चींटियों की आवाज | हरीचरन प्रकाश
चींटियों की आवाज | हरीचरन प्रकाश

चींटियों की आवाज | हरीचरन प्रकाश – Cheentiyon Ki Aavaaj

चींटियों की आवाज | हरीचरन प्रकाश

वह स्त्री और पुरुष पास-पास बैठे हुए थे। एक-दूसरे से हिलगे हुए नहीं, बल्कि यूँ ही पास-पास। उनके चेहरों पर कोई उत्कंठा या आवेग नहीं था। जैसे लौकी और कद्दू अगल-बगल रखे हुए हों, वह ऐसे ही रखे हुए थे। वह आजीवन और निर्जीव दांपत्य की युगलमूर्तियाँ।

तब उसने चिढ़कर कहा, ‘उठो और अब से बुर्का पहनकर आया करो।’

बीवी कुछ देर चुप रही। वह इस हिदायत से हतप्रभ थी। भला अपनी ही चहारदीवारी में पर्दा। फिर जैसे बहुत कुछ कहा और किया याद करके बोली, ‘फातिमा कह रही थी कि अब्बू किसी डॉक्टर को क्यों नही दिखाते।’

फातिमा, उनकी बेटी साइकालोजी में एम.ए. कर रही थी और बाप को मनोरोग की दिशा में उद्धत एक आदमी समझती थी।

उसी चिढ़ में आदमी ने कहा, ‘फातिमा से कह दो कि आदमी या तो खुदा को राजी कर सकता है या दुनिया को।’

इस पर औरत चौंकी। यह दरवेशपना कहाँ से आ गया? बगीचे के अँधेरे पेड़-पौधे उनके हिलने से हिले।

वाकई में उस आदमी में दरवेशों जैसी कोई चीज तो नहीं थी। बस बीच-बीच में वह मजहब की दवा पिया करता जिससे कोई बीमारी पैदा होती, तो कोई ठीक हो जाती। दरअसल वह एक ऐसा सरकारी कारकुन था जो घूस नहीं लेता था लेकिन सहकर्मी बुरा न मानें इसलिए वह अतिरिक्त रूप से अल्ला-अल्ला करने लगता था।

इस आदमी का नाम शुजात अली तल्हा था और वह सरकार के पिटीशन विभाग में अनुभाग अधिकारी था। अनुभाग अधिकारी यानी बाबुओं और अफसरों के बीच की एक गाँठ जिस पर दोनों तरफ से दबाव रहता था। यह गाँठ ढीली पड़ते ही सरकार का पजामा ढीला हो सकता था। उसने सामने रखा हुआ कागज उठाया और उसे देखकर अपनी आँखें पोंछी। ऐसे दो-चार कागज उसे रोज मिलते थे जो धुएँ की तरह उसकी आँख में घुसते थे। वह आँख पोछता हुआ उन्हें किनारे रख देता था। इन्हें वह डीलिंग असिस्टेंट को मार्क तो करेगा, पर व्यक्तिगत रूप से बुलाकर उसे कागज सौंपेगा। अभी तो धुआँ ही उठा रहा था, पर पता नहीं कब किस दुर्घटनावश इनसे आग पैदा हो जाए और वह झुलसकर रह जाए। हालाँकि इस दुर्घटना की संभावना बहुत कम थी और उसका डर लगभग बेवजह था परंतु यह लगभग का डर उसकी चेतना पर प्रेत की तरह छाया रहता है।

उसका काम था कागजों को उनके महत्व के हिसाब से सरकाना। उसके विभाग में सबसे महत्वपूर्ण कागज आत्महत्या के माने जाते थे। सरकार इस मामले में बहुत संवेदनशील थी, लिहाजा तरह-तरह के कागज प्राप्त होते थे। आत्महत्या की घोषणा, आत्महत्या की चुनौती, यहाँ तक कि आत्महत्या की याचना भी। सरकार की नीति यह थी कि किसी भी आदमी को आत्महत्या का अवसर नहीं मिलना चाहिए, खासकर गरीबी और भुखमरी के कारण। वह चाहे तो इस वजह से तिल-तिल करके मर सकता है, पर आत्महत्या नहीं कर सकता।

फिलहाल जो कागज सामने था उसके रचयिता प्रबोध कुमार गुप्ता, आयु 26 वर्ष थी। उनके स्वर्गीय पितामह राम उजागिर का दावा था कि वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं लिहाजा पेंशन और अन्य सुविधाओं के हकदार हैं। उनका दावा माना नहीं गया। राम उजागिर के बेटे यह लड़ाई लड़ते-लड़ते हार गए। चूँकि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के आश्रितों का सरकारी भर्ती में कोटा था इसलिए प्रबोध कुमार गुप्ता ने यह लड़ाई अपने हाथ में ले ली और राष्ट्रपति से लेकर जिलाधिकारी तक को नोटिस दे दी कि माँग मानी जाए, नहीं तो वह आत्महत्या कर लेंगे। शुजात तल्हा ने गृह-विभाग और जिलाधिकारी को नियमानुसार आवश्यक कार्यवाही हेतु चिट्ठी भिजवा कर चैन की साँस ली हालाँकि यह बेहया क्या मरेगा जिसकी तीन पुश्तें एक ही माँग करते-करते बीत गईं। फ्राड हैं सब, साले फर्जी सर्टीफिकेट बनवाना चाह रहे हैं। हालाँकि फर्जी सर्टीफिकेट तो अनेक सेनानियों के हैं लेकिन हर कागज की एक किस्मत होती है।

