एकान्य महाकाश | बुद्धदेव दासगुप्ता
एकान्य महाकाश | बुद्धदेव दासगुप्ता

एकान्य महाकाश | बुद्धदेव दासगुप्ता

एकान्य महाकाश | बुद्धदेव दासगुप्ता

बोसपुकुर, पति के घर से मुर्दाघर
जब तुम्हें ले जाया गया
बेला, तुम्हारी उम्र तब सत्ताईस से
घटते घटते पहुँची है सत्रह में
शांत पृथ्वी अद्भुत सुंदर बन
खिल गई है तुम्हारी देह में।
गोद में लिए हुए तुम्हारी बेटी को
हरिपद के मन से लोभ अभी गया नहीं।
सोच रहा है
मुँह पर तकिया दबाकर तुम्हें मार डालने से पेश्तर
क्यों नहीं भोग लिया तुम्हारी देह को आखिरी बार!
अस्सी साल का बाप हरिपद का –
निमाई मल्लिक भी सोचता है यही
पुत्रवधू बेला का तजा शरीर।

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जानता है हरिपद
कुछ नहीं होगा उसे, वह
चलाता है गाड़ी मंत्रीजी की
मंत्रीजी के लिए औरत से लेकर माल तक का
वही करता है इंतजाम
जुलूस में काकद्वीप से लोगों के जुगाड़ का
वोटों की फुहार का
नोटों के अंबार का – सभी सभी।

हरिपद के बिना कुछ नहीं सधता, यहाँ तक कि
कुसुम भी नहीं हिलती एक पग
कुसुम से ब्याह रचा लेना अब उसकी मुट्ठी में है
लेकिन केवल चार दिन पहले आई है कुसुम की छोटी बहन
अपनी दीदी के पास, नहीं देखा था हरिपद ने
उसे पहले कभी।
वह हँसी थी उस दिन
नजरें बचाकर सबसे
और तभी से सोचने लगा है वह सब नए सिरे से।

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क्या करे हरिपद
हरिपद क्या करे
यदि कुसुम भी बेला की तरह
‘वैनिश…?’
गुनगुनाते हैं मंत्रीजी, हरिपद गुनगुना रहा है
चल रही है गाड़ी तूफान मेल की तरह
रिक्त करते हुए गाँव का कण कण
सब उठाते चलते हैं तारे
दौड़ रहे हैं सब पीछे पीछे गाड़ी के
और गुनगुना रहे हैं सब
पीछे पीछे, पीछे पीछे।
पृथ्वी से छिटक कर निकल रही है पृथ्वी
किसी एक अन्य महाकाश में
धीरे धीरे, धीरे धीरे।

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