छत की आस | रजनी मोरवाल
छत की आस | रजनी मोरवाल

छत की आस | रजनी मोरवाल – Chhat Kee Aas

छत की आस | रजनी मोरवाल

आज सुबह से ही काले बादल खूब चढ़े थे, बरसात की तैयारी ही समझो। इस बार रुखसाना समय से पहले ही चेत गई थी, उसने बरसात से बहुत पहले ही झोपड़ी को हरे रंग के त्रिपाल से ढक दिया था जिसमें यहाँ-वहाँ रंग-बिरंगी थेगड़ियाँ लगी हुई थीं। कुछ बदरंग वाली थेगड़ियाँ रशीद की पिछली बीवी की देन थी और जो कुछ नई दिख रही थीं वह खुद रुखसाना ने अपने हुनर से सिली थी। रुखसाना को ये थेगड़ियाँ अपने फटेहाल जीवन की बयानबाजी-सी लगती हैं जो वक्त-बेवक्त उसे मुँह चिढ़ाया करती थी। उसे तो कभी-कभी अपने पल्लू से बँधी इस छत की आस भी बेजा ही लगती है, खासकर जब बारिशों में ये छत टपकने लगती है। ऐसी छत का भरोसा भी झूठी आस बाँधने की तकरीर जैसा ही था।

रुखसाना ने बड़ी मशक्कत करके इस त्रिपाल को तान तो दिया था किंतु बरसों पुराना त्रिपाल उसे जरा भी आश्वस्त नहीं कर रहा था। वह जानती है कि पानी और जवानी अगर बहने को आ जाए तो अपना रास्ता ढूँढ़ ही लेते हैं, फिर भी हर व्यक्ति बचाव का प्रयत्न तो करता ही है। इसीलिए तलाकशुदा रुखसाना ने अपने तार-तार जीवन पर अधेड़ रशीद के नाम की एक थेगड़ी सिलने की कोशिश कर ही ली थी। ऐसे में अब यह त्रिपाल अगर बारिश का पानी रोक सका तो उसकी भी हिम्मत बनी रहेगी, फिर शायद वह भी अपनी जवानी इस घर से बाँध कर जीवन को पार कर ही जाएगी। रशीद से तो उसे कोई उम्मीद नहीं थी। तलाक के तीन शब्दों की चोट लिए घूमती औरत के पल्लू में सिर्फ एक छत की आस ही तो बँधी रहती है। इसी उम्मीद के सहारे तो वह रशीद के घर में निकाह करके आ बैठी थी।

जवानी तो रुखसाना की उसी दिन खत्म हो गई थी जिस दिन उसने अधेड़ रशीद से निकाह कर लिया था। पहली बीवी से रशीद को तीन लड़कियाँ थी। आते ही माँ कहलाने वाली रुखसाना उन लड़कियों के प्रति वैसे ही उदासीन थी जैसे आम तौर पर सौतेली माँएँ हुआ करती हैं। वैसे भी रुखसाना को ये लड़कियाँ अपनी बेटियाँ कम और हम उम्र ज्यादा लगती थीं। न तो वे रुखसाना को अम्मी कहती थीं, न रुखसाना ने ही कभी उन्हें बेटियाँ बनाने कोशिश की। उसका रूखापन लड़कियों को दिन-ब-दिन बेजार करता जा रहा था, एक मूक युद्ध सा इस झोंपड़े बनाम घर में हमेशा पसरा रहता था। जिन घरों में तसल्ली नहीं रहती वहाँ बरकत भी पैर नहीं पसारती, सो रशीद कितने ही हाथ-पैर मारे किंतु उस झोंपड़े का पेट था कि कभी भरता ही नहीं था, आए दिन कलह का माहौल शोर मचाता रहता था।

