इस समय भी उसे अपना नाम याद नहीं आ रहा था।

उसकी आँखों में आँसू आ गए थे – लाल आँसू! वह कभी उस दूर तक फैले मलबे को दख रहा था, तो कभी सामने बने कच्चे-पक्के मंदिर को। उस टूटे हुए मलबे में से रह-रहकर अजान की आवाजें निकलकर जैसे हवा में लहरा रही थीं। पूरे वातावरण का तनाव रह-रहकर उसकी नसों-नाड़ियों में घुसा जा रहा था। मंदिर में से आ रही आरती की आवाज भी उसके तनाव को ढीला नहीं कर पा रही थी। आस-पास के लोगों के चेहरों पर अविश्वास और असुरक्षा की भावना जेसे गर्म लोहे से अंकित कर दी कई थी।

आज से लगभग तीस वर्ष पहले भी ऐसे ही बदहवास चेहरे उसने देखे थे। पल भर में घर के करीबी मित्र बेगाने हो गए थे। तब वह स्कूल में पढ़ता था। उस समय उसका एक नाम भी था – इंद्रमोहन। स्कूल के लिए इंद्रमोहन तिवारी। अपने नाम से उसे बेहद लगाव था। अंग्रेजी में अपना नाम बहुत मजे से बताता था – ‘आई.एम. तिवारी।’ – यानी कि मैं तिवारी हूँ और खिलखिलाकर हँस पड़ता था।

उस शाम भी वह खिलखिलाकर हँस रहा था जब उसके पिता ने घायल अवस्था में घर में प्रवेश किया था। उसकी माँ तो पागलों की तरह छातियाँ पीटने लगी थी। बड़े भैया ने तो लाठी तक उठा ली थी, ‘आज दो-चार को तो ढेर कर ही दूँगा।’ पिता के शरीर के घाव, भाई का जुनून, सोडा वाटर की बोतलें, अल्लाह-हो-अकबर, सड़क पर बिखरा काँच, हर-हर महादेव, छुरेबाजी से घायल लोग, पुलिस की वर्दी, पुलिस का डंडा, पानी के फव्वारे, पुलिस की गोलियाँ, सायरन, बूटों की ठक-ठक, कर्फ्यू सब याद है उसे! स्कूल का बंद होना, सब्जी का गायब हो जाना, चेहरों पर चिपका हुआ डर, दिमागों में भरी दहशत, अपनों का बेगानापन, बेगानों का अपनापन, कुछ भी नहीं भूला है उसे। फिर उसका नाम!

उसे उस छोटी उम्र में ही उन नामों से नफरत हो गई थी जो नाम धर्म से संचालित होते हों। क्यों यह नाम, जातों और धर्मों का सिलसिला खत्म होने में नहीं आता? किसी भी बच्चे के बस में नहीं कि वह अपना नाम स्वयं रख सके। तो क्यों उसे इस दुनिया में लानेवाले कोई भी नाम दे देते हैं जो कि उम्र भर के लिए उसकी पहचान बन जाता है। क्यों नहीं उस बच्चे को छोड़ देते तब तक, जब तक बड़ा होकर वह स्वयं अपने लिए इक नाम की तलाश न कर ले। उसी दिन उसने अपने पिता को कहा था, ‘बाबूजी, मेरा नाम बदल दीजिए!’

बाबूजी की डाँट-फटकार ने उसके फैसले को और भी मजबूत बना दिया था। बड़ा होते ही, उसने अपना नाम बदलने का जो प्रण लिया था उसे पूरा करने का समय आ गया था। उसे लगा था कि नाम उसका अपना है, वह जब चाहे, जैसे चाहे अपना नाम बदल लेगा। नाम बदलना ऐसा कौन-सा मुश्किल काम है।

नाम बदलना नाम कमाने से कम मुश्किल काम नहीं है। कचहरी के चक्कर, गजट में नाम निकलवाना और समाचार पत्र में इश्तहार देना – यह सब करना पड़ा तब कहीं जाकर वह आई.एम.तिवारी से आई.एम.हिंदुस्तानी बन पाया। हाँ, यही उसका नया नाम था। अब वह किसी को अपने नाम ‘आई.एम.’ का अर्थ नहीं बताता था। वह चाहता था कि सब लोग उसे केवल हिंदुस्तानी कहकर पुकारें। हिंदुस्तानी या फिर मिस्टर हिंदुस्तानी। उसने प्रण कर लिया था कि किसी को भी अपना धर्म नहीं बताएगा।

