सिगरेट | विमल चंद्र पांडेय
सिगरेट | विमल चंद्र पांडेय

सिगरेट | विमल चंद्र पांडेय

सिगरेट | विमल चंद्र पांडेय

बूढ़ा ज्यादा देर एक जगह बैठने का आदी नहीं था। थोड़ी देर टहलने के बाद वह पत्थर की बेंच पर बैठा लेकिन जल्दी ही उठ गया। लोग टहलते हुए आ-जा रहे थे। बूढ़ा भी टहलने लगा।

टहलते-टहलते उसका हाथ जेब में चला गया और माचिस की डिब्बी उँगलियों में फँसी बाहर आ गई। वह डिब्बी को ध्यान से देखने लगा, जैसे पहली बार देख रहा हो। कितना पुराना साथ था इस माचिस का और उसका। दोनों बचपन के साथी थे। यह पार्क उनका तीसरा साथी था।

लेकिन वे सिर्फ तीन ही नहीं थे। कुल मिलाकर पाँच थे। वह बूढ़ा, यह माचिस,यह पार्क, बूढ़े का दोस्त और सिगरेट की पैकेट। दोस्त की याद आते ही बूढ़े का मन भारी सा होने लगा। उसने दूसरी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा ली।

उसे याद आया, जब वह दसवीं में था तो उसने इसी पार्क से सिगरेट पीनी शुरू की थी। दोस्त ने सिखाया था। वह और दोस्त अपने घर से सुबह टहलने के लिए निकलते। पार्क में आकर थोड़ी देर खूबसूरत लड़कियों को देखते, फिर किसी सुरक्षित कोने में एक पौधे और झाड़ी की आड़ लेकर सिगरेट की पैकेट निकालते।

‘अरे, माचिस तो मैं घर पर ही भूल आया।’ कभी-कभी ऐसा भी होता।

‘मैं लाया हूँ माचिस।’ वह मुस्करा कर कहता।

फिर दोस्त एक सिगरेट निकलता। उसे परिपक्व सिगरेटबाज की तरह पैकेट पर धीरे-धीरे ठोंकता, फिर आहिस्ते से अपने होंठों में दबाता और दीवार की टेक लगा लेता। वह माचिस जलाता और दोनों हथेलियों से तीली की लौ को बुझने से बचाते हुए दोस्त की सिगरेट को माचिस दिखाता। दोस्त सिगरेट के कश खींचता और धुएँ के छल्ले बनाने की कोशिश करता। दोस्त ने बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी तरह छल्ले बनाना कभी नहीं सीख पाया।

दोस्त दो महीने पहले अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा था। वह चौबीसों घंटे दोस्त के साथ रहता था, सबके मना करने के बावजूद।

जिस दिन दोस्त मरा, उस दिन सुबह से ही वह बहुत मुखर दिख रहा था। उसका बेटा अस्पताल के स्नानागार मे मंजन और स्नान वगैरह कर रहा था और बहू खाना लाने के लिए घर गई थी। दोस्त की हालत वाकई सीरियस थी। डॉक्टरों ने डेडलाइन दे दी थी… बस कुछ घंटे या कुछ दिन। वह उसका हाथ पकड़ कर उसका माथा सहला रहा था कि दोस्त ने आँखें खोलीं।

‘लगता है विदाई का समय आ गया।’ दोस्त एक मुर्दा हँसी हँसा।

‘नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि एक और टेस्ट के बाद ही कुछ…।’ उसने झूठ बोलने की कोशिश की और पकड़ा गया।

‘यार तू तो कम से कम सही बोल।’

‘यार तू तो…।’ उसकी आँखें भर आईं।

‘मुझे जाने का गम नहीं है यार। अधिकतर जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुका हूँ। बस दो गम हैं। एक तो यह कि तेरी तरह छल्ले बनाना नहीं सीख पाया और दूसरा यह कि…।’ दोस्त रुक गया।

‘दूसरा क्या…?’ उसने जोर दिया।

‘दूसरा यह साले कि तुझसे पहले नहीं मरना था। तुझे मार कर मरना था कमीने।’ दोस्त हँस रहा था।

