तो हजरत इसे कहानी समझने की भूल हरगिज भी मत कीजिएगा। पन्नों पर स्क्रिप्ट दर स्क्रिप्ट पार होती बाकायदा एक फिल्म है यह। निहायत ही पिटी हुई, घिसी हुई थीम वाली, और बहुत बहुत पहले की रिलीज हो चुकी फिल्म।

फिल्म दरअसल शहर के ही दो स्कूलों से आरंभ होती है, देशबंधु विद्यालय (बालिका) और देशबंधु विद्यालय (बालक)!

डी.वी. गर्ल्स और डी.वी. ब्वायज ये स्कूल सुविख्यात और कुख्यात दोनों हैं। कहा जाता है न… जो है नाम वाला वही तो बदनाम है। रिजल्ट ज्यादा अच्छा होता है इन्हीं दो स्कूलों का, ज्यादा फिसड्डी बच्चे इन्हीं दो स्कूलों में… मार्चपास्ट का चैंपियन डी.वी. गर्ल्स, दौड़ का चैंपियन डी.वी. ब्वायज।

मारपीट में आगे डी.वी. ब्वायज, मारपीट करवाने में आगे डी.वी. गर्ल्स। लड़ते हैं लड़के, मुद्दा होती हैं बेचारी लड़कियाँ। पुराने जमाने से होती आ रही हैं जर, जमीन और जोरू के लिए लड़ाइयाँ।

गर्ल्स स्कूल की लड़कियों को यदि ब्वायज स्कूल के बाहर का कोई लड़का छेड़ बैठे या प्रेम प्रस्ताव कर बैठे तो यह बात ब्वायज स्कूल के शान के खिलाफ हो जाती है। लाठियाँ, पंच चलने लगते हैं (उस वक्त पिस्टल इतने प्रचलन में नहीं थी वरना शायद वह भी चलती)।

गर्ल्स स्कूल की लड़कियाँ अपनी कीमत जानती हैं और कीमत को सहेज कर रखना भी।

दसवीं तक की लड़कियाँ घुटनों से दो हाथ नीचे तक की नेवी ब्लू स्कर्ट पर सफेद हाफ शर्ट पहनती हैं तथा ग्यारहवीं, बारहवीं की लड़कियाँ लाल पाढ़ की सफेद साड़ी। लड़कियाँ मिठाई के डिब्बे पर मिलने वाला गाडर लगाती हैं, सफेद जूता मोजा पहनती हैं। स्टील के टिफिन बॉक्स में पराठा भुजिया या रोटी अचार लेकर प्लास्टिक के झोले को काँख में दाब कर पैदल स्कूल जाती हैं।

लड़के टिफिन नहीं ले जाते… पैदल भी नहीं जाते साइकिल से जाते हैं। दसवीं तक के लड़के सफेद शर्ट पर सफेद पैंट पहनते हैं जबकि ग्यारहवीं, बारहवीं के लड़के चाकलेटी पैंट।

लड़कों के टिफिन नहीं ले जाने का एक बहुत खूबसूरत कारण है… वो टिफिन नहीं ले जाते पर लंच टाइम उनको बहुत तेज की भूख लग जाती है। अब… भूख का निवारण कैसे हो तब वो डी.वी. गर्ल्स के सामने जाते हैं… ऐन सामने। जहाँ से समूचा स्कूल दिखता है, स्कूल की कक्षाएँ दिखती हैं, कक्षाओं की खिड़कियाँ दिखती हैं, खिड़कियों से सटी बेंचों पर बैठी हुई गोरी, साँवली, हँसती फुदकती गौरइयों सी मासूम लड़कियाँ।

लड़के स्कूल के ऐन सामने जाकर चाट वाले के यहाँ खड़े हो जाते हैं… पेट की क्षुधा शांत करते हैं और आँखों की प्यास भी। चाट वाला लड़कियों की हँसी को लाख लाख दुआएँ देता प्लेट पर प्लेट सजाता जाता है। चाट वाले को लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को खिलाने में अच्छा लगता है…। अव्वल तो लड़कियाँ लंच टाइम में बाहर नहीं निकलतीं, अलाउ नहीं है न! (अलाउ तो खैर लड़कों को भी नहीं है, पर क्या करें लड़के अमान हैं) इसलिए लड़कियाँ छुट्टी के समय पूरी भीड़ जमा कर, हड़बड़ी गड़बड़ी करतीं … जल्दी मचातीं, शोर करतीं, दिमाग खा जाती हैं। एक एक पैसे का हिसाब रखेंगी और चिल्लपों करती भाग जाएँगी। उनके उलट लड़के बड़ी फुरसत से सीनियर सिटिजन की भाँति आते हैं। राजनीति, क्रिकेट, फिल्म, पढ़ाई, कैरियर, रोजगार और किसी खास को बतियाते हैं।

चाट वाले से उसके बीवी बच्चों का समाचार पूछते हैं, बियाह से पहले के ‘चक्कर’ का भी पूछते हैं… फिर बिना हिसाब किताब किए जितना माँगो उतना थमा कर गर्ल्स स्कूल की बिल्डिंग को निहारते आहें भरते चले भी जाते हैं और इसलिए चाट वाले को बड़ा भाते हैं।

ऐसे ही एक दिन मजलिस जमी है चाट वाले की… कुल दस पंद्रह लड़के हैं, सभी चॉकलेटी पैंट पहने हुए। कुछ चाट वाले के ठेले को घेर कर खड़े हैं, कुछ पास की बेंच पर बैठे हुए हैं… और एक अकेला लड़का अशोक के छाँव तले चट्टान पर बैठा है। सभी लड़कों में वही जरा चुप चुप सा है। निर्मिमेष आँखों से गर्ल्स स्कूल की बिल्डिंग को ताकता है फिर निराश होकर चाट वाले का चाट सजाना देखने लगता है।

‘…का ताक रहा है शंकर। लउकी कि नहीं?’ बेंच पर बैठे लड़कों में से एक सुनील पूछता है। शंकर कुछ नहीं कहते।

‘तुको नहीं मालूम क्या…?’ बेंच पर ही बैठे हुए लड़कों में से दूसरा लड़का मनोज सुनील से पूछता है।

‘ना… क्या?’ सुनील का प्रतिप्रश्न।

‘उसका सादी ठीक हो गया है…।’ मनोज जैसे धमाका सा करता है।

सारे लड़कों का ध्यान अब इसी तरफ हो गया है। चाट वाले ने चाट सजाना छोड़ रखा है।

‘इ लो… इ मउगे से मिलो। इनकी माशूका बियाह करने जा रही है और ये ससुर छिल्लू उनका चरणचिह्न निहारने हियाँ आए हैं। …क्यों बे?’

शंकर उठ कर खड़े हो गए हैं… लड़कों की ओर पीठ करके स्वयं को छिपाने का अंतिम प्रयास करते हुए।

‘हम तो जनबे करते थे कि अइसा ही कुछ होगा… केतना समझाए… इ सब चक्कर में मत पड़ बेटा बेकार का झमेला है, पर इ लोग काहे सुनेगा! लड़की देख के बउरा जाता है न, आसिकी का भूत सवार रहत है इ लोग पर… लो भुगतो।’

शंकर कुछ कहने को मुँह खोलते हैं, पर ‘कहना बेकार है’ की तर्ज पर एक गहरी साँस छोड़ कर सिर झटक कर चल देते हैं। शंकर हैं छह फुटे लंबे साँवले किशोर जात के अहीर जो गया जिले के हैं। बाप सोलह नं. शॉप में फीटर है… लाल पास धारी।

कक्षा के दूसरे कई बच्चों के बैग में रखा सी.एल.डब्ल्यू. कारखाने का रजिस्टर शंकर के लिए सदा वर्जित फल रहा।

दूसरे बाजारू जिस्ता कॉपियों से ऊब चुके शंकर हमेशा से रजिस्टर के पीले पन्नों के मुरीद थे। जिसके सबसे ऊपरी दाहिने कोने में ‘सी.एल.डब्ल्यू.’ चटकार सी स्याही से छपा था। पर… राजपत यादव का तकियाकलाम शंकर के नीतिशास्त्र की किताब का पहला पन्ना था। (चूँकि पहली पाठशाला घर…!) ‘रजिस्टर कारखाना के काम के लिए सरकार देती है… तुमरा मुल्ला जी का हिसाब लिखने के लिए नहीं’।

यही राजपत यादव हर महीने के आखिरी हफ्ते के दूसरे तीसरे दिन को फर्स्ट शिफ्ट ड्यूटी करते हैं… फिर शाम को जम्मूतवी पकड़ कर गया चल देते हैं… चूरा, आम, चावल, गेहूँ लाने। और महीना के आखिरी ये दो चार दिन शंकर के दिन होते हैं दिनभर घूमते हैं… खूब!

शंकर चित्तरंजन नामक इस शहर के एक गँवई एरिया में रहते हैं… जो ऐन नदी के किनारे है। नदी के उस पार बिहार… और इस पार फतेहपुर। फतेहपुर में रास्ता नं. इक्यावन, क्वार्टर नं. बारह ए… यानी ऐन गीता के सामने।

गीता के पिता फिटर नहीं हैं, चार्जमैन हो गए हैं, हरे पास धारी। उनको ए टाइप नहीं सी टाइप क्वार्टर मिल गया है… बोले तो छोटा मोटा बंगला जैसे। पर वो ए टाइप क्वार्टर में ही रहते हैं, फतेहपुर के इक्यावन नं. रास्ता में ही। उनका कहना है कि – ‘हम इंहे रहेंगे, अपने भाषाभाषी, अपने गाँव जवार के आदमी के लगे ही…।’

परताप चंद देवरिया के राजपूत हैं।

गीता और शंकर एक ही कक्षा में हैं। दोनों एक दूसरे को तब से जानते हैं जब उनका जन्म भी नहीं हुआ था… अपने अपने माँ पिता की आँखों से।

चौहत्तर की स्ट्राइक के वक्त गीता पेट में थी, शंकर हो चुके थे।

शंकर पढ़ाई में ठीकठाक हैं। बंगाल बोर्ड से मैट्रिक में बासठ प्रतिशत उनकी उपलब्धि है जिसे वो जातपात को चीर कर रख देने वाले हथियार के तौर पर सँभालते हैं। गीता थर्ड डिवीजन खींच पाई हैं।

गीता को तो आर्ट्स में ही जाना था, शंकर जबरन विज्ञान में धकियाए गए। बहुत से पल जो गीता के हिस्से थे… अब फिजिक्स, कैमिस्ट्री और मैथ्स के हिस्से चले गए। गीता को तब भी अपनी संपत्ति का पता नहीं था, अब भी नहीं जान पाईं, हिस्सेदारी बँट जाने के बाद भी।

अलबत्ता शंकर बहुत दुखी थे। सबसे ज्यादा क्रोध उन्हें फिजिक्स पर था जिसने उनसे सप्ताह की तीन खूबसूरत शामें छीन ली थीं। शाम… जब वो बरामदे से सटी सीढ़ियों पर बैठ, गोद में अंग्रेजी की किताब रख कर, उस नेटा चुआती, सुर्र सुर्र करती, दोपट्टे से नाक रगड़ती को बेरबागर देख लेते हैं।

दो आँखें ‘टेक्नालॉजी फॉर मैनकाइंड’ पर और दिमाग कित कित के खेल पर! कित कित बोले तों… लड़कियों का खेल होता है। समतल सीमेंटेड जगह पर चिचरी खाँच कर घर बनाया जाता है, फिर लंगड़ी टाँग से चिकनी गोटी को एक घर से दूसरे घर में फेंका जाता है।

शंकर नहीं जानते… इस कित कित के खेल में गीता का प्रिय सेगमेंट ‘रेडीहप’ है। जब मुँह पर हाथ धरे… बिना जरा सी भी आवाज किए बस गोटियों को इधर उधर करना होता है।

पर शुक्र अदा कीजिए अंग्रेजी का… शंकर सप्ताह के तीन शाम उसे पेन्सिल से अंग्रेजी के कठिन शब्दों को घेरते हुए देखते हैं। या सिर की ओर मुँह बाए हुए पाठ को समझ लेने की जद्दोजहद में भिड़े हुए। सुर्र सुर्र अब भी करती हैं… रूमाल से रगड़ती भी हैं नाक!

चीजों को याद रखना’ हमारे वश में नहीं है और न ‘ चीजों को नहीं याद रखना’ ही। जिन्हें ‘ याद नहीं करना’ हमारे वश में नहीं है दरअसल वो हमारी साँस के साथ साथ हमारे अस्तित्व में उतराती गहराती हैं।

…सुबह उठ कर मुँह धोने से आरंभ होने वाली चीजें जो रात के बियावान में आखिरी बेचैन करवट तक बनी रहती हैं।

‘चीजों को याद रखना’ के क्रम में गीता रानी आज अपने इकलौते रूमाल को (परताप चंद की पुरानी लुंगी से एक चौकोर टुकड़े को काट कर चारों तरफ से मोड़ कर सिले हुए को अगर रूमाल कहा जा सके तो…) छोड़ आई हैं।

चींटी के कदमों की आहट आप उस ट्यूशन में साफ साफ सुन सकते थे।

चार ईंटों पर खड़ी चौकी को अभी कुछ घंटों के लिए डेस्क हो जाना था…।

जिसके तीन ओर बेंच हैं, लड़के लड़कियों से अटे पड़े।

लड़की की नाक का लिसलिसा द्रव जरा सा नीचे सरक गया है।

गीता ऑक्सीजन को खींचने के क्रम में उसे भी खाँच लेती है।

नेटा फिर सरकता है नीचे…।

सर्र ऽऽऽऽऽ… ऽऽऽऽऽ र्राट !!!

