गंगा मैया भाग 6 | भैरव प्रसाद गुप्त
गंगा मैया भाग 6 | भैरव प्रसाद गुप्त

गंगा मैया भाग 6 | भैरव प्रसाद गुप्त – Ganga Maiya Part 6

गंगा मैया भाग 6 | भैरव प्रसाद गुप्त

सोलह

पड़ताल क्या होनी थी, जो होती। कितनी ही धाँधलियों की तरह यह भी किसानों को डराने-धमकाने की एक ज़मींदाराना और अफसरी चाल ही थी। और फिर गंगा मैया की माया कि इस साल पानी हटा, तो दो धारे बन गये, एक इधर और एक उधर और बीच में धरती निकल आयी, दो घाटियों के बीच में पहाड़ी की तरह। यह साल गहरे संघर्ष का था, मटरू जानता था। उसने इसकी पूरी तैयारी भी की थी। अब जो नदी की दो धाराएँ देखीं, तो उसे लगा कि गंगा मैया ने उसके दोनों ओर अपनी विशाल बाँहें फैलाकर उसे अपनी ऐसी रक्षा के घेरे में ले लिया है, कि दुश्मन लाख सिर मारकर भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकते।

रेत पर पहले मटरू की झोंपड़ी खड़ी हुई, और देखते-ही-देखते पिछले साल की तरह पचासों झोंपडिय़ाँ जगमगा उठीं।

ज़मींदारों ने सोचा था कि इस साल कोई किसान वहाँ न जाएगा, लेकिन जब यह ख़बर उनके कानों में पहुँची, तो वे खलबला उठे। थाने, तहसील, जिले की दौड़-धूप शुरू हो गयी। इतने दिन चुप रहकर उन्होंने देख लिया था कि ऐसा चलने से वे पुराने दिन नहीं आने के। अब तो कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा, वरना हमेशा के लिए दीयर हाथ से निकल जाएगा। यही आख़िरी बाजी है, हारे तो हार और जीते तो जीत। जान लगाकर, इस बार इधर या उधर कर लेना चाहिए।

मिट्टी तो चिकनी है, लेकिन धरती अभी बहुत गीली है। कहीं-कहीं तो अभी तक दलदल ही पड़ा है। सूखने में बड़ी देर लगेगी। दोनों ओर बराबर ज़ोर की धाराएँ हैं। न भी सूखे। बावग का वक़्त निकला जा रहा है। देर से भी बावग के लायक धरती होगी, इसकी उम्मीद न थी। मटरू चिन्ता में पड़ा था। सब किसान चिन्ता में पड़े थे कि क्या किया जाए, कहीं यह साल खाली न चला जाए।

पूजन की पहुँच धरती के बारे में मटरू से कहीं गहरी थी। यों ही देखने के लिए उसने किनारे के पास एक छोटा-सा गढ़ा घेरकर थोड़ा धान का बीया डाल दिया था। पाँच-छ: दिन के बाद वहाँ हरियाली नजर आयी, तो उसने मटरू से कहा, ”पाहुन, धान बोया जाए, तो कैसा?”

मटरू ने हँसकर कहा, ”अबे, क्या धान आजकल बोया जाता है।”

पूजन ने अपने प्रयोग की बात कह के कहा, ”सुना है बंगाल, मद्रास में धान की कई-कई फ़सलें होती हैं। अबकी हमारी धरती भी धान लायक ही मालूम पड़ती है। पानी की कोई कमी नहीं है। नमी महीनों बनी रहेगी। मैं तो कहूँ, पाहुन, बोया जाए। ठाले बैठे रहने से कुछ भी करना बेहतर है। नहीं कुछ हुआ, तो बीया जाएगा और कहीं हो गया तो एक नई बात मालूम हो जाएगी।”

मटरू उसी क्षण उठ खड़ा हुआ और पूजन के साथ जाकर गढ़े में उगा धान देखा, उसकी आँखें झपक गयीं। कहा, ”सच रे, तेरी बात तो ठीक मालूम होती है।”

और किसानों से फिर चट राय-बात हुई। पूजन की बात मान ली गयी। बोने की तैयारियाँ शुरू हो गयीं।

गोपी से आने के लिए मटरू कह आया था, लेकिन तब से वह एक बार भी न आया। नाववालों से बराबर सर-समाचार ले-दे जाता है, लेकिन आता नहीं। फागुन सुदी नवमी को लगन है। बारात में दस-पाँच मेहमानों के सिवा कोई न होगा। बिरादरी ने खान-पान बन्द कर दिया है। किसी बात की चिन्ता नहीं।

एक दिन भाभी ने मटरू से कहा, ”भैया, तुमने उससे आने को कहा था न?”

”हाँ।”

”लेकिन वह तो नहीं आया। तुमसे झूठ तो नहीं कहा था?”

”झूठ क्यों कहता, री? लेकिन वह आये भी कैसे?”

”क्यों?”

”शादी के पहले कोई दूल्हा ससुराल आता है क्या?” कहकर मटरू मुस्कुराया॥

”दुत! जाओ भैया, तुम तो दिल्लगी करते हो और यहाँ मन में रात-दिन एक धुकधुकी लगी रहती है…”

”कि कैसा होगा दूल्हा? भैंसे की तरह काला कि चाँद की तरह गोरा?”

