चेंबर म्यूजिक | जयशंकर
चेंबर म्यूजिक | जयशंकर

चेंबर म्यूजिक | जयशंकर – chamber music

चेंबर म्यूजिक | जयशंकर

शाम

मुझे झपकी लग गई थी। मुनिया ने दरवाजा खोलते हुए कहा।

‘अब माँ कैसी है।’ उसके बाबा ने पूछा।

‘हल्का-सा बुखार बना हुआ है।’

‘उसने दोपहर में कुछ खाया था।’

‘थोड़ी-सी खिचड़ी खाई थी… मैंने बनाई थी।’

‘क्यों? राधा बाई नहीं आई?’

‘अम्मा रोटी-सब्जी बनाकर गई थी।’

मुनिया चाय बनाने के लिए रसोई की तरफ बढ़ी और उसके पिता सीढ़ियों चढ़ने लगे। पत्थर की सीढ़ियों पर फरवरी की शाम का अँधेरा था। दूसरी मंजिल से अमीर खान का गाना उतर रहा था। चार-पाँच बरस पहले यह रिकॉर्ड श्रीकांत ने खरीदा था। जब कभी उसकी माँ को उसकी यादें आती है तब-तब वह इस रिकार्ड को सुनती हैं। जिस शाम वह गुजरा, उसकी सुबह तक वह अमीर खान का राग मारवा और मेघ सुनता रहा था।

‘तुम दिन भर बिस्तर पर रही।’

‘थकान-सी है।’

‘कल तक ठीक लगेगा।’

‘तुम जल्दी लौट आए।’

‘लेबोरेटरी में मरम्मत हो रही है… प्रैक्टिकल नहीं हुए।’

‘क्या तुम अब भी लैब के करीब के उसी रूम में बैठते हो जहाँ से पूरा तालाब नजर आता है।’

‘वहाँ तो नहीं बैठता… पर, बीच-बची में डॉक्टर खरे के पास जाता ही रहता हूँ।’

अपने विवाह के शुरुआत के दिनों में वह अपने पति के पास मेडिकल कॉलेज में जाती रही थी। घर में उसका मन नहीं लगता था। जब उसके पति छात्रों को पढ़ा रहे होते, वह कॉलेज के गलियारों या खिड़कियों से तालाब को, उसके किनारों पर बसे इस शहर को देखती रहती थी।

उनकी बिटिया चाय-बिस्कुट की ट्रे के साथ आई। ट्रे को तिपाई पर रखकर वह बाबा के लगाये हुए फूलों को वेस में जमाने लगी। कभी-कभार उसके बाबा कैंप एरिया की फूलों की दुकान से फूल ले आते, उसी के पड़ोस के वेस्टर्न बुन शॉप से अखबार और पत्रिकाएँ खरीदते है।

‘पानी में थोड़ी सी चीनी डालना’ माँ ने कहा।

‘मुझे पता है’ मुनिया के स्वर में गुस्सा था।

‘क्या माँ-बेटी के बीच लड़ाई चल रही है।’

‘कालेज नहीं गई… मैंने तो जाने के लिए कहा।’

‘कल चली जाना’ बाबा ने कहा।

‘मेडम आज ‘मैकबेथ’ शुरू कर रही थी।’

‘मैकबेथ तो मैंने भी पढ़ा है… थोड़ा-बहुत मैं भी बता सकूँगा।

‘बाबा, क्या तुम मुझे शेक्सपीयर के नाटकों को पढ़ा सकोगे?’

‘उनको पढ़ना पढ़ाना बहुत मुश्किल काम है… उनको पढ़े हुए दस-बारह साल हो रहे है।’

‘इससे क्या फर्क पड़ता है…’

‘जो पढ़ता नहीं है वह पढ़ा कैसे सकता है?’

