सबके मुँह पर एक ही बात थी। सुबह, शाम हर व्यक्ति उस दीवार के विषय में ही चर्चा कर रहा था। आखिर जयहिंद स्कूल के अहाते की दीवार थी। जयहिंद स्कूल – अंधा मुगल क्षेत्र का अग्रणी स्कूल। बातें दीवार की ही थीं।

‘आखिर यह दीवार क्यों उठाई जा रही है?’

‘जब अब तक इसके बिना स्कूल चल रहा था तो अब इसकी ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी है?’

‘यह सरकार बजट तो घाटे के बनाती ही है, काम भी घाटे के ही करती है!’

‘अच्छा भला स्कूल था, उसे जेल बनाया जा रहा है!’

‘कभी किसी बात का सही पहलू भी सोचा करो। अब बच्चे स्कूल से भागकर आवारागर्दी करने से बच जाएँगे।’

‘प्रिंसिपल का कितना हिस्सा होगा?’

‘अरे यह काम करप्शन – मेरा मतलब कार्पोरेशन का है।’

‘फिर तो एक बात साफ हो गई। ठेकेदारी और हेराफेरी में तो चोली दामन का साथ है। ऊपर से नीचे तक माल बनेगा और बँटेगा…’

‘दीवारें तो बँटवारे का ही काम करती हैं; चाहे बर्लिन की दीवार हो या दिलों की, काम तो उसका बाँटना ही है।’

यानी कि जितने मुँह उतनी बातें। किंतु इन सब बातों से बेखबर दीवार उठती ही गई। दीवार का अस्तित्व ना तो अध्यापकों को ही पसंद आया था और ना ही विद्यार्थियों को। सबको ही पहले वाले खुले वातावरण की आदत-सी पड़ गई थी। अध्यापक पहले तो कारर्पोरेशन को कोसते नहीं थकते थे… ‘स्कूल है या ओपन एयर थियेटर!’ किंतु अब वही दीवार उन्हें जैसे काटने लगी थी।

किंतु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस दीवार को देखकर मन ही मन कार्पोरेशन और प्रिंसिपल को दुआएँ दे रहा था। उस दीवार को देखकर वह मन ही मन लड्डू बनाए जा रहा था। आँखों में एक अद्भुत चमक लिए उस दीवार में वह अपना भविष्य देख रहा था।

वह था सुदर्शन नाई!

वैसे पूँजी के नाम पर उसके पास दिखाने को कुछ विशेष नहीं था। एक पुरानी-सी कुर्सी – दुनिया की एकमात्र कुर्सी जिसे छोड़ने पर सभी चैन की साँस लेते थे। एक पुराना-सा शीशा जो जगह-जगह से धुँधला पड़ चुका था और एक पुरानी सी संदूकची जिसमें उससे भी पुराने औजार रखे रहते। इन्हीं चीजों के सहारे वह किसी तरह अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचे जा रहा था।

माल तो ऊपर से नीचे तक बंट रहा था। उसने भी अपना चक्कर चला ही लिया। और फिर काम भी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था। केवल एक मोड़ ही तो देना था। दीवार में कुछ ऐसे मोड़ दिलवा दिए कि वहाँ एक बिना किवाड़ की छोटी-सी दुकान दिखाई देने लगी।

दीवार पूरी होते ही उसने वहाँ सीमेंट की दो चादरें डलवा लीं और साथ ही एक दरवाजा भी लगवा लिया। अब वह एक अदद दुकान का मालिक था।

दिक्कतें तो बढ़ी उसके ग्राहकों की, जिन्हें अब तक कांग्रेस और जनसंघ की बातें सुनने को मिलती थी। कितुं अब सुदर्शन नाई की सोच, बातचीत, जीवन केवल एक ही विषय पर आधारित था – दीवार। दीवार कैसे कटवाई; सीमेंट की शीट कहाँ से लाया; कौन से कबाड़िए से दरवाजा लिया।

‘लालाजी, अब तो दलिद्र कट गए। हम भी दुकान वाले हो गए। सालों बीत गए थे जी पटरी पर बैठै… आपसे क्या छुपा है, आप तो मेरे परमानेंट ग्राहक हैं… बस जी दो पैसे जोड़ लूँ इसको हेयर कटिंग सैलून बना दूँगा। ऐसे मौके की दुकान तो पगड़ी पर भी नहीं मिलेगी… लालाजी जरा दीवारें तो देखिए… खास ओवरसियर से कह के सीमेंट भरवाया है… चाहे बाकी की दीवार टूट जाए, पर मेरी दुकान को कुछ नहीं होगा…’

