गेहूँ के दाने | रमेश पोखरियाल – Gehu Ke Dane
गेहूँ के दाने | रमेश पोखरियाल
पिछले चार दिन से आसमान ऐसे बरस रहा था मानो उसमें कई सुराख हो गए हों। शहर की कच्ची बस्तियाँ तो क्या पक्की सड़कें भी पानी से लबालब भर गई थी। दुपहिया वाहन छोटी कारें जहाँ पूरी तरह पानी में डूब गई थी वहीं बस, ट्रक अधे-आधे पानी में डूबे हुए थे। नौकरीपेशा लोग अघोषित अवकाश पर हैं तो बच्चे अब इस छुट्टी से तंग आ चुके हैं। वह तो घर में कैद हो गए हैं। बार-बार आसमान की ओर ताक रहे हैं और सोच रहे हैं कि ये पानी बरसना कब बंद होगा?
पानी बरस रहा है तो सब कुछ बंद है। न दूध की सप्लाई न सब्जी की। उच्च और मध्यम वर्ग को तो इस बंदी से बहुत अधिक असर नही हुआ। इतना जरूर हुआ कि चार दिन से वही आलू प्याज और दालें खाकर वह ऊब जरूर गए थे।
लेकिन एक तबका ऐसा भी था जो रोज कुआँ खोदकर पानी पीता और ये वह लोग थे जो दिहाड़ी मजदूरी कर रोज की कमाई करते और उसी से उनका चूल्हा जलता। झुग्गी झोपड़ियों में रहते और किसी तरह गुजारा करते। लेकिन इस बारिश ने तो इन झुग्गियों को पूरी तरह तबाह कर दिया था। जगह-जगह इन झुग्गियों से बिखरा हुआ सामान तैर रहा था। यहाँ के निवासियों ने बमुश्किल सुरक्षित जगहों पर शरण ली थी।
स्थिति की भयावहता भाँप दो दिन बाद सरकारी मशीनरी भी जंग धो-पोंछ कर सक्रिय हुई। तब तक बड़े तो बड़े बच्चे भी भूख से बिलबिलाने लगे थे।
इन्हीं में एक परिवार था विनायक का। चार वर्ष पहले उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र से परिवार सहित शहर चला आया। परिवार में उसकी बीवी और तीन बच्चे थे। जिनकी उम्र में एक डेढ़ साल का अंतर रहा होगा। सबसे बड़ा बेटा आठ वर्ष का दूसरी बेटी सात वर्ष की और छोटा बेटा पाँच वर्ष का, चार वर्ष पहले वे शहर आए थे, तब गोद में था। कुपोषण और कमजोरी के चलते डेढ़-दो वर्ष की उम्र तक तो वह जमीन पर पैर भी न टिका पाया था। लेकिन अब तो ऐसे दौड़ता कि माँ पकड़ भी नहीं पाती।
विनायक के परिवार ने गाँव से ही इतनी गरीबी और भुखमरी देखी थी कि दो दिन के फाके से उन पर कोई असर न पड़ा।
चार दिन बाद जब धीरे-धीरे पानी उतरना आरंभ हुआ तो लोगों ने अपने-अपने घरों की ओर लौटना आरंभ किया। झुग्गियाँ तो सारी मलबे में तब्दील हो चुकी थी। लेकिन मलबे के उस ढेर में अभी भी घरों की कुछ निशानियाँ बाकी थी। परिवार के सभी लोग मिल जुलकर मलबे के उस दलदल में जीवन चलाने योग्य निशानियाँ ढूँढ़ रहे थे। कौन सामान किसका है इससे कोई लेना देना नहीं, जो जिसके हाथ लग गया उसका हो गया।
विनायक और उसकी घरवाली भी कुछ टूटे-फूटे बरतन, कीचड़ से सने कपड़े, टूटी-फूटी चारपाइयाँ आदि बटोर लाने में सफल हुए।
धीरे-धीरे पानी और सूखा और उसी स्थान पर एक बार फिर झुग्गियाँ बस गईं। जीवन आबाद हो चला। एक-दो दिन सरकार ने भी खबर ली। कुछ ब्रेड और बिस्किट खिलाकर भूखों की भूख मिटाने का प्रयास किया। भोजन के इन पैकेटों पर लोग चील की मानिंद झपट पड़ते। एक ही पैकेट के लिए कई लोगों के बीच छीना-झपटी होती और अंत में जिसके हाथ वह पैकेट लग जाता वही भाग्यशाली सिद्ध होता। विनायक को अपनी तो चिंता नहीं थी लेकिन बच्चों को भूख से बिलबिलाते देख उसका हृदय फट पड़ता। उनके लिए किसी तरह अब तक खाने का इंतजाम कर रहा था। बच्चों का पेट भरने के बाद जो बच जाता उससे दोनों प्राणी अपनी भूख मिटा लेते।