‘राधा बाई आती ही होगी… सब्जी काट लेना। दोपहर में खराब खिचड़ी बनाई थी… मुँह पर चखी नहीं गई।’

‘धीरे-धीरे सीख जाएगी’ बाबा ने कहा।

‘सीखने का मन रहेगा तब ना… घंटों आईने के सामने खड़ी रहती है… नहाने के लिए एक एक घंटा लगता है…

मुनिया सीढ़ियों उतरने लगी। पिता ने रिकॉर्ड उलट दिया था। माँ को डूबता सूरज नजर आ रहा था।

उसने सोचा कि न जाने कितनी ऐसी शामें इस सृष्टि में उतरी होंगी। क्या कोई भी इनकी गिनती लगा सकता है? श्रीकांत होता तो उससे पूछती कि इस विषय में विज्ञान क्या सोचना है। श्रीकांत नहीं है और अमीर खान गा रहे हैं, शाम ढल रही हैं, जिंदगी बीत रही है।

रात

अब बिजली शायद ही लौटेगी।’ मुनिया ने हताशा से कहा।

‘मैं लालटेन में पढ़ सकता हूँ… तुम सुनती रहना।

‘इतना जरूरी नहीं है बाबा।’

‘मैं जब मैट्रिक के इम्तहान दे रहा था तब इस इलाके का रेलवे ब्रिज खड़ा हो रहा था… दस बजे के बाद बिजली नहीं रहती थी… बाबा कह रहे थे।

‘और तुम्हारी दादी लालटेन को इतना चमकाती थी कि पर्याप्त रोशनी हो जाती थी’ माँ ने कहा।

‘तुम्हें कैसे पता’ मुनिया चौंकी।

‘पचासों बार इनसे सुन चुकी हूँ… अपनी माँ की तारीफ करने में थकते ही नहीं… इनकी बहन तो इनसे भी बढ़कर है…

‘तुम नहीं समझ सकती मालती… तुम एक बसे बसाए घर में पली बड़ी… हमारे पिता बचपन में ही छोड़ गए… माँ को फैक्टरी में काम करना पड़ा… एक जवान विधवा और अनपढ़ स्त्री के लिए वह सब कैसा रहा होगा, यह हम नहीं समझ सकेंगे।

‘अब कुछ पढ़ना भी है कि पुरखों की शान में कशीदे ही काढ़ना है’ माँ ने कहा।

‘मैं अपने दादा-दादी के बारे में सुनना चाहती हूँ।’

‘मेरी मच्छरदानी को ठीक करना है… क्या दूध फ्रीज में रखा है… एक-एक बात के लिए टोकना पड़ता है… सबके एब एक जैसे है… वह थोड़ा जिम्मेदार था और उसे भगवान ने बुला लिया।

‘तुम इतना ज्याद मत बोलो… थकान चढ़ती है’ बाबा ने कहा।

‘मुनिया मुझे एक कप कॉपी चाहिए…’ माँ ने कहा।

‘मैं बनाकर लाता हूँ।’

‘तुम उसे बिगाड़ रहे हो।’

‘उसे पढ़ना है।’

‘मैं जानती हूँ कि वह कितना पढ़ती है।’

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‘तुम उससे चिढ़ती ही रहती हो।’

‘लड़की है… उसकी परवरिश में चौकन्ना रहना पड़ता है।’

‘अभी उसकी उम्र ही क्या है।’

‘परसों बीस की हो रही है… तुम उसे बच्ची ही समझते हो।’

‘मैं श्रीकांत पर इसी तरह चिढ़ता रहता था… उसका रिकॉर्ड सुनते-सुनते पढ़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था। अब सोचता हूँ तो मन भर-भर आता है।’

‘तुम ठीक कह रहे हो… इधर में मुन्नी से कुछ ज्यादा ही चिढ़ रही हूँ।’

‘इसी तरह बच्चों का आत्मविश्वास टूटता चला जाता है।’

‘यह मेरी अपनी परवरिश से आया दोष है… जवान हो जाने पर माँ हमें अपनी छत पर भी अकेला नहीं छोड़ती थी।’

‘इस उम्र की खरोंचे मिटाते नहीं मिटती है… फिर मुनिया बेहद सेंसटिव लड़की है… कहती कुछ नहीं है पर सोचती बहुत है।

‘तुम्हारी तरह।’

‘मैं तो कितना, ज्यादा बोलता हूँ… कभी-कभी मुझे अपने इतने ज्यादा बोलने पर बहुत शर्म आती है।

‘और मुझे अपना इतना ज्यादा चुप रहने पर।’ रसोई से कॉफी की गंध उठ रही थी। सर्दियों के आकाश पर बारिश के बादलों की धूम थी। कहीं दूर बादल गरज रहे थे। मुनिया के पिता को बरबस ही अपनी माँ का बारिश में भीगा हुआ चेहरा याद आया और देशी कवेलियों की छत का वह मकान भी जिसमें फैक्टरी के काम के बाद वह लौटती रही थी। माँ का इस तरह याद आना एक तरह की तसल्ली थी, जिसकी वे हमेशा ही प्रतीक्षा करते थे।

