चाल | रवींद्र कालिया
चाल | रवींद्र कालिया

चाल | रवींद्र कालिया – Chaal

चाल | रवींद्र कालिया

उस दिन शनिवार था और शनिवार को उस चाल के पिछवाड़े मैदान में सूखी मछली का बाजार लगता था। इस मैदान की एक अपनी दुनिया थी। सोम से शुक्र तक इसका माहौल अत्यन्त डरावना रहता। रात को कहीं किसी पेड़ के नीचे मोमबत्ती या दिया टिमटिमाता और उस अँधेरी रोशनी में देर तक ताश और मटका चलता। भिखारियों, जुआरियों, लूलों-लँगड़ों का यह प्रिय विश्रामस्थल था। ड्रेंगो इस मैदान के ‘दादा’ का नाम था। वह गले में रूमाल बाँधे अक्सर इस मैदान के आस-पास नजर आता। बिना ड्रेगों को दक्षिणा दिए इस मैदान में प्रवेश पाना असम्भव था, मगर शुक्र की रात से ड्रेंगो की सल्तनत टूट जाती।

ड्रेंगों की एक प्रेमिका थी – मारिया। वह पास के ही एक सिनेमाहाल में ब्लैक में टिकटें बेचने का धन्धा करती थी। शुक्र की रात ड्रेंगो उसके यहाँ चला जाता और उसके काम मे हाथ बँटाता। मैदान में उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाती।

शाम को जब जमादार झाड़ू लगाता, तो बहुत विचित्र किस्म की चीजें कूड़े में मिलतीं। नौटांक की खाली बोतलें। चिपचिपे निरोध। ताश के पत्ते। मटके की पत्रिकाएँ। सूखी हुई रोटियाँ। हडि्डयाँ। सिनेमा की टिकटें। और कभी-कभी कोई लाश। दिन भर कौवों की काँव-काँव सुनाई देती और रात देर तक कुत्तों के रोने की आवाज।

शुक्र की रात यह मैदान रोशनी से जगमगाने लगता। उस बस्ती में टैक्सी मिलना दुश्वार हो जाता। मछुओ-मछुवारिनों का दल रात-भर में अपनी दुकानें बैठा लेता, सूखी हुई मछली के बड़े-बड़े अम्बार लग जाते और दूर-दूर तक बस्ती में मछली की गन्ध गमकने लगती। चाल के लोग बड़ी तत्परता से मैदान की और खुलने वाली खिड़कियाँ बन्द करने लगते।

सुबह होते-होते अहाते के बाहर मछली बाजार के समानान्तर एक और बाजार लग जाता, जिसमें आलू प्याज से ले कर ‘हरचीज दस नये की’ जैसी चीजें बिकने लगतीं। गुब्बारे, चाट, सिन्दूर, पुराने कपड़े, धोतियाँ, साड़ियाँ, पतलूनें, कमीजें, पुराने जूते, लाटरी, वेणी, पाँच नये में भाग्य आजमाओं और दस नये में ताकत। शुद्ध शिलाजीत, भीमसेनी काजल। ताजा मुर्ग मुसल्लम। गर्म चाय। गर्ज यह कि धीरे-धीरे मछली बाजार मेले के रूप में बदलने लगता। सूखी मछली से लदे बीसियों ट्रक आते और मछली से लद कर बीसियों ट्रक लौट जाते। मछली बाजार से निकलते ही मछुवारिनें अपनी हफ्ते-भर की कमाई का कुछ हिस्सा वहाँ खर्च कर देतीं। शीघ्र ही यह दल वरसोवा की ओर लौटने लगता, पैदल, बसों में, टैक्सियों में और खाली ट्रकों में लद कर। बाजार के उठते ही धीरे-धीरे मैदान की ओर वाली चाल की खिड़कियाँ खुलने लगतीं।