पहली ही टक्कर में उसके प्रण के टुकड़ों का मलबा बिखर कर रह गया था। नौकरी के लिए फार्म भरते समय उसे एक कॉलम भरना था – धर्म! उसने धर्म के सामने लिख दिया था – नास्तिक’! बहुत बार सोचा करता था कि हमारे तो अधिकतर लेखक वामपंथी हैं तो इन लोगों ने नौकरियाँ पाने के लिए धर्म के कॉलम में क्या लिखा होगा। क्या इनका वामपंथ धर्म लिखने की अनुमति देता है? या फिर यह सब ढकोसलावादी वामपंथी हैं? सबने मकान खरीद रखे हैं। वामपंथ तो संपत्ति अर्जित करने के खिलाफ है। फिर यह सब क्या गोलमाल है?

नास्तिक होने का दंड उसे भुगतना पडा। साक्षात्कार में उससे एक भी सवाल उसकी पढ़ाई या काबिलियत के बारे में नहीं पूछा गया। पैनल के हर सदस्य को केवल एक बात में रुचि थी कि वह नास्तिक क्यों है। और क्या नास्तिक-वाद भी कोई धर्म हो सकता है?

अपने मन में घुमड़ती हुई उत्तेजना को उसने जुबान दे ही दी, ‘सर, धर्म हमें हजारों साल पीछे ले जाता है। जब हम कोई कैमरा, फ्रिज या कार खरीदते हैं तो हमारी कोशिश यही रहती है कि नए से नया मॉडल खरीदें। किंतु जहाँ कहीं भी धर्म की बात आती है, तो हर धर्मवाले अपने पुरातन से पुरातन ग्रंथ की डींग हाँकने लगते हैं। आदिम लोगों द्वारा लिखी गई पिछडी हुई बातों के लिए हम लोग कट मरते हैं। क्या यह सही है? क्या नास्तिक होना इस स्थिति से कहीं अधिक बेहतर नहीं है? और फिर एक धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसे सवाल का क्या औचित्य है?’

पैनल के सदस्य उसकी बातें सुनते रहे और अंततः वह नौकरी उसे नहीं मिली। उनके लिए तिवारी केवल एक पंगेबाज इनसान से अधिक कुछ भी नहीं था। उसे भी समझ आ गया कि धर्म की बाँह थामे बिना उसकी नैया पार नहीं लगनेवाली! किंतु उसे तो किसी भी धर्म में विश्वास नहीं। तो किस धर्म की बाँह थामे? जब सभी धर्मोंवाले अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्मों को घटिया बताने में लगे हों तो वह किस ओर देखे?

नौकरी पाने के लिए उसने अपने जन्म-धर्म का ही हाथ थामा। अपने पासपोर्ट में भी वह हिंदू हो गया। वह केवल हिंदुस्तानी बना रहना चाहता था, किंतु नौकरी ने उसे हिंदू बनाकर ही दम लिया।

नौकरी मिली भी तो जेद्दाह में। वहाँ तो धर्म का दूसरा ही रूप था। औरतों पर पाबंदियाँ। उनके चेहरे बुर्के ओर नकाबों में ढके नजर आते। गैर-मुस्लिम औरतों को भी आबाया पहनना पड़ता था। दिन में पाँच बार नमाज के समय पूरा शहर जैसे जड़ हो जाता था। नमाज के दौरान सभी दुकानें बंद।

वहाँ उसने विभिन्न स्तरों पर भेदभाव देखा। पहला फर्क तो मुस्लिम और गैर-मुस्लिमों में था। मुस्लिमों में सऊदी और गैर-सऊदी का फर्क था। अरबी और गैर-अरबी मुसलमानों में अंतर था। अमीर और गरीब देशों के मुसलमानों में अंतर था। फिर गैर-मुस्लिमों में चमड़ी का अंतर था – यानी गोरा और काला।