सुबह

कल रात में मुनिया की माँ की नींद बीच-बीच में टूटती रही, उड़ती रही। देह में बुखार का डेरा रहा और दवाइयों का असर भी। बादल गड़गड़ाते रहे। बारिश होती रही। बारिश की आवाज के बीच ही शायद हावड़ा मेल गुजरती रही होगी और मालती को कलकत्ता के करीब बहती गंगा का, उसके किनारे खड़े अस्पताल का, अस्पताल के गलियारे में रखी बेंच का ख्याल आया था। बरसों पहले उसी अस्पताल में उसके पिता मरे थे। वहीं मुकुल सन्याल से देर-देर तक बातचीत होती रही थी और वहीं मुकुल ने पहली बार मालती के लिए अपनी भावनाओं को व्यक्त किया था। मुकुल खड़गपुर में इनके पड़ोस मे रहता था और ग्रेजुएट होने के बाद मैकमिलन की किताबों को आसपास के इलाकों में बेचा करता था। एक किस्म का मैनेजर-कम-सेल्समैन जिसे पुस्तक मेलों मे अपना पंडाल भी सँभालना होता था और विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों और लाइब्रेरियों में लोगों से मिलना भी पड़ता था, बातचीत करनी पड़ती थी।

मुकुल की याद उनके अपने युवा दिनों की याद थी। उस याद के साथ वह बिस्तर पर लेटे हुए अँधेरे को ताकती रही थी। मन मे आया कि अमीर खान के उस रिकार्ड को फिर सुने लेकिन अँधेरी रात के खयाल ने ऐसा करने नहीं दिया। सीढ़ियाँ उतर कर नीचे जाने का भी मन हुआ। वहाँ पति या बिटिया के पलंग पर सोया जा सकता था। वहाँ इन क्षणों के अकेलेपन से शायद थोड़ा-सा मुक्त हुआ जा सकता था। उन्होंने सिरहाने का लैंप जलाया और नींद की वह गोली खाई जिसे बहुत जरूरत होने पर लेने के लिए कहा गया था। कुछ देर बाद वे निद्रा और अनिद्रा के बीच झूलने लगी। रात की उस खामोश घड़ी में उन्हें महसूस हुआ कि उनके सिरहाने उनका मृत बेटा श्रीकांत खड़ा हुआ है और दहलीज के बल्ब की रोशनी में खड़ा मुकुल एक एटलस के पन्ने पलट रहा है।

‘तुम सोई नहीं माँ’ श्रीकांत पूछ रहा है।

‘तुब कब आए’ माँ पूछ रही है।

‘मैं रोज आना चाहता हूँ… ईश्वर इजाजत नहीं देता है।’

‘मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगी… बहुत पहले मुकुल ने मुझे एक प्रेयर-बुक दी थी।। मैं उसे ढूँढ़ूँगी… मुकुल को इसके लिए चिट्ठी लिखूँगी।’

‘मैं यही खड़ा हूँ मालती… मैं दरवाजे पर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ’ मुकुल कह रहा है।

‘माँ ये मुकुल कौन है’ बेटे ने पूछा है।

‘खड़गपुर में हमारे पड़ोस में रहता था… मुझसे शादी करना चाहता था… पर पक्की नौकरी नहीं थी… पापा ने मना कर दिया था।’

‘यह तुम्हारे सिरहाने पर ऊन का गोला रखा है… क्या मेरे लिए स्वेटर बुन रही हो’ बेटा पूछ रहा था।

‘नहीं मुकुल के लिए मफलर बुन रही हूँ… वह शहर-दर-शहर भटकता रहता है।।

‘वे यहाँ नहीं आते हैं।’

‘इतनी दूर कैसे आएगा… कलकत्ते से यहाँ तक का किराया कौन देगा…

‘तुम्हारा बुखार उतर जाने दो… मैं तुम्हें कलकत्ता ले जाऊँगा।’

श्रीकांत तुम मुझे कितना चाहते हो… मुकुल के बाद सिर्फ तुमने ही मुझे इतना ज्यादा चाहा है… श्रीकांत… श्रीकांत… मुकुल…

मुनिया चाय और पानी लिए हुए खड़ी थी।

‘चाय पी लो’ मुनिया ने कहा।

‘पहले ब्रश करूँगी’ माँ ने कहा।

‘वह तो तुमने सुबह ही कर लिया था।’

‘अभी क्या बजा है।

‘नौ बज रहे हैं।’

‘तुम कालेज नहीं गई?’

