धीरज को नौकरी तो मिल गई पर उस शहर में मकान नहीं मिला। शुरू के कुछ दिन तो उसने एक लॉज में काटे और बाद में अपने ही दफ्तर के एक सहयोगी सुन्‍दर लाल के घर चला गया। सुन्‍दर लाल उम्र में उससे पांच-सात साल बड़े थे और अभी तक उनको कोई बाल-बच्‍चा पैदा नहीं हुआ था – बस मियां-बीवी फकतदम दो कमरों का मकान लेकर रहते थे।

सुन्‍दर लाल के घर में रहते हुए उसे हर तरह की सुविधा मिल रही थी; पर धीरज स्‍वभाव से बहुत संकोची था इसलिए वहां बराबर चुप बना रहता था। सुन्‍दर लाल भी इस बात को महसूस करते थे और उसका संकोच निवारण के लिए कोई कसर नहीं उठा रखते थे। सुन्‍दरलाल की पत्‍नी रत्‍ना उससे खूब हंसी-मजाक करती रहती थी और उसके खाने-पीने का भी बहुत खयाल रखती थी।

धीरज ने अपने सभी सहयोगियों से मकान तलाश करते रहने के लिए कह रखा था। एक दिन एक क्‍लर्क ने बतलाया कि चंगड़ मौहल्‍ले में एक कमरा खाली है और किराया भी बहुत कम है अगर वह चाहे तो उसे मकान दिखलाया जा सकता है।

धीरज मकान मिलने की बात सुनकर बहुत खुश हुआ और उस क्‍लर्क के साथ दफ्तर का समय समाप्‍त होते ही मकान देखने चल दिया।

मकान जिस गली में था – उस गली में घुसते ही धीरज के सारे उत्‍साह पर पानी फिर गया। पूरी गली में बेपनाह गंदगी फैली हुई थी और यहां से वहां तक कोयले की अंगीठियां दहकने के लिए रखी गई थीं। धुएं की वजह से वहां कुछ भी नजर नहीं आता था।

धीरज जिस मकान के दरवाजे पर जाकर खड़ा हुआ वहां घुप्‍प अंधेरा फैला हुआ था। धीरज को लगा जैसे उस घर में रोशनी की कोई भी व्‍यवस्‍था नहीं है। दरवाजे के दोनों पल्‍ले और चौखट सड़-गलकर अब गिरे कि तब गिरे की हालत को पहुंच रहे थे।

धीरज का मन उस स्‍थान पर पहुंचकर इतनी बुरी तरह बुझ गया कि उसकी तीव्र इच्‍छा हुई कि वह उस घर में घुसने के बजाय तुरंत लौट चले। उसे अपने साथ आये आदमी पर भी मन-ही-मन बहुत गुस्‍सा आया कि इस भले आदमी को इतनी भी समझ नहीं है कि कैसा मकान दिखलाना चाहिए। लेकिन साथ ही उसे यह बात भी याद आ गई कि सुन्‍दर लाल के साथ बहुत दिनों तक नहीं रहा जा सकता – कभी-न-कभी अपना अलग ठिकाना तो बनाना ही पड़ेगा।

मन मारकर वह अपने सहयोगी के साथ उस भयावह-सी दिखाई पड़ने वाली खोह में घुसा। भीतर जाकर तो उसका मन और भी कच्‍चा पड़ने लगा। सहन बहुत संकरा था और उसमें हर तरफ छोटी-छोटी कोठरियों का जाल बिछा हुआ था। ऐसा लगता था जैसे उस गुफानुमा जगह में फैक्‍‍टरियों में काम करने वाले मिस्‍त्री मजदूर रहते थे क्‍योंकि अधिकांश कोठरियों में ताले पड़े हुए थे।

परिवार के नाम पर वहां महज दो कोठरियों में रहने वाले लोग ही गृहस्‍थ मालूम पड़ते थे। इसी समय मैली-कुचैली धोती पहने और उलझे बालों की पेशानी से पीछे हटाते हुए एक अधेड़ औरत एक नीम अंधेरी कोठरी से बाहर निकली और उन्‍हें देखकर ठिठक गई।

धीरज के साथ जो आदमी मकान दिखलाने लाया था उसने औरत से पूछा, ‘सुना है इस मकान में कोई हिस्‍सा खाली है।’

औरत ने कहा ‘छोटी-सी एक कुठरिया खाली है – किसको चइये?’

