छोटे शहर की एक दोपहर | केदारनाथ सिंह
छोटे शहर की एक दोपहर | केदारनाथ सिंह

छोटे शहर की एक दोपहर | केदारनाथ सिंह

छोटे शहर की एक दोपहर | केदारनाथ सिंह

हजारों घर, हजारों चेहरों-भरा सुनसान –
बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान

सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप
धूप में रखा हुआ है एक काला सूप

तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ
देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ

शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग

पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय
साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय

पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन
बचा हो साबूत – ऐसा कहाँ है वह – कौन?

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सिर्फ कौआ एक मँडराता हुआ-सा व्यर्थ
समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ

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होंठ | केदारनाथ सिंह

होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…

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