शुजात तल्हा ने अपनी मुट्ठी भर दाढ़ी मुट्ठी में भरी और आश्वस्त हुए कि यह एक पूरी तरह से मुसलमानी दाढ़ी है। एक मौलाना की तकरीर में उन्होंने सुना था कि चौदह सौ साल पहले यहूदी, ईसाई और मुसलमान सब एक जैसी दाढ़ियाँ रखते थे इसलिए पहचान के लिए हुक्म हुआ कि मुसलमान को एकमुश्त दाढ़ी रखनी चाहिए। उस समय तक शुजात तल्हा क्लीनशेव हुआ करते थे और उसी समय उनका मजहब, जो उनकी रगों में था, बाहर आना शुरू हुआ था। अब वह अल्ला-अल्ला से मुल्ला-मुल्ला करने लगे थे।

इस समय उनके कान शिव-महिमा से पक रहे थे। बगल की मेज पर शंकर जी की तुरत-फुरत वरदानशीलता के किस्से चल रहे थे और कैसे पार्वती जी उन्हें इसके लिए फटकारती रहती थीं। वाह रे कुफ्र! ईश्वर न हुआ कोई जादूगर रिश्तेदार हो गया। शंकर चचा, पार्वती चची। सब शैतानी कारनामे। एक अकेले ईश्वर से विरत करने के लिए इतने देवी-देवता, जो इनकी वाहियात ख्वाहिशें पूरी करके इन्हें भरमाते रहते हैं।

भला हो कि नमाज का वक्त हो चुका था। वह उठे, जेब में रखी टोपी को छुआ और फिर हाथ बाहर कर लिया। इस तरह से शुजात तल्हा की सांप्रदायिक पीड़ा का एक दिन कट जाएगा। आज वह समय से उठ जाएँगे। आज उन्हें नई चूहेदानी लेते हुए घर जाना था।

इस पुराने शहर की पुरानी गलियों में उनका घर था। मकान बड़ा था और घर छोटा। उनके बाबा हकीम थे और बनवाया हुआ बड़ा-सा मकान उनके बुढ़ापे में हकीम साहब की हवेली कहलाने लगा था। तीन पीढ़ियों से घटते-बढ़ते यह हवेली एक विचित्र-सी इमारत हो गई थी। कुछ लोग बाहर चले गए फिर भी काफी लोग यहीं रह गए। किसी ने एक मंजिल बढ़ाकर कमरा बना लिया तो किसी ने बरामदा छेक लिया, जिसके कारण हवेली किसी अनियोजित अपार्टमेंट ब्लाक जैसी हो गई थी। यहाँ कई दिशाओं से कुकर की सीटी की आवाज आती थी। बस एक चीज नहीं बदली थी वह थी मुख्य दरवाजे को पार करते ही एकदम से खुलता हुआ हरियाला सहन। मुख्य दरवाजे की तरह यह सबके साझे में था लेकिन इसे जतन से पालते थे शुजात तल्हा। जगह की तंगी की वजह से जब भी किसी ने इस पर कोई कमरा-कोठरी बनवानी चाही तो शुजात तन कर खड़े हो गए। अब सबको इस मामले में उनका तन कर खड़ा होना अच्छा लगता था।

शुजात देर तक दफ्तर में बैठते थे। वह इंतजार करते थे कि हाल से उनके बाकी सहकर्मी दफा हो जाएँ। फिर वह अकेले होते थे और उन्हें पहली स्वतंत्र साँस आती थी। फर्राश पहले झाँकता था, फिर टोकता था। कभी-कभी देर तक बैठने की गरज से वह फर्राश से कहते, ‘और भाई कुछ अपना सुख-दुख कहो’। फर्राश मुँहजोर था। कह देता, ‘क्या कहें, आपका सुख-दुख अलग, हमारा अलग’। या कभी कहता ‘साहब फालतू में आप बैठे हैं। दुख ही दुख है।’ उसकी बात का बुरा न मानते हुए भी शुजात कराहते हुए-से उठ खड़े होते।

उन्हें घर पहुँचने के लिए गंदी और गंधाती हुई गलियों से गुजरना पड़ता। उन्हें इस बात पर ताज्जुब होता था कि उनके सामने पैदा हुए और उनकी गंध से सुपरिचित कुत्ते इधर कुछ सालों से उन्हें देखते ही भौंकने लगे थे। ऐसे में वह चाहते थे कि कुत्ते उनकी दृष्टि के आघात से ही चुप हो जाएँ और उनकी आत्मिक श्रेष्ठता पहचानें। बाकी दुनिया खैर कितना और क्या पहचानेगी! वह इतने सीधे थे कि उनकी ईमानदारी की शोहरत भी आम चर्चा का विषय न बन पाई।

