आप भले ही यह सोचें कि यह किसी विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर की कहानी है, जिसकी अधीनस्थ अधिकारी ने उसके विरुद्ध यौन प्रताड़ना की लिखित शिकायत वाइस चांसलर से लेकर ऐसे मामलों के लिए गठित शिखर समितियों से की; लेकिन वे लंबे समय तक कान में तेल डाले बैठे रहे और प्राफेसर साहब अपने मित्रों और परिचितों से शिकायतकर्ता पर दबाव डलवाते रहे कि वह शिकायत वापस लेकर अपनी नौकरी की रक्षा करे, क्योंकि उसकी नौकरी एडहॉक है।

मेरी कहानी न किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बनर्जी, चटर्जी, मुखर्जी, बाली, कमाली, सिंह, शर्मा की है और न ही वहाँ की किसी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी मिस मोनिका या मीनाक्षी की। यह कहानी एक विशुद्ध क्लर्क की है, जो एक सरकारी दफ्तर में काम करती थी।

मैं जानता हूँ कि पूरी कहानी सुनने के बाद आप यह कहेगें कि मेरी पात्र विमला रस्तोगी ओैर प्रोफेसर के विरुद्ध शिकायत दर्ज करवाने वाली उसकी अधीनस्थ अधिकारी अर्पिता वर्मा की कहानी में साम्यता है। आप यह भी कहेंगे कि विमला रस्तोगी को सताने वाला महानिदेशक वेणु कामथ और अर्पिता वर्मा से ‘तुम्हारे पास बहुत कीमती…’ और ‘सट जा या हट जा ‘जैसे शब्द कहने वाले प्रोफेसर प्रद्योत सेन में कोई अंतर नहीं है। लेकिन दोनों में कुछ अंतर है…। अर्पिता वर्मा की प्रताड़ना की कहानी एक पत्रकार को ज्ञात हुई, उसने उसे समझा और अपने राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित कर दिया। विश्वविद्यालय प्रशासन में कुछ सुगबुगाहट हुई। मेजें हिलीं, कुर्सियों में फुसफुसाहट हुई। वाइस चांसलर ने शिकायत न मिलने, कहीं डाक स्तर में पड़ी होने को लेकर मलाल व्यक्त किया। लेकिन बड़े विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का दिल बड़ा होता है। उन्होंने कहलवाया कि पीड़िता को शिकायत लिख भेजने के बजाय सीधे उनसे मिलकर पीड़ा व्यक्त करनी चाहिए थी। आखिर वह भी प्रोफेसर थे… अभी भी हैं। एक प्रोफेसर के विरुद्ध एक अदने अधिकारी की शिकायत सुनना उनके कर्तव्य क्षेत्र में आता है। दण्ड-व्यवस्था बाद की बात है। शिकायत उन तक पहुँचनी चाहिए। पंद्रह दिन बाद भी नहीं पहुँची तो शिकायतकर्ता को दुखी नहीं होना चाहिए। अर्जी कहीं अटक गई है। सभी पर काम का बोझ है। फाइलों के बोझ तले अर्पिता वर्मा की अर्जी कहीं दबी होगी। शिक्षा के मंदिर का छोटा-बड़ा हर पुजारी बहुत व्यस्त है। लेकिन अर्जी का दम घुटने न पाएगा। अंतिम साँस तक वह निकलेगी और उन तक पहुँच ही जाएगी। लेकिन वह सहृदय हैं… दयालु हैं और अर्पिता वर्मा को उन्होंने स्वयं आकर मिलने का संदेश दिया। वह गई और शिकायत ले ली गई। कृपालु वी.सी. ने दम साधकर प्रोफेसर प्रद्योत सेन के विरुद्ध शिकायत सुनी और अर्पिता वर्मा के अपने चैम्बर से बाहर निकलने के बाद पत्रकार को दिल खोलकर कोसा जो छोटे-बड़े मसलों को एक-सा मानकर मनमाने ढंग से रिपोर्ट छाप देते हैं।

