एक दोस्त की राय | रविकांत
एक दोस्त की राय | रविकांत

एक दोस्त की राय | रविकांत

एक दोस्त की राय | रविकांत

मैंने उसे फोन किया और कहा
दोस्त, आजकल तुम मुझे याद नहीं करते
भूले से ही कभी मिलते हो
कभी-कभी मेरे लिए भी
इत्मीनान निकाला करो मेरे भाई!

वह जैसे भरा बैठा था
उमड़ कर बोला –
तुम ही मेरी ओर ध्यान नहीं देते
औरों से मिलते हो
और मेरे बारे में पूछते भी नहीं कुछ
किसी से
कई बार से देख रहा हूँ
कहीं भेंट भी होती है तो
तुम जल्दी में रहते हो

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मैंने उसे
अपनी व्यस्तता बताई
संक्षेप में सब समस्याएँ सुनाईं
और अपने हृदय में
उसका स्नेह भरा स्थान दिखलाते हुए
यह भी कहा –
तुम दिन में एक बार तो जरूर ही याद आते हो,
अक्सर, न जाने क्यों
देर रात, खाने की मेज पर
तुम्हारी सुध आती है,
कहीं दूर जाते समय भी
गुस्से में मुस्कराता हुआ, तुम्हारा मुख-कमल
सामने आ जाता है

वह असमंजस से मेरी बातें सुन रहा था

उसे मेरी बातों का यकीन कुछ कम ही था
मुझे आड़े हाथों लेते हुए
उसने कहा –
अच्छा, एक बात है
तुम शब्दों का जाल अच्छा बुन लेते हो

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मैं जैसे एक पल के लिए राख हो गया

यत्नपूर्वक मैंने उसे समझाया कि
देखो, कुछ लाशें वे होती हैं
जिनका नामलेवा कोई नहीं होता
उन्हें कौवे नोच खाते हैं,
और कुछ लोग ऐसे होते हैं
जिनकी शांत देह पर
ईंट-गारे का जाल बुनकर
उनके नाम से
महान पिरामिड बना दिए जाते हैं
उन्हें सब याद रखते हैं
उनकी स्मृति को देखने जाते हैं
इसी तरह
मैं अपनी भावनाओं पर
शब्द धर
उन्हें ऊँचा उठाता हूँ
जिससे कहीं ऐसा न हो कि
उन्हें घुन लग जाय
वे व्यर्थ हो
कहीं पहुँच न पाएँ

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वह मेरे तर्क से चुप हो गया था
हमारी बात खत्म हो गई थी
मैंने खुशी-खुशी फोन रख दिया था
पर थोड़ी ही देर बाद
उसने पलट कर मेरा फोन बजाया
मैंने पूछा – क्या हुआ भाई?

वह तन्नाया हुआ था
खीझा हुआ और जैसे कि जिद्दी
उसने अपनी बात कही
और फोन रख दिया
उसने इतना ही कहा –
कोशिश करो कि तुम्हारी भावनाएँ
पिरामिडों में बदलने के
खतरनाक शौक से बची रहें

मैं अवाक
रिसीवर को घूरता रहा

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