बहरहाल, आड़े-तिरछे होते हुए जब वह बागनुमा सहन में पहुँचते तो उन्हें हमेशा एक नई खुशबू का अहसास होता। वह इस बाग में फूलों को बेमौसम भी सूँघ लेते थे। रात की रानी का मौसम जब खत्म हो जाता तो बहुत दिन तक वह उसकी सुगंध की छाया महसूस करते रहते। फिर एक हाथ कमर पर रखकर वह घर की सीढ़ियाँ चढ़ते। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि ढेर-सा अँधेरा हो जाने पर इस बगीचे के सन्नाटे में गुम होने के लिए वह बीवी को लेकर पत्थर की खुरदरी बेंच पर बैठ जाते थे। इसी समय वह रूटीन को पराजित करते थे।

आज वह खीझ रहे थे क्योंकि चूहेदानी तो उनके दोनों बेटों में से कोई भी खरीद सकता था। उनके दो बेटे और दो बेटियाँ थीं। यह उनके दाढ़ीयुग से पहले ही पैदा हो चुके थे। चार बच्चों के बाद उन्होंने अपनी नसबंदी करवानी चाही, पर बीवी ने पहल करते हुए अपनी करवा ली। उसे मियाँ की कमर का कमजोर होना पसंद नहीं था। यही बीवी अब सोचती थी कि उसके बेटों को और बहुत से जरूरी काम रहते थे इसलिए चूहेदानी खरीदने के लिए मियाँ को ही जाना चाहिए।

मुख्य द्वार अभी खुला हुआ था। इसे दस बजे रात बंद किया जाता था। इस पर छह घंटियाँ लगी थीं। जिस घर का प्राणी देर से आता था, वह अपनी ही घंटी बजा सकता था। चूँकि तब दरवाजा खोलने की जिम्मेदारी उसके घर की होती थी।

सबेरे उनकी नींद बीवी की चीख से खुली। वह बावर्चीखाने से चिल्ला रही थी, ‘देखो, मुआ चूहा रोटी खाकर भाग गया, फँसा भी नहीं। आखिर परवरिश कहाँ पा रहा है?’

यह अंतिम वाक्य उसने धीरे से कहा क्योंकि वह खानदानी पड़ोसी की शान में था। मियाँ ने आकर चूहेदानी का मुआयना किया और कहा, ‘तीन चौथाई ही खा पाया।’

उनके इस पर्यवेक्षकीय योगदान पर बड़ा लड़का हँसने लगा। उसने कहा, ‘जब तक हकीम साहब का कबाड़ नहीं साफ होता है तब तक चूहे इस घर से नहीं जाएँगे।’

हवेली में एक कमरा हकीम साहब के नाम वक्फ था। उसमें पुरानी किताबें नुस्खे, शीशियों और पता नहीं क्या अल्लम-गल्लम भरा था। दरअसल चूहों का बसेरा खानदानी पड़ोसी के यहाँ नहीं वरन इसी कमरे में था। हकीम साहब के बाद किसी ने हिकमत नहीं की। कोई वकालत करने लगा तो कोई नौकरी। इस कमरे की एक ही चाभी थी जो ताले में ही टँगी रहती थी, जो चाहे इस्तेमाल करें। जाहिर है कि इसका बँटवारा नहीं हुआ था पर इसमें गाहे-बगाहे साफ-सफाई शुजात ही कराते थे। दाढ़ी बढ़ाने के बाद वह इस कमरे के और भी मुरीद हो गए थे। वह इसमें से पुरानी हिदायतें खोज कर पढ़ते।

ऐसी ही एक हिदायत में कुरआनी पेड़-पौधों और उनकी तासीर का जिक्र था। कहा गया कि यूँ तो सारे पेड़-पौधे ईश्वर के बनाए हुए हैं, पर जिन पेड़ों का नाम कुरआन में आया है उन्हें पृथ्वी पर पाए जाने वाले दूसरे पेड़ों पर विशिष्टता प्राप्त है। इन पेड़ों में खजूर, जैतून, अंगूर, अनार, सिदरह (बेरी), शजरे मिस्वाक (पीलू), मेहँदी और अंजीर थे। इसको लेकर हजरत मुहम्मद के कथन भी उद्धृत किए गए थे। जैसे कहा गया कि हजरत के पास कहीं से अंजीर का भरा हुआ थाल आया, उसे देखकर आपने फरमाया कि अगर कोई कहे कि कोई फल जन्नत से जमीन पर आ सकता है तो मैं कहूँगा यही वह है क्योंकि अंजीर बिलाशुबह जन्नत का मेवा है।

शुजात इन कुरआनी पेड़-पौधों की फसल का इंतजार करते, खुद खाते और परिवार को खिलाते। बेटा अंजीर खाते हुए मुँह बनाता तो उसे डाँटते कि अपनी जड़ों के साथ रहना सीखो। तो इसी बेटे ने एक दिन कहा था कि अब्बू अल्ला-अल्ला करते करते मुल्ला-मुल्ला करने लगे हैं।