प्रकाश के कमरे में एक ही खिड़की थी और वह इसी मछली बाजार की तरफ खुलती थी। शायद खिड़की के लिए कमरे में दूसरी जगह थी भी नहीं। बीच में दीवार खींच कर रसोई और पाखाने का इन्तजाम कर दिया गया था। यही कारण था कि चाल में कमरों का भाड़ा और पगड़ी अपेक्षाकृत कम थी। चाल के मालिकान लोग अक्सर सरकारी कार्यालयों से आसपास मँडराते रहते थे। मछली बाजार इस मैदान से उठाने के लिए वे कोई भी रकम खर्च करने को तैयार थे। उन्हें मालूम था कि मछली बाजार के उठते ही उनकी आमदनी में आशातीत वृद्धि होगी। पुराने किरायेदार अधिक पगड़ी के लालच में कमरे छोड़ने लगेंगे और नये किरायेदारों से मनमाना किराया ऐंठा जा सकेगा। नगर निगम ने चाल के आसपास कच्ची सड़कें बनावा दी थीं। थोड़ी ही दूर पर स्टेशन जाने के लिए बस मिलती थी। डाकखाना खुल गया था, बच्चों के लिए एक छोटा-सा उद्यान बन चुका था। मकान मालिकान ने किसी तरह से बिजली का कनेक्शन ले लिया था अब अगर मछली बाजार भी उठ जाये…

यह चाल किरण के कालिज से बहुत दूर पड़ती थी, मगर किराये को देखते हुए इससे उपयुक्त स्थान उन्हें नहीं मिल सकता था। पाँच सौ रुपये पगड़ी और पचास रुपये किराया। लैट्रिन बाथरूम अटैच्ड। शहर में रहते हुए गाँव का मजा।

किरण सुबह जल्दी में रही होगी, वह खिड़की बन्द करना भूल गयी थी, और प्रकाश के लिए अब सूखी हुई मछली की गन्ध के बीच और अधिक लेटे रहना नामुमकिन हो गया था। वह हड़बड़ा कर उठा और उसने खिड़की बन्द कर दी, मगर मछली की गन्ध तब तक सारे कमरे में रच-बस चुकी थी। आखिर उसने खिड़की खोल दी और दरवाजा भी और अपने को उस गन्ध के सुपुर्द कर दिया। प्रकाश ने देखा, किरण जाने से पूर्व उसके लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बना कर जाली में रख गयी थी। अक्सर वह किरण के साथ ही नाश्ता किया करता था। मगर उस रोज वह देर तक सोता रहा था। सोता क्या रहा, लेटा रहा था। बिना हिले-डुले। किरण की ओर पीठ किए। वह नहीं चाहता था, किरण से उसकी आँखें मिलें। उसे लग रहा था, कल शाम उसकी मौत हो गयी थी और अब किरण के जाने के बाद ही उसका पुर्नजन्म होगा। वास्तव में वह रात-भर सोया नहीं था। रात-भर ठंडा खून खौलता रहा, जैसे खटिया के नीचे धू-धू आग जल रही हो। पड़े-पड़े ही वह कई बार गुणवन्तराय की हत्या कर चुका था, मगर दूसरे ही क्षण वह गुणवन्त राय को ठहाके लगाते हुए और स्वयं को अशक्त पाता। जैसे उसके शरीर का सारा रक्त निचुड़ गया है, और वह किरण के साथ अपने ही खून के तालाब में गोते खा रहा हो।