‘द पैकिंग’ समझाते सर और समझते बच्चे पहले तो चिहुँकते हैं… फिर देर तक कमरे में जाने कैसी धीमी फुसफसाहटों, खिलखिलाहटों जैसी आवाजों की प्रतिध्वनि गूँजती रहती है।

कुछ नहीं सुनती लड़की रोआँसी हो जाती है। बिना किसी प्रयास… या पूर्व अर्जित अभ्यास कि लड़की की नजर स्वतः ही लड़के की खामोश होठों वाली बोलती नजर पर जाकर ठहरती है।

लड़की को उन आँखों में एक बहुत बड़ी गुफा का भरम होता है… जहाँ वह अपने आप को समूचा छिपा सकती है।

शंकर गीता की मोटी मोटी आँखों की नरमाई को बूझते हैं… शंकर ये भी जानते हैं कि गीता भी सब बूझती हैं… खाली बनती हैं। बनती हैं, इसलिए नहीं कि बनतू हैं, बल्कि इसलिए कि पूरी डरपोक्की हैं।

शंकर दो बातें सोचते हैं… एक पच्छ की एक विपच्छ की! पच्छ में उनके पढ़ाई में अच्छे होने से लेकर वे तमाम बातें हैं जो अहीर जींमदार के लेबल को धुँधला करती हैं। पर विपच्छ की एक ही बात उनके लिए रातों को जग कर तारे गिनने के लिए काफी है… ओह राम जी हो! हम अहीर क्यों हुए

(अपने जात बिरादर के विपरीत शंकर के ईष्टदेव श्रीराम हैं)

पर सारी बाधाओं, सारी नकारात्मकताओं के बावजूद शंकर पूरे आशावान हैं… पूरी तरह सकारात्मकता से भरे हुए… ‘सब ठीक होगा, बस अच्छा होगा’। जाने ये अच्छा होना कब के लिए है… जाने कब से चिर प्रतीक्षित!!

शंकर बस स्टैंड पर खड़े अगोर रहे थे।

शहर सोया सोया जागा था।

जेठ की नीम दोपहर उतरती हुई… साँझ के इंतजार में। अगर इतवार न होता तो चार की सीटी के दस मिनट पश्चात का यह समय, फतेहपुर बस स्टैंड का यह चौराहा नीड़ को लौटते पक्षियों सा चहचहा रहा होता! पर चौराहा अलसायी दोपहर सा उदास, वीरान, सुनसपाट था।

यह सुनसपाटपन शंकर को भला लग रहा था। शंकर देख रहे थे हर चीज…। जो चीज जिस चीज के साथ पहचानी जाती है अगर कभी बिना उसके चीज दिख जाए तो अजब सा भयावह खालीपन लगता है… रीता रीता सा…।

स्टैंड के सामने एक कतार में गुमटियाँ लगी हुई हैं। सामने गोपाल की पान गुमटी, फिर पाठक की मोदीखाने की दुकान, फिर देबु की शृंगार पटार की छोटी सी सीमेंटेड दुकान और उसके दाएँ भगत नाई का सैलून! और सैलून के पीछे मोटे काले तने वाला वह करंज का पेड़ (शंकर जानते हैं हर महीने गीता के यहाँ लक्स और ठंडा तेल देबु के यहाँ से जाता है।)

शंकर सोच रहे हैं ये गुमटियाँ भी कितनी उदास वीरान लग रही हैं इनकी पहचान के बिना। अगर कभी इन गुमटियों, इन दुकानों के आगे से गोपाल, पाठक या देबु का नाम हट जाए तो… क्या बचेगा फिर…

ढलती हुई उदास दोपहर शंकर के मन पर उतर रही थी।

शंकर अपनी लंबी गठीली उँगलियों को चटकाते हैं… चट् चट् चट् !

वो टीन के शेड में आकर खड़े हो गए।

वह देख रहे हैं पूरा बस स्टैंड… सारा चीन्हा पहचाना, अपनी अपनी पहचान के साथ!

देख रहे हैं… गोपाल को पान के पत्ते पर चूना लगाते हुए, पाठक को चीनी तौलते हुए और देख रहे हैं… देबु दा को, जो शंकर के हाथों में लक्स थमा रहा है।

बीस कदम की दूरी पर सेठ की दुकान का शटर खड़ खड़ की आवाज के साथ खुलता है।

जैसे घने जंगल में कोई चीख गूँज कर शांत हो गई।

एक नन्हीं सी गौरइया कहाँ से तो उड़ती हुई आई और बस स्टैंड पर बने हुए इकलौते नल के पनोहे पर बैठ गई।

गौरइया चोंच चापाकल की जड़ पर लगाती है…

ईश्श्श्… धिक्कल!!

गौरइया फुदक कर जा बैठती है नल के ऊपर। कल के आरोह अवरोह पर ठोर लगाती है,

ईश्श्श्श्… धिक्कल!!

जेठ सारा गीलापन सोख चुका है।

शंकर का जी किया कि हींच के चला दें नल। हरहरा कर खूब सारा पानी निकल आए। नन्हीं गौरइया जमाने भर की तपिश से हारी… इस बारिश में भीग कर अकबका जाए।

‘तुम कहाँ जा रहा है शंकर?’

शंकर घूम कर पीछे देखते हैं… ‘अमला दई जा रहे हैं!’

फिर गौरइया को देखते हैं…

गौरइया उड़ी… फुर्ररऽऽऽ!

परताप चंद आगे कुछ नहीं पूछते। वो भी अपनी तीनों कन्याओं समेत वहीं जा रहे हैं।

पता नहीं शंकर को क्या चुभ गया गीता का आना, या गीता का इस वक्त आना। पर…, कुछ था जो उन्हें खटक गया। गीता बस के पहले दरवाजे से चढ़ीं… शंकर पिछवाड़े से।

भीड़ ने ठेलठाल कर गीता को बस के बीच में पहुँचा दिया है और शंकर को भी। संयोगवश शंकर को एक सीट मिल गई। उन्होंने गीता को देखा…।

गीता नहीं बैठीं तथा एक आदमी की उस सीट पर अपनी दोनों छोटी बहनों को ठूँस दिया।

गीता शंकर की ओर पीठ करके खड़ी हैं। परताप चंद केबिन में हैं पर वो जानती हैं कि परताप चंद की नजर उन पर तथा उनके आसपास ही है। सो गीता सावधान हैं कि जब भी पिता उन्हें देखें तो चाहे वो कहीं भी देखती रहें, पर शंकर को देखती न पकड़ी जाएँ।

वो उदास सा गोल्डेन कलर का सूट पहनी हुई हैं।

काले लंबे बालों की तेल चुपड़ी चोटी कमर पर झूल रही है।

गीता शंकर को नहीं देख पा रही हैं… पर शंकर जानते हैं कि गीता समझ रही हैं कि वो उन्हें ही ताक रहे हैं।

गोल्डेन कलर का फूलों वाला दोपट्टा फरफराता है। शंकर दोपट्टे को देखते हैं।

शंकर सीट का हेलान देकर खड़े हैं।

दोपट्टा फरफराता है… शंकर के हाथ पर…।

यह कोमल स्पर्श शंकर की उपलब्धि है। उन्होंने चाँद की ठंडाई को छू लिया है।

वो गीता की गर्दन को देखते हैं…।

शिशु की कोमल हथेलियों सी गर्दन… एकदम चिक्कन चिक्कन!!

गर्दन का ऊपरी सिरा जहाँ से घने केशों की शुरुआत होती है वहाँ बालों की एक छोटी पतली लट चोटी में आने से छूट गई है।

कलम के स्प्रिंग की तरह घुंघराली लट… शंकर का मन किया कि उसे उँगली से सीधा कर दें, या उँगली में लपेट कर और उलझा दें। गीता जब आगे की ओर सिर झुकाती हैं या पीछे उचक कर बहनों को देखती हैं तो लट डोलती है दाएँ बाएँ…

फर फर फर !!!


महीने का आखिरी हफ्ता… और हर महीने के अंतिम दिनों में शंकर को मिलने वाली स्वतंत्रता। इस बार शंकर के पिता अकेले ‘गया’ नहीं गए… शंकर की माँ और तीन छोटे भाई बहनों को लेकर गए।

सत्रह अट्ठारह साल का लड़का बच्चा थोड़ी होता है।

‘अकेले शंकर पकाएँगे कैसे’ की चिंता से त्रस्त गीता की माँ शंकर को नेवता दे आती हैं – ‘बबुआ हमरे किहाँ खा लेना… अपने कइसे बनाओगे!’

अप्रत्याशित रूप से मिले मनचाहे निमंत्रण से भकुआ गए हैं शंकर…

‘नहीं नहीं रहने दीजिए न चाची, दिक्कत काहे ला करती हैं… हम होटल में खा लेंगे…!!!’

‘धत् पग्गल… दिक्कत कईसन! तु साँझी बेरा आ जाना अबेर मत करना… न!!’

गीता की माँ शंकर को बहुत मानती हैं। सीधा सादा लड़का है न… नजरतकैनी भी साफ है। सुहागा ये कि गीता की माँ जब भी कोई काम अढ़ाती हैं… शंकर लंगड़ी टाँग पर खड़े रहते हैं।

गीता की माँ सिर्फ शंकर को ही नहीं… शंकर की माँ को भी खूब मानती हैं… ‘बड़ी सरल हैं यदुआइन।’

पर इन्हीं सरल यदुआइन की एक बात गीता की माँ को जरा भी समझ में नहीं आती थी। क्यों यदुआइन दिन के वक्त रोटी बनाती हैं और रात के वक्त भात आखिर एक दिन घेर कर बैठ गईं वो यदुआइन को और लगीं खोदने…।

यदुआइन बिचारी सकुचा गईं और बोलीं… – ‘का हलिए न दीदी बड़ होत लइकन हथी ना तब दिन में कई कई बेर भूख लगबे करतइ। रोटी रेहतैहल तब अचार, पियाज, तेल, नून, कुच्छौ साथे खा लेथिहल। भात लगि दाल सब्जि तोह लगबे करतई। से रात में एक्के बार भात खा के सुथ जा हथि।’

और तब गीता की माँ को एक नया दर्शन समझ में आया… सूझ बूझ सिर्फ पैसे से नहीं आती, पैसे के नहीं रहने से भी आती है।

‘चाची… बस हो गया अब रोटी मत दीजिएगा!’

बाहर कमरे से आवाज दौड़ती हुई किचन में जाकर थक जाती है।

‘इ देख… जवानी का देह अहई तबउ तीन रोटी खात हैन… खूब जम के खा लल्ला तबे देहे लागे।’ आवाज रिवर्स रेस लगाती हुई बाहर कमरे में दौड़ी जाती है। बार बार इस कमरे से उस कमरे में दौड़ती आवाज खिसिया जाती है।

‘अब नहीं दौड़ेंगे हम… जाओ।’ कह कर आवाज जाकर दूरदर्शन पर नजर आती काली सफेद समाचार उद्घोषिका के बगल में बैठ जाती है।

आवाज के खिसिया जाने पर सब चुप हो गए हैं बस ‘अविनाश कौर’ बोल रही हैं।

इसलिए गीता प्लेट में रोटी लेकर बिना आवाज के बाहर कमरे में पहुँचती हैं।

बेआवाज ही रोटी पिता की थाली में रखती हैं।

मुड़ती हैं पिता के बाजू में बैठे हुए शंकर की ओर।

उद्धत होती हैं शंकर की थाली में रोटियाँ रखने को।

पर… शंकर छेक लेते हैं दोनों हाथों से अपनी थाली।

…गीता देखती हैं पिता की थाली, और उसकी ओट में पिता को, जो समाचार उद्घोषिका की आवाज में व्यस्त हैं। फिर, खामोश नजरें घूमती हैं, शंकर की नजरों पर।

जरा सी जिद, जरा सा मनुहार, जरा सी गुजारिश… और इन पर नमक की तरह बुरका हुआ क्रोध, प्रेम के दहीबड़े पर!

स्वतः ही हट जाते हैं, थाली को छेके हुए हाथ। आहिस्ता से रोटियाँ रख कर गीता मुस्कियाती उठ जाती हैं।

यह सब देख कर आवाज खुश हो जाती है, और किलकारियाँ मारती भागती है किचन में। प्लेट देख माँ हैरान…!