वह भी निराशा के बादलों से थोड़ा बाहर निकल आया।

‘अबे जा साले, चार दिन का मेहमान है तू। मैं अभी कई साल जीने वाला हूँ।’ उसने दोस्त के हाथों को सहलाते, हँसते हुए कहा।

‘देख लेना बुड्ढे, मरने के तीन महीने के अंदर तुझे भी न बुला लिया तो कहना।’ दोनों हँसे और खूब हँसे। सारी बोझिलता हँसी की आँच में कपूर की तरह उड़ गई।

दोनों बूढ़ों की बातें एक नर्स ने सुन ली। इतनी वीभत्स बातें, वह भी एक मृतप्राय मरीज से? वह बूढ़े को अजीब सी नजरों से देखने लगी।

जब वह बाहर चली गई तो दोस्त ने अपने दोनों पोतों को पास बुला कर पैसे देते हुए कहा,

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‘जाओ बेटे, बाहर से जलेबी खा आओ।’

‘दादाजी, मैं जलेबी नहीं खाऊँगा, कॉमिक्स खरीदूँगा।’ बड़ा पोता मचला।

‘ठीक है, ये ले और पैसे, जा।’

दोनों उछलते कूदते बाहर चले गए।

‘यार एक चीज माँगूँ, देगा ?’

‘जान माँग ले।’ बूढ़े ने कहा।

‘एक जला ना।’ दोस्त ने विनती की।

‘साले, पागल हो गया है? इस हालत में सिगरेट तुझे बहुत नुकसान करेगी।’ उसने झिड़कते हुए मना किया।

‘अब क्या फायदा क्या नुकसान…। बस एक आखिरी बार पी लूँ तेरे साथ… फिर पता नहीं…।’

बूढ़े ने दोस्त का मुँह हथेली से बंद करके आगे के शब्दों को रोक दिया। दौड़ कर उस प्राइवेट वार्ड का दरवाजा बंद किया और आकर दोस्त के पास बैठ गया। दोस्त उठने लायक नहीं था, लेकिन खुद से उठकर पलँग के सिरहाने की टेक लेकर बैठा था। बूढ़े ने पैकेट निकाली तो दोस्त ने पैकेट झपट ली और उसमें से एक सिगरेट निकाल ली। फिर धीरे-धीरे पैकेट पर ठोंका और होंठों के बीच दबा लिया। बूढ़े ने भारी मन से माचिस जलाई और हथेलियों के बीच से सिगरेट को लौ दिखाई।

दोस्त धीरे-धीरे कश लेने लगा। बूढ़ा भी दोस्त के शांत चेहरे को देख कर संतुष्ट था। दोनों ने हमेशा की तरह एक ही सिगरेट से बारी-बारी कश लिया।

‘हम कितना कुछ करना चाहते हैं पर नहीं कर पाते। सोचा था रिटायरमेंट के बाद कुछ अपनी मर्जी का करेंगे। हम दोनों ने सारी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दीं, फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में हिल स्टेशन जाकर बसने और भाग-दौड़ से दूर जिंदगी बिताने का सपना तो सपना ही रह गया। कमबख्त जिंदगी ने वक्त ही नहीं दिया। अपने पीछे भगाती रही, भागती रही…।’ दोस्त कश लगाते हुए खो सा गया था।

‘कोई बात नहीं यार, हमारी जिंदगी अब हमारे बाद वाली पीढ़ियाँ ली रही हैं। हमारी निश्चिंतताएँ, हमारे सपने अब उनकी आँखों में हैं।’ बूढ़े ने दोस्त की हथेली दबाते हुए कहा।

‘कहाँ…? अब तो सब कुछ बदल गया है दोस्त। हवा बदल गई है। अपने तरीके से, अपनी शर्तों पर कोई जिंदगी नहीं जी पाता। जिम्मेदारियाँ सारी निभा दीं पर अपने खुद के लिए सोचा कुछ नहीं कर पाया।’