प्रकाश ने बर्तनों की खनक से पड़े-पड़े ही जान लिया था कि किरण जग गयी है। प्रकाश का खयाल था कि किरण आज कालिज नहीं जायेगी, कभी कालिज नहीं जायेगी और वह टैक्सी चालाना सीख लेगा। बन्तासिंह दयालु आदमी है। उसे टैक्सी चालाना भी सिखा देगा और भाड़े की टैक्सी भी दिलवा देगा। टैक्सी में ही वे अपने दोस्तों से मिलने जा सकते हैं। टैक्सी वह सबर्ब में ही चलाएगा। अँधेरी कुर्ला रोड पर टैक्सी मिलना कितना मुश्किल है। बन्तासिंह से उसकी दोस्ती हो जायेगी। वह चाल में सबसे पहले उठता है। और देर तक टैक्सी पोंछते हुए ‘धन्न बाबा नानक जेन्हें जग तारिया’ गुनगुनाता रहता है। टैक्सी का लाइसेंस मिलने में दिक्कत हुई, तो वह अपने दोस्त की तरह ‘टाइम लाइफ’ की एजेंसी ले लेगा और दिन भर वार्षिक ग्राहक बनाएगा। जब बहुत से ग्राहकों का पैसा इकट्ठा हो जायेगा, तो वह चुपके से शहर छोड़ देगा। नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। सबका चंदा-ठीक-ठीक जमा कर देगा और तरक्की करता-करता एक दिन फोर्ट एरिया में अपना दफ्तर खोल लेगा – किरण एजेंसीज। फिलहाल वह ट्यूशनें भी कर सकता है। वह और किरण मिल कर किंडर गार्डन’ खोल सकते हैं। इधर तो चाल के लोगों में भी अंग्रेजी स्कूलों का आकर्षण बढ रहा है। कुछ भी सम्भव न हुआ, तो वह दादर स्टेशन पर पेन बेचेगा। पढ़े लिखे बेकार लोगों की संख्या बढ़ायेगा।

किरण ने यह सब नहीं सोचा था। वह रोज की तरह उठी और सुबह का काम निपटा कर एक सौ तेरह नम्बर की कतार में जुड़ गयी। प्रकाश आँखें बन्द किए भी जान रहा था, कि किरण अब नाश्ता बना रही है। अब भोजन। अब नहा रही है, अब ब्लाउज और अपना एकमात्र पेटीकोट पहने दीवार पर टँगे आइने में देखते हुए बाल कर रही है। अब वह अपना पर्स ढूँढ़ रही है। पर्स कल उसने कुछ इस अन्दाज से किताबों के ऊपर फेंक दिया था, जैसे अब वह कभी उस पर्स को नहीं उठायेगी। अब वह भूल चूकी है। प्रकाश कहते-कहते रुक गया कि पर्स रैक के नीचे गिरा पड़ा है। मगर आवाज उसके हलक में ही चिपक कर रह गयी। पर्स धूल में लथपथ हो चुका होगा, किरण देखेगी तो भन्ना जायेगी। इससे अच्छा है, वह चुप रहे और उसके लौटने से पूर्व रैक के नीचे सफाई कर दे और झाड़-पोंछ कर पर्स ठिकाने पर रख दे। प्रकाश का खयाल था, कि आज कालिज जाने से पहले किरण उससे परामर्श कर लेगी, मगर उसे यह सब गवारा न हुआ। अगर उसके लिए इतनी ही साधारण घटना थी, तो कल इतने रोने-धोने की क्या जरूरत थी? प्रकाश को देखते ही क्यों फूट पड़ी थी। क्या वह उसके पुरुषत्व को चुनौती दे रही थी? अब वह गुणवन्तराय के सामने कैसे जायेगी?

‘साला गुणवन्तराय!’ प्रकाश बुदबुदाया, ‘हरामजादा।’

किरण ने कल जब कालिज से लौट कर सारा किस्सा बताया था, तो प्रकाश को कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा था। वह भीतर-ही-भीतर इस परिणति की प्रतीक्षा ही कर रहा था। कोई भी पुरुष इतना मूर्ख नहीं होगा कि अकारण ही इतनी सुविधाएँ देता रहे। उसकी गिद्ध दृष्टि निहित स्थानों में लगी रहती है। स्टाफ-सेक्रेटरी वह गुणवन्त राय की कृपा से ही हुई थी। स्नातकोत्तर कक्षाएँ भी उसी के प्रयत्न से मिली थीं। सीनियर ग्रेड के लिए उसी ने किरण का नाम आगे किया था, जबकि किरण से भी अधिक अनुभवी दूसरी प्राध्यापिकाएँ अब भी छोटी कक्षाओं को व्याकरण पढ़ाती थीं। साला कितने योजनाबद्ध ढंग से काम करता है। क्रिमिनल!

