गड़वाट | गोविंद सेन
गड़वाट | गोविंद सेन

गड़वाट | गोविंद सेन – Gadavat

गड़वाट | गोविंद सेन

सड़क के नीचे गड़वाट दबी है। जैसे कालीन के नीचे धूल भरा खुरदरा फर्श। वही गड़वाट जिसमें पहाड़ों से उतरकर पगडंडियाँ गुम हो जाती हैं, जो बैलगाड़ियों के चलने से बनती हैं। गड़वाट में पहियों के कारण दो गहरी लीकें बन जाती हैं, इन लीकों पर सायकल चलाना आसान नहीं होता। सायकल को बहुत सँभलकर और संतुलन बनाकर चलाना होता है।

इस सड़क के नीचे चालीस सालों से यादों की धूल और तीखी गिट्टी दबी पड़ी है और शायद यूँ ही दबी पड़ी भी रहेगी अब, पता नहीं कितने बरसों तक। वह अक्सर काला भाटा की खोदरी पर बनी पुलिया पर आकर ठिठक जाता है। यहीं से वापस पलट भी जाता है, जैसे यह पुलिया उसकी सीमा हो।

यहाँ आकर उसके दिल में कुछ चुभने सा लगता है। दिल में एक टीस सी उठती है। वह जानता है कि जो कुछ हो चुका है, उसमें कुछ भी फेर-बदल नहीं किया जा सकता। फिर भी उस बात को लेकर उसके मन में एक खलिश सी बनी रहती है। वह परेशान हो जाता है और पूरब की ओर वापस अपने नगर के लिए पलट जाता है। उसका चेहरा सूरज की ओर हो जाता है। लेकिन मन में अँधेरा छाने लगता है। वह रोज सुबह इसी सड़क पर घूमने आता है।

अब ग्राम सड़क योजना के तहत उसका गाँव डामर की सड़क से जुड़ चुका है। तमाम खोदरे और खोदरियों पर स्टॉप डेम, पुल, पुलिया आदि बन गई हैं। जब वह पढ़ने आता था, तब यह पुलिया नहीं बनी थी। खोदरी में साफ पानी तेज वेग से बहा करता था। आज पुलिया बन चुकी है लेकिन खोदरी सूखी पड़ी है।

कोई आदमी जिंदगी भर चलकर चलकर सिर्फ पाँच किलोमीटर तक पहुँचे, यकीन नहीं आता। लेकिन उसके साथ यही हुआ है। उसके छोटे से गाँव और इस नगर की दूरी सिर्फ पाँच किलोमीटर ही तो है। पहले गाँव में था और अब नगर में रहता है। गाँव में जवान हुआ था, नगर में बूढ़ा हो रहा है।

तब खोदरी के आसपास बड़े-बड़े काले भुरभुरे पत्थर प्राकृतिक रूप से उभरे हुए थे। यह क्षेत्र काला भाटा कहलाता था, आज भी यही नाम है इसका। लेकिन पहले-सी वीरानी अब नहीं रही। न ही वे काले पत्थर जिनकी वजह से इस भू-दृश्य का नाम काला भाटा सहज ही पड़ गया था। यहाँ अब एक पाइप फैक्ट्री बन गई है। परिसर में ढेर से सीमेंट के पाइप बेतरतीब पड़े रहते हैं। पता नहीं किस जादू से अब काले पत्थर गायब हो गए हैं। उबड़-खाबड़पन भी कम हो गया। थोड़ा समतलीकरण भी हो गया है। यहाँ अब सहकारी समिति की एक बिल्डिंग प्रकट हो गई है। फैक्ट्री और इस समिति की बिल्डिंग से बची जमीन पर भील-मजदूरों की एक भरी-पूरी बस्ती उग आई है, जहाँ कुछेक टापरियों में सुबह से ही ऊँची आवाज में टेप पर सस्ते गाने बजते रहते हैं।

उत्तर की तरफ एक आरा मशीन लग गई है। जहाँ अक्सर बड़े-बड़े पेड़ मांस पिंडों की तरह कटे हुए पड़े रहते हैं। दक्षिण तरफ मसाण था, जो अब भी है। भील अपने मृतकों को यहीं गाड़ते रहे हैं। कच्ची कब्रों में मृतक को दबा काँटे और बड़े-बड़े पत्थर रख दिए जाते हैं ताकि कुत्ते, सियार आदि जानवर उन्हें खोद न सके।