दफ्तर में लंच टाइम के बाद शुजात तल्हा को एक किसान का प्रार्थना पत्र मिला। यह किसान उन संगठित किसानों में से नहीं था जो समृद्धि के लिए नीति बनवाने का दबाव बनाते हैं। यह दो जून की रोटी के लिए तरस रहा किसान था। इस किसान के पास जमीन इतनी ही थी जितने में वह अधनंगा और अधभूखा रह सके। शेष की जुगत वह मजदूरी से करता था। यह किसान मुसलमान था और इस सिलसिले से अल्लाह का बंदा भी था। वह कर्मठ था और तदबीर से तकदीर की लड़ाई लड़ना चाहता था। वह हफ्ते-हफ्ते नाई से दाढ़ी बनवाता था और जब मौलवियों की तकरीर सुनता था तो हैरतजदा हो जाता था कि वह किस कदर कम मुसलमान है। वह था भी कम मुसलमान क्योंकि उसके पूर्वज सेवकाई करने वाली एक हिंदू जाति से मुसलमान हुए थे। नौकरियों के लिए किए आरक्षण के नोटीफिकेशन के मुताबिक वह धुनिया जाति का था। इस तरह पुराने और नए दोनों हिसाब से वह एक पिछड़ी जाति का मुसलमान था।

वह देख रहा था कि सिर्फ खेती और मजदूरी से वह जिस तरह की गुजर-बसर का आदी था, वह उसे दिन-ब-दिन पस्त किए जा रही थी। धुनियागिरी जो उसका पुश्तैनी पेशा था और थोड़ी-सी खेती के मिले-जुले उद्यम से पिछड़ी पीढ़ियाँ जिस प्रकार जिस्म और जान को किसी तरह जोड़े रखती थीं अब वह संभव नहीं था। चाय चाहिए और चीनी भी। नहाने और धोने दोनों का काम देने वाला साबुन चाहिए। उसके बच्चे कहीं जाते समय नंगे पैर नहीं रहना चाहते थे। उसकी बीवी मुहावरों में बात करने लगी थी कि कथरी-गुदरी के भी लाले पड़े हुए हैं। वह सब कुछ सुनता और सहता रहता था लेकिन जब दो जून की रोटी मुश्किल होने लगी तो उसे लगा कि अब दूसरी जमीन तोड़नी पड़ेगी।

यह दूसरी जमीन सरकारी नौकरी थी जिसका सपना उसका बी.ए. पास लड़का देखता था। यह सपना चपरासी की नौकरी का था जो उस वर्गभूमि में बहुत लोकप्रिय था। एक अतिरिक्त आय जिससे खाद, बीज, सिंचाई और कपड़ा-लत्ता की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। यह सपना ही उनका कपड़ा था जिसे वह उतारते और पहनते रहते थे। इसी समय नई सरकार ने ढेर सारी नौकरियों के विज्ञापन दिए।

चूँकि इसी समय से किसान और उसका बेटा अभिलेखग्रस्त होने वाले थे इसलिए उनका नाम लिखना जरूरी है। बाप का नाम फुरकान अहमद उर्फ जिग्गन और बेटे का नाम आफताब अहमद है जिसमें उसने मंसूरी और जोड़ लिया है।

आफताब अहमद मंसूरी कुछ दिनों से किसी जुगाड़ के जरिए नौकरी पाने की तलाश में था। दरअसल जुगाड़ जिंदगी का अनिवार्य अंश था चाहे सस्ते गल्ले की दुकान से शक्कर लेने की क्यों न हो। जिस कॉलेज से उसने बी.ए. की डिग्री ली थी, वह भी एक जुगाड़-केंद्र था। न ढंग से पढ़ाई होती थी और न स्थायी रूप से कोई अध्यापक रखा जाता था। बस छात्र-हित में नकल करवा कर डिग्री बाँट दी जाती थी। लेकिन नौकरी का मामला बेढब था। सूची विभागीय मंत्री के यहाँ से आती थी जहाँ दो ही योग्यताएँ थीं – या तो खास रिश्तेदारी हो या पैसा हो। अब समस्या यह थी कि पैसा सही हाथों में कैसे पहुँचे क्योंकि उसका कोई विज्ञापन तो दिया नहीं जा सकता था। ऐसे में दलालों की पौ बारह थी क्योंकि वह सही हाथों में पैसा पहुँचाने का दावा करते थे।

जिग्गन के पास पैसा नहीं था इसलिए वह पैसे वालों के इस कष्ट पर हँसता था। कहीं भी किसी भी कोने में रिश्वत को लेकर कोई आश्चर्य नहीं था, खिन्नता केवल इस बात को लेकर थी कि अब अफसर भी इस खेल में शामिल थे। लोग इसे स्वतंत्र भारत के जीवन-मूल्यों से जोड़ते थे। बड़े अफसरों द्वारा रिश्वत न लेना एक अंग्रेजी परंपरा थी जो व्यवस्था के देसीकरण में ध्वस्त हो चुकी थी। यह अफसर लोग अपने लिए सब कुछ करने के साथ समाज के लिए भी उसी पैसे से कुछ करते थे। वह धार्मिक स्थलों के लिए चंदा देते थे। हर मठिया, मंदिर हो रही थी, हर कब्र, मजार बन रही थी।