‘ठीक है, ठीक है, सुदर्शन लाल, जरा ध्यान से; कहीं कट नहीं लग जाए।’ लाला मुकुंदलाल उकताए से बोले।

सुदर्शन लाल उनके वाक्य पूरे होने की प्रतीक्षा नहीं कर सका। उससे पहले ही लालाजी के पाँव की जूती बन गया। घिघियाने लगा, ‘आपके भरोसे दिन काट रहा हूँ, लालाजी। जरा दया दृष्टि रखिएगा। कहीं कोई दुश्मनी ना निकाल ले।’

‘क्यों किसी से वैर, विरोध हो गया है क्या?’

‘नहीं लालाजी, मैं गरीब आदमी, भला मैं किसी से क्यों दुश्मनी मोल लूँगा। आप लोगों का आशीर्वाद बना रहे तो हम जैसे गरीबों के दिन भी आसानी से कट जाएँगे। हमारे भगवान तो बस आप ही हैं।’

सुदर्शनलाल का अंतिम वाक्य लाला मुकंदलाल को विशेष रूप से भा गया। उन्होंने खड़े-खड़े ही भगवान कृष्ण का विराट स्वरूप धारण कर लिया। ज्ञान के चक्षु खोले। मुकुंद गीता का उपदेश शुरु हो गया, ‘सुदर्शनलाल, तू चिंता छोड़ और बेफिक्र होकर यहाँ रह। आज के दौर में जिसने हाथ नहीं मारा, वह बेवकूफ है। हमारे सामने कितने ही शरीफ लोगों ने करोड़ों के घपले किए और आज भी ईमानदारी और समाज सेवा का लेबल लगाए बड़ी शान से कारों में घूमते हैं। स्साले…! पैसा काला और कार सफेद!… तुमने तो कुछ किया ही नहीं। यह दौलत ट्रांसपोर्ट वाला लक्ष्मीदास एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में मामूली क्लर्क था। आज उसी कंपनी का मालिक है। अब तू ही बता, इतना पैसा इसके पास कहाँ से आया। ईमानदारी से तो यह हो नहीं सकता। अपने मालिक की मौत के कुछ अर्से बाद ही उसकी पत्नी को धोखा देकर सब कुछ हड़प गया… लक्ष्मीदास से चौधरी लक्ष्मीदास हो गया… इलाके में दबदबा है, शान है! सब लोग अपने दुखड़े लेकर उसी के पास ही जाते हैं… हमें क्या भैया, जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।’ लाला मुकंदलाल ने ठंडी साँस भरी।

लाला मुकंदलाल निकले ही थे कि चंदरभान जी आ बैठे। ग्राहक देखते ही सुदर्शनलाल की दीवार फिर खड़ी हो गई। वही सीमेंट शीट, वही दरवाजा, ‘साबजी, जरा इधर भी कृपा-दृष्टि रखिएगा। गरीब आदमी हूँ; आप लोगों की हजामत करके पेट पालता हूँ।’

चंदरभान सामने लगे धुँधले शीशे में अपना चेहरा देखने का असफल प्रयत्न करते हुए बोले, ‘भई, आजकल तो जिसकी लाठी उसकी भैंस का जमाना आ गया है। अब वो अंग्रजों का जमाना तो है नहीं कि शेर और बकरी एक घाट पर पानी पिएँ। अगर कोई लाठी है तो उसे घुमाते रहो, दनदनाते रहो और चैन की बंसी बजाते रहो। वरना जब तक चलती है चलाते रहो।’

सुदर्शनलाल को उसकी बात कोई विशेष अच्छी नहीं लगी। कैंची से उनकी मूँछे ठीक करने लगा, ‘वैसे तो इंदिरा कांग्रेस के चौधरी लक्ष्मीदास अपने खास आदमी हैं। पिछले दस साल से उनकी हजामत बना रहा हूँ। कभी भी शिकायत का मौका उन्हें नहीं दिया। उन्होंने भरोसा दिलाया है कि कोई भी मुश्किल होगी तो सँभाल लेंगे।

चौधरी लक्ष्मीदास का नाम चंदरभान जी के गले में बेर की गुठली की तरह फँस गया, ‘जरा बच कर रहना। पिटा हुआ मोहरा है। पिछले चुनाव में चारों खाने चित्त गिरा था। हारा हुआ जुआरी और खोटा पैसा मुश्किल से ही साथ देते हैं।’