जीवन में पहली बार जेद्दाह से ताईफ जाते हुए उसने मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षित सड़क देखी थी। मंडल के कमंडल का एक और रूप! वहाँ की धार्मिक पुलिस आपका इकामा चेक करेगी। इकामा – यानी कि ‘वर्क परमिट’। यदि आपका इकामा हरे रंग का है तो आप मुस्लिम हैं और उस आरक्षित सड़क पर जा सकते हैं। अन्यथा आपको एक लंबा-सा चक्कर लगाकर अनारक्षित सड़क से ताईफ पहुँचना होता था। उसी सड़क पर रास्ते में उसने बिल्डिंगों का एक समूह देखा था। उसे डिपोर्टी कैंप कहते थे। यानी के वे लोग जिन्हें सऊदी अरब से निष्कासित किया गया हो पहले उन्हें उस कैंप में रखा जाता था। अंततः एक उड़ान पर चढ़ा दिया जाता था जो उन विदेशियों को उनके देश की धरती पर पहुँचा देती थी। उस कैंप में आप तभी दाखिल हो सकते हैं यदि आप स्वयं निष्कासित या तड़ीपार हैं या फिर आप पुलिसवाले हैं।

डिपोर्टी कैंप के बारे में सोचकर ही हिंदुस्तानी को झुरझुरी-सी आ गई। कैसा व्यवहार होता होगा वहाँ के निवासियों के साथ?

हिंदुस्तानी को जेद्दाह में सदा दहशत का माहौल ही दिखाई देता था। बिना किसी युद्ध-स्थिति के भी वहाँ डर का वातावरण बना रहता था। पुलिस में भी मुतव्वा यानी के ‘धार्मिक पुलिस’ का आतंक सर्वोपरि था। मुतव्वा से तो सऊदी नागरिक भी डरते हैं। प्रवासी तो उन्हें देखकर घबरा ही जाते हैं।

ईराक-कुवैत लड़ाई के दिनों में तो यह डर का वातावरण और गहरा गया था। यदि उसे इतनी अच्छी पगार न मिल रही होती तो हिंदुस्तानी कब का वापिस अपने मुल्क आ गया होता। पैसा तो किसी को भी कहीं भी रोक लेता है। पैसे का चमत्कार तो हिंदुस्तानी जेद्दाह और ताईफ में देख चुका था। रेत में भी पेड़ खड़े कर दिए गए थे।

ईराक के साथ युद्ध के समय सी.एन.एन. टेलीविजन का अतिक्रमण सऊदी पर भी हुआ। सी.एन.एन. के कार्यक्रमों का खुलापन वहाँ के कठमुल्लाओं को सहन नहीं हुआ। कुछ समय बाद स्टार टी.वी. के डिश एंटेना पर राजघराने की बिजली गिरी। डिश एंटेना को शैतान की कटोरी कहा गया और ‘एड्स’ की कुंजी। कठमुल्लाओं ने ऐलान कर दिया कि डिश एंटेना लगाने से एड्स हो जाएगी। हिंदुस्तानी अपने एक मित्र के यहाँ जाकर केबल टीवी देख लेता था।

हिंदुस्तानी उस समय भी धर्म की जटिलताओं को समझ नहीं पा रहा था। एक ही धर्म के दो देश आपस में लड़ते हैं। दूसरे धर्म के कई देश मिलकर एक देश को ध्वस्त करने में जुट जाते हैं। यानी कि धर्म एकता की गारंटी नहीं है! पुत्र द्वारा पिता की हत्या को धर्म नहीं रोक सकता। तो फिर धर्म के नाम पर हत्याएँ क्यों? क्या यह सब केवल आडंबर है?

हिंदुस्तानी का दिमाग बेलगाम घोड़े की तरह भागता जा रहा था। तर्क वितर्क, कुतर्क सब उसके दिमाग में ज्वार-भाटा खड़ा किए जा रहे थे। – ‘एक समय ऐसा भी तो होगा जब मनुष्य को मालूम ही नहीं होगा कि भगवान भी किसी चीज का नाम है। यानी कि उस समय तक इनसान ने भगवान का आविष्कार नहीं किया होगा। फिर किसी ने पहली बार भगवान के होने का अहसास किया होगा। उसने पहले धर्म का ऐलान किया होगा। फिर किसी दूसरे ने किसी और भगवान के होने का एहसास किया होगा। तो दूसरा धर्म उत्पन्न हो गया होगा। इसी तरह फिर तीसरा, चौथा और पाँचवाँ धर्म बने होंगे।’ इस सबका निष्कर्ष हिंदुस्तानी ने यही निकाला, ‘जब-जब कोई भी व्यक्ति भगवान को देखता है या उससे तारतम्य बना लेता है तो सभ्यता और अधिक हिस्सों में बँट जाती है। यानी कि भगवान समाज को बाँटने का काम करता उसमें एकता नहीं पैदा करता।’

