दुर्गा पूजा
दुर्गा पूजा

हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले त्यौहारों का किसी न किसी रूप में कोई विशेष महत्व जरूर है। इन पर्वों से हमें जीवन में उत्साह के साथ-साथ विशेष आनन्द की प्राप्ति होती है। हम इनसे परस्पर प्रेम और भाईचारे की भावना ग्रहण कर अपने जीवन-रथ को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाते हैं। साथ ही इन त्यौहारों से हमें सच्चाई, आदर्श और नैतिकता की शिक्षा भी मिलती है। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक त्यौहारों में होली, रक्षा-बन्धन, दीपावली तथा जन्माष्टमी की तरह दशहरा (विजयादशमी) भी है।

दशहरा मनाने का कारण यह है कि इस दिन महान पराक्रमी और मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान राम ने महाप्रतापी व अभिमानी लंका नरेश रावण को पराजित ही नहीं किया अपितु उसका अन्त करके उसके राज्य पर भी विजय प्राप्त की थी। इस ख़ुशी और उल्लास में यह त्यौहार प्रति वर्ष अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नव स्वरूपों की नवरात्र पूजन के पश्चात अश्विन शुक्ल दशमी को इसका समापन कर यह त्यौहार मनाया जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार महिषासुर नामक एक राक्षस था। राज्य की जनता उसके अत्याचार से भयभीत थी। दुर्गा माँ ने उसके साथ युद्ध किया। युद्ध के दसवें दिन आख़िरकार महिषासुर का माँ दुर्गा ने वध कर डाला। इस ख़ुशी में यह पर्व विजय के रूप में मनाया जाता है। बंगाल के लोग इसलिए इस पर्व को दुर्गा पूजा के रूप में मनाते हैं।

हिन्दी भाषी क्षेत्रों में नवरात्रों के दौरान भगवान राम पर आधारित लीला के मंचन की प्रथा प्रचलित है। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से रामलीला मंचन का आरम्भ होकर दशमी के दिन रावण वध की लीला मंचित कर विजय पर्व विजयादशमी मनाया जाता है। रावण वध से पहले भगवान राम से संबंधित झांकिया निकाली जाती हैं।

बंगाल में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। वहां के लोगों में यह धारणा है कि इस दिन ही महाशक्ति दुर्गा ने कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था। इसके लिए दुर्गा की याद में लोग दुर्गा पूजा उत्सव मनाते हैं। इसके तहत अश्विन शुक्ला सप्तमी से दशमी (विजयादशमी) तक यह उत्सव मनाया जाता है। इसके लिए एक माह पूर्व से ही तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं। बंगाल में इन दिनों विवाहित पुत्रियों को माता-पिता द्वारा अपने घर बुलाने की भी प्रथा है। रात भर पूजा, उपासना और अखण्ड पाठ एवं जाप करते हैं। दुर्गा माता की मूर्तियां सजा-धजा कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ उनकी झांकिया निकाली जाती हैं। बाद में माँ दुर्गा की मूर्तियों को पवित्र जलाशयों, नदी तथा तालाबों में विसर्जित कर दिया जाता है। दशहरा का त्यौहार मुख्य रूप से राम-रावण युद्ध प्रसंग से ही जुड़ा है। इसको प्रदर्शित करने के लिए प्रतिपदा से दशमी तक रामलीलाएं मंचित की जाती हैं। दशमी के दिन राम रावण के परस्पर युद्ध के प्रसंगों को दिखाया जाता है। इन लीलाओं को देखकर भक्तजनों के अन्दर जहां भक्ति भावना उत्पन्न होती है, वहीं दुष्ट रावण के प्रति क्रोध भी उत्पन्न होता है।

इस दिन बाजारों में मेला सा लगा रहता है। शहर ही नहीं छोटे-छोटे गांवों में इस दिन मेले लगते हैं। किसानों के लिए इस त्यौहार का विशेष महत्व है। वे इस समय खरीफ की फसल काटते हैं। इस दिन सत्य के प्रतीक शस्त्रों का शास्त्रीय विधि से पूजन भी किया जाता हैं। प्राचीन काल में वर्षाकाल के दौरान युद्ध करना प्रतिबंधित था। विजयादशमी पर शस्त्रागारों से शस्त्र निकालकर उनका शास्त्रीय विधि से पूजन भी किया जाता हैं। प्राचीन काल में वर्षाकाल के दौरान युद्ध करना प्रतिबंधित था। विजयादशमी पर शस्त्रागारों से शस्त्र निकालकर उनका शास्त्रीय विधि से पूजन किया जाता था। शस्त्र पूजन के पश्चात ही शत्रु पर आक्रमण और युद्ध किया जाता था।

महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में आज भी इस त्यौहार को सीलंगन अर्थात सीमोल्लंघन के रूप में मनाया जाता है। इसके पीछे एक कहावत है कि क्षत्रिय शासक सीमा का उल्लंघन करते थे। यहां शाम के समय लोग नव वस्त्रों से सुशोभित हो गांव की सीमा पार कर समी नामक एक वृक्ष के पत्तों के रूप में ‘सोना’ लूटकर गांव लौटते हैं और उस पत्ते रूपी सोने का आपस में आदान-प्रदान करते हैं। वहां समी के वृक्ष को ऋषियों की तपस्या का तेज माना जाता है। दशहरा का त्यौहार हमारी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। इसे मनाते समय हमें पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक जैसे मानवीय और पाशविक प्रवृत्तियों का ज्ञान होता है। विजयादशमी का त्यौहार असत्य पर सत्य की विजय का संदेश देता है। हमें निष्ठा और पवित्र भावना से इस त्यौहार को मनाना चाहिए। धार्मिक दृष्टि से विजयादशमी का पर्व आत्मशुद्धि का पर्व है।

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