई दे रहा था।

वह कहवाख़ाने का काफ़ी अँधेरा कोना था। आसपास धुआँ जमा हो रहा था। दूर ज़ोर-ज़ोर के कहकहे लग रहे थे और हाथों में थालियाँ लिये छायाएँ इधर-उधर घूम रही थीं।

“मैं आज तक नहीं समझ सका कि कुछ लोग जीनियस क्यों माने जाते हैं?” जीनियस ने फिर कहना आरम्भ किया, “मैंने बड़े-बड़े जीनियसों के विषय में पढ़ा है और जिन्हें लोग जीनियस समझते हैं, उनकी रचनाएँ भी पढ़ी हैं। उनमें कुछ नाम हैं-शेक्सपियर, टॉल्स्टाय, गोर्की और टैगोर। मैं इन सबको हेच समझता हूँ।”

मैं अब और भी ध्यान से उसे देखने लगा। उसके माथे के ठीक बीच में एक फूली हुई नाड़ी थी जिसकी धडक़न दूर से ही नज़र आती थी। उसकी गलौठी बाहर की निकली हुई थी। बायीं आँख के नीचे हल्का-सा फफोला था। मैं उसके नक़्श अच्छी तरह ज़हन में बिठा लेना चाहता था। डर था कि हो सकता है फिर ज़िन्दगी-भर किसी जीनियस से मिलने का सौभाग्य प्राप्त न हो।

“शेक्सपियर सिर्फ़ एक वार्ड था,” दो कश खींचकर उसने फिर कहना आरम्भ किया, “और अगर मर्लोवाली कहानी सच है, तो इस बात में ही सन्देह है कि शेक्सपियर शेक्सपियर था। टॉल्स्टाय, गोर्की और चेख़व जैसे लेखकों को मैं अच्छे कॉपीइस्ट समझता हूँ-केवल कॉपीइस्ट, और कुछ नहीं। जो जैसा अपने आसपास देखा उसका हूबहू चित्रण करते गये। इसके लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता नहीं। टैगोर में हाँ, थोड़ी कविता ज़रूर थी।”

वह खुलकर मुस्कराया। मेरे लिए उस मुस्कराहट का थाह पाना बहुत कठिन था। पास ही कहीं दो-एक प्यालियाँ गिरकर टूट गयीं। एक कबूतर पंख फडफ़ड़ाता हुआ कहवाख़ाने के अन्दर आया और कुछ लोग मिलकर उसे बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। जीनियस की आँखें भी कबूतर की तरफ़ मुड़ गयीं और वह कुछ देर के लिए हमारे अस्तित्व को बिलकुल भूल गया। जब उसने कबूतर की तरफ़ से आँखें हटाईं तो उसे जैसे नए सिरे से हमारी मौजूदगी का एहसास हुआ।

“मैं एक निहायत ही अदना इन्सान हूँ,” उसने हमारे कन्धों से ऊपर दीवार की तरफ देखते हुए कहा, “लेकिन यह मैं ज़रूर जानता हूँ कि जीनियस कहते किसे हैं-माफ़ कीजिए, कहते नहीं, जीनियस कहना किसे चाहिए।” उसने प्याली रख दी और शब्दों के साथ-साथ उसकी उँगलियाँ हवा में खाके बनाने लगीं। “आप जानते हैं-या शायद नहीं जानते-कि जीनियस एक व्यक्ति नहीं होता। वह एक फिनोमेना होता है, एक परिस्थिति जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। उसका अपना एक रेडिएशन, एक प्रकाश होता है। उस रेडिएशन का अनुमान उसके चेहरे की लकीरों से, उसके हाव-भाव से, या उसकी आँखों से नहीं होता। वह एक फिनोमेना है जिसके अन्दर एक अपनी हलचल होती है परन्तु जो हलचल उसकी आँखों में देखने से नहीं होती। वह स्वयं भी अपने सम्बन्ध में नहीं जानता, परन्तु जिस व्यक्ति का उसके साथ सम्पर्क हो, उस व्यक्ति को उसे पहचानने में कठिनाई नहीं होती। जीनियस को जीनियस के रूप में जानने के लिए उसकी लिखी हुई पुस्तकों या उसके बनाए हुए चित्रों को सामने रखने की आवश्यकता नहीं होती। जीनियस एक फिनोमेना है, जो अपना प्रमाण स्वयं होता है। उसके अस्तित्व में एक चीज़ होती है, जो अपने-आप बाहर महसूस हो जाती है। मैं यह इसलिए कह सकता हूँ कि मैं एक ऐसे फिनोमेना से परिचित हूँ। मेरा उसका हर रोज़ का साथ है, और मैं अपने को उसके सामने बहुत तुच्छ, बहुत हीन अनुभव करता हूँ।”