फ्री का खाना और उसके लिए इतनी चिल्लपौं मचते देख कुछ स्थानीय छुटभैयों ने भी अपनी दुकान सजा ली। पंक्तिबद्ध हो खाना लेने की उनकी योजना से सबको थोड़ा बहुत तो मिल ही जाता लेकिन उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा इनकी जेबों में भी जाता रहा। कुल मिलाकर इन दिनों मेले का सा माहौल रहा बस्ती में।
मुफ्त में खाना बँटना खत्म हुआ तो मेला भी खत्म हुआ। सभी लोग एक बार फिर से रोजी रोटी की तलाश में जुट गए।
इस बार की बारिश से नुकसान भी बहुत हुआ और बाजार में अधिक काम भी उपलब्ध नहीं था। बस्ती में रहने वाले कुछ लोग आढ़तियों के यहाँ मजदूरी करते तो कुछ वहीं बड़ी इमारतें बनाने वाले ठेकेदारों के साथ थे। लेकिन बारिश की अधिकता से बिल्डिंग बनाने का काम तो ठप पड़ गया था। इसके तो तभी दोबारा शुरू होने के आसार थे जब कुछ दिनों तक लगातार धूप रहती।
इन इमारतों में काम करने वाले मजदूर आजकल रोजी की तलाश में एधर-उधर भटक रहे थे। विनायक भी इन्हीं में शामिल था। कभी कहीं दिहाड़ी की तलाश में भटकता तो कभी कहीं।
कहीं कुछ घंटों का काम मिल जाता तो कहीं पूरे दिन का काम भी होता। कभी ऐसा भी होता कि पूरे दिन कोई काम ही न मिलता। चूल्हा जलाने की प्रतीक्षा में विनायक की पत्नी उसकी राह ताकती। अब तो वो उसके चेहरे से पहचानने लगी थी कि काम मिला या नहीं।
खाना नहीं मिलता तो बच्चे रोते, विनायक भी झींकता उसकी घरवाली भी। बच्चों को मार पड़ती। बाद में दोनों पछताते कि आखिर बच्चों की गलती क्या थी। लेकिन सब जानते समझते हुए भी ये हर तीसरे दिन का तमाशा बन चुका था।
नुक्कड़ का लाला भी अब उधर नहीं देता। अभी तो विनायक पहले का उधर भी चुकता न कर पाया था। महीने का राशन लाला से बंध होता था। जिसका भुगतान विनायक अगले महीने में ही करता था। लेकिन अब बेरोजगारी के चलते लाला भी कोई जोखिम उठाने को तैयार न था।
बस्ती की ही कुछ महिलाएँ कूड़ा बीनने का काम करती थी। विनायक की घरवाली भी बच्चों को घर पर छोड़ यही काम करने लगी। कभी-कभी तो कूड़े में उसे बहुत अच्छी-अच्छी चीजें मिल जाती। उसे आश्चर्य होता ये अमीर लोग ऐसी मूल्यवान और जरूरत की चीजों को ऐसे ही कूड़े में कैसे फेंक देते हैं? उसे क्या पता था कि जो सामग्री उसके जैसे लोगो के लिए बहुमूल्य थी वही इन बड़े घरों में रहने वालों के लिए फेंकने का सामान थी।
विनायक की घरवाली घर से बाहर निकलती तो बच्चों के लिए एक जून के भोजन का इंतजाम तो हो ही जाता। लेकिन स्थिति तब खराब होती जिस दिन विनायक को तो सारे दिन काम नहीं मिलता और उसकी घरवाली कमा कर लाती। पुरुष का अहं ये बिल्कुल भी बरदाश्त न कर पाता कि उसकी पत्नी घर के सभी प्राणियों के साथ-साथ उसके पेट भरने की भी व्यवस्था कर रही है।
अब बच्चे तो बच जाते लेकिन इसी झुँझलाहट में विनायक अपनी घरवाली को बुरी तरह पीट डालता। लेकिन उसे भी ईश्वर ने न जाने कितनी सहनशक्ति दी थी कि चुपचाप मार खा लेती लेकिन चूं तक न करती। रात में रूई की तरह धुनी गई विनायक की घरवाली सुबह उठते ही ऐसे काम पर लग जाती जैसे रात कुछ हुआ ही न हो।
ऐसे ही महीना-दो महीना बीत गया। मौसम भी अब ठीक हो चला था और बाजार में भी तेजी आने लगी थी। ऐसे में ही पड़ोसी रामदीन ने विनायक को अनाज के एक आढ़ती के यहाँ काम दिलवा दिया।
आढ़ती के कई गोदाम थे। शहर में कई स्थानों पर उसका काम फैला था। अनाज एक गोदाम से दूसरे गोदाम ले जाने और दूसरी जगह सप्लाई के लिए उसको मजदूरों की निरंतर आवश्यकता रहती।