”हाँ! पहली बार देखना है न?”

”तो?”

”जाने क्या-क्या अभी देखना है भाग में! तुम लोगों का यह सब तमाशा जाने क्यों अच्छा नहीं लगता…”

”तो यहाँ दरवाज़े पर गंगा मैया हैं। कुएँ में डूब मरी होती तो नरक में पड़ती। यहाँ तो गंगा मैया की गोद में समा जाओगी, तो सीधे बैकुण्ठ में पहुँच जाओगी!” कहकर मटरू हँसा।

”तुम लोग मुझे ऐसा करने भी तो दो! तुम्हें क्या मालूम कि जब सोचती हूँ कि वहाँ फिर जाने पर कैसी विकट दशा में पड़ूँगी, तो मन कितना बेकल हो जाता है। इससे तो मर जाना कहीं आसान है।”

”हूँ! तो फिर वही बात? तेरे इस भैया के रहते भी तेरी चिन्ता नहीं जाती? अरे पगली, अब घर बसाने की सोच, एक नई ज़िन्दगी शुरू करने की सोच। जब दो-दो तुम पर जान न्यौछावर करने को तैयार हैं, तो किसकी हिम्मत है, जो तुझे कुछ भी कह सके? तुझे भी ज़रा हिम्मत से काम लेना चाहिए। बिना हिम्मत के इन रीति-रिवाजों को कैसे तोड़ा जा सकता है?”

”अजब बन्धन से तुम लोगों ने मुझे बाँध दिया!”

”हाँ, बन्धन का मोह नहीं होता, तो आदमी काहे को जीता? बचपन में एक कहानी सुनी थी हीरामन सुग्गे की। मेरे-जैसा ही एक देव था। उसका मन हीरामन सुग्गे में बस गया था। जब हीरामन मरा, तो वह देव भी मर गया। उसी तरह लगता है कि जिस दिन तू मरेगी, उसी दिन मैं भी मर जाऊँगा।”

”भैया!” भाभी चीख पड़ी, ”ऐसी बात फिर मुँह पर न लाना!”

”तो तू भी फिर वैसी बात मुँह पर न लाना समझी?” कहते-कहते मटरू की आँखें भर आयीं-”ज़िन्दगी जीने के लिए है, परिस्थितियों से लड़ कर जीने का ही नाम ज़िन्दगी है। मन छोटा करके इस दुनिया में नहीं जिया जा सकता!”

‘मैं भी मर्द होती…”

”नहीं, औरत होकर भी कर, तब तो तारीफ का ढिंढोरा पीटकर मैं लोगों से कह सकूँगा कि एक बहन है मेरी, जो हिम्मत में मर्दों” के भी कान काटती है!”

”तुम्हारे पास रहकर यहाँ कोई डर-भय नहीं लगता।”

”गंगा मैया की छाया में आकर सब डर भाग जाता है। यहाँ की मिट्टी और हवा ही कुछ ऐसी है। लखना की माँ भी पहले बहुत डरती थी, लेकिन जब से यहाँ रहने-सहने लगी, सब डर-भय छूमन्तर हो गया। अब देखती हो न कैसे रहती है!”

”हाँ, तुम भी मेरे साथ वहाँ कुछ दिनों के लिए चलोगे न?”

”क्यों, गोपिया पर भरोसा नहीं क्या?”

”है, लेकिन उतना नहीं। तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।”

”अरे लखना की माँ!” मटरू ने पुकारकर कहा, ”सुनती है, यह क्या कहती है! यह तो तेरी सौत बन गयी मालूम होती है!”

लखना की माँ एक ओर बैठी दही मथकर लोनी निकाल रही थी। हँसकर वहीं से बोली ”ऐसी सौत मिले, तो गले की माला बनाकर पहनूँ। बहन, ले, यह मट्ठा तो दे भाई को, कहीं बिना पिये ही न निकल जाए। आजकल इसे किसी बात की सुध थोड़ी ही रहती है।”

भाभी के हाथ से मट्ठे का लोटा ले, गट-गट पीकर मटरू बोला, ”अच्छा अब चलूँ, थोड़ी बहुत तैयारी तो करनी ही पड़ेगी। बीस-पच्चीस ही दिन तो रह गये लगन के। पूजन को शहर भेजना है आज।” और वह ”ए गंगा मैया तोहके चुनरी चढ़इबो…” गुनगुनाता हुआ बाहर निकल गया।

गंगा मैया का आँचल धानी रंग में रँगकर लहरा उठा था। देखकर किसानों की छाती फूल उठती। इतना ज़बरदस्त धान आया था कि टाँगे से कटे। रब्बी न बोने का अफसोस जाता रहा। उससे कहीं ज्य़ादा धान की पैदावार होगी। गंगा मैया की लीला अपरम्पार है। उसके आँचल में क्या-क्या भरा पड़ा है, इसका अन्दाज कौन लगा सकता है? जो जितनी सेवा इस धरती की करे, गंगा मैया उसे उतना ही दे! मेहनत कभी अकारथ हुई है?