‘तुमने एक थप्पड़ क्यों नहीं धर दिया?’ प्रकाश ने किरण से कहा था।

‘मैं बेहद घबरा गयी थी। वह बहुत बेशर्मी से मुझे ताक रहा था। बोला, बेबी मुझे लगता है, तुम किसी साइको-सेक्सुअल उलझन में हो। तुम्हें मैन्सेस तो समय पर होते हैं? ‘हरामजादा!’ प्रकाश ने कहा, ‘तुम्हें चप्पल से उसकी पिटाई करनी चाहिए थी।’

‘मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं और दरवाजा खोल कर बाहर आ गयी।’

‘उसने दरवाजा बन्द कर रखा था?’ ‘नहीं। वह दरवाजा खुलने पर अपने-आप बन्द हो जाता है। कालिज में सभी दरवाजे ऐसे हैं।’

‘तुमने हल्ला नहीं किया?’

‘नहीं! मैं तुरन्त निर्णय नहीं कर पाई। मुझे अभी तक कँपकँपी आ रही है।’

‘तुम्हें बाहर आते देख वह घबरा गया या खलनायक की तरह हँसने लगा?’

‘मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं। मुझे बुढ़ऊ किस्म के आशिकों से वैसे ही नफरत है।’

‘तुम मुझसे कुछ छिपा तो नहीं रही?’

‘नहीं!’ – किरण ने घूर कर प्रकाश की तरफ देखा।

‘ऐसी जगह नौकरी करने से कहीं अच्छा है, मेरी तरह घर पर ही सड़ती रहो।’ प्रकाश अपने को बेहद निस्सहाय, कमजोर और असन्तुलित पा रहा था। किरण नल पर जा कर मुँह पर छींटे देने लगी।

‘उस हरामखोर ने जरूर चुम्बन वगैरह ले लिया होगा, जो अब यह इतना परेशान हो रही है और बार-बार मुँह पर साबुन पोत रही है।’ प्रकाश अनाप-शनाप बकता रहा – ‘मैं आज ही किरण के प्रिंसिपल से मिलूँगा। प्रिंसिपल से क्या, सारी मैनेजिंग कमेटी से मिलूँगा। उल्लू के पट्ठे को इतना परेशान कर दूँगा कि आत्महत्या कर लेगा। मैं शिक्षामंत्री को पत्र दूँगा और उसकी प्रति लिपियाँ इन्दिरा गांधी, वी.वी. गिरि और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास भिजवा दूँगा। मैं उसको चौराहे पर अपमानित कर दूँगा। मुझे और काम ही क्या है? दिन-भर इसी में लगा रहूँगा और जब वह मेरे पाँव पर लोटेगा, तो अपना पाँव पटक दूँगा सारी आशिकी धरी रह जायेगी। उसकी पत्नी को बताऊँगा कि यह शख्स जिन्दगी भर तुम्हें मूर्ख बनाता आया है, तुम इसके लिए करवा चौथ-जैसे ब्रत रखती हो और यह जानवरों से भी गया-बीता है। बीवी भड़क गयी तो ठीक नहीं तो साले कि बिटिया का अपहरण करा दूँगा। ड्रेंगो दो सौ रुपये में यह काम करा देगा। वैसे यह नौबत नहीं आयेगी, साले की बिटिया जवान होने से पहले ही पीटर के साथ भाग जायेगी। मैं इंजीनियर नहीं बन पाया, मगर सफल खलनायक जरूर बन सकता हूँ। ‘ब्लिट्ज’ में एक टिप्पणी छप गयी, तो टापता रह जायेगा। सारे देश में आग की तरह यह खबर फैल जायेगी।

