कई घंटे बस का सफर करके जब उसने दरवाजे के सामने खड़े होकर दस्‍तक दी तो किसी अज्ञात विचार से उसका समस्‍त शरीर सिहर उठा। प्रायः तीन बजे का समय रहा होगा-लगता था कि घर के सभी लोग सो रहे हैं या मकान के दूसरे भाग में हैं। शायद यही सोचकर जब वह सीढ़ियों पर मुड़ने लगा तभी अन्‍दर से सांकल खड़की और द्वार खुल गया। उसने दरवाजे की ओर लौटकर वन्‍दना को देखा और कुछ पल स्‍तब्‍ध होकर देखता रह गया। वन्‍दना के मुख से सहसा निकाला, ”…आप? आइए, आइए, अन्‍दर आ जाइए।” बन्‍दना आगे बढ़ गयी, वह सिर झुकाकर उसके पीछे चल दिया। वन्‍दना चौक पार करके बराण्‍डे में होती हुई बड़े कमरे में चली गयी। चौकी पर रखा हुआ टेबिल फैन पूरी रफ्तार से चल रहा था। उसके निकट ही खाट पर वन्‍दना की बच्‍ची सोई पड़ी थी। कमरे में और कोई नहीं था-शायद वन्‍दना बच्‍ची के साथ सो रही थी। वह कुछ क्षण खड़ा रहा-कुछ करने या कहने के लिए, तय नहीं कर पाया। वन्‍दना के बैठने के लिए कहने पर उसने इधर-उधर नजर डाली-कहीं कोई कुर्सी या स्‍टूल कुछ नहीं था। उसने सोचा खाट पर तो बच्‍ची के पास वन्‍दना बैठेगी-इसलिए वह कुछ झिझकते हुए पंखे के पास चौकी पर बैठ गया। वह बाहर से धूप में चलकर आया था-पसीने से सारे कपड़े भीग गये थे, सिर और माथे से पसीना गर्दन पर बहकर सारी कमीज भिगो रहा था। उसने चौकी पर बैठे-बैठे ही एक पैर लम्‍बा फैलाकर पीछे को तनते हुए पतलून की जेब से रूमाल निकाला और मुंह और गर्दन का पसीना पोंछकर रूमाल से बां‍हें रगड़ने लगा। इसके बाद उसने ऐंठे और कुचले हुए रूमाल से मुंह को हवा करना शुरू कर दिया-फिर नीचे सिर झुकाकर फू-फू करने लगा। वन्‍दना ने उसे एक गिलास पानी लाकर दिया। गिलास लेकर उसने अपने पास चौकी पर रख लिया और उसके किनारे पर अंगुलियां गड़ा‍कर फेरने लगा। उसने एकाकए सिर ऊपर उठाया जैसे-उसे सहसा कुछ याद आया हो। उसने देखा, वन्‍दना खाट पर नहीं थी, वह जंगले के पास दीवार का सहारा लिये खड़ी थी और उसकी ओर ही देख रही थी। उसने फिर सिर नीचे झुका लिया और कुछ सोचता रहा-समझ नहीं पाया कि वन्‍दना से क्‍या कहे। उसे वन्‍दना की चुप्‍पी से लगा कि शायद उस जैसा ही द्वन्‍द्व वन्‍दना के मन में है। उसने कुछ देर बाद वन्‍दना से पूछा, ”तुम क्‍या जल्‍दी ही आयी हो?”

”हां, अभी परसों ही।”

फिर दोनों चुप हो गये। उसने सोचा, बच्‍ची को लेकर कुछ बातें की जा सकती हैं। कुछ कहने से पहले उसने पानी का गिलास उठा लिया और एक सांस में ही आधा गिलास खत्‍म कर दिया। पानी के गिलास को चौकी पर रखकर उसने हथेली से ढक लिया और दूसरे हाथ की कुहनी जांघ पर टिकाकर ठोड़ी हाथ में ले ली। सड़क की ओर खुलने वाले जंगले की ओर उसकी आंखे गयी और सींखचों के पार जाली में अटक गयीं। जाली के उस पार एक नीला पर्दा, जिसका रंग बिल्‍कुल चितकबरा हो गया था, अब भी लटक रहा था। जाली तीन ओर से उखड़कर छज्‍जे की शकल में ऊपर उठ गयी थी और पर्दे को पूरी तरह धकेल रही थी, मगर पर्दा अभी फटा नहीं था। उस जंगले के पास कोई चारपाई नहीं थी। वह कभी नहीं भूलता कि उस जंगले के पास वह चारपाई के सिरे पर बैठ जाया करता था…सांझ को उगते हुए तारे वह जंगले के ऊपरी छोर से चमकते हुए देखा करता था।