लेकिन मित्र, विमला रस्तोगी किससे शिकायत करती! तब तक यौन प्रताड़ना के विषय में कोर्ट का सख्त आदेश न था और होता भी तब भी सरकारी दफ्तर, जहाँ अफसरों की तानाशाही किसी राजशाही ढंग से कार्यरत है, विमला रस्तोगी को मीडिया तक जाने का साहस न दे पाता।

हाँ, आप ठीक कह रहे हैं। विश्वविद्यालयों में भी प्रोफेसरों की तानाशाही सरकरी अफसरशाही से कम नहीं है। पी-एच.डी. से लेकर नियुक्तियों तक… सर्वत्र अराजकता व्याप्त है। आपकी सलाह महत्वपूर्ण है कि देश के सभी केन्दीय विश्वविद्यालयों की नियुक्तियाँ यू.पी.एस.सी. द्वारा संयुक्त विज्ञापन के आधार पर की जाएँ और प्राध्यापक से लेकर प्राफेसर तक के पद स्थानातंरणीय हों। शायद तब शिक्षा के मंदिरों में होने वाले भ्रष्टाचार पर कुछ अंकुश लग सके। वर्ना प्रोफेसरों के कच्छे ढीले होने की कहानियों पर विराम संभव नहीं और न ही अपने चहेतों की नियुक्तियों पर रोक।

आपकी चिन्ता वाज़िब है। शिखर समितियाँ भी शिकायतों के बोझ से दबी हुई हैं। वर्षों पुरानी शिकायतों का निस्तारण वे नहीं कर पातीं। उनकी भी समस्याएँ हैं। चार समितियाँ हैं और चारों के अधिकार क्षेत्र अलग हैं। चारों यही निर्णय नहीं कर पातीं कि कौन-सी शिकायत किसके अधिकार क्षेत्र की है… हैं बेशक सभी यौन-प्रताड़ना से संबन्धित। किसी महिला प्राध्यापक को उसके सहयोगी ने प्रताड़ित करने का प्रयत्न किया तो किसी छात्रा को उसके प्रोफेसर ने। सभी शिकायतकर्ता अर्पिता वर्मा जैसी भाग्यशाली नहीं कि उन्हें वी.सी. बुला लेते या कोई पत्रकार तक उनकी पीड़ा पहुँच पाती। वी.सी. अति व्यस्त व्यक्ति… देश-देशांतर के सेमिनारों आदि में उन्हें भाग लेना होता है। किस-किस की सुनें। अर्पिता वर्मा को सुन लिया यह क्या कम है!

आप ठीक कह रहे हैं। अर्पिता वर्मा जैसी लड़कियाँ उँगलियों में गिनने योग्य हैं। लेकिन हैं… कम से कम शिक्षा के मंदिरों में ऐसी लड़कियाँ हैं। यदि न होतीं तो शिखर समितियों के पास शिकायतों का जो पुलिन्दा पड़ा है, वह न होता। आप यह भी कह सकते हैं कि यह पुलिन्दा पड़ा ही क्यों है? भई,यह प्रश्न न्यायालय के संदर्भ में भी उठ सकता है। वहाँ न्याय पाने के लिए जिन्दगी ही गुजर जाती है। पहले ही कहा, इसका सीधा कारण काम के बोझ से है। शिखर समितियों के पास कितना काम है… इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। लेकिन आप इस बात से दुखी क्यों हैं कि अपराधी उन्मुक्त घूमते हैं, दूसरों को प्रताड़ित करने की जुगत खेजते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि यदि कभी कुछ कार्यवाई हुई भी उनके विरुद्ध तो उन्हें मात्र चेतावनी दी जाती है, या तीन इन्क्रीमेण्ट रोक दिए जाते हैं या… केवल एक ही मामला है इस विश्वविद्यालय के इतिहास में कि यौन-प्रताड़ना प्रकरण में एक प्रोफेसर साहब को नौकरी गँवानी पड़ी थी।