‘तुम्हारा बुखार चढ़ रहा है, उतर रहा है, बाबा ने एक टेबलेट दूसरी दी है…’

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‘वे कब गए?’

‘अभी-अभी निकले हैं …मैं दरवाजा बंद करने के बाद यहाँ आई तो तुम भैया का नाम ले रही थी, किसी मुकुल सन्याल का नाम ले रही थी।’

मालती ने सोचा कि यह ठीक ही रहा कि मुनिया सामने थी। उसके पिता होते तो उन्हें दुख मिलता कि इतने बरसों के बाद भी मैं उस आदमी को भूल नहीं सकी हूँ जिससे बरसों पहले मिला करती थी। कोई दरवाले पर दस्तकें दे रहा था। शायद बिजली गई होगी। मुनिया नीचे उतरी तो देहरी पर डाकिया था। मुनिया की माँ के नाम उनकी बागवानी पर लिखी पुस्तक के प्रकाशक का पत्र था।

दोपहर

मुनिया की माँ की नींद लगी हुई थी। तभी फोन की घंटी बज उठी। एक पल के लिए उनकी आँखें खुली और उन्हें देहरी पर बैठा हुआ अपना कुत्ता नजर आया। फोन की घंटी थम गई। बाहर बदली छाई हुई थी। पुल के नीचे से ट्रेन गुजर रही थी। फिर फोन की घंटी बजने लगी।

‘तुम आज भी नहीं आई?’

‘माँ को बुखार आ रहा है सिद्धार्थ।’

‘मैं घर आ जाता हूँ।’

‘इसकी जरूरत नहीं है।’

‘उनसे मिलना भी हो जाएगा।’

‘तुम माँ को नहीं जानते।’

‘क्या वह डिक्टेटर हैं?’

‘मेरे लिए उनके मन में डर बना रहता है।’

‘कैसा डर?’

‘मैं लड़की जो हूँ।’

‘और तुम्हारे बाबा?’

‘वे मुझे समझते हैं… भाई की मौत ने माँ को बहुत व्याकुल भी बनाया है।’

‘इस वक्त माँ कहाँ हैं?’

‘ऊपर के कमरे में सो रही है।’

‘मैं नीचे आ जाता हूँ।’

‘कभी ऐसी बेवकूफी मत करना… मैं तुमसे छिप-छिपकर मिलना नहीं चाहूँगी।

‘फिलहाल तो हम छिप-छिपकर ही मिलते रहे हैं।’

‘कुछ दिन सब्र करो… मैं एक दिन माँ बाबा से तुम्हें यही मिलवाऊँगी।’

‘क्या वे मान जाएँगे?’

‘उन दोनों को मुझ पर पूरा भरोसा हैं।’

‘ठीक है… आज फोन पर ही बातें करते हैं।’

‘अब तुम फोन रख दो… अम्मा के आने का वक्त हो रहा है… बाबा भी घर जल्दी ही लौटेंगे…

मुनिया ने फोन का रिसीवर रखा ही था कि उसे माँ की अपने लिए पुकार सुनाई दी। पड़ोस के डाक्टर करनाड लौट आए थे। उनके यहाँ से कर्नाटक संगीत की आवाज आ रही थी।

‘कुत्ता उल्टी कर रहा है।’

‘शायद बदहजमी होगी… अम्मा ने इसे कल दुपहर की खिचड़ी दी थी।’

‘यह सिद्धार्थ कौन है?’

‘मेरे साथ पढ़ता है।’

‘कभी यहाँ आया नहीं।’

‘बहुत दूर रहता है… मैंने कभी कहा भी नहीं।’

‘कल उसका फोन आया था… तुम्हें बताने की याद नहीं रही… अभी किसका फोन था?’

‘मैडम का…’

‘क्या कह रही थी।’

‘शेक्सपीयर पर एक पूरा पेपर है… मैकबेथ पर सवाल आता ही है।’

‘कल चली जाना… बाबा कल घर पर ही रहेंगे।’

क्यों?