‘हाँ दो रोटियाँ बाउजी ने लीं, बाकी उसने।’

गीता, माँ की चौंकी हुई आँखों का मतलब बूझ जाती हैं।

‘ओ चार रोटी लइ लिहेन अइ देख तीन रोटिये पै बस कहत रहेन औं चार खाए लेइ गएन… अपनै पेटे क अंदाज नाय न एनका।’

हँसती हैं, स्नेह से।

उनकी ओर पीठ किए मसालों में नमक ढूँढ़ती गीता कुटिलता से मुस्कियाती हैं।

शंकर सिर पीट लेने की ख्वाहिश लिए कौर दर कौर रोटियाँ टूँगते हैं।

आज पूरी जिंदगी में शंकर के पहली बार भरपेट खाने को गीता दो रोटियाँ ज्यादा खाकर सेलीब्रेट करती हैं।

गीता की एकमात्र पनाहगार रात है… जब वो अपने आप से भी छुपाए हुए राज आहिस्ता आहिस्ता उतार कर उन्हें निहार सकती हैं। जाने रात के अँधेरे में कैसा सम्मोहन है कि… उनकी आत्मा के सारे सच उस वक्त निर्वस्त्र होने लगते हैं। वो उजाले की सारी उजली बातें अँधेरे में गुनने, खुश होने के लिए सहेज लेती हैं।

गीता अंदर वाले कमरे में सोती हैं। अंदर वाले कमरे में खिड़की से सटी हुई काठ की एक चौड़ी चौकी बिछी हुई है… जिस पर गीता अपनी दोनों बहनों के साथ सोती हैं। पिता बाहर कमरे में चौकी पर और अम्मा वहीं पास की खाट पर सोती हैं।

बहनों के सो जाने के पश्चात गीता खिड़की से टेक लगा कर बैठ जाती हैं… एक नई दुनिया का दरवाजा खुलता जाता है सामने।

एक नई दुनिया… जहाँ गीता, बस गीता बन कर रहती हैं, गीता चंद नहीं। और अपने आपको बस गीता समझना… उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा सुख है।

शंकर सोचते हैं गीता कुछ नहीं सोचतीं…। हाँ ये सच है कि गीता शंकर जितना नहीं सोचतीं… पर जितना भी सोचती हैं शंकर को ही सोचती हैं।

गीता सोचती हैं, या याद करने की कोशिश करती हैं कि किस अचानक पल से उन्हें मगही बड़ी मीठी भाषा लगने लगी… पर बहुत याद करने पर भी उन्हें याद नहीं पड़ता कि कब से वो मगही सीख लेने की जद्दोजहद में भिड़ी हैं।

शायद ये सब उनके होश पारने लायक होने के पहले की बातें हैं।

गीता कभी यह सोच ही नहीं पातीं कि आठ के बाद नौ नहीं हो तो क्या होगा गणित सीखने के बाद से ही उन्हें लगता था… कि आठ है तो उसके बाद नौ पक्का आएगा ही आएगा।

सो गीता गिनती सुनाते वक्त कहीं और गलती कर दें… पूरी गलती ही बेशक पर आठ के बाद नौ वह धड़ल्ले से आँख मूँदे ही कह देती थीं।

गीता को यह आठ के बाद नौ इस कदर रट गया था कि वह आठ दूनि सोलह के बजाय नौ ही कहती थीं। लाख सिखाने के बाद भी उन्हें नौ ही रटा रहा।

तब परताप चंद ने इसका हल निकाला। जैसे ही गीता आठ दूनि नौ के न… बोलने को होतीं उल्टे हाथों का एक भरपूर थप्पड़ उनके होठों पर पड़ता और गलती फौरन सुधर जाती… सोलह।

पर यह सिर्फ चेतन की बात है। रात की भरी पूरी नींद में अगर कोई गीता को उठा कर पूछे… ऐ लड़की! आठ दूनि

गीता चूँकि ओंघाई रहती है इसलिए वो गले को टटोलना भूल जाती हैं और छूटते ही कहती हैं… नौ

नौ कहते ही गीता का चेतन जाग जाता है। गीता अपने गले को देखती हैं। नजर वहाँ तक नहीं पहुँच सकती है। पर, हाथ से टटोलने पर गीता को वहाँ मजबूत गठी हुई किसी चीज का घेरा महसूस होता है… और एक गाँठ भी।

लड़की जानती है इसकी रस्सी उसे दिखाई नहीं देगी पर इसका सिरा फतेहपुर के इक्यावन नं. रास्ते में पंद्रह सी के क्वार्टर में है।

उस क्वार्टर से रस्सी जितनी ढीली होती उतने ही नपे तुले कदम उनके पड़ते हैं।

अब अगर लड़की झटके से दौड़ लगाती है तो हाथों से रस्सी तो छूट जाएगी पर लापरवाह और असावधान हाथ उसे पकड़ लेने की हड़बड़ी में अपने मय आँख, कान और भारी भरकम नाक सहित औंधे मुँह गिर पड़ेंगे… और ये गिरना सिर्फ उस हाथ के लिए हत्यारा नहीं होगा बल्कि उस हाथ के तले पलते उन दो जोड़ी नन्हें हाथों के लिए भी।

गीता सोचती हैं अगर मारपीट जैसी बात आए तो ये सब तो वो हँसते हँसते सह लेंगी पर ये रोने धोने या बहनों का, माँ बाप के एहसानों का वास्ता दिए जाने वाली स्क्रिप्ट में उसी दमखम के साथ अभिनय कर पाना उनकी कुव्वत से बाहर है (ध्यान रहे हजरत कि गीता के लिए गीता के समय ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ जैसे शब्द का ईजाद नहीं हुआ था)

गीता भोली नहीं हैं, समझ और भोलेपन का घालमेल है। इसलिए वो अपने समेत सारे अपनों का पक्ष बूझती हैं… और यही उनकी तकलीफ है।

गीता चाहती हैं कि वो सिर्फ अपना पक्ष बूझें। पर, यह उतना ही सरल है जितना यह भूल जाना कि वो स्वयंभू नहीं हैं।

नाक कुछ लोगों के लिए मार देने और मर जाने की हद तक जरूरी है। गीता जानती हैं… कि परताप चंद के लिए दूसरा काम ज्यादा आसान है।

इस जानने के बिंदु पर पहुँच कर गीता को इस सारी दुनिया से, भयानक विरक्ति हो आती है… खतरनाक सी नामालूम चिढ़ जैसे।

इस भयानक विरक्ति के अहम केंद्र रस्सी थामे हाथ हैं… जो रस्सी से कसी हुई गर्दन के लिए तो मजबूत हैं, पर जाति धर्म चिल्लाते होठों के लिए उतने ही बेबस… निरीह और कमजोर। सो गीता कुमारी सोचती हैं… कि इस कमजोरी को सजा दी जाए।

यूँ तो इस पूरी जिंदगीनुमा सच्ची फिल्म के निर्देशक झूठमूठ के भगवान जी हैं… पर मन ही मन गीता जिस फिल्म की स्क्रिप्ट लिख रही हैं उसके निर्देशक सिर्फ सचमुच के भगवान जी ही हो सकते हैं। तो तय रहा… नायिका गीता, निर्देशक सचमुच के ईश्वर… और नायक? सारी दिक्कत तो साली यहीं है। क्या जरूरी है कि इस तबकी लिखी जा चुकी स्क्रिप्ट का नायक हूबहू स्क्रिप्ट के अनुसार अभिनय करने को राजी हो जाए यह भी तो हो सकता है कि नायक सलमान खान सरीखा लेटलतीफ हो या यह कि नायक नखरीला हो। या फिर यह भी हो जाए कि नायक इस ‘फिल्म’ को करने से ही इनकार कर दे!

पर गीता जानती हैं… कि एक दफे अगर निर्देशक अपनी पर आ जाए तो उस एक दर्शक के लिए लिखी गई स्क्रिप्ट को बनने और रिलीज होने से कोई नहीं रोक सकता। नायक की तो औकात ही क्या!!

गीता यह भी बूझती हैं कि जिंदगी की जिस स्क्रिप्ट को वो हमेशा लिखती सुधारती… तथा जिसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देने की सोचती आई हैं उसे बनाना भले ही निर्देशक बने झूठमूठ के भगवान जी के लिए मुश्किल हो, पर जिस स्क्रिप्ट को वो अभी लिख रही हैं उसे बनाना सचमुच के भगवान जी के लिए कतई मुश्किल नहीं है।

सो गीता… सर्वप्रथम निर्देशक को पटाने की रणनीति पर विचार करती हैं और निर्देशक को पटा पाने में सक्षम रणनीति का चुनाव कर तमाम चिंताओं से मुक्त होकर स्क्रिप्ट लिखती हैं।

स्क्रिप्ट में ब्याह हो रहा है गीता कुमारी का…।

गीता कुमारी पियरी पहने वेदी पर बैठी हुई हैं।

उनकी बगल में ही बैठे हुए हैं स्क्रिप्ट के तथाकथित नायक… जो अमरीश पुरी जैसे दिखते खलनायक सरीखे ही हैं।

अभयदान चाहिए मुझ बिचारी को… क्योंकि ये जो स्क्रिप्ट ऊपर आरंभ हुई है उसकी लेखिका गीता हैं और जो कुछ बढ़ेगा बीतेगा उसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ ये नाक चुआती नायिका होगी। सो हजरत… ये इल्जाम मुझे कतई न जाए कि मैं ‘ भाग्यश्री’ सरीखी सुंदर सुकोमल नायिका को बुढ़ऊ अनायक नायक के पल्ले बाँधने का प्रपंच रच रही हूँ।

पाणिग्रहण के वक्त नायिका यह सोच सकती है कि अगर अपनी जिंदगी की वो खुद विधाता होती तो… निःसंदेह इन हाथों की जगह वह हाथ होते जिनके स्पर्श मात्र से वह उन्हें पहचान जाती।

अगर यहाँ वो हाथ होते तो वह घूँघट के अंदर यूँ काठ बनी न बैठी होती।

अगर यहाँ वो हाथ होते तो पियरी के ऊपर ओढ़ाए चादर के अंदर वो सुख, गर्व और शर्म से काँप रही होती।

गीता सोचती हैं कि शर्म को निभाना अब उनके लिए इस पूरी जिंदगी का सबसे कठिन सीन होगा। चूँकि गीता… मँझी हुई अभिनेत्री हैं सो बेशक निभा जाएँ इसे भी पर हकीकतन अब लाज हया के वे कोमल अंतरंग क्षण उनके लिए जल रही सब्जी को चूल्हे से उतारना है।

आप कहेंगे गीता ऐसा कैसे सोच सकती हैं… उन्हीं की लिखी तो स्क्रिप्ट है ये… तो एक फेवर नायिका का… यह स्क्रिप्ट गीता की फर्स्ट च्वाइस नहीं है।

गीता जी ब्याह कर आ जाती हैं अनायक नायक के यहाँ…।

दुनिया की कोई भी फिल्म समूची जिंदगी को नहीं दिखा सकती। वो फिल्म नहीं मसखरी होती है जिसमें पूरी उम्र दिखाने का दावा है… भला यह कभी मुमकिन है कि एक पूरी जिंदगी (जिसके हर पल में एक कहानी है… या कह लें फिल्म की कहानी बर्रोबर स्क्रिप्ट) एक पूरी फिल्म में समा सके। अजी उस फिल्म को देखते न देखते एक पूरी फिल्म गुजर जाती है… तीन घंटे वाली ( जिंदगी को लेकर कहें तो स्क्रिप्ट भर)

फिल्म की जिंदगी में गिने चुने तयशुदा चरित्र होते हैं… पर बेपनाह जिंदगी की बेपनाह फिल्मों में बेपनाह किरदार आते हैं। …और अपने अपने हिस्से की (तयशुदा?) रोल अदायगी कर चल देते हैं किसी दूसरी फिल्म का हिस्सा बनने।

हमारा अख्तियार सिर्फ और सिर्फ अपनी रोल अदायगी पर होता है। अपनी बेस्ट परफार्मेन्स दे सकने की कोशिश पर!!