लेकिन विमला रस्तोगी एक सरकारी दफ्तर में नौकरी करती थी, जहाँ किसी अधिकारी के खिलाफ शिकायत करना अपराध था। उसकी सजा नौकरी से बर्खास्तगी या स्थानांतारण था। आप कहते हैं कि बर्खास्तगी विश्वविद्यालय में भी होती है। बताया न कि इस विश्वविद्यालय के इतिहास में केवल एक ही प्रोफेसर को नौकरी से हटाया गया। हाँ, नौकरी जाती है उन्हीं की जो अनुबन्ध पर या एडहॉक होते हैं। नियमित की बर्खास्तगी आसान नहीं। आपने ही बताया कि वहाँ ‘यूनियन ताकतवर है’ …आप सही कहते हैं। शिक्षकों की यूनियन ताकतवर है। उनकी माँगों के सामने सरकार तक घुटने टेक देती है। वह हड़ताल की धमकी देती है और सरकार दुम हिलाती नजर आती है। लेकिन मित्र, कर्मचारी यूनियन यदि ताकतवर होती तो स्थिति ही कुछ और होती। मुझे लगता है कि इस यूनियन में अवसरवादी बैठे हैं जो अपने निजी लाभ के लिए उच्चाधिकारियों के विरुद्ध आवाज उठाना पसंद नहीं करते। और यदि करते हैं तो केवल अपने हित साधन के लिए।

लेकिन मैं चाहता हूँ कि अब आप चुप रहें। विमला रस्तोगी की चर्चा चलते ही यदि आप अर्पिता वर्मा या विश्वविद्यालय के प्रसंग छेड़ते रहे तो मैं विमला रस्तोगी की बात आप तक नहीं पहुँचा पाऊँगा, जिसे मैं ही पहुँचा सकता हूँ क्योंकि मैं उसका सहयोगी जो था।

विमला रस्तोगी ने बी.ए. किया ही था कि उसके पिता की मृत्यु हो गयी। उन दिनों कर्मचारी की मृत्यु पर परिवार के किसी सदस्य, पत्नी या बच्चे को, अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल जाती थी। विमला रस्तोगी पिता के स्थान पर क्लर्क बनकर महानिदेशालय कार्यालय में आयी। उन्हीं दिनों यूडीसी के रूप में मैं भी उस कार्यालय में नियुक्त हुआ। विमला को मेरे ही अनुभाग में टाइपिंग के काम में लगाया गया। तीखे नाक-नक्श की सुन्दर लड़की थी वह, जिसके बाल कमर से नीचे तक लटकते रहते थे, जिनमें वह दो बेड़ियाँ गूँथतीं थी। और जब वह चलती तब दोनों चोटियाँ सर्पिणी की भाँति नितम्बों पर हिलती-डुलती रहतीं थीं।

महानिदेशक कार्यालय का यह नियम था, हो सकता है उस विश्वविद्यालय में भी हो, कि जो भी नया व्यक्ति वहाँ नियुक्त होकर आता, दो-चार दिन में उसकी पेशी महानिदेशक वेणु कामथ के सामने अवश्य होती। मेरी भी हुई और मैंने पाया कि वेणु कामथ बहुत मधुर ओर सौम्य स्वभाव का व्यक्ति था। साक्षात्कार के दोरान मेरी टाँगें और आवाज काँप रही थीं, क्योंकि अनुभाग वालों ने कहा था कि दबकर ही उत्तर दूँ… साहब नाराज न हों, खयाल रखूँ। इससे मैं भयभीत था। शायद कामथ ने यह समझ लिया था और साहस देते हुए कहा था कि ईमानदारी से अपना काम करूँ और यदि कोई परेशानी अनुभव करूँ तब पीए के माध्यम से उनसे मिलकर बताऊँ।