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पूजन ने शहर से आकर अपनी गठरी बहन के सामने रख दी। वह चौके में बैठी मटरू को खयका खिला रही थी। भाभी एक ओर बैठी सूप में गेहूँ फटक रही थी।

मटरू ने कौर निगलकर औरत से कहा, ”खोलकर देख तो, क्या-क्या है?” फिर भाभी की ओर मुँह फेरकर बोला, ”अरी, तू भी आ! नहीं तो तेरी भाभी अकेले ही सब हथिया लेगी!”

भाभी आकर खड़ी हो गयी, तो लखना की माँ ने गठरी खोली। चाँदी के नये-नये गहनों की चमक से आँखें जगमगा उठीं। लखना की माँ का चेहरा खुशी से उद्दीप्त हो उठा। वह एक-एक को उठा-उठाकर देखने लगी। मन की उमंग दबाती हुई भाभी भी झुक गयी।

कड़ा, गोड़हरा, हँसली, बाजूबन्द, हलका…हर-एक का एक-एक जोड़ा। लखना की माँ ने पूछा, ”ये जोड़े क्यों मँगाये? इतने…”

”क्यों?” बीच में ही मटरू बोल पड़ा, ”हमारे घर दो पहननेवालियाँ हैं न?”

”भैया!” भाभी चीख-सी पड़ी, ”मेरे लिए तुमने काहे को मँगाये?”

”क्यों, भाई के घर से नंगी ही ससुराल जाएगी क्या? कोई देखेगा, तो क्या कहेगा? पगली, यह तू क्यों नहीं समझती कि मेरे कोई लडक़ी नहीं है, और अब” कनखी से अपनी औरत की ओर देखकर बोला, ”होने की कोई उम्मीद भी नहीं। तुझसे ही बेटी की साध भी पूरी करनी है! इसने न जाने कितनी बार गहने के लिए कहा था। आज तेरे ही भाग्य से इसके लिए भी आ गये। पसन्द है न?”

तभी बाहर से एक किसान ने आकर कहा, ”पहलवान भैया, फूलचन गिरफ्तार हो गया। बाहर ख़बर देने एक आदमी आया है। कहता है…”

खयका अधखाया ही छोडक़र मटरू उठकर बाहर लपका। बाहर बहुत-से किसान जमा थे। सबके चेहरे पर परेशानियाँ थीं। पूछने पर ख़बर लानेवाले ने कहा, ”फूलचन के बाप ने नाव पर ख़बर भेजी है कि फूलचन आज दोपहर को गाँव में आने पर गिरफ्तार हो गया। अपनी बीमार माँ को देखने वह आज सुबह ही घर गया था। दोपहर को दस पुलिसवाले आकर उसे गिरफ्तार कर ले गये। वे औरों को भी खोज रहे थे। कहते थे, सौ आदमियों पर वारण्ट है दीयर के मामले में। ज़मींदारों ने फौजदारी चलायी है।”

सुनकर सब सन्नाटे में आ गये। ज़मींदार कुछ करने वाले हैं, यह सबको मालूम था, लेकिन अचानक इस तरह वारण्ट कट जाएगा, यह कौन समझता था। सोचकर मटरू ने कहा, ”सब नावें इस पार मँगा लो। उधर के तीर पर एक भी नाव न रहे और इधर उस पार जाने वाली नावों को भी तैयार रखो। सबसे कह दो, कोई गाँव में न जाए। सब लाठियाँ तैयार रखो। सबसे कह दो होशियार रहें। एक नाव सिसवन घाट के सामने उधर से ख़बर लाने के लिए भेज दो। हाँ, फूलचन के बाल-बच्चे कहाँ हैं?

”यहीं अपनी झोंपड़ी में हैं। सब रो रहे हैं।” एक ने बताया।

”चलो, उन्हें सँभालो”, आगे बढ़ता हुआ मटरू बोला, ”सिसवन घाट कौन जा रहा है? कोई होशियार आदमी जाए। गाँवों में अपने आदमियों को भी तैयार रहने की ताकीद करनी होगी। ये ज़मींदार अब खून-ख़राबी पर उतर आये हैं।”

सत्रह

दूसरे दिन झटपट एक-एक करके सब झोंपडिय़ाँ उठाकर झाऊँ के जंगल में खड़ी कर दी गयीं। तीरों पर जवानों का पहरा बैठा दिया गया। ख़बर मिलती रही कि पुलिस वाले रोज गाँवों का एक चक्कर लगाया करते हैं, लेकिन दीयर के किसानों को यह मालूम था कि जब तक हम यहाँ हैं, कोई हमारा बाल बाँका नहीं कर सकता। इस किले में आकर कोई दुश्मन अपनी जान बचाकर नहीं जा सकता। सब चौकन्ने हो गये थे। कोई अपने तिरवाही के गाँव में नहीं जाता। ज़रूरत की चीजें इधर से पारकर बिहार के कस्बे से लायी जाती हैं। एक ओर से जीवन की डोर कटकर दूसरी ओर जा जुड़ी है। सब ठीक चल रहा है। कोई गम नहीं। धारायें वैसे ही बह रही हैं। धान वैसे ही लहलहा रहे हैं। हवा वैसे ही चल रही है।