वह वहां बैठने की बात पर कुछ और सोचना चाहता था लेकिन अपने सिर को झटका देकर इस निष्‍फल सोचने से छुटकारा पा लिया। अब सोचने की क्‍या जरूरत है…वह तो वन्‍दना के न होने पर ही ठीक है…अब तो वन्‍दना ही सामने है। वन्‍दना की उपस्थिति का खयाल करके उसे एक लापरवाह राहत महसूस हुई। उसने वन्‍दना की ओर देखने के लिए मुंह उठाया…वन्‍दना उसके बहुत निकट थी…वह झुककर पंखा उसकी ओर मोड़ रही थी। उसने पंखे की तली पर हाथ रखकर कहा, ”रहने दो, बच्‍ची को हवा नहीं लग पायेगी।” मगर वन्‍दना ने पंखा उसकी ओर मोड़ ही दिया।

उसे लगा, उसने वन्‍दना से कुछ बातें ही नहीं कीं ; वह पूछने लगा, ”राजकोट से ही आयी हो न?”

”नहीं, हम लोग लखनऊ से आ रहे हैं।”

”अच्‍छा।”

उसने ‘अच्‍छा’, कह तो दिया किन्‍तु उसकी चेतना में ‘हम लोग’ टकरा गया। ‘हम लोग’ कौन? वन्‍दना और उसकी बच्‍ची? जिस बात के बारे में वह प्रारम्‍भ में पूछना चाहता था उसने अब पूछा, ”बाकी लोग कहां हैं?”

”सब लोग बाहर बड़े कमरे में हैं-मैं बेबी को सुलाने इधर चली आयी थी।”

किन्‍तु किंचित् मुस्‍कुराकर कहा, ”सिर्फ बेबी को सुलाने? अब क्‍या दोपहर में तुम नहीं सोतीं?” उसे वन्‍दना के दोपहरी में सोने की आदत का ध्‍यान आ गया। उसने अपनी बात से वन्‍दना के चेहरे पर होने वाली प्रतिक्रिया को लक्ष्‍य नहीं किया। सोचने लगा, इस तरह हथेली पर चिबुक रखकर किंचित मुस्‍कराकर बात कहने से उसका अपना मुं‍ह कैसा लगता होगा? उसने अपने स्‍वरूप की कल्‍पना की, बायां गाल तो हथेली के नीचे दब गया है; दायीं आंख भी कुछ छोटी हो गयी है; पंखे की हवा चेहरे पर पड़ने से माथे पर झूलने वाला बालों को रूखा गुच्‍छा अब अनियंत्रित होकर हवा में फरफरा रहा है।

उसने देखा, वन्‍दना उसके सामने खाट पर बैठकर बच्‍ची को थपथपा रही है-शायद हवा न लगने के कारण बच्‍ची गर्मी से व्‍याकुल होकर करवटें बदल रही थी। उसने पंखे का हैंडिल पकड़कर बच्‍ची की ओर कर दिया। पंखे का स्विच टूटा हुआ था, तभी पंखा केवल एक ओर हवा फेंक रहा था। वन्‍दना ने उससे कुछ नहीं पूछा; फिर भी उस मौन से उसे लगा कि वह वन्‍दना से बराबर बातें कर रहा है। बहुत वहले भी वे दोनों कहां ज्‍यादा बातें करते थे; बातें करने के लिए तो वे लोग कापी पर कुछ लिखकर एक-दूसरे की ओर बढ़ाते रहते थे। लिखने में काफी देर लग जाती थी और वक्‍त निकल जाता था। मगर अब लिखकर बातें करने को भी शायद कुछ नहीं है। वह चुपचाप हाथ पर ठोड़ी टिकाये सामने के कलैण्‍डर पर देखता रहा और दांतों से निकले होंठ को दबाता रहा, किन्‍तु अपनी उस मुद्रा के प्रति भी वह इतना सचेत था कि वह उसके मन में पूरी तरह मूर्त्त हो उठी।