एक रोज जब घर की किच-किच से परेशान बड़की नसीम अपने अब्बा के लिए बीड़ी खरीदने नुक्कड़ वाली दुकान तक निकली तो फिर लौट कर वापिस घर नहीं आई थी। कुछ ऊपरी मन से तो कुछ जमाने के तानों से डरकर ही सही मगर रुखसाना ने नसीम की खोज तो की थी, अब खुदा की रजा थी कि नसीम मिली ही नहीं।

मँझली लड़की आस-पास के बंगलों में घर का काम किया करती थी, पिछले हादसे के बाद उसके लिए रुखसाना ने कुछ अधिक ही सख्त नियम बना दिए थे। न किसी से बात करो और न किसी पर यकीन, सिर झुकाकर आने-जाने की ताकीद के साथ ही अब उसका बाहर निकलना होता था। औरतों की नियति में कुछ नियम खुदा लिख देता है तो कुछ नियम इस जमीन के बंदे, उसे तो सिर्फ उन नियमों पर अमल करना होता है ऐसे में जब कभी ये नियम टूटते हैं तो हर्जाना औरतों को ही उठाना पड़ता है, नतीजा वही हुआ जिसका डर था। मँझली एक रोज काम पर जाने के लिए निकली तो थी परंतु वापिस घर लौटकर नहीं आई।

पहले की ही तरह इस बार भी कुछ दिनों तक मौहल्ले में खोजबीन और कानाफूसी होती रही थी। आखिरकार लोगों ने अपने-अपने अंदाजों को मनचाही परवाज दे दी कि रशीद की दोनों लड़कियाँ अपने-अपने आशिकों के साथ भाग गईं होंगी। रशीद को अपने रिक्शे की दिहाड़ी से फुर्सत मिलती तो ढंग से कुछ शोक मना पाता। भूखा पेट इनसान को कितना खुदगर्ज बना देता है, रिश्ते भी पेट के आगे रोटियों की शक्ल लेने लगते हैं। रशीद का मानना था कि ये प्यार, वफा और समझदारी की बातें तभी हो पाती है जब इनसान अपना पेट भरकर डकार लेने की औकात में हो वर्ना सब बातें बकवास होती हैं।

दोनों लड़कियों के गायब होने से रुखसाना का अनचाहा भार तो कुछ कम हुआ था परंतु अपने पैर भारी होने की भनक उसे लग चुकी थी। रशीद अब दिन में रिक्शा चलाता था और रात को हमाली करने लगा था, सामने आती जिम्मेदारियों का बोझ उसे रेलवे स्टेशन तक खींचकर ले गया था। अब दिन-रात की मेहनत से थका-माँदा रशीद आधा-पहुआ लगा कर पुल के नीचे ही लुढ़क जाया करता था, रात में उसके घर लौटने का कोई और कारण भी तो नहीं बचा था। थके-हारे रशीद के लिए रुखसाना गहरी नींद लाने का बहाना भर ही तो थी। पेट वाली औरत अब उसके किस काम की? रुखसाना की गालियाँ खाने की बजाय शराब पीकर पुल के नीचे पड़े रहना उसे कहीं ज्यादा उचित लगने लगा था।

बात-बेबात चीखती रुखसाना के इस बुरे वक्त में तीमारदारी के लिए सौतन की तीसरी बेटी ही बची थी। डूबते को तिनके की दरकार होती है, यह बात अलग है कि जान बच जाए तो इनसान इस खामोख्याली से पलट भी जाता है। परंतु फिलहाल तो रुखसाना का एकमात्र सहारा अब यही लड़की थी, अब यह सौतेली बेटी उसे भली न भी लगे पर पहले की तरह आँखों में चुभती भी न थी। खुदगर्जी ने उसके व्यवहार को कुछ हद तक नरम कर दिया था, चाहे ये वक्ती प्यार ही क्यों न था।

रशीद का मन कभी भी यह मानने को तैयार न होता था कि उसकी दोनों लड़कियाँ किसी के साथ भाग गई होंगी। तो क्या उन्हें जमीन लील गई? या आसमान निगल गया? रशीद की लड़कियों के पीछे-पीछे गाँव की कुछ और लड़कियाँ भी गायब होती चली गईं थीं। गाँव वाले अब तक यह मानने लगे थे कि शहरों से आती प्रदूषित हवाएँ अब गाँवों और कस्बों को भी अपनी चपेट में लेने लगी हैं।