लेकिन इधर मटरू कुछ परेशान-सा है। ज़िन्दगी में कभी भी परेशान न होनेवाला मटरू आज परेशान है। बहन की शादी है। कहीं ऐन मौके पर विघ्न न पड़ जाए। फिर कौन-सा मुँह वह दिखाएगा अपनी हीरामन को! आजकल गंगा मैया की टेर उसकी बहुत बढ़ गयी है। उठते-बैठते, सोते-जागते बराबर, उसके मुँह से यही निकलता रहता है, ”मेरी मैया! यह नाव पार लगा दे। मेरी मैया…”

बहन-बेटी का भार क्या होता है, आज उसे मालूम हो रहा है। न खाना अच्छा लग रहा है, न पीना। औरत और भाभी पूछती हैं, तो रुआँसा होकर कहता है, ”जी नहीं होता। सोचता हूँ मेरी बहन चली जाएगी, तो मेरी यह झोंपड़ी कितनी उदास हो जाएगी!”

”तो जाने क्यों देते हो? रोक लो!” औरत परिहास करती।

”क्या बताऊँ? ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई’…और गुनगुनाता हुआ वह वहाँ से हट जाता है। बाहर निकलकर वही टेर लगाने लगता है, ”मेरी मैया! यह नाव पार लगा दे! मेरी मैया…”

मैया ने बेटे की पुकार सुन ली थी। सकुशल वह दिन आ पहुँचा। शाम के धुँधलके झुकते ही सिसवन घाट पर बारात उतरी। नाऊ, पण्डित, वर और पाँच बराती। न बाजा, न गाजा। जैसे पार उतरनेवाले राही हों।

फिर भी, उस दिन रात-भर झाऊँ के जंगलों में हवा शहनाई बजाती रही। गंगा मैया की लहरें किसानिनों के गले से गला मिलाकर मंगल के गीत रात-भर गाती रहीं। किसानों की टिमकी बजी। बिरहों की बहारें लहरायीं। रात-भर मधु की ओस टपकती रही, टप, टप!

जंगल की नन्हीं-नन्हीं चिडिय़ों और नदी के बड़े-बड़े पंछियों ने एक साथ मिलकर जब प्रभाती शुरू की, तो विदाई की तैयारियाँ होने लगीं।

दुलहन लखना की माँ से लिपटकर वैसे ही रोयी, जैसे एक दिन वह अपनी माँ से लिपटकर रोयी थी। लखना और नन्हों को वैसा ही चूमा-चाटा, जैसे एक दिन अपने भतीजों को चूमा-चाटा था। फिर पूजन की भेंट ली। मटरू इन्तजाम में भागा-भागा फिर रहा था। न जाने क्यों उसे बड़ी घबराहट-सी हो रही थी। बहन उसके पाँव पकडक़र रोएगी, तो वह क्या करेगा, उसकी समझ में न आ रहा था।

आख़िर सवारी दरवाजे पर आ लगी, विदा की घड़ी आन पहुँची। बहन भेंट करने के लिए भैया का इन्तज़ार कर रही है। अब भागकर कहाँ जा सकता है?

दिल कड़ा करके वह खड़ा हो गया। दुलहन पाँव पकडक़र रोने लगी। लखना की माँ ने उसे उठाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह पाँव छोडऩे ही पर न आती। मटरू बुत बना खड़ा था। रुदन की किन मंज़िलों से चुप-चुप वह गुजर रहा था, यह कौन बताए?

आख़िर जब वह उसे उठाने के लिए झुका, तो दो पत्थर के आँसू टपक पड़े। उसकी बाँहों में खड़ी, उसके कन्धे पर सिर डालकर दुलहन ने कहा, ”तुम साथ चलोगे न?”

”यह क्या कहती है, बहन!” लखना की माँ ने चिन्तित होकर कहा, ”इस पर वारण्ट है न!”

मटरू ने उसका मुँह हाथ से बन्द करना चाहा, लेकिन वह कह ही गयी।

दुलहन ने सिर उठाकर जाने किस व्याकुलता पर काबू पाकर कहा, ”नहीं, भैया, तुम्हारे जाने की ज़रूरत नहीं, लेकिन बहन को भूल न जाना! माँ-बाप, भाई-बहन सबको खोकर तुम्हें पाया है, तुम भी भुला दोगे, तो मैं कैसे जीऊँगी?”

”नहीं-नहीं, मेरी हीरामन! तुझे भुलाकर मैं कैसे रह सकूँगा? तू हिम्मत से काम लेना। मैं…” और ज्य़ादा कुछ कह सकने में असमर्थ हो हट गया।

तीर तक उदास मटरू गोपी को समझाता रहा। गोपी ने उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता की कोई बात नहीं, वह हर हद तक तैयार है। लेकिन मटरू को सन्तोष कहाँ? उसके कानों में तो वही बात गूँज रही थी, ”तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।”

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नाव चली जा रही है, बाल-बच्चों, किसान-किसानिनों के साथ खड़ा मटरू ताक रहा है, उसकी उदास आँखे जैसे उस पार, दूर एक तूफ़ान को आते देख रही हैं, जो उसकी बहन का स्वागत करने वाला है। ओह, वह साथ क्यों न गया?

