एक पुरानी कविता | प्रेमशंकर मिश्र
एक पुरानी कविता | प्रेमशंकर मिश्र

एक पुरानी कविता | प्रेमशंकर मिश्र

एक पुरानी कविता | प्रेमशंकर मिश्र

नए कीमती कलम की नोक पर
नाचती
नई-नई खुरदरी कविताएँ
एक क्षण करने को आकुल हैंकिंतु
नए संदर्भों का बिगड़ा
यह अधम भूखा पेट
|आड़े आता है।
पछताता हूँ
नाहक नेह लगाया।
मन की मानी
रजनीगंधा का धुआँ
हमारी हर गोधूली
गमकाता घूमता है।
नई-नई कलमें फूटती हैं
नई कविताएँ गर्भ में आती हैं।
और इसी तरह
ओ तुम!
तुम्‍हारे इन्‍हीं आवर्तनों में
उठते बैठते पहाड़ जैसी रीती रातें
यों ही
सोते जागते कट जाती हैं।

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