कल ही शहर से लौटा एक युवक रशीद को बता रहा था कि शहरों में कई गैंग चलते हैं जो गाँवों से लड़कियाँ उठा कर शहरों में बेच देते हैं। ऐसे में बड़की और मँझली के लिए रशीद के दिल में एक हूक-सी उठती है। बड़की तो हुबहू अपनी अम्मी जैसी थी बिलकुल आज्ञाकारी व नकाब में रहने वाली और मँझली तो पूरे पाँच बार नमाज पढ़ती थी। रशीद का मन बुक्का फाड़ कर रोने को करता है मरकर क्या मुँह दिखाएगा उनकी अम्मी को? कई बार सपने में उसकी पहली बीवी आती है और उससे सवाल-जवाब करती है। रशीद को विश्वास हो चला था कि जन्नत के दरवाजे तो अब उसके लिए बंद हो चुके हैं।

इस दुख के बीच बस एक छोटी-सी आस बँधी थी तो बस रुखसाना से। रुखसाना उस रोज सुबह से ही जचगी के दर्द में छटपटा रही थी। खुदा अपने बंदों को दुख देकर परखता रहता है मगर आज रुखसाना का यह दर्द उन दोनों के खुशनुमा जीवन का आगाज करने वाला था। उधर दाई ने ज्यों ही बच्चे को पैर से पकड़कर रुखसाना के पेट से जब खींचा खून के फव्वारे के साथ ही कोई थैली जैसी चीज भी पच्च से बाहर आ पड़ी थी। रुखसाना को यूँ लगा था जैसे दर्द की चलती सभी सलाइयाँ उसके शरीर में एकाएक थम गई थी। बच्चा जनने के तुरंत बाद वह ऐसी गहरी नींद सोई कि जैसे अब तलक की जिंदगी उसने जागकर ही काटी थी। रुखसाना को इस तरह बेसुध सोता हुआ देखकर दाई कहने लगी थी …औरतों की किस्मत में ऐसी चैन की नींद खुदा ने सिर्फ दो ही बार लिखी है, एक तो बच्चा जनने के तुरंत बाद और एक अपनी मौत के बाद, वैसे बच्चा जनना भी हर माँ के लिए अपनी मौत से गुजरने जैसा ही है। ऊपरवाला माँ के पेट से एक औलाद निकालता है तो माँ को भी अपनी जान उसके दरबार में पूरे नौ महीने तक गिरवी रखनी पड़ती है। ऐसे में उस रोज रुखसाना अपनी गिरवी रखी जान छुडा लाई थी और साथ ही खुदा ने उसे बेटे की नेमत से बक्शा था।

लड़के के जन्मते ही रशीद फूट-फूटकर रो पड़ा था। उसके आँसुओं में पहली बीवी को खोने का गम था? या दोनों लड़कियों से बिछुड़ने की कसक? अभी तो उसके समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। हाँ, मगर किसी अनजाने सुख की पदचाप उसे सुनाई जरूर दे गई थी, सुनहरे भविष्य की ओर रुख करते उसके कुछ ख्वाब अंगड़ाइयाँ जरूर लेने लगे थे।

इन दिनों घर में जचगी की गंध क्या फैली कि रशीद को हर तरफ से ही गंध की शिकायत होने लगी थी। बरसात के दिनों में यहाँ गंध कुछ ज्यादा ही सताती है। रशीद खीज जाता है “अब आस-पास कौन से बागीचे उगे हैं, जो फूल महकेंगे?” नेताओं को तो इस मोहल्ले की याद सिर्फ चुनाव के वक्त ही आती है। रुखसाना कहती है “इन नालियों में से तो गंध ही आएगी, ऊपर से हमारा मोहल्ला, शाम पड़े किसी की रसोई में मटन तो किसी की रसोई में मुर्गा पकने लगता है”

रशीद चिढ़कर कहता है…

“तेरी तो जुबान चटकारे मारती है कमबख्त”

“हम गरीबों को दाल-रोटी भी नसीब हो जाए तो खुदा का शुक्र मना… बीवी”

“मटन-मुर्गा हमारी किस्मत में कहाँ?”