‘हमने कोशिश तो की यार अपने तरीके से जिंदगी जीने की, ये क्या कम बात है?’ बूढ़ा बोला।

‘जिंदगी जीना तो छोड़, मैं तो तेरी तरह छल्ले बनाना भी नहीं सीख पाया।’ दोस्त ने होंठ गोल करके धुआँ छोड़ा।

‘चल कोई बात नहीं, मैं तेरे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। वहीं सिखा दूँगा।’ उसने कहा।

दोस्त के साथ यह उसकी आखिरी सिगरेट थी। उस दिन जब दोस्त ने आँखें मूँदी तो हर मित्र और रिश्तेदार की जबान पर एक ही वाक्य था, ‘आखिर हर जिम्मेदारी निभा गए।’

‘हाँ, सबको पार लगा दिया।’

‘जो-जो करना चाहते थे कर के ही रहे।’

‘नहीं, छल्ले बनाना नहीं सीख पाया। बहुत चाहकर भी नहीं…।’ बूढ़ा बुदबुदाया। लेकिन किसी ने सुना नहीं, खुद बूढ़े के अलावा।

उस दिन से रोज सुबह पार्क में टहलने जानेवाला दशकों पुराना क्रम टूट गया। दो महीनों में आज वह पहली बार आया था। बूढ़े के दोनों बेटे मांट्रियल में, बेटी मुंबई में और बीवी आसमान में थी। कभी-कभी बेटों की ई-मेल, बेटी का फोन और बीवी की याद आकर उसे उदास करने की कोशिश करते लेकिन वह तटस्थ रहने की पूरी कोशिश करता। जीवन का खेल इस अवस्था में काफी कुछ समझ में आ ही जाता है। सब आना-जाना है। बेटे-बेटी खुश रहें, अपनी जिंदगी जियें, ज्यादा लगाव घातक है। कोई कितना भी प्रिय हो, कभी भी छोड़ कर जा सकता है। यही जीवन है।

जब पत्नी की मौत हुई थी तो बूढ़ा दोस्त के पास बैठ कर बहुत रोया था, लेकिन जब दोस्त की मौत हुई तो बिल्कुल नहीं रोया। उसे लगता जैसे दोस्त फिल्म देखने हॉल में गया है। दोस्त हमेशा की तरह पहले पहुँच गया है, वह थोड़ा बाद में पहुँचेगा। इसमें रोना और दुख क्या करना। हाँ, याद आने पर कभी-कभी दिनचर्या सुस्त हो जाती है।

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वह फिर पीछे की तरफ लौट पड़ा-सत्रह साल वाली उम्र में। जहाँ से उसने जीवन जीना शुरू किया था।

‘इतनी देर कहाँ लगा दी। फिल्म शुरू हुए दस मिनट हो चुके हैं।’ दोस्त थोड़ी सी भी देरी पर बहुत नाराज होता था।

‘ढयार आज पापा ऑफिस ही नहीं गए, इसलिए कई बहाने मारने पड़े।’ वह बताता।

पूरी फिल्म के दौरान जब वे दो पैकेट सिगरेट पी जाते तो दोस्त थोड़ा चिंतित दिखाई देता।

‘आजकल सिगरेट बहुत ज्यादा हो जा रही है। कम करनी होगी।’

‘ हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ।’ वह भी दोस्त का समर्थन करता।

फिर किसी दिन दोस्त फैसला सुनाता, ‘मैं एक तारीख से सिगरेट छोड़ रहा हूँ, हमेशा के लिए।’

‘एक से ही क्यों?’ एक बार उसने पूछा था।

‘ताकि सीधा-सीधा हिसाब याद रहे कि सिगरेट छोड़े कितने दिन हुए।’

‘जब हमेशा के लिए छोड़ रहा है तो जानने की क्या जरूरत…?’