ऐसे में आफताब के मन में इसी तरीके से नौकरी पाने की इच्छा हुई और वह बाप को कोंचने लगा। उसने माँग की कि जमीन बेचकर पैसा खड़ा किया जाए क्योंकि उसे शर्तिया जुगाड़ मिल गया है। जिग्गन को गुस्सा आया। उसने डाँटा ‘हम तुम्हारे पीछे अपने बच्चों को भाड़ में नहीं झोंक सकते। जमीन की बात दुबारा न करना।’

लड़का लगा रहा। वह कमीशन एजेंटो की तरह अपने ही परिवार को अपनी योजना बेचने लगा। सोचों तो एक बार नौकरी लगने के बाद कितना दुख-दरिद्दर दूर हो जाएगा।

‘हमारी जुआ खेलने की औकात नहीं है’ जिग्गन ने उँकड़ू बैठकर जवाब दिया।

बेटा किसी योद्धा की तरह तन कर खड़ा था। उसने पलटवार किया ‘तो तुम्हारी क्या औकात है?’

इस बात का क्या जवाब बाप के पास होता। वह तो हमेशा अपनी औकात से जूझता रहता था। बाप-दादा धुनिए थे, अब वह भी पहचान न रही। चुनाव में वह एक मुसलमान की तरह वोट देता था क्योंकि कहीं न कहीं तो उसे जुड़ना ही था। जो लोग मुसलमान होने के नाते उससे वोट माँगते वह भी इस बात को जानते थे कि इसके लिए कोई खास खातिर नहीं करनी है क्योंकि धुनियाँ बिरादरी के लोग ही कितने हैं।

कुछ दिनों में ऐसा लगने लगा कि वह अपने घर में अकेला पड़ता जा रहा है। बीवी कभी इधर झुकती तो कभी उधर। जिन बच्चों को वह वास्ता दे रहा था वह बस इतना कहते ‘भाईजान, अब्बा को तंग न करो’ और चुप हो जाते।

अब जिग्गन बाहर वालों से मशविरा करने लगा। लोग यही कहते कि जमीन बेचकर नौकरी मिल जाए, तो इससे अच्छी बात क्या है, लेकिन मिले तो। उन्हीं में से कुछ लोग आफताब से कहते, ‘कबे, तुम्हारे अब्बा छाती पर जमीन रख कर ले जाएँगे?’

दरअसल ऐसा कहने वाले रोजमर्रा की परेशानियों में जीने वाले लोग थे। वह दिल से किसी का बुरा नहीं चाहते थे, बस दूसरे के घर के झगड़े उनके लिए दिल्लगी का सबब थे। यह व्यवहार उनकी सामाजिकता का अंग था।

जब एक दिन आफताब मंसूरी के नाम चपरासी के पद हेतु साक्षात्कार पत्र आया तो घर में अफरा-तफरी मच गई। बेटा फिर से बाप के पीछे पड़ गया। इस समय इलाके में माहौल ही कुछ ऐसा बन गया था। नौकरियों के दलाल लड़कों के पीछे पड़े थे और लड़के अपने घर वालों के। घर वाले दलालों की विश्वसनीयता जाँचने में लगे थे। जिग्गन का प्रतिरोध हल्का पड़ रहा था। बाकी घर वालों की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना सही होगा इसलिए वह किनारे खड़े हो गए। अब यह मामला आफताब बनाम जिग्गन ही रह गया था। बाप बेटे ने समझौता कर के मामला निपटाया। समझौता यही था कि तीन-चौथाई रकम पहले और एक चौथाई नियुक्ति-पत्र मिलने के समय। इस तीन-चौथाई के लिए जिग्गन ने अपना आधा खेत बेच दिया। इसके बाद पूरा परिवार आधी साँस की खुराक पर जीने लगा।

घर के चूहे उसके सहजीवी थे। इस घर में उनके लिए कोई चूहेदानी नहीं थी। बाप-दादों की धुनकी एक कोने में खड़ी घुना रही थी। उसकी त्रन्न न्न्ऽऽ, त्रन्न, न्नऽऽ की आवाज काल के विवर में विलीन हो चुकी थी। जिग्गन को बस इतना याद है कि धुनकी लेकर उसके बाप और चचा कुआर-कातिक के बीच निकल जाते थे और माह-डेढ़ माह दूर-पास के कस्बों और शहर में बिताकर लौट आते थे। वह पैदल-पैदल अपनी मंजिल तय करते थे। लौट कर आने पर धीरे-धीरे रुई उनके तन से मैल बनकर उतरती थी। चूहे उस धुनकी की सारी ताँत कुतर चुके थे। धुनकी सिर्फ इसलिए बाहर नहीं फेंकी गई थी क्योंकि इस घर में कबाड़ और वास्तविक गृहस्थी में कोई खास फर्क नहीं था।

इंटरव्यू की तारीख आई। पचास रिक्त पदों के लिए तीस हजार अभ्यर्थी थे। थोक के भाव उनका इंटरव्यू होता था और केवल नाम के लिए नाम पूछा जाता था। जिन लोगों ने पैसा दिया था वह इसी बात से खुश थे कि चलो कोई नाटक नहीं हो रहा है। खाली जेब वालों को लगता था कि चलो नौकरी का मेला देख आए। इसके बावजूद इंतजार सबको बराबर का था।