इसी तरफ उदाबा के लगाए दो बरगद हैं। एक बरगद तो बेचारा सड़क के बिलकुल किनारे ही है। सड़क की ओर उसको फैलने की जगह नहीं मिली जिससे प्रशाखाएँ बढ़ ही नहीं पाई हैं। सड़क पर आवागमन के कारण उसकी लटकती जटाएँ कटकर छिपकली की पूँछ सी लगने लगी हैं। बरगद सड़क की ओर किसी लाचार आदमी की तरह झुका हुआ है, जैसे सड़क को नमन कर रहा हो। वह बरगद होकर भी एक साधारण से पेड़ से भी गया-बीता नजर आता है। दूसरे बरगद और टापरियों के बीच एक छोटा सा गुलाबी रंग से पुता प्रायमरी स्कूल फँसा था। धूसर टापरियों के बीच स्कूल खिले गुलाब के फूल सा नजर आता है।

वह नगर की ओर वापस पलट गया है, लेकिन कुछ क्षण के लिए रुका रह गया। जैसे उसे सूझ ही नहीं पड़ रहा हो कि वह क्या करे। आगे बढ़े कि यहीं ठिठका रहे। उसके दिल की चुभन बढ़ती जा रही है। चालीस साल पुराना वह दृश्य फिर जीवंत हो उठता है। एक पुकार उनके कानों में गूँजने सी लगी। इसी खोदरी के इस पार कन्या मानकर उससे पुकार कर निवेदन कर रहे थे – ‘नाना ल रे भाय, इना धन्या कऽ सायकल पर बठाड़ लऽ। एखऽ सरी अई गयोज, अस्पताल ली जाणु छे डाक्टर का पास।’ वह आर्त पुकार आज भी उसे साफ-साफ सुनाई देती है जिसे सुनकर वह आहत हो जाता है।

कन्या मानकर का मूल नाम तो कन्हैया रहा होगा। मानकर उनकी जात है। अक्सर गाँव में नाम के साथ जात को चिपका देते हैं। इस तरह गाँव में उनका नाम पड़ गया – कन्या मानकर। यही कन्या मानकर और उनकी पत्नी अपने बीमार बेटे धन्या को फटा-मैला चादर ओढ़ा सायकल के केरियर पर बिठा कर नगर की ओर ला रहे थे। गाँव में तो इलाज की कोई सुविधा थी नहीं।

धन्या की हालत गंभीर थी। उसके चेहरे पर बदहवासी छाई थी। वह आँखें फेरने लगा था। उसे तुरंत इलाज की जरूरत थी। उसके गले में एक काला रंग का ताजीब और तरह-तरह के डोरे बँधे थे।

कन्या मानकर ने सिर पर मैला गमछा बाँध रखा था। गमछे के बीच से सुओं की तरह बाल निकले हुए थे। काले चेहरे पर मूँछें नीचे की ओर लटकी थी। सामने के दो बड़े दाँत बाहर निकले हुए थे। टेंटुआ स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उनके हाथ में सायकल का हैंडल था। उनकी पत्नी ने धन्या को पकड़ रखा था। बीच रास्ते में सायकल ने उन्हें धोखा दे दिया था। पिछला पहिया पंचर हो गया था। कोई बैलगाड़ी भी आती नजर नहीं आ रही थी। उन्हें समय पर अस्पताल तक पहुँचना मुश्किल लग रहा था। क्या करें और क्या न करें, की स्थिति थी।

ऐसी स्थिति में वह अचानक सायकल सहित उनके सामने नमूदार हुआ था। उसके पास सायकल थी और पंचर भी नहीं थी। हालाँकि चौबीस इंच की वह सायकल सत्रह जगह से वेल्ड की हुई थी। उसे गड़वाट पर चलाने में कुछ असुविधा भी होती थी। गड़वाट में दो लीक होती हैं। किसी एक लीक को पकड़ कर सावधानी से संतुलन बनाकर चलना होता था। वह अच्छा सायकल चालक नहीं था, लेकिन किसी तरह अपना काम निकाल लेता था।

उसकी सायकल देख कन्या मानकर और उनकी पत्नी के मन में आशा का संचार हुआ था। वे उससे लगभग मदद की भीख माँग रहे थे। वे चाहते थे कि धन्या को सायकल पर बिठा कर अस्पताल तक पहुँचाने में वह उसकी मदद करे।

वह पढ़ने के लिए गाँव से नगर के हायरसेकण्ड्री स्कूल में पाँच किलोमीटर की दूरी तय कर आया करता था। उमर होगी कोई पंद्रह साल। खोदरी पार करने के लिए सायकल से उतरना पड़ता था। सामने चढ़ाव था और तब पुलिया तो थी नहीं। कन्या मानकर की पुकार सुन वह असमंजस में पड़ गया था। एक तरफ कुँआ था तो दूसरी तरफ खाईं।

