दिल की रानी | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी
दिल की रानी | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी

जिस वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई दुनिया कौप रही थी , उन्‍हीं का रक्‍त आज कुस्‍तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्‍तुनतुनिया जो सौ साल पहले तुर्को के आंतक से राहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्‍त से अपना कलेजा ठण्‍डा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्‍मत का फैसला सुनने के लिए खडा है।


तैमुर ने विजय से भरी आखें उठाई और सेनापति यजदानी की ओर देख कर सिंह के समान गरजा-क्‍या चाहतें हो जिन्‍दगी या मौत 
यजदानी ने गर्व से सिर उठाकार कहा’- इज्‍जत की जिन्‍दगी मिले तो जिन्‍दगी, वरना मौत।
तैमूर का क्रोध प्रचंण्‍ड हो उठा उसने बडे-बडे अभिमानियों का सिर निचा कर दिया था। यह जबाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताव न थी । इन एक लाख आदमियों की जान उसकी मुठठी में है। इन्‍हें वह एक क्षण में मसल सकता है। उस पर इतना अभिमान । इज्‍जत की जिदन्‍गी । इसका यही तो अर्थ हैं कि गरीबों का जीवन अमीरों के भोग-विलास पर बलिदान किया जाए वही शराब की मजजिसें, वही अरमीनिया और काफ की परिया। नही, तैमूर ने खलीफा बायजीद का घमंड इसलिए नहीं तोडा है कि तुर्को को पिर उसी मदांध स्‍वाधीनता में इस्‍लाम का नाम डुबाने को छोड दे । तब उसे इतना रक्‍त बहाने की क्‍या जरूरत थी । मानव-रक्‍त का प्रवाह संगीत का प्रवाह नहीं, रस का प्रवाह नहीं-एक बीभत्‍स दृश्य है, जिसे देखकर आखें मु‍ह फेर लेती हैं दृश्य सिर झुका लेता है। तैमूर हिंसक पशु नहीं है, जो यह दृश्य देखने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दे। 


वह अपने शब्‍दों में धिक्‍कार भरकर बोला-जिसे तुम इज्‍जत की जिन्‍दगी कहते हो, वह गुनाह और जहन्‍नुम की जिन्‍दगी है।


यजदानी को तैमुर से दया या क्षमा की आशा न थी। उसकी या उसके योद्वाओं की जान किसी तरह नहीं बच सकती। पिर यह क्‍यों दबें और क्‍यों न जान पर खेलकर तैमूर के प्रति उसके मन में जो घणा है, उसे प्रकट कर दें ?  उसके एक बार कातर नेत्रों से उस रूपवान युवक की ओर देखा, जो उसके पीछे खडा, जैसे अपनी जवानी की लगाम खींच रहा था। सान पर चढे हुए, इस्‍पात के समान उसके अंग-अंग से अतुल कोध्र की चिनगारियों निकल रहीं थी। यजदानी ने उसकी सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्‍यान में कर ली और खून के घूट पीकर बोला-जहापनाह इस वक्‍त फतहमंद हैं लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दू कि अपने जीवन के विषय में तुर्को को तातरियों से उपदेश लेने की जरूरत नहीं। पर जहा खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहा उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है। अगर तलवार ही सभ्‍यता की सनद होती, तो गाल कौम रोमनों से कहीं ज्‍यादा सभ्‍य होती।


तैमूर जोर से हसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिए। तैमूर का ठहाका मौत का ठहाका था या गिरनेवाला वज्र का तडाका ।
तातारवाले पशु हैं क्‍यों ? 
मैं यह नहीं कहता।
तुम कहते हो, खुदा ने तुम्‍हें ऐश करने के लिए पैदा किया है। मैं कहता हू, यह कुफ्र है। खुदा ने इन्‍सान को बन्‍दगी के लिए पैदा किया है और इसके खिलाफ जो कोई कुछ करता है, वह कापिर है, जहन्‍नुमी रसूलेपाक हमारी जिन्‍दगी को पाक करने के लिए, हमें सच्‍चा इन्‍सान बनाने के लिए आये थे, हमें हरा की तालीम देने नहीं। तैमूर दुनिया को इस कुफ्र से पाक कर देने का बीडा उठा चुका है। रसूलेपाक के कदमों की कसम, मैं बेरहम नहीं हू जालिम नहीं हू, खूखार नहीं हू, लेकिन कुफ्र की सजा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है।


उसने तातारी सिपहसालार की तरफ कातिल नजरों से देखा और तत्‍क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौतकर यजदानी के सिर पर आ पहुचा। तातारी सेना भी मलवारें खीच-खीचकर तुर्की सेना पर टूट पडी और दम-के-दम में कितनी ही लाशें जमीन पर फडकने लगीं।

See also  इज्ज़त का ख़ून | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी


सहसा वही रूपवान युवक, जो यजदानी के पीछे खडा था, आगे बढकर तैमूर के सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बधी हुई मुटिठयों में मसलता हुआ बोला-ऐ अपने को मुसलमान कहने वाले बादशाह । क्‍या यही वह इस्‍लाम की यही तालीम है कि तू उन बहादुरों का इस बेददी से खून बहाए, जिन्‍होनें इसके सिवा कोई गुनाह नहीं किया कि अपने खलीफा और मुल्‍कों की हिमायत की?