घर आकर उदास मटरू चटाई पर पड़ रहा। उदास धूप फैल गयी है। दूध के मटके एक ओर पड़े हैं। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। थकी गृहिणी को जैसे कोई होश ही नहीं। सचमुच घर कितना उदास हो गया है। मटरू का दिल भरा-सा है। खूब रोने को जी चाहता है। एक ही कलक मन को मथ रही है, वह बहन के साथ क्यों न गया?

काफी देर के बाद गृहिणी उठी। इस तरह बैठे रहने से काम कैसे चलेगा? सारा काम-धाम पड़ा है। मर्द के पास आकर बोली, ”जाओ, नहा-धो आओ। इस तरह कब तक पड़े रहोगे?”

”नहा-धो लूँगा,” मटरू ने अनमने ढंग से कहा, ”मुझे उसके साथ जाना चाहिए था। जाने बेचारी पर क्या पड़े?”

”गोपी क्या मर्द नहीं है?” तुनककर औरत बोली, ”तुम तो नाहक सोच फिकिर कर रहे हो! उठो!” कहकर उसकी देह पर की चादर खींचने लगी।

”मर्द है तो क्या हुआ? आखिर माँ-बाप का लेहाज तो आदमी को करना ही पड़ता है। मुझे डर लगता है, कहीं उसने कमज़ोरी दिखाई तो मेरी हीरामन का क्या होगा? मुझे जाना चाहिए था, लख़ना की माँ!”

”कुछ होगा तो ख़बर मिलेगी न! इस वक़्त तो तुम उठो। देखो, कितनी बेर हुई। घर का सारा काम अभी उसी तरह पड़ा है!” कहकर अन्दर से धोती-दातून ला उसके हाथों में थमाती बोली, ”जाओ, जल्दी नहा-धो आओ! मन हल्का हो जाएगा।”

किसी तरह कसमसाकर मटरू उठा और तीर की ओर चल पड़ा।

आज गंगा-स्नान में वह आनन्द न आया। ज़िन्दगी में इस तरह का यह पहला अनुभव था। उसे लग रहा था कि आज गंगा मैया भी उदास है। उसकी धारा में वह जोर नहीं, उसकी लहरों में वह थिरकन नहीं, उसमें तैरती मछलियों में वह चपलता नहीं। कहीं कोई तार ढीला हो गया है। साज बेसाज़ हो गया।

‘तुम्हारे पास रहकर यहाँ कोई डर भय नहीं लगता…जब सोचती हूँ कि वहाँ फिर जाने पर कैसी आफत और विकट दशा में पड़ूँगी, तो मन कितना बेकल हो जाता है…तुम भी मेरे साथ वहाँ कुछ दिनों के लिए चलोगे न? …तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं…’ मटरू के मन में ये बातें गूँज-गूँज जाती हैं और उसे लगता है कि उसने जान-बूझकर ही अपनी हीरामन को उस विकट परिस्थितियों में अकेली झोंक दिया है। और वह मन-ही-मन तड़प उठता है। क्यों, क्यों वह नहीं साथ गया? क्यों उसे अकेली छोड़ दिया? क्यों उसके साथ विश्वासघात किया?

वारण्ट! यहाँ का उसका कर्तव्यर! कहीं उसे कुछ हो गया होता, तो यहाँ उसके साथियों की क्या हालत होती? …साथी उसके अब पहले की तरह बेवकूफ नहीं हैं। उन्हें अपने पाँवों पर खड़ा होना सीखना चाहिए। मटरू आखिर हमेशा उनके साथ कैसे बना रहेगा? मटरू के जीवन में पहले एक ही कर्तव्यर था, लेकिन अब तो दो हो गये हैं। उसे अपने दोनों कर्तव्योंा को निभाना है। दोनों मोर्चों पर बराबर के दुश्मन हैं। एक के ज़ालिम पन्जों में पडक़र कितने ही किसान तड़प रहे हैं और दूसरे के खूनी जबड़े में एक बहन कराह रही है। एक नहीं अनेक! उनके लिए भी रास्ता निकालना है।

घाट पर बैठा, खोया-खोया मटरू जाने ऐसी ही क्या-क्या ऊल-जलूल बातें सोचे जा रहा था कि पूजन ने आकर कहा, ”बहना तुम्हें बुला रही है। चलो, जल्दी करो। कब के यहाँ यों बैठे हो?” कहकर मटरू के सामने पड़ी भीगी धोती उसने उठा ली।

चलते-चलते मटरू ने कहा, ”पूजन, एक बात पूछूँ?”

”कहो?”

”अगर मैं न रहा, पूजन तो तुम लोग सब सँभाल लोगे न?”

”लेकिन तुम रहोगे कैसे नहीं? गंगा मैया तुमसे छोड़ी जा सकती हैं?”

”नहीं, छोड़ी कैसे जा सकती हैं? लेकिन मान लो मैं न रहूँ?”

”वाह! यह कैसे मान लें?”