महानिदेशक के कमरे से बाहर आया तब मैं कुछ और ही था। भय जा चुका था, क्योंकि कामथ ने मुझसे प्रेम से बात की थी और जब विमला रस्तोगी की पेशी हुई, उसे मुझसे भी अधिक प्यार-दुलार से कामथ ने समझाया। विमला भी गदगद थी। वह मित-भाषी थी। अधिकतर अपनी ही सीट पर चिपकी रहने वाली। कभी बात भी करती तो मुझसे, क्योंकि मैंने उससे एक सप्ताह पहले ज्वाइन किया था।

महानिदेशक कार्यायल में उन दिनों दस और महिलाएँ थीं। लंच के समय वे एक साथ लंच करतीं। उनके आग्रह पुनराग्रह से विमला उनके साथ लंच करने लगी थी। मेरे परिचितों का दायरा भी बढ़ने लगा था। मैं भी लंच में दो-चार बाबुओं के साथ घूमने जाने लगा। एक दिन एक सहयोगी बोला, ‘छ: महीने बीतने को आए, कामथ ने विमला रस्तोगी को याद नहीं किया?’

‘क्यों?’ मैंने पूछा।

सहयोगी के चेहरे पर व्यंग्य मुस्कान थी, ‘तुझे कुछ नहीं मालूम?’

‘क्याऽऽऽ?’

‘शिकार।’

‘कैसा?’ मैं चौंका था। सहयोगी, जो तीन थे, ठठाकर हँसे थे। हम आइसक्रीम वाले के पास थे। आइसक्रीम ली गई और बात आई गई हो गई थी।

और ठीक उसके अगले सप्ताह सुबह दस बजे प्रशासनिक अनुभाग पाँच, जिसका काम अफसरों और उनके बीबी-बच्चों और बँगलों का खयाल रखना था, का अनुभाग अधिकारी विमला रस्तोगी के पास झुका हुआ कुछ फुसफुसा रहा था। विमला रस्तोगी एक सादा कागज और पेन लेकर उसके पीछे हो ली थी। अनुभाग के बाबुओं ने आँखों ही आँखों में एक-दूसरे से कुछ बातें की थीं। मेरा अनुभाग अधिकारी फाइल पर सिर झुकाए कोई नोट तैयार कर रहा था। उसका चेहरा लाल हो उठा था और उसका हाथ काँप रहा था। सच यह था कि अनुभाग के सभी बाबुओं के चेहरों पर तनाव था। उन्हें लग रहा था कि अनुभाग पाँच का अनुभाग अधिकारी उनकी माँद में घुसकर बकरी उठा ले गया था और वे विवश थे कि अपना विरोध भी न जता सके थे। क्षण भर बाद ही सभी के सिर गर्दनों पर यों लटक गए थे मानो वे मुर्दा थे। मैं भौंचक एकाधिक बार उन्हें देख काम करने का प्रयत्न करने लगा था।

बीस मिनट भी न बीते थे कि विमला रस्तोगी दरवाजे पर प्रकट हुई। उसका चेहरा पीला और आँसुओं से भीगा हुआ था। सीट पर बैठते ही उसने टाइप राइटर पर सिर रख लिया और सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसके आते ही मेरा अनुभाग अधिकारी फाइल दबा कमरे से बाहर निकल गया। अनुभाग के अन्य चारों बाबू क्रमश: एक-एक कर मुझसे यह कहकर चले गए कि वे चाय पीने जा रहे थे। मैं विमला रस्तोगी से कुछ पूछना चाहता था, लेकिन पूछ नहीं सका। भय, जुगुप्सा और आशंका के मिले-जुले भाव ने मुझे घेर लिया और मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा बैठा रहा।