उस खोदरी से नगर तीन किलोमीटर दूर था। रास्ता भी खराब था। तब सड़क बनी नहीं थी। उसे समय पर स्कूल पहुँचना था। देर से पहुँचने पर डाँट पड़नी निश्चित थी। संकोची स्वभाव के कारण कक्षाध्यापक को देरी का कारण समझा पाना भी उसके लिए मुश्किल था। वे इसे बहाना समझते। अधिक देरी होने की स्थिति में गैरहाजरी लग सकती थी, जिसके लिए उसे फाइन भी भरना पड़ती। फाइन के पैसे पिता से माँगने पड़ते। पिता को पूरी बात बताना पड़ती। बात सुन पिता आगबबूला हो जाते। वह पिता का स्वभाव और अपनी सामर्थ्य को समझता था। धन्या को सायकल पर बिठा पैदल घीस कर ले जाना उसके बूते की बात नहीं थी। कन्या मानकर उससे कुछ अधिक ही आशा कर बैठे थे।

कन्या मानकर पुकारते रह गए, लेकिन वह नहीं रुका था। सुनी-अनसुनी कर आगे बढ़ गया था। आज उसे उस बात का बेहद अफसोस हो रहा था कि वह उनकी कोई मदद नहीं कर पाया। दूसरे ही पल लगता है कि वह उनकी मदद कर सकता था और उनकी मदद की ही जानी थी।

वह अपने विचारों में गुम था। सहसा बगल से तेज गति से गाँव की ओर से आती हुई एक मोटरसायकल उनके बगल से सर्रऽ से निकल गई। दूसरे ही पल एक सफेद रंग की कार भी उसी तेजी से निकली। उसकी तंद्रा टूटी। पहले लोग पैदल ही चला करते थे। आने-जाने के लिए सक्षम लोग ही सायकल रख पाते थे। गाँव में पहला ट्रैक्टर जिराती के घर आया था। अब तो हर घर में एक-एक, दो-दो मोटरसायकलें हैं। ट्रैक्टर भी कई आ गए और कारें भी। हाँ, गरीब-गुरबे जहाँ थे, वहीं हैं। उनकी संख्या भी बढ़ गई है।

एक बैलगाड़ी भी पीछे से आ रही थी। उसके पहियों की सड़क पर चलने की घटड़-घटड़ कर्कश आवाज कानों में चुभ रही थी। वह साइड में हो गया। एक बैल मूत्र विसर्जन करता जा रहा था, जिससे सड़क पर एक लहर सी बनती जा रही थी।

उसे फिर कन्या मानकर याद आए। उसका यह जीवन उनके कारण ही लापता होने से बचा है। यदि वह गुम हो जाता तो क्या होता। कन्या मानकर के प्रति वह मन ही मन कृतज्ञता से भर गया। अफसोस दुगुना हो गया है। उसकी इस जिंदगी को गुम होने से कन्या मानकर ने ही बचाया था, शायद बिना किसी अपेक्षा के मानव धर्म मानकर। लेकिन वह उनके लिए क्या कर पाया।

नगर में हर साल जत्रा लगती है। उन दिनों जत्रा का विशेष आकर्षण होता था। लोग जत्रा लगने की प्रतीक्षा किया करते थे। आसपास के गाँव के लोगों की भारी भीड़ जुटती थी। दो-तीन टूरिंग टाकीज आ जाती थी, जिसमें तीन-तीन चार-चार शो चलाए जाते थे। लोग जी भरकर फिल्में देखते थे। सर्कस आता था। अनेक झूले वाले, खिलौनों की दुकानें और होटलें भी आती थी यानि बच्चों, महिलाओं, जवानों सबके लिए जत्रा में बहुत कुछ होता था। जत्रा तो आज भी लगती है, लेकिन वह रौनक अब नहीं रही। समझो एक-डेढ़ महीने के लिए मेला मैदान पर एक जादुई दुनिया बस जाया करती थी, जिसमें कोई भी खो सकता था। फिर उस जैसे बच्चे की क्या बिसात।

उसने माँ की अँगुली पकड़ रखी थी, लेकिन कब माँ की अँगुली छूटी, इसका न तो उसे भान रहा, न उसकी माँ को। जब उसे ध्यान आया तो वह जोर-जोर से रोने लगा था। लेकिन कौन उसे पहचानता। आखिर कन्या मानकर की निगाह उस पर पड़ी। उन्होंने उसे उठाया और किसी तरह चुप कराया था। जत्रा में ऐलान कराया कि फलाँ भाई का लड़का गुम हो गया है, जो यहाँ पर सुरक्षित है। आकर ले जावे।

इस तरह कन्या मानकर ने उसे गुम होने से बचाया था। उसके मेले में खो जाने की घटना उसकी माँ ने ही उसे बताई थी। वह उनका ऋणी है और यह ऋण सदा चढ़ा ही रहेगा। वह कसक आज भी उसके दिल में गड़वाट की तरह दबी है, जिस पर समय की डामर की सड़क बिछ चुकी है।

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