ढाई आखर नाम तुम्हारा | धनंजय सिंह
ढाई आखर नाम तुम्हारा | धनंजय सिंह
ढाई आखर नाम
तुम्हारा ले लिया
मावस वाली रात उजाली हो गई।
गंध कहाँ से कहाँ घूम कर
आई मेरे द्वार
मन के आँगन फूल उठा फिर
कोई हरसिंगार
कच्चा आँगन फिर
गोबर से लीप गया
मन की यह बस्ती बैशाली हो गई।
तितली के दो पंख हिले
फूटे सरगम के बोल
ज्यों वाणी के शब्द-शब्द में
डाली मिसरी घोल
मंत्र बीज से
जब से परिचय हो गया
उस दिन से हर बात निराली हो गई।