प्रकृति ने तो सभी इंसानों के जन्म और मरण का तरीका एक ही रखा है। इनसान ही क्यों उस बच्चे के पालन-पोषण से लेकर क्रियाकर्म तक भिन्न-भिन्न तरीके अपनाता है। आज जिस देश में हिंदुस्तानी रह रहा था, वहाँ तो किसी दूसरे धर्म के लोगों को अपने इष्ट देवों की मूर्तियां रखने या पूजा करने का अधिकार तक नहीं दिया गया था। फिर भी लोग छुप-छुपकर पूजा करते हैं। क्या धर्म के साथ जुड़ाव इतना बल देता है कि इनसान सरकारी आदेश के विरुद्ध भी काम करने से नहीं डरता।

नास्तिक होने के चक्कर में हिंदुस्तानी विवाह भी नहीं कर पा रहा। अब तो लगभग पैंतीस-छत्तीस का हो गया है। पर उसे किसी धार्मिक विधि से विवाह नहीं करना। माँ-बाप को कोर्ट की शादी स्वीकार नहीं। और फिर कोर्ट-कचहरी भी तो धर्म पूछती हैं! साले कोर्ट-कचहरी भी धार्मिक हो गए हैं।

इसीलिए जेद्दाह में अकेला रहता था हिंदुस्तानी। उसके साथियों ने उसे डरा दिया था, ‘बने मलिक इलाके में कभी मत जाना। उस इलाके में सभी दो नंबर के काम होते हैं। नकली पासपोर्ट, नकली वीजा, यहाँ तक कि नकली इकामा (यानी कि ‘वर्क परमिट’) भी। हिंदुस्तानी हैरान! इतनी सारी पुलिस, असली पुलिस! इतनी दहशत, फिर भी इतने सारे नकली काम! हिम्मतवाले लोगों की कमी तो किसी भी देश में नहीं होती है।

इन्ही दिनों हिंदुस्तानी का एक नया दोस्त बना था। संजय – एक कंपनी में मैनेजर था, ‘अल-हमरा’ इलाके में ही रहता था। उसकी पत्नी अपर्णा और बेटी चयनिका। तीनों बिना किसी द्वंद्व के जेद्दाह में जी रहे थे। अपर्णा से अक्सर उसकी बहस हो जाया करती थी, ‘मैं कहता हूँ जो मुस्लिम नहीं है वोह बुर्का या आबाया क्यों पहनें?’ अपर्णा हँसते हुए सहज तरीके से हिंदुस्तानी को समझाती रहती थी, ‘देखो भैया, हम आबाया नहीं पहने ना तो हमें लगता है सड़क पर सब हमें ही घूर रहे हैं। हम सड़क पर अलग ही दिखाई देते हैं। जब सभी औरतें बुर्का पहने होती हैं तो हम भी अपने आपको आबाया में ढका हुआ महसूस करते हैं। नहीं तो लगता है पूरे कपड़े पहने बिना ही घर से निकल आए।’

हिंदुस्तानी फिर हैरान! भारतीय नारी में कितनी सहनशक्ति है! फिर यहाँ तो अमरीकन और अंग्रेज औरतें भी आबाया पहनती हैं। क्या अमरीका और इंग्लैंड में भी यह नारियाँ बुर्का पहन लेतीं? अगर वहाँ की सरकारें भी आदेश लागू कर दें कि स्त्रियों को बुर्का पहनना जरूरी है, तो क्या यही स्त्रियाँ विद्रोह नहीं कर बैठेंगी? क्या इन्हें भी पैसे का ही लालच है?