सुदर्शनलाल को चंदरभान की बेवक्त की रामायण कुछ भाई नहीं। उसके अंदर का ‘नायक‘ तनकर खड़ा हो गया। जैसे महाभारत में भीष्म पितामह ने अपने सामने खड़े तुच्छ योद्धाओं की ओर हुंकार फेंकी हो, ‘बाऊजी, भगवान का दिया खाते हैं। किसी के घर भीख माँगने नहीं जाते। यहाँ बैठा हूँ अपने दम पर। किसी लाला या चौधरी के सहारे नहीं। दस साल हो गए यहीं बैठ कर लोगों की हजामत बनाते। यह दीवार तो कार्पोरेशन ने अब बनवा दी। मैं… तो आप जानते हैं कब से यहीं हूँ। यहाँ काम करते-करते कितनों के खोखे और कितनों के घर बुलडोजरों की नजर होते देखे हैं… सच कहता हूँ बाऊजी, कोई मेरी दुकान की तरफ आँख उठाकर देखे, उसकी तो मैं माँ…!’ सुदर्शनलाल हाँफने लगा था।

चंदरभान जी भी सुदर्शन लाल के नाटक का आनंद लेने लगे। वैसे भी वे तो राजनीतिज्ञ थे। भाँति-भाँति के अदाकारों के अभिनय वे प्रतिदिन देखा करते थे। उन्होंने घड़ी देखी। समय उनके पास कम था। सुदर्शन लाल को टालते हुए बोले, ‘ठीक है भई, हमें तो खुशी है कि तुम यहाँ टिके रहो। ठीक-ठाक आदमी हो, पुराने आदमी, सौ लिहाज शर्म! सुना नहीं नया नौ दिन, पुराना सौ दिन।’

समय ऊँट से भी कहीं अधिक अननुमेय होता है। एक बार ऊँट का तो संभवतः पता चल भी जाए कि वह कौन-सी करवट बैठेगा। किंतु समय कब करवट बदलेगा किसी को कुछ भी ज्ञान नहीं होता। समय के विषय में तो बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी कुछ नहीं कह पाते। फिर सुदर्शन लाल तो सीधा-सादा नाई ही था।

समय ने करवट ली और सुदर्शन लाल की ‘दीवारी दुकान’ के समीप ही एक और खोखा कुकुरमुत्ते की तरह उभर आया। यह खोखा बाबूराम नाई का था। अभी कुछ ही दिन पहले नगर निगम वाले उसका खोखा गिरा गए थे। बाबूराम भी इसी इलाके में कई वर्षों से काम करता रहा है। उसका खोखा पहले आर्य समाज मंदिर के पिछवाड़े में था। हफ्ता तो वह नियमित रूप से दे रहा था, फिर भी नगर निगम वालों को कभी-कभी तो अपना काम भी दिखाना होता है ना। सो कभी-कभी हफ्ता देने वाले भी उस चपेट में आ ही जाते हैं।

अब इसका क्या करें कि बाबूराम के हाथ में सुदर्शन लाल से कहीं अधिक सफाई थी। अब क्योंकि बाबूराम का खोखा नया था तो उसने पैसे लगाकर शीशा भी नया लगवाया, कुर्सी भी माडर्न और सामान भी नया। सुदर्शन लाल की दुकान भी खोखा ही लगती थी और बाबूराम का खोखा भी सुंदर-सी दुकान लगता था। ग्राहकों का भी क्या दोष। उन्हें भी चमक-दमक वाली बाबूराम की ‘खोखा सैलून’ ही पसंद आने लगी। चंदरभान, लाला मुकंदलाल और चौधरी लक्ष्मीदास जैसे सुदर्शन लाल के पक्के ग्राहक भी कन्नी कतरा कर बाबूराम के यहाँ जाने लगे।

सुदर्शन लाल की दीन याचक मुद्रा पर किसी को तरस नहीं आया, उसकी खुशामद से कोई नहीं पसीजा। अब उसका काम ठंडा पड़ने लगा। एक दिन चंदरभान जी वहाँ से गुजरे तो सुदर्शन लाल ने जैसे उन्हें पकड़कर बैठा ही लिया, ‘लालाजी, कोई नाराजगी है? बहुत दिनों से दर्शन नहीं हुए आपके?’