लगभग एक घण्टा बीत गया। इस बीच अनुभाग अधिकारी फाइल दबाए दबे पाँव कमरे में प्रकट हुआ। उसका चेहरा अभी भी लाल था। बिना बोले नयी फाइल पर सिर झुका वह कुछ पढ़ने लगा था। मैं समझ रहा था कि वह पढ़ नहीं रहा था केवल पढ़ने का बहाना कर रहा था। अनुभाग अधिकारी के बाद एक-एक कर चारों बाबू आ गए और अपनी सीटों पर सिर झुकाकर बैठ गए। विमला रस्तोगी अभी -भी टाइपराइटर पर सिर रखे थी। कमरे में मृत्यु -सा सन्नाटा व्याप्त था। सन्नाटा प्रशासनिक अनुभाग दो के अनुभाग अधिकारी के आने से टूटा। उसके हाथ में एक आदेश की तीन प्रतियाँ थीं। उसने दरवाजे से ही आवाज दी, ‘विमला रस्तोगी ऽऽऽ!’

वह एक दक्षिण भारतीय था… संभवतः तमिल। उसे हिन्दी नहीं आती थी। विमला ने सिर नहीं उठाया। अनुभाग अधिकारी की आवाज कुछ ऊँची और तीखी हो उठी, ‘आपको दफ्तर का डिसिप्लिन नईं मालूम?’ अंग्रेजी में वह बोला। विमला ने सिर उठाया। आँसुओं की लकीरें उसके मुर्झाए चेहरे पर स्पष्ट थीं। आँखें सूजी हुई थीं।

‘ये आपका ट्रांसफर आर्डर है। रिसीव करें…’

विमला का चेहरा फीका पड़ गया। वह शायद नहीं समझ पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए। तभी सामने खड़ा व्यक्ति तमिल लहजे में अंग्रेजी में चीखा, ‘जल्दी कीजिए और इसे लेकर तुरंत दफ्तर से चली जाइए। डीजी साहब का आदेश है। शुक्र है नौकरी नई गई। अभी प्रोबेशन पर है… और नखरे तो देखो…’

वह क्षण भर के लिए रुका, ‘दस दिन का ज्वाइनिंग टाइम दिया है। आपको चेन्नई के निदेशक कार्यालय में रिपोर्ट करना माँगता। ओके…

विमला ने काँपते हाथों ट्रांसफर आर्डर ले लिया। प्रशासन दो का अनुभाग अधिकारी मेरे अनुभाग अधिकारी से उसी कड़क स्वर में बोला, ‘मिस्टर सिंह, एक कॉपी आपके लिए…’ और रिसीव करने के लिए उसने तीसरी प्रति सिंह के आगे बढ़ा दी।

विमला रस्तोगी झटके से उठी। रूमाल से चेहरा पोछा। एक दृष्टि सब पर डाली। मुझे लगा शायद उस समय वह कहना चाह रही थी, ‘तुम सब कापुरुष हो…। सब…’ संभव है वह कुछ और ही कहना चाह रही हो। यह भी संभव है कुछ कहना ही न चाहती हो। बहरहाल, वह पर्स झुलाती कमरे से बाहर निकल गई थी किसी से कुछ कहे बिना। उस समय उसकी चाल में शिथिलता न थी… समर्पण के बजाए उसने सजा स्वीकार कर ली थी।

विमला रस्तोगी पर अपने दो छोटे भाइयों और माँ का बोझ था, लेकिन वह चेन्नई नहीं गयी थी। पता चला उसने त्याग पत्र दे दिया था।

आपकी बात सही है कि अर्पिता वर्मा प्रकरण ने आज मुझे सहसा विमला रस्तोगी की याद दिला दी। लेकिन मित्र, इस देश में हजारों-हजारों अर्पिता वर्मा और विमला रस्तोगी हैं, जिन पर न किसी पत्रकार की दृष्टि पड़ी न किसी लेखक की और दरिन्दों का खेल बदस्तूर जारी है।

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