गीता अनायक की वधू बन कर पहुँच जाती हैं।

कोहबर के खेल होते हैं।

ककन छुड़ाया जाता है।

गीता से रसोई छुवाई जाती है।

बस्स… इससे अधिक नहीं लिखा गया है पति पत्नी के संबंध में, इस स्क्रिप्ट में। इरादा तो है सब जानने का… पर करें क्या स्क्रिप्ट राइटिंग गीता कुमारी के हाथ में है और वो हैं कि कुछ खोलती ही नहीं। या… शायद चाहती नहीं।

तो गीता कुमारी लिखती हैं आगे…

एक दो कमरों का नन्हा सा घर। दो ननदें हैं… सास ससुर, वर और देवर। सास ललिता पवार हैं, ननदें बिंदु और देवर शक्ति कपूर… हाँ अलबत्ता ससुर जरूर बलराज साहनी सरीखे हैं।

गीता देवी घर के सारे काम करती हैं। माँजना, धोना, पोंछना से लेकर रसोई तक के सारे काम… उन्हीं के जिम्मे हैं।

सास चूँकि ललिता पवार हैं, सो चुप कैसे बैठ सकती हैं ननदें भी दहला हैं।

पर गीता… अच्छी आदर्शवादी नारी होने के कारण खून के घूँट पीकर सब चुपचाप सहती हैं।

सास की प्रताड़ना, ननदों का ताना… गीता उफ तक नहीं करतीं। सो गीता को कम दहेज का ताना हमेशा दिया जाता है… और प्रताड़ित भी किया जाता है।

एक रोज गीता के अमरीश पुरी देशी ठर्रे में टुन्न होकर आते हैं। बिंदु उन्हें उकसाती हैं… और ललिता पवार शह देती हैं।

अमरीश पुरी… गीता के लंबे, घने, काले केश अपनी रूखी हथेलियों में भींच लेते हैं और लात जूतों से उन पर टूट पड़ते हैं।

ऐन इसी वक्त बिना कुंडी का दरवाजा धड़ाम की आवाज के साथ खुलता है। सामने परताप चंद तीज की सइधा लिए खड़े हैं। और अभी परताप चंद के चेहरे पर जो है गीता को लगता है कि उन्हें उनकी स्क्रिप्ट व अभिनय का मनचाहे से बहुत बहुत अधिक पारिश्रमिक मिल गया है।


यह गीता के ए टाइप क्वार्टर का पहला कमरा… और उसी से सटा हुआ दूसरा कमरा, जिसे अंदर वाला कमरा कहा जाता है।

अंदर वाला कमरा बाहर वाले से एक दीवार और दरवाजे की बिनाह पर पृथक होता है। इस क्वार्टर का बस यही एक दरवाजा एक पलिया है, बाकी सारे दरवाजे दो पलिए हैं।

दोनों कमरों में मोहब्बत ऐसी है कि यदि कोई अंदर वाले कमरे से ढुका लगा कर बाहर कमरे में होती फुसफुसाहट को सुनना चाहे तो कमरे की दीवार सब सुनवा देती है।

दोनों कमरों से बराबर सटा हुआ अंदर की ओर एक पतला, दुबला लंबा सा बरामदा है जिसके बाईं ओर सटी हुई रसोई है। रसोई में मिट्टी से लिपा पोता हुआ लोहे का चूल्हा है। चूल्हा कोयले से जलता है। गोइठा पर थोड़ा सा किरोसीन चुआ कर या जूट के छोटे से गट्ठर को गीता की माँ नीचे से चूल्हे की कड़ियों में फँसा देती हैं… और ऊपर से कोयला सजा देती हैं।

चूँकि चूल्हे में आँच लगाने पर पहले खूब सा धुआँ होता है इसलिए गीता चूल्हे को आँगन में रख कर ही आँच लगाती हैं।

आँगन में तीन ओर से ईंट बिछी हुई है… और एक ओर से मिट्टी है। मिट्टी के छोटे से टुकड़े पर तुलसी जी का चौका है। गीता की माँ हर मंगलवार को मिट्टी के उस टुकड़े को गोबर से लीपती हैं और चौरे में जल ढरकाती हैं। जल तो गीता भी रोज ढरकाती हैं तुलती क्यारे में। दीया जलाती हैं… और अगरबत्ती भी…! अगरबत्ती के धुएँ का पतला सा रेला आहिस्ता आहिस्ता पूरे आँगन में पसरता जाता है। उसकी महक जैसे गीता के नथुनों से होती हुई उसके अंदर ही अंदर तक घुलती जाती है।

यही वो क्षण होता है… जब गीता को लगता है कि शंकर को सोचना बिल्कुल ऐसा ही है… बिल्कुल ऐसा… नहाया धोया सा सुवासित सुवासित!!

पर गीता आज… इतवार के दिन अब तक तुलसी जी के चौरे में जल नहीं ढरका पाई है। दरअसल आज गीता के क्वार्टर में पानी नहीं आ रहा था।

वजह, क्वार्टर के पिछवाड़े वाली बड़ी मोटी वाटर सप्लाई पाइप में लीकेज का होना…

हालाँकि जब कभी ऐसा कुछ होता है तो पड़ोसी काफी मददगार साबित होते हैं। अगर इस तरफ के क्वार्टरों में पानी न आए तो उस तरफ वालों के साथ एडजस्टमेंट हो जाता है। पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक पंक्ति के एकाध क्वार्टरों में ही पानी बंद हो जाता है…। जैसा कि आज हुआ है लीकेज के कारण… लड़की के क्वार्टर में।

अतः निदान… तो सरल सा समाधान है कि गीता की माँ के जरिए शंकर जान जाएँगे कि उनके यहाँ पानी नहीं आया। फिर वो चाची से कहेंगे, ‘चाची हमरे हियाँ तो कोई है नहीं, और हम जो हैं सो नहाइए चुके हैं, तो आप लोग हमरे हिएँ क्यों नहीं नहा धो लेते?’

पर चूँकि शंकर जानते हैं कि उनकी उपस्थिति में गीता रानी क्वार्टर आने से रहीं… सो वो उठाएँगे अपनी एटलस साइकिल और चल देंगे किसी इष्ट मित्र के यहाँ… चाची को चाबी थमा कर!

गीता मय बहनों समेत पहुँचेंगी शंकर के क्वार्टर… जहाँ अम्मा सरफ में कपड़े गोतती मिलेंगी। अम्मा चूँकि जानती हैं कि गीता को नहाने में बड़ा टाइम लगता है, सो पैंट की दोनों मोहरियों को सरफ के फेन में लथेड़ कर आपस में रगड़ती कहेंगी… ‘जोरे पहिले नहा ले!’

गीता इस आँगन में कई दिनों बाद आई हैं… तकरीबन चौदह सौ साठ दिनों बाद।

आँगन के बीचोंबीच खड़े इस बेहद मोटे तने वाले आम की छाँह को बिसरी नहीं हैं गीता… जिसकी छाँह तले वो पूरी पूरी दोपहर शंकर के साथ खेलना बाटी खेलती थीं। दो पार्टियाँ बनती थीं… एक शर्मा जी की दूसरी पार्टी वर्मा जी की।

फिर… गीता और शंकर के सातवीं पास करने पर दोनों ओर के मुखिया आग और फूस को अलग रखने लगे।

गीता शंकर के स्कूल का बस्ता देखना चाहती हैं।

गीता चाहती हैं उनकी कॉपियाँ देखना और कॉपियों में रफ कॉपी देखना।

गीता उनकी रफ कॉपी में देखना चाहती हैं वही सब कुछ… जो वह चाहती हैं।

सब कुछ… जो लिख लिख कर उन्होंने अपनी रफ कॉपी के अगले बिचले पिछले पेज भरे हैं।

वही सब कुछ… जो वो श्री गोस्वामी तुलसीदास जी विरचित रामचरित मानस के रामशलाका प्रश्नावली से उत्तर खोज कर अपनी रफ कॉपियाँ भरती हैं।

गीता हाथ पैर धोकर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ जाती हैं।

रामचरित मानस (बांबे मुद्रण प्रेस) को माथे से लगा कर प्रणाम करती हैं।

रामचरित मानस का इग्यारहवाँ पृष्ठ खोलती हैं।

जब ही पृच्छक अंक पर अँगुली को धरि देत।
ताके अगिले अंक ते, नवमाक्षर गनि लेत।।
ऊपर को ऊपर लिखें, नीचे निम्न लिखेत।
रामश्लाका प्रश्न यह, यथा उचित फल देत।।

गीता आँखें मूँद कर भक्ति भाव से राम जी का स्मरण करती हैं।

हाथ में थमी कठपेन्सिल अंदाज पर इधर उधर घूमती, अंदाज से ठहरती है ‘सु’ पर।

गीता आँखें खोलती हैं और ‘सु’ के पश्चात नौवाँ अक्षर गिनती हैं जो है ‘नु’।

इस प्रकार नौवाँ अक्षर गिन गिन कर चौपाई जब पूरी होती है तो इस प्रकार –

सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजहिं मनकामना तुम्हारी।।

और एक राज की बात है जिस दिन भी प्रश्नावली का यह हल निकलता है गीता बउरा जाती हैं… (ऐसा उनकी अम्मा को लगता है, वजह वो नहीं जानतीं)

सो गीता शंकर की रफ कॉपियाँ देखना चाहती हैं… रफ कॉपियाँ अंदर कमरे में हैं जहाँ जाने के लिए अम्मा की इजाजत जरूरी है, इजाजत के लिए उनके मूड का आकलन जरूरी है… गीता अम्मा के सुंदर चेहरे का आकलन करने लगीं।

लगातार अपने चेहरे पर कुछ चुभते रहने को महसूस करके लड़की की अम्मा नजरें उठा कर उसे देखती हैं। उसे यूँ जस की तस खड़ी देख हैरान हो कुछ कहने को होठों के जोड़ तोड़ती ही हैं कि लड़की जोड़ टूटने को समझ कर झट घुस जाती है नहानघर में।

कपड़ों को दरवाजे पर टाँग कर अंदर से सिटकनी लगा देती हैं। आधे रूम में पानी से लबालब टंकी है… और आधा खाली। जगह सँकरी है।

आधी खाली जगह में लड़की आधे अधूरे कपड़ों में खड़ी है। नहाने के क्रम में जो पहला वार पानी का देह पर पड़ता है, गीता को बड़ा यंत्रणादायक मालूम होता है। गीता अनमनी सी टंकी के एकदम पाला हो चुके पानी में हाथ डाले खड़ी है… मानो पानी की ठंडाई और अपनी देह की क्षमता जोख रही हो।

अब पहला वार वह कर चुकी है पानी का… तीसरा और चौथा भी।

पानी के वार के पश्चात उसके हाथ साबुन की डिबिया ढूँढ़ते हैं। पर अपने साबुन के बाजू में ही नजर आती है उसे शंकर के साबुन की डिबिया।

अनायास ही लड़की उठा लेती है वह दूसरी डिबिया और ढक्कन अलगाती है… ‘पुराना लक्स’।

लड़की साबुन उठा कर उसे हथेली की दूसरी तरफ रगड़ लेती है… सूँघती है। गीता को लगता है कि इतनी प्यारी सुगंध दुनिया में और कहीं नहीं है।

उस प्यारी सुगंध को अपने समूचे में मलने के पश्चात… अंग्रेजी ट्यूशन की याद के तहत उस खुशबू को बालों में भी मल लेती है। (शैंपुओं की इतनी भीड़ नहीं होती थी दूरदर्शन पर तब!)

‘गीतवा… आज फेर मूड़ धोउ ह?’

‘न… नहीं तो अम्मा!’ कहती गीता जल्दी जल्दी ढेर का ढेर पानी सिर पर उड़ेल लेती हैं ताकि साबुन का सारा फेन पानी पानी होकर बह जाए। नहानघर से सटी बाहर की नाली में धीरे धीरे सरकता ढेर का ढेर फेन का रेला चुगली खा चुका है।

‘चंडुल न हो गई तो कहना…। इ रोज रोज बाल में साबुन लगाना निकल जाएगा तोर।’

गीता को तेल में चिपुड़े बाल अब खास ठीक नहीं लगते, एक तो चिप चिप करते हैं दूसरे तेल पीकर लीखें खूब मोटा जाती हैं और बाल से ज्यादा वही चमकती हैं। सो हफ्ते के तीन दिन लक्स के कर्जदार हैं।

तो… जब भी शंकर के पिता ‘गया’ जाते हैं शंकर पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस सेलीब्रेट करते हैं।

खूब घूमते हैं शंकर और घूमने के क्रम में गीता का दीदार करते हैं। उनका घूमना और लफंगई होती ही है टी कलर होठों के एकदम नीचे चटक काले तिल वाली लड़की के दीदार के लिए।

गीता गोरी है। पके हुए ‘गेहूँ की बाली’ की तरह… धप धप गोर!

नैन नक्श खूब सुंदर तो नहीं हैं। पर भोलापन ऐसा गजब कि अगर सौ खून करने के बाद भी गीता अपनी मोटी आँखों से दो क्षण टुकुर टुकुर ताक दे तो जज साहब फौरन फैसला सुना दें – ‘नवजात शिशु किसी की हत्या नहीं कर सकता, लिहाजा मुल्जिमा को बाइज्जत बरी किया जाता है।’

शंकर इसी भोलेपन के फेर में फँस गए हैं। यूँ तो शंकर गीता को रोज ही देखते हैं… स्कूल जाते समय भी और स्कूल से आते हुए भी। पर ये उनका बोनस प्वाइंट होता है। और स्कूल से आते जाते देखना वैसा ही है जैसे जर्जर पुल पर चढ़ कर नदी की उफन आई बाढ़ को देखना…।

होता यह है कि डी.वी. गर्ल्स और डी.वी. ब्वायज दोनों स्कूल सुबह सवा सात पर लगते हैं। लड़कियों को चूँकि पैदल जाना होता है, इसलिए कारखाने में जब पौने सात की सीटी होती है ठीक तभी निकलती हैं… झुंड के झुंड में!