‘तुम भी भूल गई… कल तुम्हारा जन्मदिन है… कल तुम बीस पार करोगी…

कोई दरवाजे की बेल बजा रहा था। राधाबाई के आने का वक्त हो गया था। सीढ़ियाँ उतरते हुए मुनिया माँ के भीतर पकती बातों पर सोच रही थी, सिद्धार्थ की ब्रेसब्री और बेवकूफी के बारे में सोच रही थी। उसने सोचा कि माँ संशय में डूबने लगी है। मेरा मन टटोलना चाह रही है। मुझसे कुछ उगलवाने की इच्छा रखती है। सिद्धार्थ ने मुझे बताया होता कि माँ से उसकी बातचीत हुई थी तो मैं तैयार रहती। झूठ बोल देती। अजीब लड़का है। लापरवाह और बेसब्र। अब माँ बाबा को बताएँगी ओर मेरे बाहर जाने पर एतराज शुरू करेंगी। अब मैं लाइब्रेरी जाने के बहाने हर रोज सिद्धार्थ से मिल भी नहीं सकूँगी।

सीढ़ियाँ उतरते हुए मुनिया के मन में एक तरह का भय, एक किस्म का संशय उतरने लगा। सीढ़ियों पर जाती दोपहर की धूप के धब्बों के साथ-साथ चिड़िया के पंख थे, घास के तिनके और चिड़िया की बीट के दाग थे। माँ ने फिर अमीर खान का रिकार्ड लगा लिया था। उसने दरवाजा खोला। बाहर राधाबाई भी थी और बाबा भी। बाबा के हाथ में रजनीगंधा के फूल थे, किताबों का छोटा-सा पैकेट और अपना हेलमेट।

‘तुम बहुत सुस्त नजर आ रही हो।’ बाबा ने पूछा।

‘हल्का सा जुकाम है’ उसने ने कहा।

‘देर-देर तक नहाती रहती है… कल एक लड़के का फोन था इसके लिए… याद आया सिद्धार्थ का… ये नहा रही थी… बेचारा कितनी देर तक मुझसे मजबूरी में बातें करता रहा।’

नाम तो तुम्हारे दोस्त का बहुत अच्छा है… यह किसी बड़े लेखक का प्रसिद्ध उपन्यास भी है… मैंने उस पर बनी फिल्म देखी थी’ बाबा ने कहा।

बाबा अपनी कमीज का बटन खोलते हुए बोल रहे थे। फिर वे गुसलखाने में चले गए। माँ अपने लिए आई चिट्ठी को दुबारा पढ़ने लगी। मुनिया ने एक-एक रिकार्ड के टाइटल्स पढ़ने शुरू किए। एक रिकॉर्ड पर गीता दत्त की बहुत ही सुंदर काली-सफेद तस्वीर थी।

‘यह कैसा रिकॉर्ड है’ मुनिया ने पूछा।

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‘उनका आखिरी रिकॉर्ड है… सुनो तो मन भर उठता है… उनके इन गानों को सुनना आसान नहीं है… अपने पुराने दुख उभर आते हैं…

‘क्या मैं लगाऊँ?

‘अभी नहीं… मेरा मन वैसे ही ठीक नहीं है… पता नहीं इस बुखार से कब निजात मिलेगी।’

‘तुम बुखार में बहुत बड़बड़ाती हो।’

‘बुखार नहीं रहता तो चुप जो बनी रहती हूँ।’

‘सुबह तो मैं डर ही गई थी।’

‘मैंने देर रात में नींद की गोली ले ली थी।’

‘तुम भैया से बाते कर रही थी।’

‘उसकी याद आ रही है… कल तुम्हारा बीसवाँ जन्मदिन है… वह होता तो पच्चीस का होता।’

बाबा बाथरूम से लौट आए थे। दीवान पर फैले हुए रिकॉर्डों मे से उन्होंने निखिल बैनर्जी का एक रिकार्ड निकाला। राग सिंधु भैरवी था। सितार का आलाप, सितार का विस्तार मुनिया के तनावों को कुछ कम रहा था। मुनिया की तसल्ली को कुछ बढ़ा रहा था।