पहले पहल सेठ के गोदाम में भरे अनाज को देखकर विनायक की आँखें चुंध्यिा गई। उसके लिए तो ये भण्डार सोने-चांदी के भण्डार से भी अधिक बेशकीमती था। अनाज के इन विशाल गोदामों को देखकर अनायास ही उसे दाने-दाने को तरसते बस्ती के लोग याद आ गए।
विनायक की इच्छा अब सबसे पहले घरवाली का काम छुड़वाने की हुई।
‘जब से दो पैसे कमाने लगी है दिमाग सातवें आसमान पर है। मेमसाब समझने लगी है आपने आप को।’ सोचते हुए विनायक का मन हुआ कि अभी तक जो घरवाली की कमाई से खाया है उसे उलट दे। लेकिन ऐसा कर न पाया।
लाला एक सप्ताह से पहले तनख्वाह न देता। रोज-रोज का हिसाब उससे न होता। अब ये तो विनायक के सामने नई समस्या हो गई। तैश में आकर अगले ही दिन घरवाली को काम न करने को कह आया था। रोज-रोज की किच-किच से आजिज आकर उसने भी न कोई बहस की न रोना रोया बल्कि अगले दिन से ही काम पर जाना बंद कर दिया।
‘थोड़ा सा गेहूँ चावल ले जा, किसको पता लगेगा, इस समुद्र में दो-चार बूँद निकाल भी लिया तो? बाकी लोग भी यही करते हैं यहाँ।’ रामदीन ने समझाया।
‘लेकिन ये तो चोरी है।’ विनायक का मन इसके लिए तैयार नहीं था। जब घर में अन्न का दाना नहीं था, बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे, यह खयाल तो तब भी उसके दिमाग में कभी नहीं आया था।
‘बच्चे भूखे मरें तो उसका पाप नहीं लगेगा तुझे? वह तो चोरी से भी बड़ा पाप है। और तू क्या समझता है लाला ने मेहनत और ईमानदारी से कमाया है। चोर है वह भी बहुत बड़ा। फिर चोर के घर चोरी करने में पाप कैसा?’ रामदीन ने उससे पाप-पुण्य की एक नई परिभाषा समझा दी। लेकिन विनायक की समझ में नहीं आया।
‘अच्छा सुन सिर्फ पाँच-छह दिन की ही तो बात है उसके बाद कभी मत करना ऐसा।’
रामदीन की यह बात विनायक को जम गई। सिर्फ पाँच दिन, उसके बाद कभी नहीं। जिस दिन पहले-पहल उसने दो मुट्ठी अनाज गोदाम से उठाया उसकी साँस धौंकनी की तरह चल रही थी। चेहरा तमतमाया हुआ, माथे पर पसीने की बूँदें, उसकी तो हालत ही अजब थी।
‘हे भगवान! बस सिर्फ कुछ दिन।’ उसने दोनों हाथ जोड़कर भगवान से क्षमा माँगी। अनाज घर ले गया लेकिन एक कौर भी गले के नीचे न उतरा।
पहली तनख्वाह मिली तो उसने चैन की साँस ली और कभी गलत काम न करने की शपथ ली। जीवन की गाड़ी चल निकली।
विनायक की ड्यूटी कभी एक गोदाम में होती तो कभी दूसरे मे। जितने अधिक अनाज से भरे गोदाम देखता विनायक सोच में पड़ जाता। ‘इतना अनाज होने पर भी लोग भूखे क्यों रहते हैं?’ सोचता लेकिन जवाब न पाता।
एक दिन मुनीम ने विनायक को अन्य मजदूरों के साथ शहर से बीस कि.मी. दूर दूसरे गोदाम में भेजा। वहाँ का गेहूँ ट्रकों में लादकर किसी फैक्ट्री में जाना था।
वहाँ जाकर विनायक का साक्षात्कार एक दूसरे सच से हुआ। वह सच जो बहुत कड़वा था। बहुत दर्दनाक था। लेकिन सबको इसी सच में जीना था। उस सच में जिसे विनायक का मन हजम नहीं कर पा रहा था।
लाला के उस बड़े से गोदाम में बरसात में जगह-जगह से पानी रिस गया था तो कहीं पूरा पतनाला सा बहकर ही गोदाम के अंदर आ गया था। गेहूँ की बोरियों से भरे इस गोदाम का पानी गिरने और उसके बाद गोदाम के तीन-चार माह बंद रहने से सड़ गया था। पूरे गोदाम में सड़े हुए गेहूँ की अजीब सी गंध आ रही थी।