‘सुदर्शन लाल’, चंदरभान दार्शनिक मुद्रा में पहुँच गए, ‘बहुत दिन गुजार लिए सादगी में। अब तो सजावट और बनावट का जमाना है। बाबूराम की दुकान कभी देखी है, कितनी साफ सुथरी है। हर चीज कितनी सुंदर लगती है। तुम्हारे यहाँ क्या रखा है? – चूँ-चूँ करती चारपाई, कुर्सी है तो अब गिरी कि तब गिरी और उस पर तुम्हारा शीशा! …नगद नारायण को हवा लगवाओ। ऊपर साथ तो कुछ ले जाओगे नहीं! …ग्राहक वापिस लाने हैं तो बाबूराम से बेहतर दुकान सजाओ।’

सुदर्शन लाल के दिमाग को यह बात जँच गई। निर्णय ले लिया कि अब तो दुकान को हर हाल में बेहतर बनाना ही है। सप्ताह भर में ही नई कुर्सी, नया शीशा, रंग-बिरंगे विदेशी डिब्बों में देशी पाउडर, डिटॉल की शीशी, क्रीम, शेविंग क्रीम, आफ्टर शेव लोशन, वगैरह, वगैरह आ गए। और तो और उसने अपने कपड़े भी बदल डाले। पजामें की जगह पतलून और उस पर सफेद कोट। कमी थी तो केवल एक वस्तु की – बाबूराम सरीखी हाथ की सफाई की।

यत्न तो काफी करता रहा सुदर्शन लाल कि उसके पुराने ग्राहक फिर उससे हजामत बनवाने लगें। किंतु उखड़ी फौज और उखड़े ग्राहकों का लौटना बहुत कठिन होता है। उसके सारे प्रयत्न और खर्चा बाबूराम की बढ़ती लोकप्रियता को नहीं रोक पाए।

ताश के खेल में जीतने वाले खिलाड़ी को बहुत आनंद आता है। किंतु हारते हुए खिलाड़ी को सब बेमानी लगता है। सुदर्शन लाल में भी हीन भावना ने घर कर लिया। काम में भी उसकी रुचि कम होने लगी। झुँझलाहट में वह अब दुकान पर भी कम ही रहता। विवशता में छटपटाता तो खूब किंतु इससे तो कुछ हो नहीं सकता था। मुँह पर अँगोछा डाले खाट पर लेटा रहता। ग्राहकों से खिंचा रहता। स्कूल के अध्यापक भी उसकी बदमिजाजी का शिकार होने लगे।

अध्यापकों में अभी सुदर्शन लाल के विरुद्ध कानाफूसी चल ही रही थी कि वह स्कूल के प्रिंसिपल से उलझ बैठा। प्रिंसिपल ने केवल इतना भर ही कह दिया था कि वह दुकान से उड़ते बालों का थोड़ा ध्यान रखे क्योंकि बाल उड़कर कक्षा की ओर जाते थे और विद्यार्थियों को कठिनाई होती थी। बस उखड़ गया सुदर्शन लाल।

यह उखड़ना सुदर्शन लाल को खासा महँगा पड़ गया। उसी शाम को थाने से बुलावा आ गया। थानेदार की तू-तड़ाक और एक करारे थप्पड़ ने सुदर्शन लाल को धरती पर ला बिठाया, हरामजादे, अब अगर कभी तेरी शिकायत आई तो बंद कर दूँगा… एक तो गै़र-कानूनी खोखा बना रखा है, उस पर स्कूल के मास्टरों से ही बदतमीजी करता है। खाल खींच लूँगा साले की।’

घबराया, परेशान, दुःखी और अपमानित सुदर्शन लाल जब वापिस दुकान पर पहुँचा तो एक बात तो उसके मन में बैठ चुकी थी कि यह प्रिंसिपल और अध्यापक उसकी दुकान वहाँ से उठवा देना चाहते हैं। यही लोग हैं जो उसकी रोजी-रोटी पर लात मारना चाहते हैं… दो बेटियाँ हैं, उनका विवाह भी करना है। दुकान पर भी खासा व्यय हो चुका है। उस पर शनि बाबूराम सिर पर आ बैठा है। और अब यह राहु और केतु – प्रिंसिपल और थानेदार! उसका दिल बैठा जा रहा था।