वह आदमी धीरज की ओर उंगली से संकेत करके बोला, ‘इन बाबूजी को मकान की जरूरत है।’

वह स्‍त्री बिना कुछ जवाब दिये वापस लौटकर एक कोठरी में गई और बुरी तरह धुआं देती हुई एक ढिबरी को हाथ में लेकर लौटी। उसने ध्‍यान से दोनों लोगों को देखकर कहा, ‘का आप दोनोंन को रहनो है?’

धीरज के साथ वाला आदमी बोला, ‘नहीं यही अकेले रहेंगे’ – फिर उसने ढिबरी की ओर देखकर पूछा, ‘क्‍या इस घर में बिजली नहीं है? इस जमाने में तो गांवों तक में बिजली पहुंच गई है – फिर यहां आप लोग बिजली के बिना कैसे रह रहे हैं?’

‘बिजरी तो है पर हमन्‍ने ले नहीं राखी है। जो कुठरिया खाली है वामे तो बिजरी को इन्‍तजाम हैगो। बिजरी को भाड़ो किराये ते अलग देनो पड़ेगो।’

‘अच्‍छा ठीक है वह देखा जायेगा – पहले वह कोठरी तो देखें।’ धीरज के सा‍थी ने कहा।

धीरज का दिल इतनी ही देर में डूबने लगा था। उसकी कतई इच्‍छा नहीं थी कि उस नर्क में रहने की बात भी दिमाग में लाये। लेकिन वह एकाएक कुछ कह नहीं पाया।

वह औरत ढिबरी को एक दीवार के ओटे पर रखकर बाहर जाते हुए बोली ‘तन्‍नक बाहर ते अंगीठी ले आऊं – सिलग गई होयगी। नैक बखत ठैरो – मैं कुठरिया दिखाय देत हूं।’

वह आदमी धीरज से बोला ‘मैं इस मकान में भीतर तक नहीं गया था – मुझे पता ही नहीं था यहां आपको रहने में मुश्किल होगी। चाहो तो कोठरी देख लो। वैसे देख लेने में कोई नुकसान भी नहीं है। अब आ गये हो तो एक नजर डाल लो – बाकी लेने न लेने के बारे में बाद में सोचते रहना।’

इतनी देर में वह औरत अंगीठी लेकर आ गई और उसे अपनी कोठरी के बाहर रखकर बोली, ‘आओ आपकू कुठरिया दिखाऊं।’

धीरज और उसके साथी को ढिबरी दिखाते हुए वह औरत अपनी बगल वाली कोठरी में ले गई।

ढिबरी की भुतही रोशनी में धीरज ने उस कोठरी को देखा तो उसका दिल डूब गया। लखौरी ईटों से बनी उस कोठरी की दीवारों से लोना झड़ रहा था। कहीं-कहीं चूने का पस्‍तर था और बाकी दीवारें उधड़ी हुई लग रही थीं। छत की भी यह हालत थी – वहां भी कई स्‍थानों से चूने के लेबड़ उखड़ चुके थे। बिजली की लाइन भी सही हालत में नहीं थी। उसमें भी मरम्‍मत की दरकार थी। दरवाजे की हालत भी खस्‍ता थी। दरवाजे की बगल में सहन में खुलने वाली खिड़की से सींखचे निकले हुए थे।

उस मकान और कोठरी को देखने के बाद यही आभास होता था कि जब कभी इस कस्‍बे की नींव पड़ी होगी तो वह मकान बना होगा। बन जाने के बाद से इसे हमेशा लावारिस हालत में ही रखा गया मालूम पड़ता था। धीरज और उसका साथी कोठरी से बाहर आए तो उस औरत ने पूछा ‘इनके संग कोई औरत बानी नई रयेगी का?’