कोई भी निर्माता इस ‘थीम’ पर फिल्म बना कर लाखों कमा लेगा। लाखों कमा लेगा, मगर ‘थीम’ का सत्यानाश कर देगा। हीरो को तुरत मुक्केबाजी के लिए पहुँच जाना चाहिए था, मगर वहाँ हीरो निहायत चूतिया है। फिल्म में तो हीरो अब तक वहाँ पहुँच चुका होता, जहाँ पन्ना का मुजरा देखते हुए गुणवन्तराय नशे में धुत्त पड़ा होता। मेरे पास तो कार भी नहीं है कि मैं टेढ़ी-मेढ़ी सडकों पर तीन मिनट तक, उसका पीछा करता। फिल्म कैसी भी बने, सारा समाज गुणवन्तराय पर थू-थू करेगा। मगर किरण का प्रिंसिपल निहायत चुगद किस्म का आदमी है। उसे तो इस बात को ले कर अब तक इस्तीफा दे देना चाहिए था। मगर किरण का प्रिंसिपल इस्तीफा नहीं देगा। उसे किसी पागल कुत्ते ने काटा है कि वह इस्तीफा दे। वह जानता है कि उसने इस्तीफा दे दिया, तो गुणवन्तराय तुरत प्रिसिंपल हो जायेगा। प्रिंसिपल टापता रह जायेगा और मैं भी।

दरअसल इस देश का लगातार पतन हो रहा है। जिस देश में एक इंजीनियर इस तरह खटिया पर पड़ा-पड़ा ही दिन बिता दे और नौकरी को तरसता रहे, उस देश का क्या होगा? समय आ गया है कि भगवान कृष्ण अब जन्म ले लें, नहीं तो यह अग्रवाल का बच्चा बनारसी साड़ियाँ बेच-बेच कर इमारत-पर-इमारत बनाता जायेगा। वह पैसा तो खूब कमा लेगा मगर जीवन भर महसूस नहीं करेगा कि उसकी बीवी ‘भाँग की पकौड़ी’ पढ़-पढ़ कर समय काटती है। अग्रवाल का भाग्य अच्छा था कि वह सुन्दर न हुई। वह सुन्दर होती तो क्या होता? कुछ भी नहीं होता। अग्रवाल और अधिक मन लगा कर साड़ियाँ बेचने लगता।

प्रकाश ने सुबह से चाय भी नहीं पी थी। किरण अब तक दो पीरियड ले चुकी होगी। मालूम नहीं, गुणवन्तराय से उसकी भेंट हुई या नहीं। हो सकता है मामला प्रिंसिपल या रजिस्ट्रार तक पहुँच गया हो। कुछ हो भी सकता है। प्रकाश ने देखा, किरण ने सुबह आलू उबाल कर उनसे कई काम ले लिए थे। डबलरोटी में आलू, हरी मिर्च भर कर उसने नाश्ता तैयार कर दिया था और उबले आलू की तरकारी बना दी थी। अपने लिए, शायद वह आलू के पराँठे बना कर ले गयी थी, क्योंकि आलू का एक पराँठा प्रकाश के लिए भी रखा था। आलू के इतने उपयोग देख कर प्रकाश फिर भड़क गया, मैं आलू से भी गया-बीता हूँ। मेरा पराँठा भी नहीं बन सकता। आलू एक मुफीद चीज है, इसे कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अपने बाप की तरह किसी बैंक में आलू हो जाता तो रिटायर होते-होते किसी ब्रांच का मैनेजर जरूर हो जाता, मगर मेरा बाप मुझे इंजीनियर बनाना चहता था। बना दिया इंजीनियर? क्या फायदा हुआ रात देर तक ओवरटाइम करने का? लकवा मार गया और आँखें जाती रहीं। कोई भी मेरे बाप को देख कर कह सकता है कि यह शख्स ‘ओवरटाइम’ का मारा है। यह तो मैं काफी फुरसत में था कि किरण को फाँस लिया। मेरा बाप तो मेरे लिए लड़की भी न ढूँढ़ पाता। बाप आखिर बाप है। बूढ़े बाप पर क्यों तैश दिखा रखा हूँ?