दरवाजे पर खड़े होकर कई बार की तरह सोचा जरूर था कि शायद इस बार वन्‍दना मिले लेकिन वन्‍दना पहले कभी नहीं मिली थी। इस बार अप्रत्‍याशित रूप से उसने ही दरवाजा खोला था-वह उसी कमरे में थी। जिसमें उसके होने की वह कल्‍पना करता था मगर वह वन्‍दना से कुछ नहीं कह रहा था; मानो बहुत कम बोलना ही अपनी निरीहता को मुखर करने का साधन था। शायद अज्ञात में ही वह वन्‍दना के मन में कोई पश्‍चात्ताप जगाना चाहता था; अपने चेहरे के प्रत्‍येक कोण से किसी गहरे आशय को व्‍यक्‍त करना चाहता था। बोलने में उसे रस नहीं था, शायद भाषा के माध्‍यम से उसे खोखलेपन की अनुभूति होती थी। अब की बार ज‍ब उसने वन्‍दना की ओर देखा तो बच्‍ची की आंखें खुली हुई थीं और वह अलसाई हुई मां के ऊपर टांगें रखे उसीकी ओर बांहें फैला दीं। बच्‍ची एकटक उसकी ओर देखती रही। वन्‍दना ने उसे उठाकर खाट पर बैठा दिया और उससे कहा, ”जाओ, उनके पास।”

बच्‍ची ने उसके पास आने का कोई प्रयत्‍न नहीं किया, वह फिर लेट गयी और उसने उसकी ओर से करवट बदल ली। हथेली पर ठुड्डी रखे-रखे उसकी बांह दर्द करने लगी किन्‍तु उसने हाथ नहीं हटाया। अब उसने बायें हाथ वाली अंगुली बांधकर ठोड़ी और होंठों के बीच रख ली और अंगूठे के पास वाली अंगुली को दांतों से काटने लगा। उसने अपनी प्रत्‍येक मुद्रा की कल्‍पना की और शायद बहुत कुछ व्‍यक्‍त करने का सन्‍तोष पा लिया। वन्‍दना जार्जेट की साड़ी पहने थी। ब्‍लाउज का ‘पीस’ भी उसी के साथ का था। उसके बाल खाट पर लेटने के कारण अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गये थे। माथे पर शायद उसने नहाने के बाद बिन्‍दी लगायी थी जो पसीने से सारे मस्‍तक पर फैल गयी थी। मांग में सिन्‍दूर की रेखा बहुत गहरी और मोटी दिखाई पड़ रही थी। उसने उस रेखा को गहरी दृष्टि से देखा और दायीं ओर घूमकर कलैण्‍डर पर चप्‍पू चलती कश्‍मीरी युवतियों को देखने लगा।

वह एकाएक उठ खड़ा हुआ और उसने पूरी तरह अनुभव किया कि वह बहुत कुछ कह चुका है और उसे अपना यों एकाएक उठना इस भेंट की चरम परिणति लगी। उसने सोचा, उसे यों ही उठना चाहिए था। वह वन्‍दना से एक भी शब्‍द कहे बिना चल दिया। कमरे के बीच में जाकर वह कुछ समय के लिए रूका, उसने जंगले और उस पार लगी उखड़ी जाली को ध्‍यान से देखा और उचटती नजर से वन्‍दना को देखते हुए बराण्‍डे से निकलकर चौक पार करता हुआ मकान के दूसरे हिस्‍से में पहुंच गया।