बाहर सर्दियों की दुपहर, ढल रही थी। मुनिया अपने कमरे में अपने पढ़ने की मेज पर कोहनियों को टिकाए हुए सोच रही थी कि क्या जिंदगी इसी तरह सरकती चली जाती है। बीतती चली जाती है। एक के बाद एक पहर आते हैं, चले जाते हैं। धूप निकलती है। शाम होती है। चारों तरफ अँधेरा घिर आता है। आसमान में तारे चमकते हैं। फिर सब शांत हो जाता है। एक तरह की नियमित किस्म की खामोशी में समूची दुनिया डूब जाती है। कोई गहरी नींद में चला जाता है। किसी की नींद बीच-बीच में टूटती रहती है। किसी को नींद ही नहीं आती है। इन दिनों माँ के साथ यही हो रहा है। यह मुकुल सन्याल कौन है? माँ क्यों बार-बार इस नाम को दुहराने लगी है? दुपहर की उस अलसाई घड़ी में मुनिया सोच रही थी, जाग रही थी, सुस्ता रही थी।

मुनिया के बाबा अपनी बाल्कनी को आरामकुर्सी में बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थे। अखबार की किसी खबर से उनका ध्यान उस शाम पर गया जब उन्होंने कैंप एरिया के एक रेस्तराँ की मेज पर उन्होंने मुनिया को एक लड़के के साथ बतियाते हुए देखा था। वह सिद्धार्थ ही रहा होगा। उस शाम वे उस रेस्तराँ के दरवाजे से ही लौट आए थे। वे वहाँ असम की चायपत्ती खरीदने के लिए गए थे जिसे मुनिया की माँ बहुत पसंद करती थी। उस रोज उनके मन में आया भी था कि वे रात में मुनिया से बात करेंगे। बाद में वह अपना मन नहीं बना सके। ऐसा करना उन्हें अश्लील-सा जान पड़ा। रेस्तराँ में अपने एक दोस्त के साथ बैठी हुई बात ही तो कर रही थी। इससे क्या हो जाता है? बेहतर तो यह होता कि वे उनकी मेज तक जाते। उसे लडके को अपना परिचय देते। उनके साथ पीते और उनका बिल चुकाकर लौट आते। अपनी बिटिया के जीवन के लिए उन्हें इतना नहीं सोचना चाहिए कि वह अपना जीवन जी सके अपनी तरह से जी सकें और वे पिता की हैसियत से उसके लिए ऐसा वातावरण बनाने की कोशिशें कर सकें। उसकी माँ शायद इस बात को पसंद नहीं करेगी। वह औरत है। उसके अपने भय होंगे और मैं उन भयों को दूर नहीं कर सकूँगा, पर पिता और पुरुष होते हुए मैं तो मुनिया के लिए कुछ कर सकता हूँ, सोच सकता हूँ। अपने दिल के द्वंद्वों के साथ मुनिया के बाबा दोपहर के आकाश को, बदली भरे आकाश को देख रहे थे। वहाँ एक अकेला परिंदा मंडरा रहा था।?

दोपहर अपनी अंतिम उतराई पर थी। मुनिया की माँ थोड़ी-सी नींद के बाद गुलदान में खड़े हुए रजनीगंधा के फूलों को देखने लगी। ‘कल तक ये मुरझा जाएँगे।’ आज का दिन ही इनका दिन है। उनका यह ख्याल बरबस ही उनकी बिटिया की तरफ मुड़ता गया। वे सोच रही थी कि बेटे की मौत ने उनको कहीं छोटा और क्रूर बना दिया है। कुछ ज्यादा ही नीच ओर औसत। अगर ऐसा न हुआ होता तो क्या उन्होंने दूसरे रिसीवर पर अपनी बिटिया और सिद्धार्थ की बातों को चोरी से सुना होता? यह मैंने कितना घटिया काम किया। अपने कमीनेपन, अपनी नगण्यता और नीचता की याद के बीच में वे भी दोपहर के आसमान में अकेले उड़ते हुए परिंदे को देखने लगी। वह पक्षी शायद अपने घर का रास्ता भूल गया था। शायद वह अपने किसी सगे से बिछड़ गया होगा…।

सर्दियों की ढलती दोपहर में वह आकाश के एक ही दायरे में चक्कर लगा रहा था। नीचे किसी ने दरवाजे की बेल दबाई होगी। सीढ़ियों के पास के रोशनदान से चिड़िया की चहचहाट आ रही थी। किसी की सीढ़ियाँ चढ़ने की आहट ऊपर आ रही थी। एंप्रेस मील का चार का गजर उठा था।

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