मुझे नौकरी मिल जाये, मैं बाप के सब शिकवे दूर कर दूँगा। बांद्रा में दो बेडरूम-हाल ले लूँगा और अपने बाप के लिए एक नर्स नियुक्त कर दूँगा। किरण को बुरा लगेगा। उससे कहूँगा, वह भी अपनी माँ को बुला ले। दोनों मिल कर पूजा-पाठ करते रहेंगे। बैंक के मैनेजर ने ऋण के सिलसिले में दुबारा मिलने को कहा था, उससे मिलूँगा। संसद-सदस्य चौधरी पिछले पंद्रह वर्षों से लोकसभा में बैठा है, मगर उसे खबर तक नहीं कि पंडित नन्दलाल अग्निहोत्री का होनहार बेटा, जिसे वह गोद में उठा लिया करता था, अँधेरी की एक चाल में बेकार पड़ा है। मैं चौधरी को एक मर्मभेदी पत्र लिखूँगा। उसे लिखूँगा कि वह इतने वर्षों से संसद में क्या कर रहा है? पिछले वर्ष मेरे बाप ने भी चौधरी के नाम एक पत्र लिखवाया था, जिसके उत्तर में चौघरी ने बहुत-सा साहित्य भेजा था। आजादी से पहले भारत में सुइयाँ भी आयात की जाती थीं आज यहाँ हवाई जहाज बनते हैं। चौधरी ने बहुत सा रंगीन साहित्य भेजा था। उसके पत्र के साथ एक बहुरंगी फोल्डर भी था, ‘आर यू प्लानिंग टु सेट अप ए स्मॉल स्केल इंडस्ट्री’ फोल्डर की भाषा अत्यंत मुहावरेदार थी। दो रंगी छपाई। मैपलिथो कागज। कागज के उस टुकड़े ने मुझे कितना आंदोलित कर दिया था!’

प्रकाश को याद है, उसने कुछ ही दिनों में कई योजनाओं का प्रारूप तैयार कर लिया था। ड्राई सेल, बैटरी एलिमेनटर, इण्टर कम्युनिकेशन सेट, लाख रुपये तक का ऋण देने को तत्पर था। प्रकाश ने बीसियों बार वह फोल्डर पढ़ा और अपने बाप को उसने एक बहुत ही भावुकतापूर्ण पत्र लिखा। उसने लिखा कि उनके आशीर्वाद से वह शीघ्र ही व्यस्थित हो जायेगा। उसने इण्डस्ट्रियल इस्टेट में डेढ हजार वर्गफीट जगह भी सुरक्षित करा ली है। अगर परिस्थितियों ने साथ दिया, तो छह महीनों में उसकी फैक्ट्री चालू हो जायेगी। उसकी हार्दिक इच्छा है कि शुभ मुर्हूत पर वह अवश्य उपस्थित रहें।

जिस दिन प्रकाश बैंक के मैंनेजर से मिलने गया, किरण ने कालेज से अवकाश ले लिया था। प्रकाश बैंक में पहुँचा, तो बिजली नहीं थी। तमाम कर्मचारी अपनी-अपनी कुर्सी छोड़ कर हवा में टहल रहे थे।

‘आपसे मिलने के पूर्व मैं कार्यालय से कुछ जानकारी ले लेना चाहता था, मगर दुर्भाग्य से आज बिजली नहीं।’ प्रकाश ने मैनेजर के सामने बैठते हुए कहा, ‘मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा अच्छे अंक प्राप्त करके पास की है और ‘आर’ यू प्लानिंग टु सेट अप एक स्मॉल स्केल इण्डस्ट्री’ पढ़ कर आप से मिलने आया हूँ।’

‘यह अच्छा ही हुआ कि बिजली नहीं है, वरना आपसे भेंट ही न हो पाती। आप मिश्रा से मिलते और मिश्रा आपको जानकारी की बजाय गाली दे देता। वह आने वाले से यही कहता है कि यह सब स्टंट है आप घर में बैठ कर आराम कीजिए। कुछ होना-हवाना नहीं है।’

प्रकाश अपनी योजनाओं के बारे में बिस्तार से बात करना चाहता था, मगर उसने पाया कि बैंक का मैनेजर सहसा आध्यात्मिक विषयों में दिलचस्पी लेने लगा है। वह धूप में कहकहे लगा रहे बैंक के कर्मचारियों की ओर टकटकी लगा कर देख रहा था और जैसे दीवारों से बात कर रहा हो, ‘तुम नौजवान आदमी हो, मेरी बात को समझ सकते हो। यहाँ तो दिन-भर अनपढ़ व्यापारी आते हैं, जिन्हें न स्वामी दयानन्द में दिलचस्पी है, न अपनी सांस्कृतिक विरासत में। वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से हमारा रिश्ता कितना सतही होता जा रहा है, इसका अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं।