चारों तरफ सन्‍नाटा छा गया। एक युवक, जिसकी अभी मसें भी न भीगी थी; तैमूर जैसे तेजस्‍वी बादशाह का इतने खुले हुए शब्‍दों में तिरस्‍कार करे और उसकी जबान तालू से खिचवा ली जाए। सभी स्‍तम्‍भित हो रहे थे और तैमूर सम्‍मोहित-सा बैठा , उस युवक की ओर ताक रहा था।


युवक ने तातारी सिपाहियों की तरफ, जिनके चेहरों पर कुतूहलमय प्रोत्‍साहन झलक रहा था, देखा और बोला-तू इन मुसलमानों को कापिर कहता है और समझाता है कि तू इन्‍हें कत्‍ल करके खुदा और इस्‍लाम की खिदमत कर रहा है ? मैं तुमसे पूछता हू, अगर वह लोग जो खुदा के सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करतें, जो रसूलेपाक  को अपना रहबर समझते हैं, मुसलमान नहीं है तो कौन मुसलमान हैं ?मैं कहता हू, हम कापिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्‍या इस्‍लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्‍ल की इजाजत देता है खुदाने अगर तूझे ताकत दी है, अख्तियार दिया है तो क्‍या इसीलिए कि तू खुदा के बन्‍दों का खून बहाए क्‍या गुनाहगारों को कत्‍ल करके तू उन्‍हें सीधे रास्‍ते पर ले जाएगा। तूने कितनी बेहरमी से सत्‍तर हजार बहादुर तुर्को को धोखा देकर सुरंग से उडवा दिया और उनके मासूम बच्‍चों और निपराध स्‍त्रियों को अनाथ कर दिया, तूझे कुछ अनुमान है। क्‍या यही कारनामे है, जिन पर तू अपने मुसलमान होने का गर्व करता है। क्‍या इसी कत्‍ल, खून और बहते दरिया में अपने घोडों के सुम नहीं भिगोए हैं, बल्कि इस्‍लाम को जड से खोदकर पेक दिया है। यह वीर तूर्को का ही आत्‍मोत्‍सर्ग है, जिसने यूरोप में इस्‍लाम की तौहीद फैलाई। आज सोपिया के गिरजे में तूझे अल्‍लाह-अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इस्‍लाम का स्‍वागत करने को तैयार है। क्‍या यह कारनामे इसी लायक हैं कि उनका यह इनाम मिले। इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूरेजी से इस्‍लाम की खिदमत कर रहा है। एक दिन तूझे भी परवरदिगार के सामने कर्मो का जवाब देना पडेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जाएगा, क्‍योंकि अगर तूझमें अब भी नेक और बद की कमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ। तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिए और मैं जानता हू, तूझे जसे जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा।


खलीफा अभी सिर झुकाए ही थी की यजदानी ने कापते हुए शब्‍दों में अर्ज की-जहापनाह, यह गुलाम का लडका है। इसके दिमाग में कुछ पितूर है। हुजूर इसकी गुस्‍ताखियों को मुआफ करें । मैं उसकी सजा झेलने को तैयार हूँ।