बड़े कमरे में खूब गहमागहमी थी। कई लड़कियां फर्श पर बिछी जाजिम पर बैठी ताश खेल रही थीं। वन्‍दना के पति पत्ते समेट रहे थे। वन्‍दना की छोटी बहन शैलजा और बाकी शायद उसकी सहेलियां थीं। दादी मां चौकी पर दीवार का सहारा लिये बैठी थीं। उसे देखकर सब लोग एकाएक हड़बड़ा उठे; वह भी कुछ हतप्रभ-सा होकर दरवाजे से थोड़ा आगे बढ़कर खड़ा हो गया। दादी मां ने माथे पर हाथ टेढ़ा रखकर उसे पहचाना ”कौन, बिन्‍नू? कब आये बेटा?” उसने अपनी ओर देखती हुई कई जोड़ी आंखों से घबराकर आंखें नीची कर लीं और वन्‍दना के पति को हाथ जोड़कर नमस्‍कार करने लगा। उन्‍होंने पत्ते छोड़ दिये और उठकर उससे हाथ मिलाया। उन्‍होंने भी दादी मां का सवाल दुहराया, ”कब आना हुआ; क्‍या सीधे ही आ रहे हैं?” उन्‍हें शायद ठीक से पता भी नहीं था कि वह कहां से आ रहा है; इसलिए शायद उन्‍होंने ऐसा गोलमोल प्रश्‍न किया था। उसने नहीं बताया कि वह अन्‍दर वन्‍दना के पास बैठा था। बोला, ”समझिए सीधा ही आ रहा हूं।” वह दादी मां के पास बैठने लगा तो वन्‍दना के पति बोले, ”इधर आइए न कुर्सी पर, आपके दर्शन तो अर्से बाद हुए!” और सोचने लगा कि उससे पिछली मुलाकात कब हुई थी। वह पलंग पर पांव लटकाकर बैठ गये और मुख पर स्निग्‍ध मुस्‍कान लाकर उसकी ओर देखने लगे। वह पलंग के पास बिछी एक कुर्सी पर ही बैठ गया और बोला, ”संयोग ही समझिए जो आपसे भेंट हो गयी; मुझे तो आपके आने का बिल्‍कुल ही पता नहीं था।” और अकस्‍मात उसके मुंह से एक ऐसी बात निकल गयी तो वह शायद उनसे नहीं वन्‍दना से कह सकता था, ”अब आप लोग तो परदेशी हो गये हैं।” उसकी बात सुनकर उनके मुख पर एक बहुत ही प्‍यारी मुस्‍कान उभरी और उन्‍होंने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर दबा दिये।

उसने देखा कि लड़कियां उसके आ जाने से कुछ उखड़ गयी हैं-वन्‍दना के पति से वे लोग जिस आत्‍मीयता से वार्तालाप कर रही थीं, और ठहाके लगाकर ताश खेल रही थीं; वह सब उसके आ जाने से एकाएक छिन्‍न-भिन्‍न हो गया है। उन्‍होंने कनखियों से उसकी ओर देखा और शायद उसके आगमन के महत्त्‍व को समझने की कोशिश करने लगीं। कुछ देर वाद दादी मां उठकर अन्‍दर चली गयीं और लड़कियां भी वहां से उठकर इधर-उधर हो गयीं। यों उन्‍होंने जाने में कई मिनट लगाये; मानो उन्‍हें यह तय करने में देर लगी कि उसकी उपस्थिति में वे लोग वहां बैठें या नहीं। वन्‍दना की छोटी बहन उन्‍हें गलियारे में निकालकर लौट आयी और उसने स्‍टोव पर चाय का पानी रख दिया। वह वन्‍दना के पति से गुजरात के रहन-सहन और जलवायु के विषय में बातें करता रहा और वह अपने विभाग से संबंधित बहुत-सी बातें कर रहा है जब कि वन्‍दना के विवाह के बाद वह उनसे केवल एक बार और वह भी वर्षों पहले मिला था। वन्‍दना के पास आधा घण्‍टा बैठकर भी वह चार वाक्‍य कठिनाई से बोल पाया था, यह खयाल आने पर उसके मन में निरीहता जाग उठी किन्‍तु उसने इसे अपने संबंधों की विशेषता मानकर एक दीर्घ सांस ली। उसे लगा, बातें करने के बाद कुछ नहीं रह जाता; जो अभाव उत्‍पन्‍न करता है वह अवसर का मौन ही होता है। वह बातें वन्‍दना के पति से कर रहा था किन्‍तु वन्‍दना से बातें न करने की बात सोचकर उसे विचित्र-सा अभिमान हो रहा था।