शुजात तल्हा के पिटीशन अनुभाग में राज्य भर में चल रहे नौकरी-अभियान की शिकायतें भी आने लगी। शिकायतों में एकरूपता थी। वही घूस की एक जैसी शिकायतें। शुजात तल्हा ने वह जमाना भी देखा है जब भाई-भतीजावाद और सिफारिशी टट्टुओं को भर्ती किए जाने की शिकायतें होती थीं। अब ऐसा नहीं था। शुजात इसी को मूल्यों की गिरावट कहते थे क्योंकि सिफारिश को वह एक मानवीय मूल्य मानते थे।

उन्हें भी एक सिफारिश करवानी थी। उनकी छोटी बेटी साइन्स से इंटर कर चुकी थी और बायोटेक्नालाजी में बी.टेक. करना चाहती थी। जिस कालेज में वह एडमीशन चाहती थी वह एक अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान था। शुजात तल्हा को तसल्ली इस बात की थी यह कालेज चाहे जितनी आधुनिक विद्या पढ़ाए, ड्रेस-कोड के मामले में बुर्जुगाना तबियत का था। लड़कियों के सर और सीने पर दुपट्टे की ढाँक-मूँद जरूरी थी। शुजात सोच रहे थे कि कहाँ से सिफारिश का डौल बिठाएँ। वह खुद जिंदगी भर महत्वपूर्ण विभागों से भागते रहे क्योंकि वहाँ के घमासान से उन्हें डर लगता था। घूस-पात उनकी प्रकृति में नहीं थी, संघर्ष उनके स्वभाव में नहीं था। इसलिए काजल की कोठरियाँ से बचते-बचते वह उनसे डरने लगे। नतीजा यह था कि वह किसी के काम नहीं आए, तो भला उनके काम कौन आता। यही गनीमत थी कि बीवी-बच्चों की निगाह में वह निकम्मे थे, निंदनीय नहीं। ऐसे में मजहबीयत से उन्हें नशीली राहत मिलती है क्योंकि यही एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ भौतिक पर भौतिकता का लांछन नहीं लगता। तो वह दाखिले के लिए शहर के बड़े मौलाना के पास पहुँचे।

इस बीच जिग्गन के जीवन में एक कानूनी घटना हो गई। जिस विभाग की चपरासीगिरी के लिए उसके लड़के ने इंटरव्यू दिया था, वहाँ के डेलीवेजर कोर्ट से स्टे ले आए। इंटरव्यू धरा का धरा रहा गया। लेन-देन का बिचैलिया अपनी बात पर दृढ़ था कि पैसा आगे पहुँच गया है, अब अदालत ने ही लंगड़ी मार दी तो वह क्या करे! जब तकादे उग्र होने लगे तो रिश्वत की कड़ी तोड़कर वह गायब हो गया। जिग्गन पर जब यह गाज गिरी तो एक आह की तरह ईश्वर का नाम उसके अंदर उपजा और चीत्कार में विस्फोटित हुआ। जिसने कभी यह कहा था कि धर्म जनसमुदाय के लिए अफीम है उसी ने यह भी कहा था कि धर्म पीड़ितों का आर्तनाद है, एक हृदयहीन संसार का हृदय है।

शुजात तल्हा के घर का चूहा पकड़ में नहीं आ रहा था। जहर देकर मारने का विचार बहुत पहले ही उनके यहाँ से खारिज हो चुका था। घर में एक एअरगन रखी थी जो अभागे जंगली कबूतरों को मारने के काम में आती थी। क्योंकि रवायतन इस मुहल्ले के लोग सफेद कबूतरों को पालते थे और नीले कबूतरों को मारते थे। आगे यह कि अभी-अभी उनकी एक बड़ी मुसीबत हल हुई थी इसलिए वह छोटी मुसीबतों पर ध्यान दे सकते थे। बड़े मौलाना की सिफारिश ने काम किया और बेटी का दाखिला बायोटेक्नालाजी में हो गया। उनके कान अब यह सुनने को आतुर रहने लगे कि अल्लाह नेक बंदों की मदद करता है। दरअसल उन्होंने अल्लाह को बहुत से काम सौप रखे थे जिनमें लड़कों की नौकरी भी शामिल थी। वह सब्र से भी काम ले रहे थे जैसे एअरगन से चूहा मारना।

इस हिसाब से जिग्गन इंतिहाई सब्र से काम ले रहा था। शुजात तल्हा को फुरकान अहमद उर्फ जिग्गन का प्रार्थना पत्र मिला जिसमें दोजानू होकर इल्तिजा की गई थी कि या तो उसके लड़के को नौकरी दिलाई जाए अथवा पैसा वापस दिलाया जाए। जैसा कि उनका काम था उन्होंने यह प्रार्थना पत्र जाँचोपरांत आवश्यक कार्यवाही हेतु जिलाधिकारी को भेज दिया और पत्र की प्रति प्रार्थी को भेजी। प्रार्थी ने यह पत्र कलेजे से लगा लिया कि चलो कोई तो है सरकार में मजलूमों की सुनने वाला। यही पत्र लेकर वह जिलाधिकारी कार्यालय गया, जहाँ उससे कहा गया कि हफ्ते भर बाद आना। हफ्ते भर बाद दस रुपये देकर उसे पता लगा कि हाँ शासन से पत्र आ गया है।

‘तो अब’?