कहते हैं बाँझ के आगे दस बेटियों वाली भी घमंड करती है, यहाँ तो रुखसाना ने बेटा जना था, उसे तो रशीद के सिर चढ़ना ही था। जापे के बाद से ही उसने अपनी तमाम जिम्मेदारियाँ सौतेली बेटी के मत्थे डाल दी थी, जिसे अब अपने भाई के साथ-साथ घर के अन्य काम भी सँभालने पड़ते थे। पहले से ही दुखी रशीद ने औरतों के पचड़े में न पड़ना ही बेहतर समझा था। वह अब हर शाम जल्दी घर आने लगा था। खाली वक्त में वह झोंपड़े के बाहर बैठकर बेटे के साथ खेलता रहता था।

रशीद ने रुखसाना को बताया था कि कई दिनों से अखबारों में खबर गर्म हैं, इस शहर से कुल जमा बत्तीस बच्चे गायब हैं, जिनमें हर उम्र और मजहब के लड़के-लड़कियाँ हैं। पूछताछ के लिए पुलिस उस नुक्कड़ वाली कोठी के चौकीदार को ले गई हैं, शक के तार उस नुक्कड़ वाली कोठी नंबर डी-पाँच से जुड़ रहे थे। हर गुमशुदा बच्चा अंतिम बार उसी कोठी के आस-पास ही देखा गया था।

रशीद को अपनी बेटियों के वापस मिलने की एक महीन-सी उम्मीद बँधने लगी थी, उसकी बेटियाँ भी तो उसी नुक्कड़ तक जाकर गुम हो गई थीं। वह ताना देती रुखसाना को विश्वास दिलाना चाहता था कि उसकी लड़कियाँ किसी के साथ भाग नहीं सकती, जरूर उन्हें कोई धोखे से उठा ले गया होगा। मगर रुखसाना कहती है… “अब ऐसी लड़कियों को भूल जाना ही बेहतर है, ईमान खो चुकी लड़कियों का कोई घर नहीं होता, अगर मिल भी गईं तो उन्हें कौन आसरा देगा?”

सारा शहर तरह-तरह की बातों से तरबतर हो रहा था। रशीद को याद आता है कितने कुत्ते भोंकते थे यहाँ रात भर, लगता था जैसे अँधेरा होते ही शहर के सारे कुत्ते उस गंदे नाले के पास इकट्ठा होने लगते थे। उन दिनों वह बड़ी कोठी वाला चौकीदार थैलियाँ भर-भरकर खाना जो डालता था, सारी-सारी रात कुत्ते थैलियाँ फफेड़ते रहते थे। उस रोज रशीद के दरवाजे पर भी एक कुत्ता बोटियाँ नोंच रहा था। रुखसाना ने चप्पल खींचकर मारी तो किउं…किउं… करता हुआ भाग गया था। रशीद चिढ़ता रहता है… “आखिर इन बड़े घरों में इतना खाना बनता ही क्यों है? जो फेंकना पड़े, मजदूरों के घरों में तो कभी-कभी चूल्हे तक भी नहीं सुलगते, फाका करते लोगों से जाकर कोई पूछे इस एक-एक दाने की कीमत।”