वह अंगूठे के पास निकली चप्‍पल की एक कील अंगूठे के नाखून से खुरचता रहा और वन्‍दना के पति से उनके अवकाश की अवधि के विषय में बातें करता रहा। अब तक चाय बन चुकी थी। शैलजा ने बिना किसी औपचारिकता के हमेशा की तरह चाय का प्‍याला उसके हाथ में थमा दिया। इसी समय वन्‍दना कमरे में आयी और मानो पूर्व निश्‍चय के अनुसार निःसंकोच भाव से पलंग पर अपने पति के पास बैठ गयी। उसने अपनी कुर्सी पीछे खिसका ली और उठकर चाय का प्‍याला रेडियो के पास मेज पर रख दिया। उसने वन्‍दना और उसके पति को एक-दूसरे के प्रायः बहुत निकट देखा; उसने इस दृश्‍य से उस कसक को जगाने की कोशिश की जो छह वर्ष पूर्व वन्‍दना के विवाह में उस समय बेसाख्‍ता जाग उठी थी जब टीके की रस्‍म के समय लाल चुनरी में गठरी-सी बनी वन्‍दना को उसके मामा ने उसके पति के पास पलंग पर लाकर एक बेजान बोझ की तरह पटक दिया था। उसे याद था कि वन्‍दना अपने पति से सटकर एकदम सिमट-सिकुड़ गयी थी।

उसने सामने बैठी वन्‍दना और उसके पति को एक बार यों ही दृष्टि डालकर देखा, वन्‍दना निश्चिन्‍त भाव से बैठी रही। उसे वन्‍दना की विदा के समय प्‍लेटफार्म की याद ताजा हो आयी। गाड़ी चलने के वक्‍त वह भीड़ में सबसे पीछे दुबका-छिपा खड़ा था, वन्‍दना शादी के जोड़े में लिपटी हुई थी। उसकी आंखें और नाक लाल हो गयी थीं। सन्‍ध्‍या के झुटपुटे में फर्स्‍ट क्‍लास के कूपे की रोशनी में उसकी नथ दमक रही थी और रोने और थके होने की वजह से उसका सौंदर्य और भी अधिक निखर उठा था। वन्‍दना की आंखें बार-बार भीड़ में किसीको खोजती थीं मगर वह भीड़ में बिलकुल सिमटा हुआ खड़ा था। उसका पति दूसरे दर्जे में बैठे मित्रों से प्‍लेटफार्म पर खड़ा बातें कर रहा था। वन्‍दना के पिता व चाचा अंदर कूपे में उन चीजों को बहुत व्‍यस्‍तता से रखवा रहे थे जिनकी रास्‍ते में दम्‍पति को आवश्‍यकता थी। आखिर वन्‍दना की परेशान नजरों ने उसे खोज ही लिया था। नरेन्‍द्र भागता हुआ उसके पास आया था और कंधे पर हाथ रखकर उसे पीछे घसीट ले गया था। तभी वन्‍दना की नजर उसपर पड़ गयी थी और वन्‍दना की आंखें उसकी आंखों से एक क्षण को टकरा गयी थीं। वन्‍दना की उस दृष्टि से कोई बड़ा-सा गोला उसकी छाती से उठकर गले में अटक गया था और सामने सब कुछ धुंधला पड़ गया था। किन्‍तु वह भीड़ में आगे न बढ़ा था; यहां तक कि आंखें उठाकर उससे दोबारा वन्‍दना की ओर देखा तक भी नहीं गया था। हां, गाड़ी चल पड़ने पर जब वन्‍दना का पति वन्‍दना के पास जाकर खड़ा हो गया था तो उसने अपना हाथ उठाकर हिला दिया था।

सहसा स्‍वास्‍थ्‍य और तारूण्‍य से दमकते वन्‍दना के चेहरे की ओर उसकी दृष्टि गयी-वन्‍दना जब विवाह के बाद लौटी थी तो उसकी गुलाबी रंगत एकदत पीले रंग में बदलकर विवर्ण हो गयी थी। उसके मुंह से आवाज भी कठिनाई से निकली थी। जब उसने एकांत पाकर उससे कहा था, ”सब चीजें इतनी ठीक होने पर भी तुम्‍हें क्‍या हो गया है?” तो वन्‍दना ने अपनी व्‍यथित थकी उदास आंखें उठाकर कहा था, ”बाहर से सब ठीक होने पर ही क्‍या स‍ब ठीक हो जाता है?” वन्‍दना के झरे हुए गुलाब की पंखुडियों-से सिकुड़े सफेद होंठों को देखकर उसकी उत्‍कट इच्‍छा हुई थी कि अपना सिर किसी सख्‍त चीज से टकरा दे या पागल हो जाये। दर्द से चीख उठने के संवेग को उसने बड़ी कठिनाई से दबाया था।