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उसकी मुस्कराहट फिर लम्बी हो गयी थी। उसने नया सिगरेट सुलगाकर एक और बड़ा-सा कश खींच लिया। कॉफ़ी की प्याली उठाकर उसने एक घूँट में ही समाप्त कर दी। मैं अवाक्‌ भाव से उसके माथे की उभरी हुई नाड़ी को देखता रहा।

“मुझे उसके साथ के कारण एक आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है,” वह फिर बोला, “मुझे उसके सम्पर्क से अपना-आप भी जीवन की साधारण सतह से उठता हुआ महसूस होता है। उसमें सचमुच वह चीज़ है जो दूसरे को ऊँचा उठा सकती है। मैं तब उसका रेडिएशन देख सकता हूँ। उसके अन्दर की हलचल महसूस कर सकता हूँ। जिस तरह अभी-अभी वह कबूतर पंख फडफ़ड़ा रहा था, उसी तरह उसकी आत्मा में हर समय एक फडफ़ड़ाहट, एक छटपटाहट भरी रहती है। उस छटपटाहट में ऐसा कुछ है जो यदि बाहर आ जाए, तो चाहे ज़िन्दगी का नक़्शा बदल दे। मगर उसे उस चीज़ को बाहर लाने का मोह नहीं है। उसकी दृष्टि में अपने को बाहर व्यक्त करने की चेष्टा करना व्यवसाय-बुद्धि है, बनियापन है। और इसलिए मैं उसका इतना सम्मान करता हूँ। मैं उससे बहुत छोटा हूँ, बहुत-बहुत छोटा हूँ, परन्तु मुझे गर्व है कि मुझे उससे स्नेह मिलता है। मैं भी उसके लिए अपने प्राणों का बलिदान दे सकता हूँ। मैंने जीवन में बहुत भूख देखी है-हर वक़्त की भूख-और अपनी भूख से प्राय: मैं व्याकुल हो जाता रहा हूँ। परन्तु जब उसे देखता हूँ तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूँ, भूख उसने भी देखी है, और मुझसे कहीं ज़्यादा भूख देखी है-परन्तु मैंने कभी उसे ज़रा भी विचलित या व्याकुल होते नहीं देखा। वह कठिन से कठिन अवसर पर भी मुस्कराता रहता है। मेरा सिर उसके सामने झुक जाता है। मैं जीवन के हरएक मामले में उससे राय लेता हूँ, और हमेशा उसकी बताई हुई राह पर चलने की चेष्टा करता हूँ। कई बार तो उसके सामने मुझे महसूस होता है कि मैं तो हूँ ही नहीं, बस वही वह है, क्योंकि उसके रेडिएशन के सामने मेरा व्यक्तित्व बहुत फीका पड़ जाता है। परन्तु मैं अपनी सीमाएँ जानता हूँ। मैं लाख चेष्टा करूँ फिर भी उसकी बराबरी तक नहीं उठ सकता।

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उसके दाँत आपस में मिल गये और चेहरा काफी सख़्त हो गया। चेहरे की लकीरें पहले से भी गहरी हो गयीं। फिर उसने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझाईं और एक बार उन्हें चटका दिया। धीरे-धीरे उसके चेहरे का तनाव फिर मुस्कराहट में बदलने लगा।

“ख़ैर!” उसने उठने की तैयारी में अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, मैं अब आपसे इजाज़त लूँगा। मैं भूल गया था कि मुझे एक जगह जाना है…।”

“मगर…” मैं इतना ही कह पाया। मैं तब तक उसी अवाक्‌ भाव से उसे देख रहा था। उसका इस तरह एकदम उठकर चल देना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। अभी तो उसने बात आरम्भ ही की थी।

“आप शायद सोच रहे हैं कि वह व्यक्ति कौन है जिसकी मैं बात कर रहा था…” वह उसी तरह हाथ बढ़ाए हुए बोला, “मुझे खेद है कि मैं आपका या किसी का भी उससे परिचय नहीं करा सकता। मैंने आपसे कहा था न कि वह एक व्यक्ति नहीं, एक फिनोमेना है। अपने से बाहर वह मुझे भी दिखाई नहीं देता। मैं केवल अपने अन्दर उसका रेडिएशन ही महसूस कर सकता हूँ।”

और वह हाथ मिलाकर उठ खड़ा हुआ। चलने से पहले उसकी आँखों में क्षण भर के लिए एक चमक आ गयी और उसने कहा, “वह मेरा इनरसेल्फ है।”

और क्षण भर स्थिर दृष्टि से हमें देखकर वह दरवाज़े की तरफ़ चल दिया।

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