हिंदुस्तानी तो अपने देश में भी सिगरेट या शराब नहीं पीता था। इसलिए जेद्दाह में भी उसे कोई विशेष कठिनाई नहीं होती थी। पूजा वह घर पर भी नहीं करता था। इसकी कमी महसूस करने का कोई अर्थ ही नहीं था। अब उसने कार भी खरीद ली थी। इसलिए उसे आने-जाने में भी दिक्कत नहीं होती थी। पेट्रोल तो लगभग मुफ्त ही था। दस-बारह रियाल में तो टैंक पूरा भरवा लो। एक रात हिंदुस्तानी संजय के घर ही खाना खा रहा था। रात को खाना खा चुकने के बाद संजय बोला, ‘चलो हुक्का पीने चलते हैं।’

‘यह हुक्का पीने चलते हैं का क्या मतलब भाई? अगर हुक्का पीना ही है तो भरो हुक्का और पी डालो।’

‘नहीं मेरे गोबर गणेश, आज तुम्हें दिखाते हैं कि रात को बारह बजे भी जेद्दाह में आदमी-औरतें इकट्ठे बैठकर हुक्के का मजा कैसे लेते हैं।’

हिंदुस्तानी हैरान! उसके देश में कभी किसी जमाने में हुक्के की कद्र रही होगी जब राजे-रजवाड़े हुआ करते थे। आज तो हुक्का पिछड़ेपन का प्रतीक बनकर रह गया है।

चल पड़ा हिंदुस्तानी। जीवन में पहली बार सार्वजनिक ‘हुक्का-पान स्थान’ देखने के लिए। खुली छत के नीचे, ढेरों पौधों के बीच, मुगलाई शानो-शौकत के हुक्के। किसी में कलकत्ते का तंबाकू था तो किसी में बहरीन का। कोई पाकिस्तान से ताल्लुक रखता है तो कोई चीन से। जीवन में पहली बार शीशे का बना हुक्का देखा। सारा माहौल देखकर लग रहा था जैसे हुक्का उत्सव चल रहा हो। धीमी-धीमी आँच में हुक्के का तंबाकू सुलग रहा था।

कुछ यूँ ही सुलग रहा था सवाल उसके अपने देश में। एक धर्म उसे अल्लाह का घर कह रहा था तो दूसरा उसे भगवान का जन्मस्थान। हिंदुस्तानी को ये समझ नहीं आ रहा था कि इसमें दिक्कत कहाँ है। अगर भगवान वहाँ जन्मे हैं तो वह भगवान का घर ही तो होगा। दोनों धर्म के लोग उसे भगवान का घर मानकर भी लड़ते जा रहे हैं। क्या ऐसा कोई तरीका नहीं हो सकता कि दोनों धर्मों के लोग एक ही स्थान पर आराधना कर लें। इसमें इतनी उत्तेजित होने जैसी स्थिति क्यों है? कुछ कुरुक्षेत्र जैसी स्थिति बनती जा रही थी। कोई किसी के लिए एक इंच जमीन भी छोड़ने को तैयार नहीं। इतनी दूर हिंदुस्तान में सुलग रहे सवाल की गरमी जेद्दाह जैसे दूर-दराज शहर में भी महसूस की जा सकती थी।

और फिर उसी गर्मी का एक तेज भभका दिसंबर की एक सर्द शाम में उसने महसूस किया। लगभग चार सौ साल पुराना एक ढाँचा चरमराकर मलबे का ढेर बन गया था। हिंदुस्तानी पहली बार डर गया। उसे लगा जैसे जेद्दाह में हर मुस्लिम की आँखें उसे ही घूर रही हैं। उसे ही उस ढाँचे के गिरने का गुनहगार ठहराया जा रहा है। परेशान तो संजय भी था। उसका डिश एंटेना तो दुबई, इंग्लैंड, पाकिस्तान, बांगलादेश और भारत में जलते हुए मंदिर भी दिखा रहा था। जेद्दाह में रह रहे हिंदुओं में एक विचित्र-सी दहशत घर करती जा रही थी। संजय के पिता बँटवारे के भुक्तभोगी थे। उसे अपने पिता की कही हुई एक-एक बात याद आ रही थी।