उसने अपना सिर झटका। पुरानी बातें सोचकर उसका मस्‍तक भन्‍ना उठा। शैलजा ने मेज से चाय का ठंडा प्‍याला उठाकर भर्त्‍सना से उसकी ओर देखा और किंचित् डांटकर बोली, ”अपनी फिलासफी के चक्‍कर में कर दिया न चाय का नाश।” वह बदले में हंसने लगा और हाथ बढ़ाकर उससे चाय लेने लगा पर शैलजा ने ठंडी चाय उसे नहीं दी। दूसरा प्‍याला लेकर जब वह फिर मेज पर रखने लगा तो वन्‍दना के पति हंसकर बोले, ”क्‍यों बेचारी को तंग करते हैं…इसके नाराज होने से अपना तो कोई पुरसाहाल न होगा।” और उन्‍होंने कनखी से वन्‍दना की ओर देखा। वन्‍दना पर इस टिप्‍पणी की प्रकट रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह निस्‍पृह बनी रही। उसने प्‍याला होंठों से लगा लिया और प्‍लेटफार्म के छोर पर खड़े हाथ उठाते एक आदमी की धुंधली-सी तस्‍वीर उसकी आंखों में उभर आयी किन्‍तु शैलजा के बोलने से चौंककर अपनी पतलून पर उसने चाय का प्‍याला छलका लिया।

चाय पीने के बाद वन्‍दना के पति हाथ बढ़ाकर बोले, ”अच्‍छा, रात को आपसे भेंट होगी…अब तो मैं जरा एक गाड़ी देखने जा रहा हूं। ये लोग कहते हैं…अच्‍छी कैडलक गाड़ी हैं, अधिक पुरानी भी नहीं है; देखूं शायद सौदा पट जाये।” यह कहने के साथ वह बाथरूम चले गये। शैलजा भी चली गयी, शायद उनको कपड़े आदि देने के लिए। वन्‍दना और वह कमरे में अकेले रह गये। उसने छत की ओर आंखें उठाकर तेजी से घूमते पंखे को देखा-गति की तीव्रता से उसके परों का कुछ पता नहीं चल रहा था। उसने पंखे की गति को वन्‍दना के साथ जोड़ना चाहा कि तभी वन्‍दना बोली, ”इतना कमजोर क्‍यों हो गये…अब भी अपनी परवाह नहीं करते?” उसने एक पल वन्‍दना की आंखों में देखा और उसे लगा उसके पांव पृथ्‍वी से बहुत ऊपर उठ गये हैं। वह एकाएक उठ पड़ा और रेडियो के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने अपनी अंगुली से रेडियो के शीशे पर लगी धूल को रगड़कर पोंछ दिया और दूसरे दरवाजे से बाहर निकलने की सोचने लगा। किन्‍तु वह बाहर गया नहीं। न जाने किस दुर्दम उत्‍कण्‍ठा से भरकर वह फिर अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गया।

सन्‍ध्‍या के बढ़ते अन्‍धकार में वे दोनों छायाओं जैसे घुलते रहे…कोई बात दोनों के मुख पर नहीं उभरी। उसे कई बार वक्‍त के तेजी से बीतने का अहसास हुआ और हृदय का स्‍पन्‍दन बढ़ गया। उसने किसी घनिष्‍ठ सन्‍दर्भ को पकड़कर बीच में लाने की कोशिश की लेकिन अन्‍धकार की घाटी में डूबते वर्षो के अन्‍तराल पर कई आकृतियां उभरीं और विलीन हो गयीं। उसने वन्‍दना के प्रश्‍न की अनुगूंज को मन में दुहराया, ‘अब भी अपनी परवाह नहीं करते?’ उसे अपनी निरीहता पर ममता हो उठी। उसने उस वाक्‍य और निरीहता को कठोर होकर किसी दूसरे को संकल्‍प कर दिया। उसे लगा, यह किसी उपन्‍यास का वाक्‍य है जो पृष्‍ठों की भूल-भुलैया में खोये किसी व्‍यक्ति का मर्म है। उसे हैरत हुई…खुशी भी हुई कि उसकी तीव्र बेचैनी और उष्‍णता अब रंचमात्र भी उसमें बाकी नहीं है।

शैलजा ने कमरे में आकर बत्ती जला दी और उन दोनों को गुमसुम बैठे देखकर भीतर लौट गयी। वह कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया और वहां से एकदम चले जाने के लिए सड़क की ओर निकल गया।

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