”अरे, उस दफे नहीं हुआ था। मैं क्या गंगा मैया को छोड़ सकता था? लेकिन संयोग कि पुलिसवालों की पकड़ में आ गया। उसी तरह

”अब यह कैसे हो सकता है, पाहुन? तब तुम अकेले थे। अब सैकड़ों जवान तुम पर जान देने को तैयार हैं। भले ही हमारी जान चली जाए, लेकिन तुम्हारा बाल बाँका न होने देंगे! पाहुन, तुम धरती की जान हो!”

”सो तो है लेकिन संयोग…”

”नहीं-नहीं, पाहुन, ऐसा संयोग आ ही नहीं सकता…”

”ओफ, तुमसे तो बात करना ही मुश्किल है, पूजन! अच्छा मान ले, मैं मर ही गया।”

”पाहुन!” पूजन चीख पड़ा, ”ऐसी बात मुँह से क्यों निकालते हो?”

”पूजन!” गम्भीर, विह्वलता के स्वर में मटरू बोला, ”गंगा मैया का उनकी धरती का, इन खेतों का, इस हवा और पानी का, इस जंगल और इन किसानों का और अपने साथियों का मोह मुझे अपने बाल-बच्चों की तरह, बल्कि उनसे भी कहीं ज्य़ादा है। आज ख़याल आ गया कि कहीं मैं न रहा, तो अन्यायी ज़मींदारों के पाँव इस धरती पर फिर तो नहीं जम जाएँगे?”

”नहीं पाहुन, नहीं! अगर यही बात है, तो सुन लो कि तुम्हारे साथी अपने खून की आख़िरी बूँद तक से इसकी रक्षा करेंगे! जिस तरह गुज़रा ज़माना फिर वापस नहीं आता, उसी तरह ज़मींदारों के उखड़े पैर यहाँ फिर नहीं जम पाएँगे! हमारा ज़ोर दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। हमारे साथी बढ़ते जा रहे है। ज़माना आगे बढ़ रहा है! नहीं, पाहुन, वैसा कभी न होगा! यहाँ का हर किसान आज मटरू बनने की तमन्ना रखता है! तुम इसकी चिन्ता न करो, पाहुन!”

”शाबाश!” मटरू ने पीठ ठोंककर कहा, ”आज मैं खुश हूँ, बहुत खुश, पूजन! ऐसा ही होना चाहिए, ऐसा ही!”

और सचमुच उदासी छँट गयी। चेहरा पहले ही की तरह दमक उठा। आँखें चमक उठीं।

लेकिन जैसे ही झोंपड़ी में घुसा, वह पहले की ही तरह फिर उदास हो गया।

औरत ने चौके में पीढ़ी डाली। लोटा भरकर पानी रखा। फिर बोली, ”आओ, रोटी खा लो।”

बैठकर मटरू ने पहला कौर तोड़ते हुए कहा, ”जी नहीं कर रहा।”

‘जी कैसे करे? तेरी हीरामन तो चली गयी!”

”ऊँहूँ, उसके जाने की चिन्ता नहीं।”

”फिर?”

”जाने उस पर क्या बीते? अब तो पहुँच गयी होगी।”

”बीतेगी क्या? ‘हम-तुम राजी तो क्या करेगा काजी?’ गोपी तैयार है, तो उसका कौन क्या बिगाड़ लेगा?”

”सो तो है रे, लेकिन यह हत्यारा समाज बड़ा ज़ालिम है। कितने ही गोपियों को इसने ज़िन्दा चबा डाला है। और गोपी कुछ कमज़ोर है भी। वैसा न होता, यह कहानी इतनी लम्बी क्यों होती? वह तो संयोग कहो, कि गोपी कुँए पर जगा पड़ा था, नहीं तो कहानी खत्म होने में देर ही क्या थी? सोचता हूँ कि जिस वक़्त गोपी की माँ उसकी भाभी को जली-कटी सुना रही थी, अगर उसी वक़्त हिम्मत करके, आगे बढक़र गोपी अपनी भाभी का हाथ थाम लेता, तो कौन उसका क्या कर लेता? लेकिन वह वैसा न कर सका। औरत का मर्द पर से एक बार विश्वास हट जाता है, तो फिर मुश्किल से जमता है। कहती थी न वह, ”तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।”

”तो तुम्हारे ही विश्वास पर उसकी ज़िन्दगी पार लगेगी? आख़िर…।”

”अरे, सो तो है री, कौन किसकी ज़िन्दगी पार लगा देता है? वक़्त की बात होती है। उसे इस वक़्त मेरे सहारे की ज़रूरत थी। दो-चार दिन में आँधी गुजर जाती, तो सब आप ही ठीक हो जाता…”

”सब ठीक हो जाएगा। रोटी खाओ!” छिपली में गरम दूध डालती हुई औरत ने बात ख़त्म कर दी, ”जो हुआ हमसे, किया न? कौन इतना गैर के लिए करता है?”

”तू औरत है न, लखना की माँ,” दर्द-भरे स्वर में मटरू बोला, ”मेरे और मेरे बच्चों के सिवा तेरा कोई अपना नहीं, मैं किसी को अपना बना लूँ तो ऊपर से तू भी उसे अपना कह देगी। मेरी मंशा ही तो तेरी मंशा है। तेरा दिल इतना बड़ा, इतना आज़ाद कहाँ कि मेरी मंशा के ख़िलाफ भी तू अपनी मंशा से किसी गैर को अपना बना ले। गोपी की भाभी जब तक यहाँ रही, तू उसे अपनाये रही, क्योंकि यही मेरी इच्छा थी। लेकिन मन तेरा अन्दर से उसे अपना न बना सका। लखना की माँ, मान ले कि कहीं तू आफत में फँस जाए और तेरी मदद को मैं न जाऊँ तो?”