साथ वाला बोला, ‘इनकी तो अभी शादी ही नहीं हुई है – औरत कहां से आ जायेगी।’

‘चलो लरकाई है – वामे तो कोई बात नाय। पसंद होय तो रै लेन्‍गे – हमे तो काऊ बात को एतराज नाय है।’

धीरज ने पूछा, ‘इसके बारे में किससे बात करनी पड़ेगी – यहां कोई आदमी तो नजर नहीं आ रहा है।’

‘मकान मालिक तो कई साल पैले सुरगबासी है गये – उनके लरिका कऊं दूर के सैर में नौकरी-चाकरी करे हैं – हमारे उनते (आदमी) बात कर लीजौ। कल सबेरे मिल लीजौ। चाय थोरी देर ठैर जाओ – बस आवत हून्‍गे – मैं आप लोगन के लैयां चाह बनाया देत हूं।’

‘नहीं-नहीं चाय-वाय की चकल्‍लस में पड़ने की जरूरत नहीं है। हम लोग चाय पीकर ही निकले हैं।’ फिर एक क्षण ठहरकर धीरज ने अपने साथी से पूछा, ‘इस कोठरी का क्‍या किराया बतलाया गया है?’

‘मैं समझता हूं किराया तो कोई खास नहीं होगा। असली बात तो यह है कि आप यहां रह भी पाएंगे?’

उस औरत ने कोठरी में जाकर किसी से बात की तो धीरज को पता चला कि उस औरत के अलावा कोठरी में और कोई भी है। आसपास किसी को भी चलते-फिरते न देखकर धीरज ने यही समझा था कि उस मकान में अकेली औरत के अलावा और कोई भी प्राणी नहीं है।

लेकिन कई मिनट बीत जाने के बाद भी जब कोई बाहर नहीं आया तो धीरज को ताज्‍जुब हुआ कि औरत से कोठरी में बातें करने वाला आदमी या औरत बाहर निकलकर क्‍यों नहीं आ रहा है?

उस औरत ने धीरज और उसके साथ वाले आदमी के बार-बार मना करने पर भी दो प्‍याले चाय बना ही डाली। उन दोनों को चाय के प्‍याले देते हुए वह बोली ‘जित्ती देर में चाह पीवोगे – लल्‍ली के बाबू आ जावेन्‍गे।’

अनिच्‍छा से धीरज चाय पीने लगा। उसे इतना तो पता चल ही गया कि उस औरत की एक बेटी भी है जिसे वह लल्‍ली कहकर पुकारती है।

चाय खत्‍म करने के बाद उन लोगों ने तय किया कि अब और ज्‍यादा ठहरने में कोई तुक नहीं है। हो सकता है वह आदमी अभी बहुत देर तक न आये। इसके अलावा उस मकान को लेने के लिए धीरज का मन भी पक्‍का नहीं हो रहा था।

धीरज और उसका सहयोगी खटिया छोड़कर उठ गये। जब वह वहां से चलने वाले थे तभी आंगन में आगे की ओर आती एक छाया दिखलाई पड़ी।

जब वह आदमी उन दोनों के पास आ गया तो दो अजनबियों को देखकर उसने ‘राम-राम’ की।

दुआ-सलाम के बाद वह बोला ‘हांजी कैसे तकलीफ उठाई आप सायबान ने?’

धीरज बोला ‘हमें किराये के लिए मकान की जरूरत है – सो देखने चले आये।’ ‘तो देख लियो मकान? हां मकान जैसो कछु नाय है जी! बस्‍स एक टूटी-फूटी-सी कुठरिया है – वामे आप जैसो जन्‍टरमैन ना रै सकत – गरीब-गुरबा मैनत-मजूरी करन वारो ई रैले तो रैले।’

धीरज ने कहा, ‘आप ठीक बात कह रहे हैं – पर अगर कहीं रहने को ठीक जगह न मिले तो फिर आदमी के सामने अच्‍छा या बुरा जैसा भी आ जाय वही लेना पड़ता है।’

‘आप बाअर के रहवारे हैं?’