अफवाहों का बाजार गर्म था। आज हिंदुस्तानी को भी डिश एंटेना शैतान का अवतार लग रहा था। क्योंकि वो बिना रुके अयोध्या के समाचार दिए जा रहा था। कई हिंदुओं के इकामा रद्द कर दिए गए थे। उनके पासपोर्ट पर लाल रंग की ‘एग्जिट वीजा’ की मोहर लगाकर उन्हें वापिस भेजा जाने लगा। संजय ने हिंदुस्तानी को आदेश दे दिया, ‘तुम अकेले घर से बाहर कभी नहीं जाओगे। कुछ दिनों के लिए हमारे घर रह जाओ। घर से दफ्तर मैं तुम्हें स्वयं छोड़कर आऊँगा। बने मलिक के इलाके में भूलकर भी मत जाना।’

औरतों के माथों से बिंदियाँ गायब होने लगीं। बिंदी ही तो उन्हें अन्य औरतों से अलग कर देती थी। और इसी तरह उनकी बेइज्जती का कारण भी बन जाती थी।

एक शाम तो हिंदुस्तानी को यह पक्का विश्वास हो गया कि अयोध्या के हादसे का उत्तरदायी वह स्वयं है, संजय है, अपर्णा है और उनकी पाँच वर्ष की बेटी चयनिका है। चयनिका के स्कूल में उसका बायकॉट कर दिया गया। उसे बताया गया कि अयोध्या की मस्जिद उसने तोड़ी है, इसलिए क्लास के और बच्चे उससे बात नहीं करेंगे। रोती हुई सूजी आँखें लेकर शाम को चयनिका ने संजय से पूछ ही तो लिया, ‘पापा, अपने मस्जिद क्यों तोड़ी? क्लास में मुझ से कोई बात भी नहीं करता।’ हिंदुस्तानी को लगा जैसे उसके शरीर का एक-एक हिस्सा चरमराकर मलबे का ढेर बनता जा रहा है।

गर्मी अभी भी बरकरार थी। पर माहौल में थोडा-सा ठहराव आने लगा था। हिंदुस्तानी का भी दम घुटने लगा था। उसे भी ताजी हवा की आवश्यकता थी। एक दिन शाम को दफ्तर से निकलकर सीधा कॉरबिश की ओर निकल गया। पार्किंग लॉट में गाड़ी खडी की। उसने अभी थोडी खरीददारी ही की थी कि मगरिब की आजान हो गई। हिंदुस्तानी ने सोचा, चलो यह सामान जाकर गाड़ी में रख लेता हूँ, बाकी खरीददारी नमाज के बाद कर लूँगा। उसने सामान जाकर गाड़ी की डिकी में रख दिया। वापिस वह सूख की ओर चल दिया। लाऊडस्पीकर पर अरबी में कुरान शरीफ की आयतें सुनाई दे रही थीं।

हिंदुस्तानी अभी कुछ कदम ही चला था कि धार्मिक पुलिस का एक ठुल्ला उसके पास आया और कड़ककर उसका इकामा माँगा। हिंदुस्तानी बुरी तरह से घबरा गया। उसने जेब से इकामा निकाला और मुत्तव्वे के हवाले कर दिया। इकामा का रंग देखते ही मुत्तव्वे के चेहरे का रंग बदला और साथ ही साथ हिंदुस्तानी का चेहरा सफेद हो गया। मुत्तव्वे ने उसे पुलिस की गाड़ी में बैठने को कहा। हिंदुस्तानी उसे समझाता रहा कि उसकी कार पार्किंग लॉट में खड़ी हे और उसमें उसका सामान रखा है। अपना ड्राइविंग लाइसेंस और कार की चाबी दिखा-दिखाकर समझा रहा था कि उसे कार तक जाने दिया जाए। किंतु उसके इकामा का रंग हरा नहीं था। या फिर सारा जेद्दाह ही बने मलिक बन गया था। किसी को कहीं से भी धार्मिक पुलिस गिरफ्तार कर सकती थी।

हिंदुस्तानी की कार ‘पार्किंग लॉट’ में खडी रही। सामान उसकी कार में पड़ा था। सामान उसके घर में भी पड़ा था – सामान, जो उसने पैसे जोड़-जोड़ कर खरीदा था। आज वह उसी ‘डिपोर्टी कैंप’ में खडा था, जिसे बाहर से देखकर उसके शरीर में झुरझुरी आ गई थी। संजय और अपर्णा परेशान थे। वे दोनों हिंदुस्तानी को खोज रहे थे। आखिर कहाँ गया? हिंदुस्तानी के दफ्तर फोन किया गया, सभी दोस्तों से पूछा गया, हस्पतालों से पूछताछ की गई। उत्तर में केवल एक दीवार ही दिखाई दे रही थी।