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”चुप भी रहो! खा लो, फिर फेटना न बैठकर!”

जी न होते भी मटरू ने भर पेट खाया। औरत का इसमें कोई दोष नहीं। वह जानता है, जैसी वह बनी है, वैसा ही व्यवहार तो करेगी। न खाकर उसका मन मैला क्यों करे?

चटाई बाहर धूप में बिछाकर, हुक्का ताजा कर औरत ने रख दिया। मटरू गुडग़ुड़ाता रहा और सोचता रहा। सोचते-सोचते ऊँघनेलगा। रात-भर का ज़ागा था। हुक्का एक ओर टिकाकर फैल गया और थोड़ी देर में ही नींद में डूब गया। औरत ने चादर लाकर ओढ़ा दी।

शाम ढल गयी।

कहीं कोई आफत का मारा अकेला तोता बड़े दर्दनाक स्वर में टें-टें चीखता हुआ मटरू के सिर पर से उड़ा, तो मटरू की नींद खुल गयी। जाने किस सपने में चौंककर वह पुकार उठा, ”पूजन! पूजन!”

दौड़ते हुए आकर पूजन ने कहा, ”तूफान आ रहा है, पाहुन। उत्तर का आसमान काला हो गया!”

तोते की टें-टें आवाज़ अब भी आसमान में गूँज रही थी। मटरू चादर फेंककर खड़ा हो गया। फिर इधर-उधर आँखें फैलाकर देखता बोला, ”पूजन, मेरी हीरामन तूफान में फँस गयी है, सुन रहा है न उसका चीत्कार!” और सिसवन घाट की ओर पैर बढ़ा दिये।

दरवाज़े पर खड़ी औरत चिल्लायी, ”कहाँ जा रहे हो?”

पूजन बोला, ”इस तूफान में कहाँ जा रहे हो?”

मुडक़र मटरू ने कहा, ”अभी लौट आऊँगा।”

तूफान आ गया, गंगा मैया की लहरें, चीख़ उठीं; हवा सूँ-सूँ कर उठी। जंगल सिर धुनने लगा। धरती हिलने लगी। झोंपडिय़ाँ अब गिरीं, अब गिरीं।

घाट पर नाववाले से मटरू ने कहा, ”खोलो, जल्दी करो!”

‘इस तूफान में, पहलवान भैया? यह क्या कह रहे हो?” नाववाला आँख-मुँह फाडक़र बोला।

”कोई हर्ज नहीं! अपनी मैया की ही तो लहरें हैं! उठाओ लग्गी! मुझे जल्दी है! लाओ, मुझे दो! तुम चुपचाप बैठे रहो!” और मटरू ने नाव खोल दी। देखते-देखते चिंग्घाड़ती लहरों में नाव अदृश्य हो गयी।

गोपी के दरवाज़े पर मटरू की गोजी धम से जब बोली, तूफान गुजर चुका था। बाद का सन्नाटा घर पर छाया था। हमेशा की तरह बूढ़े ने आवाज न दी। मटरू खुद ही आगे बढक़र बोला, ”पाँय लागों, बाबूजी!”

बाबूजी चुप!

”नाराज़ हो क्या, बाबूजी? नयी बहू पसन्द नहीं आयी क्या? वह क्या बिल्कुल तुम्हारी बड़ी बहू की तरह नहीं है? मैंने कहा था न…”

”हट जाव मेरे सामने से!” बूढ़ी हड्डी चटख उठी।

‘हट कैसे जाएँ? रिश्तेदारी की है कोई दिल्लगी है?”

”मेरी नाम-हँसाई करके जले पर नमक छिडक़ने आया है? ढोल तो पिट गया गाँव-भर में! क्या बाकी रह गया? मुझे पहले ही क्यों न मार डाला, चाण्डालों!”

”ऐसा क्यों कहते हो, बाबूजी! तुम मेरी उमर भी लेकर जीओ! उस दिन तुम्हीं ने तो कहा था, ”उसकी याद आती है तो कलेजा फटने लगता है। माँ-बाप के लिए क्या बेटे से बढक़र बिरादरी है! बिरादरीवाले क्या हमें खाना देंगे…लेकिन हमें क्या मालूम था…” अब तो हो गया मालूम! अब तो कलेजा नहीं फटना चाहिए। लेकिन यहाँ तो…”

”चुप रह! मैं क्या समझता था, कि तुम-सब ऐसे पागल…”

मटरू हँसा। बोला, ”पागल तुम और तुम्हारा समाज है, बाबूजी! लेकिन जो उनका अन्धेरखाता और पागलपन ख़त्म करके एक गऊ की जान बचाने के लिए आगे बढ़ता है, उसे ही वे पागल कहते हैं।”

”यह-सब जा-कर तू उसी से कह! मेरे सामने से हट जा।”

‘कहाँ है वह!”