‘जी हां मैं यहां सैल्‍स टैक्‍स के दफ्तर में काम करता हूं।’

‘अजी तो बाबू साब आप या साच्‍छात नरक बासे में काये कू रैने की सोच रये हो? कऊं ढंग की जग्‍गे मिलई जायगी देखो दाखोगे तो। हम लोगन की तो मजबूरी ठैरी – अपने दिनान कू फोर रये है।’

उस अंधेरे में धीरज को उस आदमी का हुलिया ठीक-ठीक पकड़ में नहीं आ रहा था लेकिन उसकी बातें काफी दिलचस्‍प मालूम पड़ रही थीं। उसने पूछा – ‘इस कोठरी का क्‍या किराया होगा?’

‘किरायो-भाड़ो तो कछु जादे नाय है जी। कोठरी के तीस रुपया माहवारी – बिजरी जराओगे तो वाके दस रुपय्या और अलग ते देने पर जांगे।’

‘चलो ठीक है – मैं एक आध दिन में यहां आ जाऊंगा।’

‘आप इन दिना कां ठैरे हैंगे?’

‘मेरे दफ्तर के ही साथी हैं बाबू सुन्‍दर लाल। वह नई बस्‍ती में रहते हैं। मैं अभी तो उनके साथ ही ठहरा हुआ हूं लेकिन अब अलग मकान लेकर रहना चाहता हूं।’

‘आपकी जैसी इच्‍छा होय करो। कुठरिया तो खाली परी है। हमकूं तो खुसी होयगी – पड़ोस में कोऊ पढ़ो लिखो तो रहगो आय के।’

धीरज ने अपनी जेब से पर्स निकालकर पचास रुपये उस आदमी की तरफ बढ़ा दिये और बोला ‘आप यह रुपये रखें। मैं जल्‍दी ही आ जाऊंगा अगर कोई राज या मित्री इस कोठरी की मरम्‍मत कर दे तो अच्‍छा है – इस समय तो यह जरा भी रहने लायक नहीं है।’

वह आदमी आश्‍वस्‍त होकर बोला – ‘दिन में आयके देख लीजौ – रुपय्या आपके जमा रये। नाय रैनो होय तो अपने पइसा लौटा के ले जइयो।’

‘ठीक है अब हम लोग चलते हैं।’ कहकर धीरज वहां से चल पड़ा।

रास्‍ते में उसका साथी बोला ‘आपको किराये का एडवांस देने में इतनी फुर्ती नहीं दिखानी चाहिए थी। आप ने अंधेरे में उस कोठरी को देखा है – दिन से देखकर ही तय करना चाहिए था। मानो आप इसमें रह ही न पाये तो?’

‘तो भी क्‍या हुआ? उस भले आदमी ने तो यह कह ही दिया है कि न रहना हो तो रुपये वापस ले जाना।’ फिर वह निश्‍चयात्‍मक स्‍वर में बोला ‘मैं उस वक्‍त तक इसी जगह रहूंगा जब तक कि मुझे कोई बेहतर जगह रहने को नहीं मिल जाती है।’

धीरज रात को लगभग आठ बजे सुन्‍दर लाल के यहां पहुंचा तो सुन्‍दर लाल और उसकी पत्‍नी ने एक साथ पूछा ‘कहां चले गये थे – दफ्तर से आज घर लौटे ही नहीं?’

‘मैं बृजेश वर्मा के साथ एक मकान देखने चला गया था।’

‘बृजेश के साथ मकान देखने गये थे? भले मानस हमसे नहीं कह सकते थे? दफ्तर से जाते टाइम बोल देते तो हम भी साथ न चले चलते।’

धीरज ने इस मकान वाली चर्चा को वहीं खत्‍म करने की नीयत से कहा ‘हां सोचा तो था पर फिर मुझे लगा कि इस बोरडम में आपको क्‍यों डालूं?’