फिर दोस्त तीस या इकतीस तारीख को रोज से दुगुनी सिगरेटें पीता और उसे भी पिलाता। इस वजह के साथ कि कल से सिगरेट एकदम से छोड़ देनी है। सिगरेट पीना सिखाने में दोस्त उसका गुरू था लेकिन दोस्त छल्ले नहीं बना पता था और इस मामले में वह दोस्त का गुरु था।

दोनों महीने के अंतिम दिन खूब सिगरेटें पीते और नए महीने की शुरुआत बिना सिगरेट के करते। फिर दोनों तीन से चार और चार से पाँच तारीख तक अपना वादा निभाते। छह-सात तारीख आते ही दोनों एक दूसरे का मुँह देखने लगते कि कोई कुछ कहे। कोई बोलता – कभी वह, कभी दोस्त।

‘कल रात से ही सिर बड़ा दर्द हो रहा है।’

‘हाँ, मुझे भी हल्का सिरदर्द है। कुछ दिनों से पेट भी साफ नहीं हो रहा है।’

‘शायद हमने अचानक छोड़ दी इसीलिए…।’

‘चलो धीरे-धीरे कम करते हुए छोड़ते हैं।’

फिर दोनों धीरे-धीरे कम करने का प्रयास करते। कुछ दिनों तक कम होने का यह क्रम चलता, फिर वही पुराना ढर्रा। मगर अगली तीस या इकतीस को कोई न कोई एक नया प्रण जरूर करता।

‘इस महीने से एक दिन में बस दो सिगरेट।’

‘डन।’

‘डन।’

यह ’डन’ तब तक निभता जब तक वे कोई फिल्म देखने नहीं जाते। जिस दिन हॉल में घुसते, पैकैटें खत्म हो जातीं।

बूढ़े ने अपनी मर्जी से भी सिगरेट छोड़ी, हृदय को स्वस्थ रखने के लिए। जब सीने में दर्द होता और डॉक्टर सिगरेट पीने को मना करता। बूढ़ा एक हफ्ते तक सिगरेट नहीं पीता, फिर जैसे ही दर्द होता, पैकेट हाथ में आ जाती। इस बार, पिछले हफ्ते बूढ़े को डॉक्टर ने चेताया था कि सिगरेट छोड़ दीजिये वरना ज्यादा दिन नहीं जी पाएँगे। बूढ़ा आँखों में मुस्कराया था। एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ी इस बार।

सब कुछ कितनी जल्दी होता चला गया। आज सोचने पर बूढ़े को विश्वास नहीं होता कि सिगरेट शुरू किए पचास-पचपन साल हो गए। कब स्कूल, कॉलेज, नौकरी, शादी, बीवी, बच्चे, रिटायरमेंट एक के बाद एक परिवर्तन आते गए। नए-नए अनुभव मिलते गए। दोस्त हर अनुभव में साथ रहा। सिगरेट भी हर अनुभव में साथ रही। दोस्त अकेला छोड़ गया… एक उदास अनुभव के साथ, एक सिहरन के साथ। सिगरेट ने अकेला नहीं छोड़ा। अब भी साथ है। शायद यह शरीर के साथ ही साथ छोड़ती हो।

उसने सिगरेट का एक लंबा कश लिया और आधी बची सिगरेट झाड़ियों में फेंक दी। अकेले उसे सिगरेट पीने की आदत नहीं। एक सिगरेट एक बार में पूरी नहीं पी पाता, भले ही तुरंत अगली जला लेता है। दो महीने से प्रयास कर रहा है कि अकेला पीना सीख ले पर पचास साल पुरानी आदत दो महीने में कैसे बदले। आधी पीने के बाद आधी, जो कि दोस्त का हिस्सा है, नहीं पी जाती, फेंक देनी पड़ती है।

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पार्क में टहलते लोग बूढ़े को अजीब नजरों से देखते हैं। सुबह की ताजी हवा लेने के बजाय यह बूढ़ा सिगरेट पी रहा है, वह भी श्रृंखलाबद्ध… लगातार। बूढ़ा यादों में खोया चलता रहता है।

कभी-कभी उसे लगता है कि वह बूढ़ा नहीं है – सत्रह साल का लड़का है। दसवीं का छात्र। दोस्त के साथ पार्क में घूमता हुआ। बतियाता हुआ।

‘शादी के बाद अगर तेरी बीवी ने मना किया तो तू सिगरेट छोड़ देगा?’ उसने कश मारते हुए दोस्त से पूछा था।

‘यार पद्मा से मेरी शादी हो जाय बस्स्स्स… वह कहेगी सारी दुनिया छोड़ दूँगा।’

‘ऐसा क्या है उसमें…?’