प्रकृति की बड़ी-बड़ी शक्तियों में आर्य लोग दैवी अभिव्यक्ति देखते थे। आज क्या हो रहा है, आप अपनी आँखों से देख रहे हैं। बिजली चली गयी और इनसे काम नहीं होता। कोई इनसे काम करने को कहेगा, ये नारे लगाने लगेंगे। मैं इस से चुप रहता हूँ। किसी से कुछ नहीं कहता। आप चले आये, बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो मैं गुस्से में भुनभुनाता रहता और ये सब मुझे देख-देख कर मजा लेते। मैं पहले ही ‘एक्सटेंशन’ पर हूँ। नहीं चाहता इस बुढ़ापे में प्राविडेंट फंड और ग्रेच्युटी पर कोई आँच आये। आपकी तरह मैं भी मजा ले रहा हूँ। मैंने बिजली कम्पनी को भी फोन नहीं किया। वहाँ कोई फोन ही नहीं उठाएगा। इन सब बातों पर मैं ज्यादा सोचना ही नहीं चाहता। पहले ही मन्द रक्त चाप का मरीज हूँ। दिल दगा दे गया, तो यहीं ढेर हो जाऊँगा। देवों का तर्पण तो दूर की बात है, यहाँ कोई पितरों का तर्पण भी नहीं करेगा। आप यह सब सोच कर उदास मत होइए। आप एक प्रतिभासम्पन्न नवयुवक है, तकनीकी आदमी हैं।

बैंक से ऋण ले कर अपना धन्धा जमाना चाहते हैं। जरूर जमाइए। पुरुषार्थ में बड़ी शक्ति है। हमारा दुर्भाग्य यही है, हम पुरुषार्थहीन होते जा रहे हैं। आप हमारे बैंक का फोल्डर पढ़ कर आये हैं, मेरा फर्ज है, मैं आपकी पूरी मदद करूँ। ऋण के लिए एक फार्म है, जो आपको भरना पड़ेगा। इधर कई दिनों से वह फार्म स्टॉक में नहीं है। मैंने मुख्य कार्यालय को कई स्मरण-पत्र दिए हैं कि इस फार्म की बहुत माँग है। दो सौ फार्म तुरंत भेजे जायें। फार्म मेरे पास जरूर आये मगर वे नया एकाउंट खोलने के फार्म थे। आज की डाक से यह परिपत्र आया है। आप स्वयं ही पढ़ कर देख लीजिए। मैं अपने ग्राहकों से कुछ नहीं छिपाता। मैं खुले पत्तों से ताश खेलने का आदी हूँ। इस परिपत्र में लिखा है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद पढ़े-लिखे तकनीकी लोगों को बैंक से अधिक-से-अधिक आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए। आपका समय नष्ट न हो, इससे मेरी राय यही है कि आप कहीं से उस फार्म की प्रतिलिपि प्राप्त कर लें, उसकी छह प्रतिलिपियाँ टंकित करा लें, मुझसे जहाँ तक बन पड़ेगा, मैं आपके लिए पूरी कोशिश करूँगा। वैसे निजी तौर पर आपको बता दू, मेरे कोशिश करने से कुछ होगा नहीं। मैं कब से कोशिश कर रहा हूँ कि इस ब्रांच के एकाउंटेंट का तबादला हो जाये, मगर वह आज भी मेरे सर पर सवार है।