घुटने से एक एक डेढ़ डेढ़ बीत्ता नीचे तक नेवी ब्लू स्कर्ट पहनी लड़कियों का झुंड अलग होता है और साड़ी वाली लड़कियों का झुंड अलग। अमूमन साड़ी वाली लड़कियों का झुंड स्कर्ट वाली लड़कियों के पीछे ही रहता है। लड़के निकलते हैं ठीक सात की सीटी होने पर…।

पर शंकर सीटी होने के पाँच मिनट पहले ही निकल जाते हैं कहते हैं – ‘अगर पाँच मिनट पहले ही स्कूल पहुँच जाएँगे तो स्कूलवा काटेगा थोड़े!’

पर ऐसा होता नहीं है… पाँच मिनट लेट भले पहुँच जाएँ शंकर पहले नहीं पहुँच पाते।

निकलते हैं ठीक छह पचपन पर। रेस में साइकिल चलाते हुए जब तक जाते हैं तब तक साड़ी वाली लड़कियों का झुंड थाना मोड़ के पास पहुँच गया होता है।

अब शंकर एकदम रेस में साइकिल चला कर पहुँच जाते हैं थाना मोड़ से सौ कदम दूर एक झुराए हुए नारियल गाछ के पास। चाहे अब वो साइकिल की चढ़ी हुई चैन को पुनः पुनः चढ़ाएँ या कैरियर में दबाए हुए बस्ता में से कुछ खोजना शुरू करें… या चाहे सूसू करने के बहाने सड़क से जरा नीचे उतर कर मुँह फेर कर खड़े हो जाएँ और कनखियों से ताकें गीता को। उनके लिए बस इस बात का महत्व है कि उनके पीछे से आती हुई, बराबर से गुजरती हुई वो आगे निकल रही हैं…।

जाने कैसी तो खुशबू होती है दो क्षण के लिए दो मीटर की नजदीकी की भी…।

झुंड के दस कदम आगे निकल जाने के पश्चात शंकर या तो हाथ झाड़ते पोंछते उठ खड़े होते हैं… या फिर फुर्ती से लपकते हैं साइकिल की ओर – उनके देवीदर्शन का प्रथम चरण पूर्ण हो चुका है।

अब शंकर कहीं नहीं रुकेंगे… सीधे ठहरेंगे छह नंबर रास्ता के पास। बीच में कहीं रुकना बहुत खतरनाक है… बोले तो रिस्की।

होता यह है कि तब तक सात बज गए होते हैं और सारे जाने पहचाने चाचा लोग ड्यूटी के लिए निकल गए होते हैं। जब तब कोई न कोई जान पहचान का भेंटा ही जाता है। अब किसी ने उसकी हीरोगिरी भाँप ली… और पिता जी से चुगली लगा दी… बस्स इसके आगे सोचने पर शंकर का वश नहीं है। ज्यादा जोर देने पर धुँधला सा माँ का हाँऽऽ… हाँऽऽ… करके बरजना नजर आता है और पिता का दे दना दन दिए जाना। सो शंकर अपने इस रोजाना के क्रियाकलाप पर पूरी सतर्कता बरतते हैं।

शंकर पहुँचते हैं छह नंबर रास्ता के पास। यहाँ सारे क्वार्टर डी. टाइप हैं। शंकर को यहाँ विशेष दिमाग भिड़ाने की जरूरत नहीं होती। इस रास्ते में ढेरों बैर, अमरूद, जामुन और आम के पेड़ हैं। सभी शंकर से पक्की यारी निभाने वाले… अपने अपने मौसम में टूट कर फलते हुए।

जब स्कर्ट वाली लड़कियाँ शंकर के कुछ करीब पहुँचती हैं तो शंकर दोनों झुंडों को सगर्व देखते हैं – हम अकारण नहीं खड़े हैं।

पर शीघ्र ही यह गर्व लज्जा में बदल जाता है वस्तुतः शंकर यह समझ जाते हैं कि चोट्टी लड़कियाँ सब बूझती हैं।

शंकर सोचते हैं कि क्या ये बूझी हुई लड़कियाँ कभी रिगाती होंगी गीता को उनके नाम से?

तब क्या गीता हँसती होगी

पर एक राज की बात है जो शंकर कतई नहीं जानते कि गीता मँझी हुई अभिनेत्री है।

शंकर चेका चलाते हैं, और कई बेर भदभदा कर गिर पड़ते हैं। शंकर आहट पता लेते हैं… – कहीं क्वार्टर वाले जग तो नहीं रहे हैं।

स्कर्ट वाली लड़कियाँ आहिस्ता आहिस्ता गेट खोल कर अंदर जाती हैं और सारे बेर चुन कर लेती आती हैं।

शंकर को उसका हिस्सा थमा कर साड़ी वाली लड़कियाँ भी आपस में बेर बाँट लेती हैं। लाल बेर जब गीता के दाँतों से कुचल कर, स्लाइवा में लिथड़ कर स्वाद बन कर गीता की जिह्वा पर पसर जाता है, शंकर महसूसते हैं जैसे उनका चेका चलाना सफल रहा।

ऐसे ही एक दिन शंकर ‘चेका चलाने’ वाले अंदाज में अपने मन की बात गीता से कह बैठे।

‘चेका चलाने’ वाला अंदाज हड़बड़ी में नहीं बना था… न भय से। बस शंकर वो हुनर जानते ही नहीं थे कि शब्दों को चाशनी में कैसे लपेट कर परोसा जाता है।

वाक्या कुछ यूँ है… कि उस दिन शनिवार था।

शनिवार को दोनों स्कूल हाफ टाइम ही चलते हैं। यानि कि सवा सात से पौने दस तक। ऐसे में अक्सर होता यह है कि बच्चे छुट्टी मार लेते हैं… उस पर भी आफत है माघ का जाड़ा। पढ़ाई कुछ खास नहीं होती… शिक्षक भी जैसे गपियाने के मूड में रहते हैं उस रोज।

सो वह भी शनिवार था… उस रोज भी माघ का जाड़ा था, बाकायदा घने कुहेसा के साथ। गीता का साड़ी पहनना भी जल्दी हो गया। गीता जानती थीं कि अधिकतर लड़कियाँ आज स्कूल नहीं जाएँगी रजाई का आनंद लेंगी, पर चूँकि गीता को बिलावजह का नागा पसंद नहीं है सो गीता समय से कुछ पहले ही स्कूल के लिए निकल गई हैं।

गीता को अकेली समय से पहले निकलते देख शंकर की ट्रेन छूटने लगती है। वो पराठे के बड़े बड़े कौर निगलते हैं। पर निकलते नहीं हैं… पहले कुछ देर ठहर कर समय के अंदाज से ‘अब तक थाना मोड़ से आगे निकल गई होगी’ का अंदेशा लेते हैं, फिर निकलते हैं अपनी साइकिल पर।

एक चिरई तक नहीं डोल रही थी। शंकर जब थाना मोड़ से कुछ आगे निकलते हैं तो देखते हैं कि गीता कारखाना गेट पहुँचने को है पर अजीब तरह से लंगड़ा लंगड़ा कर चल रही है।

दरअसल गीता की एक ट्रेजिडी है कि उन्हें साड़ी बाँधनी नहीं आती… जिस तिस तरह वो साड़ी लपेट तो लेती है पर रोज कारखाना गेट के आसपास ही एक दर्जन सेफ्टीपिन भोंके हुए होने पर भी साड़ी की चुनट दगा दे जाती है। सहेलियाँ अच्छी हैं। रोज उसे पास वाले बड़ गाछ के मोटे तने के पिछवाड़े ले जाकर चूनट ठीक करती हैं। ऊपर की प्लेट सजाती हैं… और इतने कायदे से कि गीता के वापस घर पहुँच जाने तक चुनट और प्लेट अपनी वफादारी निभाते हैं।

‘का हुआ?’

‘अं…क…कुछ नहीं… बस्स!’

शंकर खुल कर लदर फदर हो चुकी मुट्ठी में जकड़ी हुई साड़ी की चुनट को देखते हैं।

‘अइसे कइसे जा पाओगी? …बइठो!’ इशारा पीछे के कैरियर पर है।

‘(हूँ… कह तो ऐसे रहे हैं जैसे हमारे भतार हों!)’ गीता कहती हैं पर शंकर कुछ नहीं सुन पाते।

गीता खूब गुस्साना चाहती हैं। अंदर से, एकदम अंदर से खोजती हैं क्रोध का कोई एक कण कि वो अपनी जिद को समझा सकें कि शंकर का प्रस्ताव उन्हें जरा भी अच्छा नहीं लगा है – कि नहीं, वो हरगिज नहीं बैठेंगी शंकर की साइकिल पर।

पर खोजने से भी उन्हें ऐसा कोई क्रोध का कण नहीं मिला। अलबत्ता यह जरूर लगा कि उन्हें शंकर का यूँ भतार की तरह बोलना खूब अच्छा लगा है।

‘पर…!’

शंकर गीता के ‘पर…’ को भाँप जाते हैं। पीछे की ओर देखते हैं या शायद देखने का अभिनय करते हैं। देख तो वह पहले ही चुके हैं।

‘पूरा कुहेसा है… कोई चीन्ह थोड़े न पाएगा, वैसे भी आज जल्दी निकल गए हैं।’

एक भरपूर नजर उन्हें देखते हैं फिर कुछ पल ठहर कर उँगली से साइकिल की हैंडिल पर पसर आई ओस की बूँदों को साफ करते हुए पुनः कहते हैं… – ‘तुम पेट्रोल पंप लगे ही उतर जाना।’

गीता कुछ नहीं कहतीं उन्हें एक नजर देखती भर हैं या नहीं… दरअसल वो उनके कंधों को देख रही हैं।

दोनों जनि सोच भी रहे हैं और नहीं भी। या हो सकता है कि लाख डर, भय, ऊँच, नीच सोचने के बावजूद वो करना वही चाह रहे हैं जो… उन्हें अच्छा लग रहा है…

गीता बिना जवाब दिए एक हाथ से बोरे का झोला सीने से चिपकाए और दूसरे हाथ से साड़ी की गाजू माजू हो चुकी चूनट को सँभाल कर पीछे कैरियर पर बैठ जाती हैं।

गीता अपनी जिद को पुचकार चुकी हैं, ‘हम अच्छा लगने के लिए थोड़ी न बइठे हैं, हम लदकदा कर चल नहीं पाते इसिलए बइठे हैं।’

सावन कहेला भदउआ से…
ए जी हमें रउआ एके मति के…
हम गरजबे रउआ बरसबी
ए जी हमें रउआ एके मति के।।

आहिस्ता आहिस्ता पहिए घूमने लगते हैं। कारखाना का इलाका पार होने पर टैक्सन मोटर गेट आता है। उसके जस्ट बाद ढाल है – एकदम खड़ा ढाल।

बड़ा रोमांटिक रास्ता है, बोले तो एकदम कयामत टाइप। फिलिम में जूही चावला अपनी सहेलियों के साथ जइसे रास्ते से पिकनिक मनाने जाती है न… एकदम एकदम ओएसा ही रास्ता है, डिट्टो! (क्षमा चाहती हूँ सुधी पाठको… परंतु ऐसा मैं नहीं कहानी के नायक सोच रहे हैं।)

प्रेम, इश्क, मुहब्बत कुछ भी कह सकते हैं चीजों को देखने, परखने महसूसने का एक अलग ही नजरिया दे देता है। एक पक्षपाती नजरिया…। दुनिया की हर शय को सुंदर, कोमल, मासूम, नादान, प्यारा समझने वाला नजरिया। एक ऐसी दुनिया रच देता है प्रेम जहाँ कुरूप तो कुछ होता ही नहीं और अगर होता भी है तो ग्रे शेड में…। …समग्रता के साथ नहीं जम पाती कुरूपता।

The first stage of love is the best stage of life.

शंकर ने जिंदगी की कॉपी के हर पृष्ठ पर नोट्स साइड में यह पंक्ति लिख रखी है।

शंकर उदास हो गए हैं… पर यह उदासी भी पूरी तरह चटकार न होकर ग्रे शेड में है। रोमांच और अनजानी सी खुशी की छौंक के साथ।

आप कहेंगे लो भला… इसमें उदास होने वाली कौन सी बात हो गई! नायक के साथ ही तो है उसकी नायिका।

लेकिन मेरे प्रिय पाठको यही तो उदासी की असल वजह है कि नायक के साथ ही है नायिका।

सोचिए भला… कितने क्षणों के लिए है यह साथ! एक पल… दो घड़ी… बस्स रास्ता खत्म, साथ खत्म।

और यही सोचना उसे उदास कर गया है। कितना भला होता हो राम जी कि जो ये रास्ता अभी के अभी मीलों लंबा हो जाता… कई मील लंबा। कि बरसों लग जाएँ पहुँचने में… कि कोई मंजिल ही न हो इस भटकन की। भटकते रहें यूँ ही सारी उम्र साथ साथ।

हमारे लिए ये सारी बातें गप्प हो सकती हैं, कोरी भावुकता भर, लेकिन बच्चू! यही सारी गप्प और बेकार सी बातें बड़ी अजीज हैं इस नायक को।

बड़ी अर्थवान…। शंकर उदास हैं पर होना चाहते नहीं। खूब सोच रहे हैं पर सोचना चाहते नहीं है… पर इ साली सोच एक के बाद सवार है दिमाग पर।

अब लो पूछो इनसे… – अब का सोच रहा है रे?