‘अब क्या?’ समय लगेगा। जाँच होगी, तब तक सबूत इकट्ठा करो’।

‘कौन सबूत। ए बाबू घूस का कौन सबूत। लेकिन सारी दुनिया जानती है।’

‘अच्छा दिमाग न चाटो। जाओ।’

जिग्गन इंतजार करने लगा। जब कोई जाँच करने नहीं आया तब उसने सलाम आलेकुम जनाब शुजात तल्हा साहब का संबोधन करते हुए चिट्ठी लिखी। यह चौकाने वाली बात थी। शुजात तल्हा सरकारी मशीन के एक पुरजे की तरह चलना चाहते थे इसलिए यह व्यक्तिगत संबोधन उन्हें परेशान कर सकता था। बहरहाल उन्होंने फिर से चिट्ठी जिलाधिकारी को जाँचोपरांत नियमानुसार आवश्यक कार्यवाही हेतु भेज दी। प्रतिलिपि श्री फुरकान अहमद को सूचनार्थ। जिग्गन को फिर थोड़ी राहत महसूस हुई। इतनी कि वह शुजात तल्हा को अदबदाकर आत्मीय चिट्ठियाँ भेजने लगा कुछ इस अंदाज में, जैसे कोई किसी फरिश्ते से खत-ओ-किताबत करे। लेकिन फरिश्ते की हालत खराब हुई जा रही थी कि इस साले ने मुझे क्यों पकड़ लिया है। एक दिन जिग्गन ने लिखा कि वह उनसे मिलना चाहता है क्योंकि जिलाधिकारी कार्यालय का चक्कर लगाते-लगाते उनके तलवे घिस गए हैं। इस खत को पाकर शुजात तल्हा घबरा गए। उनका काम है कागजी कार्यवाही करना, कर दिया। अब इस नाशुक्रे को कौन समझाए कि इससे ऊपर की उनकी ड्यूटी नहीं है। उन्होंने यह खत दबा दिया।

जिग्गन उन्हें खत लिखता रहा कि कैसे जिंदगी दूभर होती जा रही है। इन खतों में आधी-अधूरी खेती, दुगुनी हो चुकी गरीबी और किसी विपदा की तरह पड़ने वाले त्योहारों की बात होती। शुजात यह सारे खत दबाते रहे। यह खत उनसे जोर-जबरदस्ती का संबंध बना रहे थे।

कोई रोजनामचा इन चीजों का नहीं होता, नहीं तो लिखा जा सकता कि जिग्गन ने जब पहला खत आत्महत्या का भेजा तो उसकी क्या वजह रही होगी। चलिए यह मान लेते हैं कि जब उसके यहाँ पहला फाका हुआ होगा तो उसने आत्महत्या की धमकी दी होगी। वह भी जल कर मरने की। शुजात तल्हा पढ़कर आग-बबूला हो गए। हरामजादा मुसलमान होकर जल कर मरने की धमकी दे रहा है, दोजखी। शुजात तल्हा ने दुश्मनों की तरह सोचना शुरू कर दिया। खुद घूस देकर अपनी ऐसी-तैसी कराता है और जीना अजाब किए है उनके जैसे भले आदमी का जो इन चीजों से कोसों दूर रहता है।

फिर तो समय-समय पर आत्महत्या के पत्र आते रहे। लेकिन वह समय क्या था? क्या यह वह समय था जब उसकी बेटियों के कपड़े फट चले थे या घर की परेशानी से शर्मिंदा होकर उसका बेटा भाग गया था।

जिग्गन अब समय और स्थान की पूर्वसूचना देते हुए पत्र भेजता था। यह और मुसीबत थी कि पत्र पाते ही हरकत में आना पड़ता था। शुजात तल्हा जिग्गन के आत्महत्या सूचक पत्रों को देखते ही सकते में आ जाते। इन्हें दबाना खतरनाक था। उनके हाथ-पैर सुन्न हो जाते। मुश्किल से वह इतनी हरकत कर पाते जितना एक साइकिल सवार बूढ़ा दूसरे साइकिल सवार बूढ़े से टकराकर कर पाता है। वह धीरे-धीरे हिम्मत बटोरते और कागज आगे-पीछे दाए-बाएँ भिजवाते। जिग्गन उन्हें अल्लाह का वास्ता भी देने लगा था। समय और तिथि के साथ वह उस कार्यालय का नाम भी देता जहाँ वह आत्महत्या को अंजाम देने वाला था। कभी जिलाधिकारी कार्यालय तो कभी मंडलायुक्त कार्यालय। कभी सचिवालय तो कभी मुख्यमंत्री आवास। होते-होते शुजात तल्हा की नजरों में जिग्गन एक आतंकी बन गया था जो सिर्फ उन्हें डराए हुए था। शुजात जब उससे नफरत करते तो पूरी तरह से पवित्र हो जाते।