मौलवी साहब बता रहे थे कि दो किलोमीटर दूर जो नई कॉलोनियाँ बन रही हैं, वहाँ काम करने वाले बिहारी मजदूर फसल की कटाई पर हर साल रोजी के जुगाड़ में यहाँ आते हैं। बीती रात उनके टोलों में से भी आठ-नौ वर्ष की दो लड़कियाँ भी गायब हो गई थी। पुलिस छानबीन कर रही है। मौलवी साहब की बातों से रशीद को पसीना आने लगता है। रशीद और रुखसाना की रातें अब अपने बच्चों की निगरानी में जागते हुए कटने लगी है। दूध का जला छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीता है फिर रशीद तो पहले से ही भुग्तभोगी था।

इन दिनों रुखसाना को जब-तब यही दुख सालता रहता था कि वह सिर्फ एक ही बच्चा कर पाई थी। उसकी कपड़ों का तो लाल रंग अभी भी सुर्ख था, मगर रशीद की उठा-पठक कब की थम चुकी थी। एक तो रशीद पहले ही से अधेड़ था उस पर गरीबी व दुखों की मार ने उसे और भी ज्यादा बुढ़ा बना दिया था। रुखसाना उस फटे-टूटे त्रिपाल को तो अपनी उम्मीदों पर खरा उतारने की जुगत कर सकती थी, किंतु अंगों का विकसना या ढलना किसी के हालात की फरमाइश पर तो नहीं होता। दमे की खाँसी रशीद पर जब-तब हावी होने लगी थी। शराब उसे भरी जवानी में ही खोखला कर गई थी, फिलवक्त में तो बीमारी के पुराने लक्षण ही मुँह उठा रहे थे। कर्जे की मार से उसका रिक्शा छूट गया तो पेट भरने की एवज में उसने मस्जिद का छोटा-मोटा काम सँभाल लिया था। रशीद की दलील है कि इनसान के बुरे वक्त में खुदा ही उसकी मदद करता है। इज्जत के तकाजे तब तक ही दिए जा सकते हैं जब तक शरीर में जान हो। पकी उम्र में वैसे ही सब कुछ भावनाशून्य होने लगता है, पूरी देह में एक पेट ही रह जाता है जो अंत तक इनसान के साथ रहता है और मरते दम तक उसका साथ निभाता है। चाहे सारे रिश्ते छूट जाएँ पर भूख कभी भी साथ नहीं छोड़ती है।

उधर पुलिस ने चौकीदार के हलक में जाने क्या डाला था कि उल्टियों के साथ वह कई बड़े-बड़े राज भी उगल गया था। कुछ दिनों से कोठी के पीछे वाले नाले में खुदाई का काम चल रहा था, अब तो यह मोहल्ला दुर्गंध से और भी ज्यादा सड़ने लगा था। नाले में से प्लास्टिक की थेलियाँ भर-भर के हड्डियाँ निकल रही थी। इनमें से कई थेलियाँ तो ठीक वैसी ही थी जैसी रशीद और रुखसाना ने कई मर्तबा गली के कुत्तों को फफेड़ते हुए देखा था।

देश भर के अखबारों और टी.वी. चैनलों में यही खबर सुर्खियों बना रही थी कि वहशी चौकीदार बच्चों से पहले बलात्कार करता था, फिर कत्ल करके उनको पका कर खा जाता था, खाने के बाद बची-खुची हड्डियाँ वह कोठी के पीछे बंद पड़े गंदे नाले में फेंक दिया करता था। या खुदाया… रशीद का सिर चकरा रहा था, सब कुछ उसकी समझ से परे था।

एक रोज थानेदार ने रशीद को पूछताछ के लिए बुलाया था। रशीद की ही तरह कई और भी माँ-बाप वहाँ इकट्ठा थे। सबके आँसुओं में एक जैसा ही गम टपक रहा था, धर्म और मजहब से परे सभी एक सी तकलीफ से गुजर रहे थे। उस दिन जुम्मा था, रशीद चुपचाप वहाँ से उठकर मस्जिद की ओर चल पड़ा। बेटियों के गम से बेजार रशीद रोते-रोते सोच रहा था कि वह जीवन भर रुखसाना और जमाने भर के ताने सह लेता काश… उसकी बेटियाँ किसी के साथ भाग ही जाती।

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