गेहूँ ट्रकों में लद रहा था। कुछ बोरियाँ सड़कर फट गई थी। उन्हें किसी तरह सिल-सिलकर ट्रकों में लादा गया। विनायक आहत था, बहुत आहत। उसे अपना कालाहांडी याद आ गया। भूख से बिलबिलाते बच्चे याद आए। कंकाल में बदल चुके शरीर याद आए। बाढ़ और सूखे की विभीषिका के समय खाने के पैकेटों पर टूट पड़ते कुत्तों की तरह जीने वाले इनसान याद आ गए। क्या लाला ने या उसके कारिंदों ने कभी ऐसे लोगों को न देखा होगा? तभी तो उन्हें अन्न की बरबादी का दुख नहीं होता, पीड़ा नहीं होती।
रामदीन से मन की बात कही लेकिन मन शांत न हुआ।
‘तू अपने काम से काम रख। इन बड़े लोगों को नहीं जानता तू।’ रामदीन ने उसे शांत कराया। ऊपर से विनायक शांत था लेकिन सारी रात उसे नींद न आई।
‘इतना सारा गेहूँ सड़ा दिया, कैसे? और अब इस सड़े गेहूँ को भेज कहाँ रहे होंगे? ये तो किसी के खाने लायक भी नहीं।’
मन में सवाल उठा तो अगले दिन रामदीन से पूछ ही लिया।
‘अरे तुझे क्या? जहाँ लाला का मन आएगा वहाँ भेजेंगे। तू क्यों परेशान होता है?’ रामदीन के पास न तो इस बात का जवाब था न वह जानना चाहता था।
लेकिन धुन के पक्के विनायक ने आखिर पता लगा ही लिया।
गेहूँ सड़ गया था और अब खाने लायक न था। इसलिए खबर ये आ रही थी कि इसे गरीबों में मुफ्त बाँट दिया जाएगा। लेकिन लाला इससे भी कमाई करना चाहता था इसलिए आदेश होने से पहले चुपचाप उसने शराब की एक फैक्ट्री में बात कर ली थी। वो उसका सड़ा गेहूँ खरीदने को तैयार थी। इस गेहूँ की शराब बनेगी।
विनायक के सामने एक और नंगा सच खड़ा था। अमीरों के न खाने लायक जिस गेहूँ को सरकार गरीबों में बाँटने जा रही थी उससे अब शराब बनेगी। सड़ा गेहूँ भी अमीरों के ही काम आएगा। गरीब फिर भूखे ही रहेंगे।
विनायक जोर से हँस पड़ा। उसका ठहाका सुन सब लोग चौंके। सबने एक साथ उसकी ओर देखा लेकिन उस पर कोई असर न पड़ा। वो हँसता रहा कुछ देर और फिर अचानक रोने लगा। रोते-रोते उसकी आँखें सुर्ख हो आई। आवेश में आकर वह वो मुनीम की ओर भागा। उसका गला पकड़ लिया।
‘अन्न की बरबादी करते हो। सड़ा दिया सब कुछ और अब उससे शराब बनाओगे। लोगों को भूख से मरते देखा है तुमने कभी? अन्न देवता का अपमान करते हो। पाप लगेगा तुम्हें।’ और विनायक ने मुनीम का गला दबाने का प्रयास किया। इस उपक्रम में उसकी नसें तन गई।
मुनीम चिल्लाया तो मजदूरों ने जाकर विनायक को दूर हटाया। लेकिन विनायक बार-बार उनकी पकड़ से छूटता और मुनीम का गला पकड़ लेता।
पुलिस आई। मारते-मारते विनायक को अपने साथ ले गई। विनायक मार खाता और अन्न देवता के अपमान की बात करता।
तीन-चार दिन विनायक जेल में रहा। छूटकर आया तो मानसिक संतुलन खो चुका था। किसी ने कहा पुलिस ने बहुत मारा इसलिए विनायक पागल हो गया। लेकिन यह तो विनायक ही जानता था कि किस चोट ने उसे पागल किया है।
लोगों ने दबी जुबान से कहा कि मार खाते हुए विनायक की दोनों मुट्ठियाँ बंद थी। जब मार खा-खाकर बेहोश हो गया तभी मुट्ठियाँ खुल पाई और उनमें बंद था गोदाम का सड़ा हुआ गेहूँ।
इस घटना को कई दिन बीत चुके हैं। विनायक अब पूरी तरह पागल हो चुका है। लोगों से कहता है कि सरकार अब गरीबों को अनाज के बदले शराब पिलाएगी। लोग हँसते हैं, मजाक बनाते हैं। लेकिन विनायक की बात का मर्म रामदीन जैसे एक-दो लोग ही समझ पाते हैं। विनायक की घरवाली ने फिर से कूड़ा बीनने का काम शुरू कर दिया है साथ ही वह एक दो घरों में भी काम करने लगी है।
सड़े हुए अनाज पर जगह-जगह बहस चल रही है कभी न खत्म होने वाली बहस।
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