तैमूर उस युवक के चेहरे की तरफ स्‍िथर नेत्रों से देख रहा था। आप जीवन में पहली बार उसे निर्भीक शब्‍दों के सुनने का अवसर मिला। उसके सामने बडे-बडे सेनापतियों, मंत्रियों और बादशाहों की जबान न खुलती थी। वह जो कुछ कहता था, वही कानून था, किसी को उसमें चू करने की ताकत न थी। उसका खुशामदों ने उसकी अहम्‍मन्‍यता को आसमान पर चढा दिया था। उसे विश्‍वास हो गया था कि खुदा ने इस्‍लाम को जगाने और सुधारने के लिए ही उसे दुनिया में भेजा है। उसने पैगम्‍बरी का  दावा तो नहीं किया, पर उसके मन में यह भावना दढ हो गई थी, इसलिए जब आज एक युवक ने प्राणों का मोह छोडकर उसकी कीर्ति का परदा खोल दिया, तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी। उसके मन में क्रोध और हिंसा की जगह ऋद्वा का उदय हुआ। उसकी आंखों का एक इशारा इस युवक की जिन्‍दगी का चिराग गुल कर सकता था । उसकी संसार विजयिनी शक्‍ित के सामने यह दुधमुहा बालक मानो अपने नन्‍हे-नन्‍हे हाथों से समुद्र के प्रवाह को रोकने के लिए खडा हो। कितना हास्‍यास्‍पद साहस था उसके साथ ही कितना आत्‍मविश्‍वास से भरा हुआ। तैमूर को ऐसा जान पडा कि इस निहत्‍थे बालक के सामने वह कितना निर्बल है। मनुष्‍य मे ऐसे साहस का एक ही स्‍त्रोत हो सकता है और वह सत्‍य पर अटल विश्‍वास है। उसकी आत्‍मा दौडकर उस युवक के दामन में चिपट जाने ‍के लिए अधीर हो गई। वह दार्शनिक न था, जो सत्‍य में शंका करता है वह सरल सैनिक था, जो असत्‍य को भी विश्‍वास के साथ सत्‍य बना देता है।

See also  सैलानी बंदर | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी


यजदानी ने उसी स्‍वर में कहा-जहापनाह, इसकी बदजबानी का खयाल न फरमावें।
तैमूर ने तुरंत तख्‍त से उठकर यजदानी को गले से लगा लिया और बोला-काश, ऐसी गुस्‍ताखियों और बदजबानियों के सुनने का पहने इत्‍तफाक होता, तो आज इतने बेगुनाहों का खून मेरी गर्दन पर न होता। मूझे इस जबान में किसी फरिश्‍ते की रूह का जलवा नजर आता है, जो मूझ जैसे गुमराहों को सच्‍चा रास्‍ता दिखाने के लिए भेजी गई है। मेरे दोस्‍त, तुम खुशनसीब हो कि ऐस फरिश्‍ता सिफत बेटे के बाप हो। क्‍या मैं उसका नाम पूछ सकता हूँ।


यजदानी पहले आतशपरस्‍त था, पीछे मुसलमान हो गया था , पर अभी तक कभी-कभी उसके मन में शंकाए उठती रहती थीं कि उसने क्‍यों इस्‍लाम कबूल किया। जो कैदी फासी के तख्‍ते पर खडा सूखा जा रहा था कि एक क्षण में रस्‍सी उसकी गर्दन में पडेगी और वह लटकता रह जाएगा, उसे जैसे किसी फरिश्‍ते ने गोद में ले लिया। वह गदगद कंठ से बोला-उसे हबीबी कहते हैं।


तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे ऑंखों से लगाता हुआ बोला-मेरे जवान दोस्‍त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो, मैं वह गुनाहगार हू, जिसने अपनी जहालत में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा,  इसलिए कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब है। आज मूझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्‍लाम को कितना नुकसान पहुचा। आज से मैं तुम्‍हारा ही दामन पकडता हू। तुम्‍हीं मेरे खिज्र, तुम्‍ही मेंरे रहनुमा हो। मुझे यकीन हो गया कि तुम्‍हारें ही वसीले से मैं खुदा की दरगाह तक पहुच सकता हॅ।
यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुई थी। उस कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था।


युवक ने सिर झुकाकर कहा- यह हुजूर की कदरदानी है, वरना मेरी क्‍या हस्‍ती है।
तैमूर ने उसे खीचकर अपनी बगल के तख्‍त पर बिठा दिया और अपने सेनापति को हुक्‍म दिया, सारे तुर्क कैदी छोड दिये जाए उनके हथियार वापस कर दिये जाए और जो माल लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बाट दिया जाए।


वजीर तो इधर इस हुक्‍म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकडे हुए अपने  खीमें में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबन्‍ध करने लगा। और जब भोजन समाप्‍त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर कह सुनाई, जो आदि से अंत तक मिश्रित पशुता और बर्बरता के कत्‍यों से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्‍वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुदा को कौन मुह दिखाएगा। रोते-रोते हिचकिया बध गई।


अंत में उसने हबीब से कहा- मेरे जवान दोस्‍त अब मेरा बेडा आप ही पार लगा सकते हैं। आपने राह दिखाई है तो मंजिल पर पहुचाइए। मेरी बादशाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मूझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्‍ते पर लिए जाता था । मेरी आपसे यही इल्‍तमास (प्रार्थना) है कि आप उसकी वजारत कबूल करें। देखिए , खुदा के लिए इन्‍कार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का नहीं रहूगा। 