प्रतिशोध! उसके दिमाग में एक चिंगारी सुलगने लगी थी। इन सबसे अपने अपमान का प्रतिशोध कैसे ले… ‘सांसी गली’ के अपने दोस्तों से कहकर एक दो का खून करवा दे! …खून ना सही पर एक दो की टाँगें तो तुड़वा ही दे! स्साले! सारी उमर के लिए पंगु हो जाएँगे! …खारिये मुहल्ले का जग्गुदादा भी तो मुझ से ही हजामत बनवाता है… उसी को कहता हूँ… उससे तो थानेदार भी घबराता है… सात आठ खून तो पहले भी कर चुका है… आजतक तो एक बार भी नहीं पकड़ा गया… पर क्या मेरे लिए कुछ करने को तैयार होगा? …सोशल एजुकेशन सेंटर के भटनागर साहिब हैं, वो भी मिलते तो बहुत प्यार से हैं… उनसे बात करूँ… शायद कोई तोड़ निकल आए स्थिति का… वैसे तो चौधरी लक्ष्मीदास भी मेट्रोपालिटन काउन्सिल के मेंबर रह चुके हैं… पहले तो कार्पोरेटर, भी थे… नगर निगम में भी तो उनकी खासी साख है… यह वह क्या सोचने लगा। भटनागर साहिब या चौधरी जी से मिलकर उसका प्रतिशोध कैसे पूरा होगा? किंतु बला तो टलेगी…

ठेठ मध्यम वर्ग के बाबू की तरह उसे भी अस्तित्व की ही चिंता सताने लगी थी। वह भी प्रतिशोध का केवल सपना ही देख रहा था। सचमुच का प्रतिशोध ना उसके बस में था और ना ही वह ले सकता था।

पिछली बार जब सुमेरचंद उससे वोट माँगने आए थे तो कह रहे थे, ‘सुदर्शन लाल, नगर निगम का कोई भी काम हो तो बेझिझक चले आना।’ अब तो निगम के स्कूल से ही टकराव हो गया था। और दुकान गिरने का डर भी निगम की ओर से ही था। वह डर अब दिल में गहरा बैठा जा रहा था।

अंततः वह सभी को मिलने गया, अपनी दारुण गाथा सुनाई। सबसे दिलासा मिला – किंतु केवल दिलासा ही मिला। सुदर्शन लाल ने अपनी जान-पहचान के जो भ्रम पाल रखे थे वे एक-एक करके धराशायी हुए जा रहे थे।

सुमेरचंद के यहाँ भी गया था, ‘अरे सुदर्शन लाल, तूँ रती भर चिंता ना कर। मेरे होते तेरी छाया को भी कोई हाथ नहीं लगा सकता… वो क्या है कि मैं तो आज किसी काम से कुरूक्षेत्र जा रहा हूँ। लौटकर सब ठीक कर दूँगा। इस बीच अगर जरूरत पड़े तो डॉ भारद्वाज से मिल लेना। वो तेरी सहायता अवश्य करेंगे… कह देना, मैंने भेजा है।’

सुदर्शन लाल कातर स्वर में कराह उठा, ‘बाऊजी, यह लोग मुझे बरबाद करके रख देंगे। वो इस दीवार को सीधा करके मेरी इस दुकान को बंद कर देना चाहते हैं। कल भी पुलिस आई थी। वो तो मैं ही ताला लगाकर खिसक गया… नहीं तो… ना जाने, यह थानेदार क्यों अध्यापकों के साथ मिलकर मुझे उजाड़ने पर तुल गया है।’

सुमेरचंद ने फिर दिलासा हाथ में पकड़ा दिया, ‘कहा ना सुदर्शन लाल, तू दिल छोटा ना कर। अगर मेरी गैरहाजिरी में कुछ भी हो गया, तो भी मैं तुम्हें वापिस वहीं ला बैठाऊँगा। अरे देश में कोई कायदा-कानून भी है या नहीं? तुम अदालत से ‘स्टे आर्डर’ ला सकते हो। डर किस बात का है?

और सुमेरचंद सुदर्शन लाल को कुरूक्षेत्र के मैदान में अकेला युद्ध करने को छोड़कर स्वयं यात्रा पर रवाना हो गए।

शंका और दुविधा से घिरा सुदर्शन लाल अपनी दुकान पर आ बैठा। दुकान को बचाने की अंतिम तैयारी के बारे में विचार कर रहा था। अध्यापकों, प्रिंसिपल, थानेदार और राजनीतिज्ञों के चक्रव्यूह में वह अकेला घिर गया था। सामने एक भयानक काला अँधेरा था… और कुछ भी नहीं। मन उसे कहीं टिक कर बैठने नहीं दे रहा था। उठा और चौधरी लक्ष्मीदास के यहाँ पहुँच गया, ‘चौधरी साहिब, वर्षों आपकी सेवा की है, और भविष्य में भी करता रहूँगा। इस समय बचा लीजिए।’