‘मेरी नजर से देख, क्या होंठ हैं, गुलाब की पंखड़ियाँ, आँखें जैसे नीले मोती और फिगर… परी है परी। आइ लव हर।’ दोस्त खोने लगा था।

‘और पद्मा से तेरी शादी न हो पाई तो…?’

‘तो जिंदगी में कभी शादी नहीं करूँगा और न ही पद्मा को करने दूँगा। आखिर हमने साथ जीने मरने की कसमें खाई हैं।’ दोस्त अटल इरादे से बोला था।

लेकिन दोस्त की शादी पद्मा से नहीं हुई और दसवीं कक्षा का पवित्र प्रेम परवान नहीं चढ़ पाया। दोस्त पद्मा की शादी रोक भी नहीं पाया बल्कि अपने पिताजी के साथ जाकर शादी की दावत भी खा आया। उस रात दोस्त बहुत रोया था। उस रात उसने सिगरेट की अग्नि हाथ में लेकर कभी शादी न करने की कसम खाई थी। लेकिन बाद में दोस्त की शादी भी हुई और प्यारे-प्यारे बच्चे भी हुए।

एक बार बूढ़ा, दोस्त के साथ अपनी बेटी से मिलकर आ रहा था, जो हॉस्टल में रह कर पढ़ती थी, कि दोस्त की परी स्टेशन पर मिल गई। शादी के पंद्रह साल ही बीते थे और दोस्त की पद्मा बिल्कुल पहचान में नहीं आ रही थी। गुलाब की पंखड़ियों के ऊपर हल्के बाल उगे दिख रहे थे और नीले मोती, मोटे फ्रेम के चश्मे में कैद हो गए थे। एक जमाने में दोस्त को पागल कर देने वाला ‘फिगर’ ऊपर से नीचे तक बराबर हो चुका था। उसका पति उससे भी बीस था।

पद्मा से मुलाकात के बाद दोस्त खूब हँसा था। सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए उसने कहा था, ‘यार, वक्त भी कैसा मसखरा है। हर चीज से जाहिर करता है कि मुझसे शक्तिशाली कोई नहीं।’

यादों में खोए-खोए बूढ़े ने सिगरेट जला ली थी और पार्क के गेट तक पहुँचने ही वाला था। उसके बायें हाथ में आज का अखबार था और दाहिने हाथ में सिगरेट झूल रही थी। गेट के पास पहुँचते ही उसका मन हुआ कि वह उन झाड़ियों के पीछे झाँके, जिसके पीछे उसने अपने दोस्त के साथ छल्ले बनाने की शुरुआत की थी।

झाड़ियाँ अब काफी घनी हो गई थीं। उस समय का पौधा अब मोटे तने वाला पेड़ बन चुका था। बूढ़े ने चलते-चलते ही अखबार वाले हाथ से पेड़ पर लटकी लताओं को हटाया और अंदर झाँका।

अंदर कुछ सुरसुराहट थी। सोलह-सत्रह साल के दो लड़के उन झाड़ियों और लताओं के पीछे बैठे सिगरेट पी रहे थे। एक गुरू की तरह आसमान की तरफ मुँह करके छल्ले बना रहा था और दूसरा चेले की तरह ध्यान से देखकर उसका अनुसरण कर रहा था। बूढ़े को देखकर वे घबरा गए। बूढ़ा मुस्करा उठा। उसे अचानक अपने भीतर ढेर सारा उल्लास अनुभव हुआ। आधी सिगरेट खत्म हो गई थी। उसने सिगरेट को मुस्कराते हुए जमीन पर गिराया, पैरों से मसला और गेट की तरफ बढ़ गया।

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