”चौपाल में।”

”चौपाल में? घर में नहीं?”

”मेरे जीते-जी वह घर में पाँव नहीं रख सकता!”

”तो उनका एक घर और भी है। चौपाल में क्यों रहेंगे? मैं अभी…”

”बाप-बेटे के झगड़े में तू क्यों पड़ा है? तू जाता क्यों नहीं?”

‘यह बाप-बेटे का झगड़ा नहीं है। यह पूरे समाज और उसकी लाखों विधवाओं का झगड़ा है। इसके साथ मेरी बहन की ज़िन्दगी का वास्ता है।”

‘वह मेरा बेटा है…”

”नहीं, जिस बेटे को तुमने घर से निकाल दिया…”

”अरे, यह क्या शोर मचा रखा है?” बूढ़ी चीखती हुई आ गयी।

”छाती पर मूँग दलने मटरू आया है!” बूढ़े ने करवट लेकर कहा।

”गाँव-घर में तो थू-थू करा दिया! अब क्या बाकी है?” बूढ़ी ने हाथ चमकाकर कहा।

”उन्हें लिवाने आया हूँ!” मटरू ने कहा।

‘तू कौन होता है उन्हें लिवा जाने वाला? उसके माँ-बाप क्या मर गये हैं?” बूढ़ी ने उसके मुँह पर थप्पड़ उलाते हुए कहा।

‘आज मालूम हुआ कि मर गये! नहीं तो वे घर से निकालकर चौपाल में नहीं डाले जाते।”

”यह तुझसे किसने कहा?” बूढ़ी ने शान्त होकर कहा।

”बाबूजी…”

”इनकी मति को तुम क्या लिये फिरते हो? इधर आओ।” कहकर बूढ़ी उसका हाथ पकडक़र घर के अन्दर ले जाकर फुसफुसाकर बोली, ”देखकर मक्खी नहीं निगली जाती! क्या करते, टोले मुहल्लेवाले, गाँव-गोंयड़े के सब-के-सब कीचड़ उछालने लगे, तो बुढ़ऊ ने उन्हें चौपाल में कर दिया। मैंने बहुत सहा। जब सहा न गया, तो मैं भी उघटा-पुरान लेकर बैठ गयी। इसी गाँव में मेरे बाल सफेद हुए हैं। किसी का कु छ छिपा नहीं है मुझसे। जब झाडऩे लगी, तो सब दुम-दबाकर भाग गये। तुम्हीं कहो, किसी चमार-डोमिन से मेरी बहू ही ख़राब है? डंके की चोट पर उससे ब्याह किया है! शोहदों-घठियों की तरह चोरी-लुक्के तो अपना मुँह काला नहीं किया? माना कि उसने बुरा किया, लेकिन पागल बनकर कर ही डाला, तो क्या उसका सिर उतार लिया जाए? बेटा ही तो है। लाख बुरा उसका माफ किया, तो एक और सही। अपने सड़े हाथ कोई काटकर तो नहीं फेंक देता। भगवान् ने जो माला गले में डाल दी, उसे उतारकर कैसे फेंक दूँ? मैं उन्हें खुद घर में ले आयी हूँ। उनका घर है। कौन उन्हें निकाल सकता है? हम बूढ़ों का क्या ठिकाना? आज हैं, कल नहीं। उन्हें तो भोगने को सारी ज़िन्दगी पड़ी है। जैसे चाहे रहें! …तू खाएगा न? रसियाव-पूरी बनायी है रे!”

मटरू ने झुककर बूढ़ी के पैर छू लिये और गद्गद होकर कहा, ”माई तू कितनी अच्छी है! यह बाबूजी तो…”

”ताजा गुस्सा है! सब ठीक हो जाएगा। बाप बेटे पर कब तक नाराज़ रह सकता है? खाएगा? हाथ-पैर धो न!”

‘वे कहाँ हैं? मटरू ने बूढ़ी के कान में कहा।

बूढ़ी ने मुस्कुराते हुए उसके कान में कुछ कहा। मटरू भी मुस्करा पड़ा।

‘चल चौके में” आगे बढ़ती हुई बोली, ”खा ले।”

”अब कैसे खाऊँ? वह मेरी छोटी बहन है न। उसका धन…मैं अब चलूँगा गंगा मैया पुकार रही हैं। सब परेशान होंगे।”

तभी बगल की कोठरी का दरवाज़ा खुला और खुशी की दो मूरतों ने निकलकर मटरू के दोनों पैर पकड़ लिये।

गद्गद होकर मटरू ने कहा, ”गंगा मैया तेरा सुहाग अमर रखें, मेरी हीरामन!”

खड़ी होकर, घूँघट में सिर झुकाये हीरामन बोली, ”जैसे होंठों से लाज टपके, गंगा मैया को मैंने चुनरी भाखी थी, भैया। भाभी से कह देना, चढ़ा देगी।”

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गंगा मैया भाग 6 – Ganga Maiya Part 6

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Further Reading:

  1. गंगा मैया भाग 1
  2. गंगा मैया भाग 2
  3. गंगा मैया भाग 3
  4. गंगा मैया भाग 4
  5. गंगा मैया भाग 5
  6. गंगा मैया भाग 6

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