शंकर ये सोच रहे हैं कि क्या बात करें गीता से?

गुलाबी गुलाबी सुबह, डैम का ये किनारा, नारियल के पेड़, पंछियों का शोर… ये अधजगापन! सोचें तो और क्या सोचें शंकर?

रोज इसी वक्त गुजरते हैं इस रास्ते से पर बड़ी संगदिली से बेपरवाई वाले अंदाज में पार कर देते हैं इसे। खूब रेस में साइकिल चलाते हैं तेज तेज, हैंडिल छोड़ कर, एकदम आमिर खान स्टाइल में (इसी चक्कर में बाप की साइकिल कई बार गिरा कर तोड़ चुके हैं, और बाप से पिटा भी गए हैं)

लेकिन आज यूँ ही बेपरवाई से इस रास्ते को पार कर देने का मन नहीं कर रहा है उनका। आधा ढालू तो यही सोचने में पार हो गया कि क्या बात करें?

आखिरकार खूब नाप तौल कर बिना सिर घुमाए ही पूछते हैं… – ‘ठीक से बैठी है न?’

‘आँय…?’ कुछ साइकिल की खड़र खड़र की आवाज और कुछ तेज हवा के कारण गीता सुन नहीं पाती हैं।

‘हम पूछे कि ठीक से बैठी है न?’

अबकी बार शंकर अपना मुँह जरा सा पीछे की ओर घुमा कर पूछते हैं।

‘हाँ…हाँ!’

गीता ठीक से तो बैठी हुई हैं… पर आराम से नहीं बैठी हुई हैं। कैरियर की तीलियाँ उनके नितंबों पर चुभ रही हैं।

‘पर… ये शंकर से बताने वाली बात थोड़ी न है… छीः!’

पेट्रोल पंप से ठीक दो कदम पहले शंकर को भान हुआ कि जिस सुख में अब तक वो गोते लगा रहे थे… उससे निकलने का वक्त अब आन पहुँचा है।

शंकर एक पैर से टेक लगा साइकिल रोक देते हैं। गीता को हल्का सा कूद कर उतरना पड़ता है।

गीता आगे निकलने को होती हैं कि शंकर खँखार कर गला साफ करते हैं।

जाने कैसे गीता को लग जाता है कि अब बस्स… वो बात हुई ही जाती है जिससे वो इतने दिनों तक बच रही थीं।

और ऐन इसी पल गीता के दिमाग में दो बातें एक साथ आती हैं… पहली तो यह कि वो दाहिने हाथ से गाजू माजू चूनट को मजबूती से थाम लें और बाएँ हाथ को कंधे पर टिका दें जिससे जूट का झोला कंधे पर पीछे झूल जाए फिर कहें… ‘हमारे स्कूल का अबेर हो रहा है हम जा रहे हैं।’

दूसरी बात… जो उनके दिमाग में आई ये कि वो दाएँ बाएँ सिर घुमा कर देख लें। आसपास कोई चीन्ह परिचित नजर न आने पर लड़की बहुत दम से कार्बन डाई आक्साइड छोड़ती है। गीता को बहुत डर लग रहा है …क्या कहेंगे शंकर इसका नहीं, बल्कि जो शंकर कहेंगे उसका वो सामना कैसे करेंगी, इसका!!

पर गीता समझ चुकी हैं कि जो शंकर कहेंगे उसके श्रवण से बड़ा सुख उनके लिए कुछ नहीं होगा, सो गीता शंकर के कुछ कहने के क्षण को कैमरे में पूरी तरह रिकार्ड कर लेना चाहती हैं।

ताकि, जब तब, रात की गहन नीरवता में उसे पल दर पल रिवाइंड किया जा सके।

पर, बजाहिर गीता बहुत जरूरी काम कर रही हैं।

गीता बाएँ हाथ से पूरी गाजू माजू चूनट को मजबूती से थामे हुए हैं। और दाएँ हाथ के अँगूठे के नाखून से अनामिका के नाखून को खुरच रही हैं। झोला अभी साइकिल के कैरियर पर ही है।

शंकर हकलाते हैं… ‘उ… हम कह रहे थे…’

गीता की आँखें उँगलियों पर हैं और शंकर की आँखें गीता की आँखों पर।

शंकर चुप हो गए।

गीता अपनी आधी पलकें उठाती हैं।

नजर ठहरती है उठे हुए पैडिल पर टिके हुए शंकर के पैरों पर।

शंकर चमड़े का काला जूता पहने हुए हैं। जूते की सिलाई किनारे किनारे से उघड़ जाने के कारण मोजे का गला हुआ हिस्सा भी नजर आ रहा है।

गीता को उघड़ी सिलाई वाले जूते में फँसा हुआ पैर काँपता सा लगा।

कोई और वक्त होता और सामने शंकर नहीं होते तो गीता निश्चित रूप से बहुत जोर खिलखिला कर हँसतीं। पर गीता समझदार हैं… जानती हैं ऐसे गंभीर अवसर पर हँसा नहीं जाता।

आधी पलकें खोलने के प्रयास में गीता का चेहरा जरा सा तिरछा हो गया है। उनकी नाक में सफेद पत्थर की लौंग अटकी पड़ी है, जिसकी डंडी कुछ लंबी है, जिससे लौंग नाक से कुछ ऊपर दीखती है। कुछ देर पहले का ताजा ताजा उगा हुआ सूरज, जिसकी ताजा ताजा रोशनी जब लौंग पर पड़ती है तो सफेद पत्थर से सतरंगी आभा फूट पड़ती है।

सफेद पत्थर की सतरंगी आभा और गीता की आधी झुकी नजर उनके चेहरे के बच्चेपन और सम्मोहन को कई गुना कर देती है।

शंकर अपलक ताकते रहे।

शंकर स्वयं को भूल से गए।

लंबी खामोशी को महसूस कर गीता की पलकें पूरी खुल जाती हैं।

नजर ठहरती है, शंकर की नजर पर जो है गीता की लौंग पर।

गीता अपनी लौंग से खिसिया कर उसे तर्जनी से अंदर दबा देती हैं।

शान से खड़ा लौंग का पत्थर नाक से चिपक जाता है।

तारतम्य टूट जाता है।

शंकर अपने को याद आ जाते हैं।

गीता शंकर से भी खिसिया जाती है।

झोला उठा कर चुपचाप चल देती है।

शंकर अपने को कड़ा बनाते हैं…

‘हम… हम न तुमसे प्यार करते हैं।’

बस्स… आठ से नौवें सेकेंड के बीच भर जितनी नजर ठहरती है शंकर पर।

निशाना सही लगा।

वो दुबारा पुकारे जाने की आस में नन्हें नन्हें कदम सहेजती चली जाती हैं।

गीता ने स्वीकार नहीं किया… अस्वीकार भी नहीं किया। बस इतना और हुआ कि इंग्लिश ट्यूशन से घर की दूरी… और घर से इंग्लिश ट्यूशन की दूरी उनकी जन्नत हो गई।

दोनों के थम थम कर पड़ते कदम मानों स्केल की दो सेमी. से आठ सेमी. की दूरी माप रहे होते। एक सेमी. से दो सेमी. तथा आठ सेमी. से दस सेमी. की दूरी मापना वर्जित था उनके लिए।

दरअसल जोखिम होने के कारण उन्होंने उसे वर्जित कर रखा था। दो सेमी. के बिंदु से वो नन्हें नन्हें दस कदम चलते और दूसरे बिंदु की शुरुआत से ऐन पहले गीता ठिठक जाती… – ‘अब तुम जाओ कोई देख लेगा।’ पर शंकर की आश्वस्ति भरी मुस्कराहट इस डर को अगले दस कदम के ऐन पहले वाले बिंदु पर स्थगित कर देती। यूँ साथ चलते हुए अक्सर दोनों को लगा कि बस्स… दुनिया इतनी भर ही है… दोनों के वृत्त भर, मुट्ठी में समाने लायक। इस समाने को जब तब साझा महसूस भी किया था उन्होंने।

गीता की काँपती हुई हथेलियों को थामे हुए होने के समय पर… और एक बार जेठ की सुनसान दोपहर को दो से आठ सेमी. के बीच उगे हुए नए, बेर और असंख्य अनजान झाड़ियों की ओट में जब शंकर अपने होठों को गीता के गुलाबी होठों पर रखना चाहते थे। पर कुछ भय घबराहट और रोमांच की हड़बड़ी में… उनके होठ गीता के सटीक होठों पर न पड़ कर नाक और ऊपरी होठ की बीच की जगह पर पड़े थे।

कुछ लिसलिसा… गरम गरम सा लग गया था शंकर के होठों पर। गीता को इस सीन में लजा जाना था और मौसमी चटर्जी स्टाइल में मुस्करा कर उन्होंने अपने दोपट्टे से शंकर के होंठ पोंछ दिए।

सुर्रऽऽ सुर्रऽऽ करती गीता उन्हें बच्ची लगी थी… नन्हीं मुन्नी सी मासूम बच्ची!

गीता का छोटा सा गोल चेहरा अपनी साँवली हथेली में भरे शंकर कुछ क्षण टुकुर टुकुर देखते रह गए।

गीता ने उनकी दाईं हथेली को अपने दोनों हाथों में भर कर अपने होठों से छुलाया था… देखा था उनकी आँखों में, फिर छुलाया था अपने होठों से।

और… शंकर को फ्रेन्च, इंग्लिश चुंबन के सारे स्टाइलों से जैसे घिन हो आई थी, जिसकी सलाह और अनुभव उनके दोस्तों ने उनसे बाँटे थे। शंकर बस अपने होठों को गीता के होठों से छूकर रह जाने दिए।

पता नहीं क्यों तो शंकर को अचानक ऐसा लगा जैसे ढेर का ढेर… खूब खूब ढेर सारा नमक उनकी आँखों में इकट्ठा हो गया है। इतना सारा कि अब उसका बोझ नर्म पलकें नहीं सँभाल पाएँगी।

शंकर एक बार अपनी दूब जैसी मोटी पलकें झपकाते हैं।

पर… नहीं अब अगर नमक का एक भी कण ज्यादा हुआ तो गीता भाँप जाएगी।

शंकर गीता को भाँपने नहीं देना चाहते, क्योंकि वो जानते हैं कि यह नमक का आना एक संक्रामक रोग है।

इस भाँप लेने से वो इतना डर गए कि गीता को खींच कर उस ओट से बाहर लेते आए।

गीता अकबका गई थी।

‘घिना गए का?’

शंकर गीता की आँखों में कुछ क्षण देखते रहे… और कुछ क्षण नाक से जरा सा बहरियाए हुए नेटा को। फिर उन्होंने अँगूठे और तर्जनी की चिमटी बना कर नेटा को गीता की नाक से खींच लिया… हाथ झटक कर उँगलियाँ पैंट की जाँघ में पोंछ लीं।

जो हमारे भदेस से प्रेम नहीं करता वो हमसे प्रेम नहीं कर सकता। जो हमारे भदेस से प्रेम करता है वो हमें हर रूप में प्रेम करता है। उसके तईं बदल जाने या नहीं बदलने सा कुछ नहीं होता।

सो इस दुनिया को मुट्ठी में भर लेने की खुमारी उन पर ऐसी तारी हुई कि चलते चलते कब और कितनी दफा आठ से दस की दूरी तय कर ली, इसका तो हिसाब भी नहीं होगा उनके पास।

इश्क, मुश्क, खाँसी, खुशी छुपाए नहीं छुपती। पहले बस फुसफुसाहटें हो रही थीं, पर उनके दुस्साहस ने फुसफुसाहटों को मुखर बना दिया।

किसी शुभचिंतक ने यह मुखर होती फुसफुसाहट परताप चंद के कानों में फूँक दी।

परताप चंद स्तब्ध रह गए। जमीन में धँस कर आधा रह गया उनका कद उस शुभचिंतक के समक्ष।

ये वो दौर था जब पिता तानाशाह होते थे, और कभी कभी तानाशाही के कठोर आवरण में लिपटे हुए माँ सरीखे भी…

डे टाइम से लौटे परताप चंद… और दिनों की अपेक्षा ज्यादा थके थके से थे।

दोनों छोटी बहनों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा के खयाल से उन्हें सपनों की खूबसूरत दुनिया में खो जाने दिया गया।

बाकायदा पेशी हुई गीता की, जिस अदालत के जज भी परताप चंद थे और जिरह करते विपक्ष के वकील भी।

गीता को अपनी सफाई में बस ‘जी बाउजी’ कहने भर की छूट थी।

बाहर कमरे के बीचोंबीच गीता फर्श पर बैठी हुई दोनों हथेलियों को आपस में मल रही थीं। अम्मा और बाउजी खिड़की से सटी काठ की कुर्सियों पर बैठे थे।

अम्मा के आँचल ठुँसे मुँह से शायद सिसकारी सी उभरी थी…

‘आज पांडे जी भेंटाए थे। तुमको और उ यदुउवा के बेटवा को लेकर… इ झूठ है कि…?’

