चिड़िया नहीं उड़ी | राघवेंद्र तिवारी
चिड़िया नहीं उड़ी | राघवेंद्र तिवारी
जाने किस उधेड़बुन में वह
बैठी मुड़ी तुड़ी
ठीक उस जगह जिससे अब तक
चिड़िया नहीं उड़ी।
था गंतव्य विरानेपन का
देहरी पर बैठा
जो सारे सिद्धांत धरम में
था सबसे जेठा
जिसके क्षमतावान पक्ष का
मर्म समझने में
कलिंग पोंग से जा पहुँचा सुख
जैसे सिलीगुड़ी।
कैसा अंतर्बोध समझ के
परे विराट लगा
जिसके सपनों का सूनापन
कैसे लगे सगा
बाहर भीतर के प्रमाण
जले आए दुविधा में
जिनके कठिन प्रयास आँकते
प्रतिभा तक निचुड़ी।
घर की सीमाओं तक फैली
एक विकट कटुता
जिसके तारतम्य में बेरौनक
अफसोस पुता
उसे कहाँ तक दुख टटोलती
प्रतिमा विवश कहें
वह तो समर जीतने वाली
विदुषी वीर-कुड़ी।