तीन-चार दिन के बाद हिंदुस्तानी को एक फ्लाइट में बैठा दिया गया। उसके पासपोर्ट पर ‘एग्जिट’ की लाल मोहर लगा दी गई यानी कि अब वह कभी भी जेद्दाह वापिस नहीं आ सकता था। विमान में और भी बहुत से लोग थे जिन्हें उसी की तरह ‘एग्जिट’ कर दिया गया था। सबके चहेरों पर एक-से ही भाव थे।

अपने देश वापिस पहुँचकर हिंदुस्तानी के मन में एक इच्छा जागी। ‘चलो वोह जगह देखकर तो आए जिसने उसके जीवन को चौपट कर दिया!’ पिता के चेहरे पर जो भाव थे उनमें वह साफ पढ़ रहा था, ‘मैं ना कहता था, तुम्हारे तरीके गलत हैं। तुम कभी सफल नहीं हो पाओगे।’

अगली ही सुबह हिंदुस्तानी को एक नया झटका लगा। यारी रोड पर ही स्थित एक सोसाइटी गुलशन अपार्टमेंट्स में बनी एक मस्जिद के मौलवी साहब ने पूरी बिल्डिंग में रहने वाले लोगों को नीचे लॉन में बुलवाया और फतवा जारी कर दिया कि सभी अपने अपने टेलीविजन सेट बिल्डिंग की सातवीं मंजिल के ऊपर बनी छत पर ले जाएँ और वहाँ से उन्हें नीचे फेंक दें। मौलवी जी शायद जेद्दाह से वापिस आए थे। क्योंकि उनका भी यही कहना था कि टेलीविजन और डिश एंटेना शैतान की कटोरी है। हमें इससे बचना है। एड्स जैसी बीमारियों की जड़ है टेलीविजन।

अधिकतर पाँच वक्त के नमाजियों ने मौलवी साहब की बात को अल्लाह का हुक्म माना और थोड़ी ही देर में पूरी बिल्डिंग में टेलीविजन का कब्रिस्तान बन गया। कुछ ऐसे भी थे जिन्हें अपनी गाड़े पसीने की कमाई को इस तरह व्यर्थ करना मंजूर नहीं था। वे चुपके से अपने अपने टी.वी. कहीं छुपा आए।

हिंदुस्तानी अयोध्या की ओर चल दिया। गाड़ी में ही उसे कुछ एक राजनीतिक कार्यकर्ता मिल गए। किसी ने उसका नाम पूछा। उसने अपने पुराने अंदाज में जवाब दिया, ‘आई.एम.हिंदुस्तानी।’ कार्यकर्ता की बाँछें खिल कईं। ‘साहिब हम यही तो कहते हैं। हम पहले हिंदू हैं – हिंदुस्तानी, बाद में कुछ और। भारतीय तो हमें कई मिले पर हिंदुस्तानी आप पहले मिले हैं। हमारी सभ्यता, हमारा कल्चर, हमारा इतिहास…।’ हिंदुस्तानी का सिर चकराने लगा। आज एक बार फिर उसे अपने नाम से सांप्रदायिकता की बू आने लगी थी।

अयोध्या के मलबे के सामने खड़ा था हिंदुस्तानी। उसकी नौकरी की नींव इस पुरानी बिल्डिंग से कहीं अधिक कमजोर थी। एक ही झटके में उसकी नौकरी हवा में उड़ गई थी। सारे माहौल को देखकर हिंदुस्तानी को महसूस हुआ कि केवल एक ढाँचा नहीं चरमराया, बल्कि उसके साथ बहुत कुछ चरमरा गया है, लोगों का विश्वास, प्यार, भाईचारा, समाज की नींव, सब चरमरा गया है।

हिंदुस्तानी आँखों में सारी चरमराहट भरे वापिस चल पडा। एकाएक शोर मच गया – ‘बंबई में बम फटे हैं, सैकड़ों मारे गए।’

हिंदुस्तानी ने आकाश की ओर देखा और उसके मुँह से निकला, ‘यह क्या हो रहा है, भगवान?’ उसके शरीर ने झुरझुरी ली। यह उसके मुँह से क्या निकल गया?

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