यद्यपि गीता जानती है कि मोहल्ले के सभी अभिभावकों की नजर में पांडे जी नारदमुनि हैं। सो गीता यदि अपनी पूरी प्रतिरोधक क्षमता से विरोध करे तो… वो जानती है कि इस नकार पर विश्वास कर लिया जाता।

पर, गीता कभी न कभी खुल ही जाने वाली बात को अभी के अभी खोल कर देख लेना चाहती थी… डर और उहापोह से मुक्ति के लोभवश गीता झूठ नहीं बोल पाई।

‘हमका तोहसी इ उम्मीद नाई रही। हमका तोहपे अपने से जियादा भरोसा रहा। कभउ अपने दुनू छोटकी बहिनिन के बारे में सोचू ओनकर का होय?’

पिता की मोटी मोटी आँखों में भी गीता को बूँद भर सा दिखा कुछ… जो नहीं दिखने जैसा ही था, जो दिखाए जाने के लिए नहीं आया था। मन की तोड़मरोड़ से निकला बेहद पारदर्शी।

पिता की इतनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया गीता को शॉक्ड कर जाती है।

उन्हें लगता है जैसे वो बहुत भारी गलती कर बैठी हैं और उन्हें सजा न देकर… दरअसल बहुत बड़ी सजा देने की साजिश है ये।

गीता सोच रही थीं कि अब कि तब पिता उठेंगे और पास पड़े हुए अपने कारखाने वाले जूते से जमाएँगे दो चार। कहेंगे… ‘कलमुँही, कमीनी इसी दिन के लिए पैदा किया था तुझे?’

पर अपने संदेह का फिजूल हो जाना गीता को आश्वस्त नहीं करता, बल्कि उनके अंदर बेचैनी भर देता है। बेतरह, बेहद भयानक बेचैनी।

उस रात… और उसके बाद की सारी रातें गीता की नींद के लिए नहीं थीं। गीता खिड़की पर लगी लोहे की घनी जालियों से गाल सटाए अँधेरे को घूरा करतीं। जालियों का ठंडा लोहा जैसे उनके अंदर की हर चीज को ठंडा करता जा रहा था।

गीता सोचतीं क्या इस अँधेरे में झट से कोई उजली चीज चमकेगी जिसमें गीता के तमाम रतजगों का हिसाब होगा… और उनका कोई मीठा सा फल भी?

गीता अक्सर रात की स्तब्धता को बिना हिलाए डुलाए लेटी हुई बहनों के बगल से उठ बैठती हैं। आहिस्ता से चौकी से नीचे उतरती हैं। बीच वाले दरवाजे से झाँक कर बाहर कमरे का जायजा लेती हैं।

पिता की चौकी पर कोई हलचल नहीं है, न उसके बाजू में बिछी हुई अम्मा की खाट पर। कान पूरी तरह अड़े हुए हैं। चौकी और खाट की किसी भी… हल्की सी आहट पर।

कोई सुगबुगाहट न पाकर गीता निराश नहीं होतीं बल्कि गहरे काले अंधकार में भी सुकून रेशम की लकीर बन कर उनके चेहरे पर चमक जाता है।

वस्तुतः गीता चाहती हैं कि वो सबके हिस्से की फिक्र अपनी हथेली में बटोर लें। पिता माँ, शंकर, सबके हिस्से की फिक्र… ताकि ये सब निश्चित होकर सो सकें, एक बेहद प्यारी नींद। और उनकी चिंताओं को अगोरती रहे खो गई सी वह!

हर किसी के प्रेम का अनुभव अपने आप में अनूठा और दूसरे से सर्वथा पृथक होता है।

प्रेम विवाह का लड्डू नहीं है… ‘ जो खाए वो पछताए जो ना खाए वो भी पछताए’ 

प्रेम करने वाला कभी पछताने की स्थिति में रहता ही नहीं। प्रेम… हमेशा हर हालत में पाता है। यह अलग बात है कि यह ‘पा लेना’ कभी समझ में आ जाता है और कभी नहीं आता… ‘ जो समझ में नहीं आने वाले को’ बूझ लेते हैं उनके लिए जिंदगी में कुछ और बूझना बाकी नहीं रह जाता।

पर ये ‘ बूझ लेने वाले’ बड़े लोग होते हैं। गीता और शंकर मिट्टी के माधो हैं।

शंकर का मन नहीं लगा स्कूल में…।

लड़कों के बीच से जो चले… तो घर ही चले आए।

शंकर अगर जानते कि दुनिया को तबाह करने का राज क्या है तो आज वो राज पक्का खुल जाता।

उनके हाथ अगर एटम बम लग जाता, तो आज वो बम फूट ही जाना था।

सात दिन बाद गीता देवरिया चली जाएँगी। पंद्रह दिन बाद ही की तो तारीख है।

शंकर बिना खाए पिए घर से निकल गए… पर अब जाएँ कहाँ बस सीधे सीधे चलते रहे और आ पहुँचे रिवर रोड तक जो इक्यावन से पाँच फर्लांग की दूरी पर है। रिवर रोड रेलनगरी का सबसे लंबा रास्ता है। स्टेशन से नदी तक।

अगर कोई अंधा स्टेशन से सीधा चलना शुरू करे और सीधा ही चलता रहे तो रास्ते का अंत अजय नदी पर होता है।

शंकर अभी अंधे की सी स्थिति में हैं।

शंकर पुल पर सीने के सहारे झुके खड़े थे।

नदी में पानी था… बहुत कम। पर शंकर जानते हैं कि किस किस चट्टान के नीचे गहरा पानी हो सकता है

उनका मन हुआ… कि दब जाएँ यहीं कहीं किसी चट्टान के नीचे। पर वो ऐसा कुछ नहीं कर सकते थे। वो एक वादे के कैदी थे…

लू चलने वाली दोपहर से बचने के लिए, उस बी टाइप क्वार्टर की खिड़कियाँ पूरी तरह बंद थीं।

बस खिड़कियों के ऊपर बने रोशनदान से धूल सनी धूप अंदर आ रही थी। रोशनदान आयताकार थे। आयताकार धूप का आखिरी सिरा कमरे के बीचोंबीच आधा अधूरा फैला था।

कमरे में झाँवर कालापन सा था।

धूप के उस पार गीता थीं।

शंकर इस पार थे।

बच्चे धूप की नरम आँच में खड़े होना चाहते थे।

पर… धूल के कण आँखों में किरकिराने का भय था।

शंकर गीता के कंधे के पार देख रहे थे।

कमरा था… जहाँ लीमेंट की चौड़ी रैक थी जिस पर एक छोटा सा आईना, कंघी व महकउआ तेल रखा था। राम जी की एक पुरानी फोटो और चीनी मिट्टी का गुलदान था… जिसके नकली फूल नकल में मुरझाए हुए थे।

रैक के बाजू में जहाँ गीता खड़ी थी… वहाँ एक काठ का टेबल था जिस पर सैलोरा ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ टीवी थी।

आखिर में नजर ठहरती है… कमरे के कोने में जहाँ परताप चंद की चौकी पर गीता की मँझली बहन लेटी थी… जिसे देख कर उसके दोपहर की तगड़ी नींद में खोए हुए होने का भ्रम होता था।

बहुत सी बातें ‘सोए हुए होने’ का धोखा देकर पहचानी जा सकती हैं… जिसे ‘जागे हुए होने’ का एहसास देकर देख भी नहीं पाते हम!!

शंकर तसल्ली करके आए थे कि परताप चंद दिन ड्यूटी पर गए हैं। गीता को पता था… अम्मा पड़ोस में हैं।

उनके पास बहुत कम क्षण थे जी लेने के लिए।

शंकर की आँखों में टूटा हुआ ताजमहल था… गीता बस बी टाइप क्वार्टर ही बना पाई थीं।

उन्होंने सब बताया था… सब।

और हाथ फैला कर माँगा था…

‘हमको छूकर बोलो, कोई उल्टा सीधा काम नहीं करोगे तुम?’

हालाँकि गीता को अपने मनवाने पर भरोसा नहीं था। अगर इतना ही मनवाना आता तो ये मनवाने की नौबत क्यों आती पर जिंदगी में एक जगह ऐसी होती है… जहाँ इनसान अपना सब कुछ मनवा सकता है। गीता जानती थी वो जगह उनके सामने है और इसी भरोसे माँग रही थीं।

शंकर ने गीता का फैला हुआ हाथ कस कर थाम लिया।

शंकर चाहते तो नहीं थे… पर गीता के मनवाने पर उन्हें सारी प्रतिज्ञा दोहरानी पड़ी।

वो गीता को देख रहे थे… अंधार में गीता का चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था। पर गीता के चेहरे की गढ़न शंकर को इस कदर रट गई थी कि शंकर को सब साफ साफ दिखाई देने जैसा दिख रहा था।

गीता के आसपास एक गंध थी… एक गंध जिसे शंकर बचपन से ही चीन्हते हैं।

शंकर पक्के तौर पर आश्वस्त हैं कि यदि उनकी आँख पर पट्टी बाँध दी जाए तो इस गंध के सहारे वो सौ करोड़ की भीड़ में से भी गीता को ढूँढ़ निकालेंगे।

शंकर गीता से ज्यादा गीता की गंध को चीन्हते हैं।

शंकर गीता को बस एक बार कस कर गले लगा लेना चाहते थे।

शंकर चाहते थे… एक बार गीता को पकड़ कर रो लें, खूब खूब जी भर कर।

पर, शंकर कुछ नहीं कर पाए बस गीता को देखते रहे।

कुछ क्षणों बाद गीता एकदम धुँधली दिखाई देने लगी।

शंकर घबरा कर अपनी आँखों को खाली करना चाहे… कि उन्हें एकदम ही एहसास हुआ कि कोई रुई सी नाजुक चीज आकर टिक गई है उनके सीने से।

शंकर गले लगाने का हुनर नहीं जानते थे… पर उन्हें सहारे की सख्त जरूरत थी।

उन्होंने गीता के इर्द गिर्द अपनी बाँहें गूँथ दीं।

…कि बस्स… इससे भयंकर पीड़ा के क्षण नहीं आ सकते जीवन में। जो शंकर इस क्षण को जी लिए… तो जिंदगी में कुछ भी झेल जाएँगे।

जमीन पर टिके रहना त्रसद नहीं… पर खुले आकाश में उड़ने का वैभव जीने के पश्चात, पथरीली जमीन पर पटक दिया जाना, त्रसदी का चरम है।

कितने सारे आले थे, हर आले पर अलग अलग चीजें रखी हुईं।

जाने आले कम थे… या चीजें ही ज्यादा थीं!

बंद, बंगाल के होने के पहले से ही उससे जुड़ा था।

समय प्रेमनगर के गाने हिट हो जाने का था, बेशक फिल्म बासी हो चुकी थी।

‘ये लाल रंग… कब मुझे छोड़ेगा…’।

भय था… कि बंद सफल होते थे।

असफल न कर पाने की स्थिति में भी चेष्टा करने वालों की कमी नहीं थी।

बंगाल के इतिहास में एक और बंद दर्ज होने जा रहा था। तमाम माँगों के साथ उसका ऐलान किया जा चुका था।

जो शंकर स्कूल की प्रार्थनासभा में गाते थे…

इतनी शक्ति हमें देना दाता,

मन का विश्वास कमजोर हो न…

वो राजपत यादव का जीवन राग था जिसकी धुन वो कभी नहीं बिसरे।

भूलना जरूरी था… क्योंकि इसे समय भूल रहा था। वो समय के साथ नहीं चल सके।

राजपत यादव… इंक पेन से लिखा था।

लिखावट पर समय का आँसू चू गया।

तमाम कार्यक्रम और प्लान तय किए गए।

शनिवार की स्ट्राइक को असफल बनाने के लिए शुक्रवार की रात को राजदार बनाया गया। तय हुआ कि असफल करने में सफल होने वाले सारे साहसी लोग रात को ही कारखाने में जाकर ठहर जाएँगे।

नौकरी तो नौकरी है।

‘सरकार पइसा हमको लोहा तोड़ने के लिए देती है… बइठ कर भात भकोसने के लिए नहीं।’

एक चौराहा था…

राजपत यादव न भय का साथ दे सकते थे, न उसका मूक समर्थन कर सकते थे। तीसरा रास्ता जहाँ से वो आ रहे थे… (चुप रह कर विरोध करने का रास्ता)

पर उन्होंने चुना चौथा रास्ता जो तीसरे रास्ते से आगे बढ़ता था… डंके की चोट पर विद्रोह का रास्ता!