नगर निगम के इस दैत्य से लड़ने वाला हर्क्युलिस उसे चौधरी लक्ष्मीदास में ही दिखाई दे रहा था।

चौधरी साहिब को तो आज वोट माँगने नहीं थे। फिर क्यों भला विनम्रता से बात करते, ‘अपनी औकात में रहो मिस्टर। कौन-सी सेवा की बात कर रहे हो। अरे वो तो हम ही तुम पर तरस खाकर तुमसे हजामत बनावा लिया करते थे, नहीं तो तुम जानते ही क्या हो? कभी बाबूराम का काम देखा है? …सब को काम प्यारा होता है चाम नहीं। उस दिन मुकंदलाल तुम्हारी दुकान पर बैठा मेरे बारे में बकवास करता रहा और तुम उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहे …हम तुम्हें गरीब जानकर तुम पर दया करते रहे और तुम अपने
आपको तीस-मार-खाँ समझने लग गए… हर किसी से झगड़ा, हर एक से लड़ाई… अरे नाखून कटवाई तक माँग लिया करते थे… आज कौन-सा लेकर मुँह लेकर आए हो? …जाओ अपनी दुकान पर जाकर शीशा देखो। सब दिखाई देगा जो तुमने औरों के साथ किया है।’

अँधेरी गुफा में सुदर्शन लाल अकेले ही भागा जा रहा था। गुफा बहुत सँकरी थी। पैरों के नीचे छोटे-बड़े पत्थर बिछे हुए थे। उसके पाँव जख्मी हुए जा रहे थे। उनमें से लहू निकल रहा था। पर उसे तो इस गुफा से बाहर निकलना ही था। बस भागा जा रहा था। गुफा का अंत ना तो सुझाई दे रहा था और ना दिखाई। कभी गुफा की बाईं और टकराता तो कभी दाईं ओर। उसकी कोहनियाँ भी छिल गई थीं। शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था। साँस फूलती जा रही थी। एकाएक उसका सिर गुफा की दीवार से टकराया। सिर फटा और चारों ओर लहू के छींटे बिखर गए। सुदर्शन लाल ने चौंककर आँखें खोलीं। अपने शरीर को टटोला। रक्त तो कहीं नहीं था। फिर वो स्वप्न!

नगर निगम का ट्रक आकर रुका। उसमें से निगम के कर्मचारी भी निकले और पुलिस वाले भी। मुँह पर बड़े-बड़े दाँत, बड़ी-बड़ी मूँछे लिए वे भयानक चेहरे आगे बढ़े। सुदर्शन लाल का सारा सामान उठाया और ट्रक में पटक दिया। सुदर्शन लाल अपने सामान से लिपट गया। ‘मर जाऊँगा, सामान नहीं जाने दूँगा।’

बहुत से लोग इकट्ठे हो गए। बाबूराम अपने खोखे को ताला लगाकर भाग लिया। पुलिस वालों का डंडा हवा में लहराया। सुदर्शन लाल के माथे पर एक लाल रेखा उभर आई। देखते-ही देखते दुकान का दरवाजा भी उतर गया। सुदर्शन लाल पागलों की तरह चिल्लाए जा रहा था, ‘हरामजादों! देख लो! हो गई तुम्हारे मन की मुराद पूरी। दीवार सीधी नहीं होने दूँगा। चाहे मुझे भी दीवार में चिनवा दो। छोड़ूँगा नहीं कमीनों! गरीब के पेट पर लात मारी है। महँगी पड़ेगी…कुत्तों…’

सब कुछ शांत हो गया। दीवार सीधी हो गई। सुदर्शन लाल फिर वहाँ से पाँच गज दूर वृक्ष के नीचे अपने पुराने सामान के साथ रोटी का जुगाड़ करने जा बैठा।

दो मजदूर उस दीवार पर रंग करने आ पहुँचे थे। एक ने बीड़ी सुलगा ली थी। डिब्बे में रंग मिलाया। और काम शुरू।

सुदर्शन लाल अपने भविष्य पर रंग पुतता देख रहा था। देखता रहा। सुदर्शन लाल की दोनों आँखों से आँसू टपक पड़े। उसने महसूस किया कि दीवार पर किया रंग, ढलते सूरज का रंग और उसके आँसुओं का रंग एक ही है।

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