पुलिस उन स्थानों पर तत्परता से पहुँचती जिनका उल्लेख जिग्गन के खतों में होता। लेकिन जिग्गन वहाँ होता ही नहीं था। पुलिस की नजरों में वह एक ब्लैकमेलर था और मौके पर धता बताने वाला धोखेबाज भी। पुलिस परेशान थी और लोग पुलिस की परेशानी से खुश थे। लोगबाग जिग्गन से चुहल करने से भी नहीं चूकते थे कि क्या बे कब तक चूतिया बनाते रहोगे।

जिग्गन सोच रहा था कि यह दारुण खेल कैसे खत्म किया जाए। वह लोगों के सामने शर्मिंदा होता और जब ज्यादा उकसाया जाता तो आत्महत्या की एक नोटिस और भेज देता। चूतिया बनाने के जुर्म में पुलिस उसे मार-पीट कर और घर वालों को धमका कर छोड़ चुकी थी। कानूनन उसे जेल में होना चाहिए लेकिन पुलिस से वह झूठ बोल देता कि यह नोटिस उसकी नहीं है। वह टाइपशुदा नोटिस भेजता जिसमें पैर के अँगूठे की छाप होती थी। दरअसल जिग्गन मरना नहीं चाहता था। उसकी इच्छा मारने की हो रही थी। लेकिन वह मरने-मारने दोनों से डरता था। उसे लगता था कि घर में अब कोई उसकी परवाह नहीं करता है। यहाँ तक कि वह चूहा भी नहीं जो बड़े मरघिल्ले ढंग से बिल से बाहर आता-जाता था। उसे एकदम से गुस्सा आया कि अब इस घर में क्या है जो चूहा अभी भी चहलकदमी कर रहा है। उसने नाल जड़ा जूता चूहे पर फेंक कर मारा। चूहा चिंचिया कर एक ओर पसर गया। जिग्गन ने उठकर उसी जूते से चूहे को बाहर फेंक दिया। चूहा अभी जिंदा था। इस अधफल हिंसा से जिग्गन को ग्लानि हुई। वह घबरा कर घर के भीतर भागा। वह बेचैनी में घर के बरतन औंधे करने लगा। चूहे को चींटियों ने पूरी तरह से छाप लिया था। इस निःशब्द हिंसा से वह सिहर उठा।

इस सबसे बेखबर शुजात तल्हा के लड़के ने उत्पाती चूहे पर एअर गन तानी और पिट्ट की आवाज के साथ चूहे ने कलाबाजी खाई और चित हो गया। वह उसे बगीचे में गाड़ आया।

भूख और कमजोरी से निढाल पड़े जिग्गन को कभी-कभी लगता कि चींटियाँ उसे मुर्दा समझ बैठी हैं। वह उठता और चींटियों को मसलने लगता। वह उन्हें मारता और सोचता कि वह कैसी अनोखी जीव हैं जो मरते समय आवाज नहीं करती हैं। कोई गुर्रा कर मरता है तो कोई मिमिया कर, लेकिन यह तो बिलकुल बेआवाज। मरते समय भी और मारते समय भी।

एक दिन जिग्गन की लाश बिना किसी नोटिस के तालाब के किनारे मिली। चींटियाँ उसके आँख, कान और नाक में घुसी हुई थी। उस समय उसे जिसने भी देखा, उसे चींटियों से डर लगने लगा।

सारी जाँचें एक साथ संपन्न हुईं। न तो हत्या के कोई सबूत थे और न आत्महत्या के। सबूत तो भुखमरी के थे जो लोकतंत्र में एक निषिद्ध शब्द है। अतः जाँचोपरांत यह निष्कर्ष निकला कि जिग्गन कुपोषण से मरा। उसकी विधवा को कुछ फौरी सहायता और कुछ आश्वासन मिले।

शुजात तल्हा ने जिग्गन की फाइल बंद की। अल्लाह की मर्जी। अनुभाग अधिकारी के रूप में उन्होंने एक आखिरी काम किया। उनका अनु सचिव के पद पर प्रमोशन हो गया था। खुदा का शुक्र।

शुजात तल्हा ने बुर्के के ख्याल में गुम हुई बीवी को देखा। बीवी चुप थी। तनाव की खामोशी से बगीचे की घास जलने-सी लगी थी। शुजात तल्हा ने कई पहलू बदले और चिंहुक कर कहा, ‘चलो उठो, यहाँ चींटियाँ आ रही हैं।’

‘चींटियाँ तो पार्क में रहती ही हैं,’ बीवी ने ठंडे सुर में कहा।

‘नहीं। यह चींटियाँ दूर से आ रही हैं। मुर्दाखोर हैं। भागो, मैं उनकी आवाज सुन रहा हूँ।’

अब बीवी ने पूरे संकल्प के साथ बुर्का उतारा और दृढ़ता के साथ पति का हाथ थाम कर बोली, ‘चलो उठो, फातिमा ठीक कहती है।’

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चींटियों की आवाज – Cheentiyon Ki Aavaaj

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