चकनाचूर आकाश
चकनाचूर आकाश

ऊपरी दरारों में निहित हैं
आकाशीय कंप के अवशेष।
गर ऐसा होता तो विसेंट हुईडिब्रो*
पा लेता अपना मार्ग।

लेकिन वातावरण को
बड़े सरकस के तंबू में बदलते
बादलों पर लगे वे बड़े-बड़े घाव
जिनमें लगी दुकानों में
आराम से विराजे हैं दुर्भाग्य
कवि-कल्पना के स्मारकों से भी
बहुत दूर हैं।

आकाशीय दरारें देती हैं आभास
जैसे उन पर फेंके गए हों पत्थर।

किसने फेंके ये पत्थर?
फेंक कौन सकता था,
किसने दी
पत्थर फेंकने की वह शक्ति
अपनी सनक में
किसने छिपा लिया वह हाथ।

सदा विलंब होता है हमें,
किसी ने नहीं देखा वो हाथ
किसी ने नहीं देखे पत्थर
हम देख पा रहे हैं
अभी तक ऊपर जाती वाष्प,
अदृश्य – गंधाती उपरि गमन रत गैस
दर्शन और घ्राण शक्ति से परे वे द्रव
जो गुजरते समय
दे जाते हैं फटे हुए होंठ
और आँखों में चुभता – खुजलाता घाव।

तर्जनी के अग्रभाग पर उठती एक टीस ने
खोज ली दरारें,
हमने कहा, ये वाष्प
ये गैसें, ये द्रव
कुछ फेंके गए पत्थरों के
छोड़े गए चिह्न हैं, निशान हैं।

अब चकनाचूर आकाश धमकाता है
कि वह गिर पड़ेगा
हमारे सिरों पर।

इसकी जड़ में या तो है
वह बड़ा सा खाँचा
या केवल स्थूल प्रतिशोध।

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