दिन | अजय पाठक
दिन | अजय पाठक

दिन | अजय पाठक

दिन | अजय पाठक

ठेठ गँवइहा भद्दी-भद्दी
गाली जैसे दिन।

दिन ! जिसको अब वर्तमान का
राहू डसता है
दुख-दर्दों का केतु खड़ा भुजपाशों में
कसता है
आते-जाते याचक और
सवाली जैसे दिन।

दिन जब उजियारों का ही
पर्याय कभी था
तभी तलक उसकी महता थी
न्याय तभी था
निर्धन के दुःस्वप्न किसी
बदहाली जैसे दिन।

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दिन जो अपनी भूख मिटाने
रोटी माँगे
दुनिया जिसकी जुगत बिठाने
दौड़े-भागे
रोटी से वंचित भिक्षुक की
थाली जैसे दिन।

दिन जाता है मयखानों के
द्वारा खोलकर
साकी जाम पिलाने लगती
तोल-मोल कर
हाहा-हीही करते किसी
मवाली जैसे दिन।

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