सुन्‍दर लाल बोला ‘अरे भई वाह। अच्‍छा खैर ठीक है। हां मकान कहां देखा?’ एक क्षण बाद सुन्‍दर लाल की पत्‍नी ने पूछा ‘धीरज-भैया, कौन-से मोहल्‍ले में देखा मकान? यहां से कित्ती दूर है?’

धीरज मकान के बारे में ज्‍यादा बात नहीं करना चाहता था। वह सुन्‍दर लाल के ऊपर अब और ज्‍यादा देर तक बोझ नहीं बना रहना चाहता था। हालांकि उस गये बीते माहौल में रहने से वह भीतर-ही-भीतर कतरा रहा था पर अलग रहने में जो एक अपनी स्‍वतंत्रता होती है वह उसी समय मिल सकती थी जब वह कहीं अलग मकान लेकर रहने लगता।

धीरज ने रत्‍ना से कहा ‘भाभी मकान तो कोई खास नहीं है पर रहा तो जा ही सकता है। वहां और भी कितने ही लोग रहते हैं।’

‘अगर अच्‍छा नहीं है तो ऐसे मकान में जाने की जरूरत ही क्‍या है? आपको हमारे साथ रहने में क्‍या कोई खास तकलीफ हो रही है?’ रत्‍ना ने पूछा।

‘तकलीफ की बात नहीं है भाभी। आप लोगों के पास भी तो दो ही कमरे हैं। कोई मिलने-जुलने आता है या कोई एक दो दिन ठहरने वाला मेहमान आ जाता है तो आपको बहुत असुविधा हो जाती है।’

‘हमें तो कोई परेशानी मालूम नहीं पड़ती है – हां आप वैसा समझते हों तो बात अलग है।’

धीरज ने बात खत्‍म करने के इरादे से कहा ‘भाभी छोड़ो इस मकान का चक्‍कर – मुझे बहुत सख्‍त भूख लग रही है – आप लोगों ने भी तो नहीं खाया होगा अभी।’

‘कहां? तुम्‍हारे भैया तो इतनी देर से तुम्‍हारा इंतजार करते बैठे हैं। चलो हाथ-मुंह धो लो – मैं खाना लगा रही हूं।’

सुन्‍दर लाल और धीरज अन्‍दर के कमरे में चले गये और रत्‍ना चौके में जाकर सब्‍जी वगैरह गरम करने लगी।

रत्‍ना ने मेज पर खाना लगाकर कहा ‘आप दोनों खाओ – मैं गरम-गरम चपातियां बनाकर देती हूं।’

‘बस यही चक्‍कर खत्‍म नहीं होता आपका भाभी! गरम रोटियां बनाने के फेर में आप हम लोगों के साथ कभी खाना खाने नहीं बैठतीं।’

‘नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। आपके साथ ही आ जाऊंगी मैं भी। बस आप शुरू तो कर दो।’

धीरज और सुन्‍दर लाल खाना खाने बैठ गये तो सुन्‍दर लाल ने पूछा ‘क्‍या घर से किसी को बुलाना है?’

धीरज ने सुन्‍दर लाल का सवाल नहीं समझा तो वह स्‍पष्‍ट करने लगा ‘मेरा मतलब है मकान लेने की जल्‍दी क्‍या इसलिए कर रहे हो कि घर से किसी को यहां लाना चाहते हो।’

धीरज हंस पड़ा और रोटी का टुकड़ा तोड़ते हुए बोला ‘यहां कौन आयेगा? भाभी पूना में हैं – घर पर मां के अलावा छोटी बहन है जो ग्‍यारहवीं में पढ़ रही है – फिर भला मेरे पास कौन रहने आयेगा?’

‘मैं तो यही सोचता था कि तुम मकान लेने की जल्‍दी इसीलिए दिखला रहे हो कि घर से किसी को लाना चाहते हो।’

‘सवाल ही नहीं उठता।’ कहकर धीरज चुपचाप खाना खाने लगा।

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