यहाँ चोट पहले लगनी थी…, डंका बाद में बजना था, पर डंका पहले बज गया चोट खारिज हो गई, बुरी तरह खारिज।

रात गहराने के साथ लोहा काटने की तीव्रता भी गहरा गई।

छह सात साइकिलें स्टैंड में लग चुकी थीं। कारखाने के तमाम अतड़ों पतड़ों में छिपने की बहुत सी जगहें थीं… जहाँ से दूसरों को नजर न आने का भ्रम होता था।

भ्रम भारी पड़ा नैतिकता वालों पर…!

बंद को असफल होने से रोकने में सफल होने वाले अंदेशे में थे कि नैतिकता वाले गड़बड़ करेंगे।

सारे कोने अतड़ों की उलट पुलट शुरू हो चुकी थी। गड़बड़ियों को भूसे की बोरियों की तरह धुना जा रहा था

दिन प्लेटफार्म पर थोक थोक फेंके हुए मूँगफली के छिलके हो गए थे… बिखरे, टूटे, कुचले हुए!!

राजपत यादव सिर्फ कराह सकते हैं…

‘शंकर… प् … पानी!’

शंकर को पता है कि घर में एक बच्चा है जो कभी चल नहीं पाएगा।

शंकर ने नौवीं में पढ़ा था कि ‘मेरुदंड’ ही आदमी को खड़ा होने में सहायता करती है।

घोर बारिश के मौसम में जब बारिश सूखी हुई मिट्टी पर बरस कर सोंधी सोंधी गमकती है, कोयले पर भुट्टा पकने की महक हर ओर से घेरती है… शंकर राजपत यादव के पैताने बैठे भुट्टे के दाने दाने छुड़ा रहे थे।

‘कौन्च्ची है…?’

‘मकई…!’

‘पानी जोर से पड़ित हइ… गाय के भीतर कर दे!’

‘परसों तो बिक गेलइ न…!’

राजपत यादव करवट नहीं ले सकते… बस माथा दाएँ से बाएँ कर लेते हैं।

एक कमरा था। जहाँ काठ की एक टेबल, चौकी और शिव पार्वती के चित्रों के अलावा… बस खामोशी थी, थकी हुई, हाँफती खामोशी!

खिड़की से बाहर ईंट और खपड़े से बना हुआ गाय का घर था… जिसके खूँटे खाली पड़े थे अब।

वह खाली खूँटा राजपत यादव की आँखों का स्थायी भाव था।

यदुआइन को अब अक्सर लगता है कि, वो जब भी आँच लगाने के लिए माचिस की डिबिया खोलेंगी तो डिबिया खाली ही मिलेगी।

यद्यपि डिबिया को देख कर हमेशा उसके भरे हुए होने का भ्रम होता है।

पेन्शन शुरू नहीं हुई… इक्के दुक्के ट्यूशनों से क्या होता है

चार साल की जिंदगी थी कि चार हजार कर्जों में डूबी हुई।

कर्ज सिर्फ पैसे का नहीं होता।

शंकर को नौकरी मिल सकती थी… मिलनी चाहिए थी। परताप चंद हर संभव कोशिश, पूरी ईमानदार कोशिश कर रहे थे कि नौकरी उन्हें मिल जाए पर ‘बिना लिए’ नहीं करना है की मुहिम तेज थी…

पुरानी चीजों के प्रति दीवानगी दरअसल गुजरी हुई बातों के प्रति ही दीवानगी है। जिस तरह पुरानी चीजों के बगैर अपना खुद का घर भी अपना नहीं लगता उसी तरह बीती हुई बातों व यादों के बगैर ये अपनी जिंदगी भी अपनी नहीं लगती।

चार साल बाद मायके आने का दिन बना था।

गीता चित्तरंजन आई थी।

बस स्टाप पर गीता जी मँझली बहन के साथ खड़ी हैं।

दूरदर्शन ‘हमारा बजाज’ से निकल कर ‘क्लीनिक प्लस’ और ‘राजदूत’ पर पहुँच गया था।

बस का आना अब विशेष हड़बड़ी नहीं है।

बस में सीट मिलना बड़ी बात नहीं है।

सो… न सीट पाने की खास आतुरता न देने की वैसी आकुलता!

जड़ें नहीं बदलतीं, वरना शायद करंज का पेड़ भी वहाँ से हट कर किसी खुले मैदान में जा चुका होता… कि, ‘मुझे प्रकाश संश्लेषण के लिए पर्याप्त धूप नहीं मिलती…’

बहुत सी ऐसी चीजें थीं जिनकी जड़ें बहुत गहरे धँसी थीं।

ऐसी गहरी जड़ों वाली चीजें जो नहीं चल पातीं… उन्हें जिंदगी अपने साथ घसीट लिए जाती है।

घिसटाहट ने गीता को साड़ी कायदे से बाँधनी सिखा दी थी।

पर एक बात जो कोई नहीं जानता कि गीता आज भी गलत साड़ी पहनती है… इस प्रतीक्षा में कि शायद गलत पहनते पहनते वो सही पहनना भूल जाए।

पर भला… कोई साइकिल चलाना भूला है आज तक

बस लेट… सीटें खाली थीं।

शंकर को मिहीजाम जाना था, बैठ गए आमलादई की बस में।

छोटी बहन को सीट पर बिठा दिया गया।

कभी कभी… खड़े रह जाना बहुत बड़ा सुख होता है।

शंकर पूछना चाहते थे…

‘क्या तुमको आर.पी.एफ. वाले अब भी गंदे लगते हैं?’

पर पूछा…

‘तुम्हारी सरदी कैसी रहती है अब?’

‘इम्म…ऽऽऽ’

शंकर ने मन में दोहराया…

‘इम्म…?’

उन्हें घोर अनजानेपन का एहसास हुआ।

शंकर ने फिर मन में दोहराया…

‘आँय…?’

उनका मन किया कि अपनी ही आवाज को चूम लें…

कि जैसे उनके अंदर से उनकी गीता ने पूछा हो – ‘आँय…?’

‘सर्दी कैसी रहती है तुम्हारी?’

‘ठीक ही… है!’

शंकर को लाल रंग से बहुत डर लगता है। वो गीता की कलाइयों की हरी चूड़ियों को ताकते रहे।

गीता दुखी हैं ऐसा उनको देख कर नहीं कहा जा सकता पर उनकी रोंआँ पर वो रंग नहीं है जो ससुराल से पहली बार आई लड़की के होता है।
गीता के सामने एक खिड़की खुली थी जहाँ से चंदा मामा सुंदर दिखते थे।

गीता घर का सारा कचरा खिड़की से बाहर फेंक देती थीं। घर साफ चम चम हो जाता था।

गीता खुल कर खुश रहती थीं।

परताप चंद ने खिड़की बंद करवा दी।

गीता चुपचाप खिड़की से हट गईं। पर… फिर उन्होंने अपने लिए कभी कोई खिड़की नहीं खोली।

जब वो खिड़की नहीं तो कोई सी भी खोल दो क्या फर्क पड़ता है।

परताप चंद ने गीता के लिए नई खूब सुंदर समझ कर… एक खिड़की खुलवा दी जहाँ से हमेशा दोपहर ही दिखती है… एक सार, एक रंग! खिड़की में मोटी जालियाँ लगी हैं।

गीता… बस हमेशा रोआं गिरा कर घर का कचरा एक कोने में इकट्ठी करती जा रही थीं।

‘यादव चा… का सुन कर… बहुत खराब…!’

‘हाँ!! सिक मिल गया है…’

‘… तो… नौ… क… री?’

‘देखो का होता है…! होने देगा सब… तब न!’

उनका मन किया कि खूब कस कर थाम लें शंकर की हथेलियाँ और कहें…

‘सब ठीक हो जाएगा… कैसे नहीं होगा हम लोग मिल कर सब ठीक कर लेंगे…!’

पर शब्द वहीं रहे… गीता आगे घिसटा गई थीं न!

चिल्ला कर कहना पड़ा…

‘राम जी पर भरोसा रखो!’

शंकर नहीं चाहते थे कि उनके फटे हुए होठों की टूटी हुई मुस्कराहट कोई देखे…।

शंकर अपनी जेबें टटोलने में व्यस्त हो जाते हैं।

कंडक्टर चिल्लर पैसे माँग रहा था…

उन्हें पता है कि उनकी जेब में बस छह रुपये थे… जो अब कंडक्टर के हाथों में हैं।

बेशक वो इस तथाकथित फिल्म के नायक आज भी हैं पर, उन्हें ‘नेचुरल एक्टिंग’ नहीं आती।

‘कितना दें…?’

‘दो रुपिया और…!’

कंडक्टर की खिसखिसाई आवाज के बाद चूड़ियाँ दो तीन दफा खनकीं।

शंकर को लजाना चाहिए था… पर लजाए नहीं।

कुछ बातें पता होती हैं कि इसी तरह से होंगी…।

बहुत सी बातें पता नहीं थीं… शुबहा में थीं।

शंकर को नहीं पता था कि अब गीता की गंध कैसी है?

वैसी ही… जैसी थी, या उसमें कोई नई गंध घुल गई है?

…क्या उनकी मौलिक पसीने की गंध में गुटखे या पान पराग की मिलावट हो गई है?

…या कहीं उसमें तीखे सेंट की महक तो नहीं घुल गई है?

…शंकर का बहुत मन किया कि एक बार, बस एक बार पूरे गहरे तक खींच कर महसूस कर सकें वह आदिम गंध!!

‘आजकल क्या कर रहे हो तुम…?’

शंकर अपनी चप्पलें देखते हैं… पिछले चार साल में यह छठी सातवीं है… पूरी तरह घिसी हुई।

जिंदगी थी कि बिखरे हुए सामानों से अटा पड़ा कमरा… समझ में ही नहीं आता कि कहाँ से समेटना सहेजना शुरू करें।

अप्रैल की दोपहर है कि मन से उतरती ही नहीं… और हम अगोरते रहते हैं ‘ कोई’ आएगा और इन बिखरे हुए सामानों को सहेज कर जगह पर रख देगा।

पर… हर आने वाला ‘ कोई’ हमें वह कोई नहीं लगता जिसे हम अगोर रहे होते हैं।

कॉफी, चाय का प्रतिस्थापन्न है… चाय नहीं।

एक माँ है, जिसका बेटा गुम हो गया था।

सब कहते थे… कि वो मर गया…।

पर माँ है कि सालों से इंतजार कर रही थी।

पर एक दिन… एक दिन उस माँ के सामने बेटे की लाश रख दी गई है।

और अब… जो उस माँ की आँखों में होना था, कुछ वही सूखापन है शंकर की आँखों में।

गीता जानती हैं कि उनकी गलती नहीं है फिर भी, वो महसूस करती हैं कि उन्हें सजा दी जानी चाहिए, कि…

…तो किसी के बुरे दिनों की बुराई को अपने साथ की ऊष्मा से सहला न सकीं।

…किसी के पैरों की थकान की सरसों तेल और लहसुन पका कर मालिश नहीं कर सकीं।

…नहीं दे पाईं बेतहाशा धूप से थके सिर को अपने स्नेहिल स्पर्श से राहत।

…गीता नहीं हैं वहाँ, जहाँ उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

‘हमारे समय समाज में प्रेम करना, अपराधबोध पालना क्यों है शंकर

गीता चाहती थीं, पर पूछ नहीं पाईं।

लोग सोचते हैं कि प्रेम की उदास रातों को आगे दस साल बाद इत्मीनान से सोच कर उन बेवकूफियों पर हंसा जाएगा।

पर ये इत्मीनान तब होता है जब इस पर साथ साथ मिल कर हंसा जा सके, वरना फिर… अपने आप पर जिंदगी भर हँसते रहो।

…शंकर की मुस्कराहट कुछ ज्यादा ही चौड़ी है। हाथ हिला कर विदा लेने वाला जमाना नहीं था।

गीता बस सिर हिला कर रह गईं।

बस से उतरते हुए उन्होंने मँझली का हाथ पकड़ रखा था।

थोड़ी देर चलते हुए उनकी पकड़ मजबूत हो गई।

पता नहीं कैसे तो… बच्चे बूझ ले जाते हैं कि बड़े उनसे कुछ कहना चाहते हैं।

‘का भए दीदी?’

गीता कुछ क्षण उन दो नन्हीं आँखों में झाँकती रहीं।

‘अम्मा से मत कहना कि शंकर हमको बस में मिला था…!’

‘काहे?’

गीता ने धीरे से वह पतली दुबली तांबई कलाई छोड़ दी और उत्तर लिखा – ‘खामोशी’

गीता कभी नहीं जान पाईं कि उनकी खामोशी का अर्थ इस उछलती कूदती घुन्नी बच्ची ने अपनी तरह से काढ़ लिया था, और उसे एक छोटे से तहखाने में छुपा लिया।

वह घुन्नी बच्ची बड़ी हो चुकी है… और इक्का दुक्का कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया है उसने!!

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