यजदानी ने अरज की-हुजूर इतनी कदरदानी फरमाते हैं, तो आपकी इनायत है, लेकिन अभी इस लडके की उम्र ही क्‍या है। वजारत की खिदमत यह क्‍या अंजाम दे सकेगा । अभी तो इसकी तालीम के दिन है।
इधर से इनकार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यजदानी इनकार तो कर रहे थे, पर छाती फूली जाती थी । मूसा आग लेने गये थे, पैगम्‍बरी मिल गई। कहा मौत के मुह में जा रहे थे, वजारत मिल गई, लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्‍िथर चिंत का क्‍या ठिकाना आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार है, कल नाराज हो गए तो जान की खैरियत नही। उन्‍हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, पिर भी जी डरता था कि वीराने देश में न जाने कैसी पडे, कैसी न पडे। दरबारवालों में षडयंत्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है; लेकिन वह तजरबा कहा से लाएगा, जो उम्र ही से आता है।
उन्‍होंने इस प्रश्‍न पर विचार करने के लिए एक दिन की मुहलत मांगी और रूखसत हुए।

See also  मनावन | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी

हबीब यजदानी का लडका नहीं लडकी थी। उसका नाम उम्‍मतुल हबीब था। जिस वक्‍त यजदानी और उसकी पत्‍नी मुसलमान हुए, तो लडकी की उम्र कुल बारह साल की थी, पर प्रकति ने उसे बुदी और प्रतिभा के साथ विचार-स्‍वातंस्‍य भी प्रदान किया था। वह जब तक सत्‍यासत्‍य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्‍वीकार न करती। मां-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशांति तो हुई, पर जब तक इस्‍लाम की दीक्षा न ले सकती थी। मां-बाप भी उस पर किसी तरह का दबाब न डालना चाहते थे। जैसे उन्‍हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ रहने का भी अधिकार है। लडकी को संतोष हुआ, लेकिन उसने इस्‍लाम और जरथुश्‍त धर्म-दोनों ही का तुलनात्‍मक अध्‍ययन आरंभ किया और पूरे दो साल के  अन्‍वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्‍लाम की दीक्षा ले ली। माता-पिता फूले न समाए। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है, बल्‍ि‍क स्‍वेच्‍छा से, स्‍वाध्‍याय से और ईमान से। दो साल तक उन्‍हें जो शंका घेरे रहती थी , वह मिट गई।


यजदानी के कोई पुत्र न था और उस युग में जब कि आदमी की तलवार ही सबसे बड़ी अदालत थी, पुत्र का न रहना संसार का सबसे बड़ा दुर्भाग्‍य था। यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ही की भाति उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वह बालकों के से कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्‍त्र-विधा सीखती और अपने बाप के साथ अक्‍सर खलीफा बायजीद के महलों में जाती और राजकुमारी के साथ शिकार खेलने जाती। इसके साथ ही वह दर्शन, काव्‍य, विज्ञान और अध्‍यात्‍म का भी अभ्‍यास करती थी। यहां तक कि सोलहवें वर्ष  में वह फौजी विधालय में दाखिल हो गई और दो साल के अन्‍दर वहा की सबसे ऊची परीक्षा पारा करके फौज में नौकर हो गई। शस्‍त्र-विधा और सेना-संचालन कला में इतनी निपुण थी और खलीफा बायजीद उसके चरित्र से इतना प्रसन्‍न था कि पहले ही पहल उसे एक हजारी मन्‍सब मिल गया ।


ऐसी युवती के चाहनेवालों की क्‍या कमी। उसके साथ के कितने ही अफसर, राज परिवार के के कितश्‍ने ही युवक उस पर प्राण देते थे , पर कोई उसकी नजरों में न जाचता था । नित्‍य ही निकाह के पैगाम आते थे , पर वह हमेशा इंकार कर देती थी। वैवाहिक जीवन ही से उसे अरूचि थी । कि युवतियां कितने अरमानों से व्‍याह कर लायी जाती हैं और पिर कितने निरादर से महलों में बन्‍द कर दी जाती है। उनका भाग्‍य पुरूषों की दया के अधीन है।


अक्‍सर ऊचे घरानों की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था। उनके मुख से उनकी करूण कथा सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी धणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्‍वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था। लड़की स्‍वाधीन है, उसकी इच्‍छा हो, विवाह करे या क्‍वारी रहे, वह अपनी-आप मुखतार है। उसके पास पैगाम आते, तो वह साफ जवाब दे देता – मैं इस बार में कुछ नहीं जानता, इसका फैसला वही करेगी।

Leave a comment

Leave a Reply