सारे फसाद की जड़ भी वही है। गर्मी भी उसे ही सबसे ज्यादा लगती है। पुराना आदमी है, अफसरों से ले कर चपरासियों तक को पटाये रखता है, यही वजह है कि उस पर कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती। दो ही वर्षों में मैंने उसकी ‘कॉन्फीडेंशल फाइल इतनी मोटी कर दी है कि अकेले उठती नहीं। मगर आज कागजों का वह अर्थ नहीं रह गया, जो अंग्रेजों के जमाने में था। कागज का एक छोटा-सा पुर्जा जिन्दगी का रुख ही बदल देता था। ऋण की ही बात ले लीजिए। यह सब ‘पेपर एनकरेजमेंट’ यानी कागजी प्रोत्साहन है। यही वजह है कि हिन्दुस्तान में कागज का अकाल पड़ गया है। राधे बाबू ने गेहूँ या तेल से उतनी कमाई नहीं की, जितनी आज कागज से कर रहे हैं।’

इसी बीच बिजली आ गयी। कमरे में उजाला हो गया और धीरे-धीरे पंखे गति पकड़ने लगे। प्रकाश के दम-में-दम आया। अपनी योजनाओं के प्रारूप की जो फाइल प्रकाश अपने साथ इतने उत्साह से लाया था, मैनेजर ने पलट कर भी नहीं देखी थी। चपरासी ने बहीखातों का एक अम्बार मैनेजर के सामने पटक दिया। एक ड्राफ्ट उड़ कर प्रकाश के पाँव पर गिरा। प्रकाश ने वहीं पड़ा रहने दिया। मैनेजर ने चिह्नित पृष्ठों पर मशीन की तरह कलम चलानी शुरू कर दी।

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प्रकाश उठा और मैनेजर के कमरे से बाहर आ गया, जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आ गया हो। उसके सामने कारों, बसों, दुमंजिला बसों और टैक्सियों का हजूम था। लोगों की लम्बी कतारे बसों की प्रतीक्षा में खड़ी थीं। सड़क के दोनों ओर ऊँची-ऊँचीं इमारतें। प्रकाश को लगा वह किसी भी स्तर पर इस दुनिया से तादाम्य स्थापित नहीं कर पा रहा है। वह न तो बस की कतार में शामिल हुआ और ना ही स्टेशन का पुल पार करने स्टेशन की ओर बढ़ा। आगे रेल की लाइन के नीचे से एक रास्ता पूरब की ओर जाता था, वह उसी पर बढ़ गया। किरण घर में उसका इन्तजार कर रही होगी, मगर उसे घर जाने की जल्दी नहीं थी। किरण सारा किस्सा सुन कर अवश्य गुमसुम और उदास हो जायेगी।

वह लुढ़कता-लुढ़कता घर पहुँचा, तो मालूम हुआ किरण कालिज चली गयी है। वह एक पत्र छोड़ गयी थी कि आज उसके केवल दो पीरियड हैं, छुट्टी उसी दिन लेगी, जिस दिन उसके चार पीरियड होंगे। प्रकाश ने राहत की साँस ली और खटिया पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़ा और घंटों यों ही अकर्मण्य-सा लेटा रहा। किरण के लौटने का समय हो रहा था, मगर उसने उठ कर चाय का पानी भी नहीं चढ़ाया।

‘वह अब शायद रोज मुझे से चाय की अपेक्षा रखने लगी है’ – प्रकाश ने कहा – ‘ठीक ही तो है, दिन-भर की थकी लौटगी। कम-से-कम चाय का एक गर्म प्याला तो उसे मिलना ही चाहिए। लेकिन आज मैं चाय नहीं बनाऊँगा, यों ही लेटा रहूँगा। डाक भी खोल कर नहीं देखूँगा, सब में एक ही शब्द होगा : रिसैशन। जब तक रिसैशन दूर नहीं होगा, मैं किरण के लिए चाय बनाता रहूँगा, रिसैशन खत्म न हुआ तो खाना भी बनाने लगूँगा।

चाल में किसी का पंखा खराब हो जाये, इस्त्री काम न करे, रेडियो एक साथ दो-दो स्टेशन पकड़ने लगे या फ्यूज उड़ जाये, सब मेरे पास ही आते हैं। अब कह दिया करूँगा, आटा गूँथ लूँ और चपाती सेंक लूँ, फिर आता हूँ।

मछली बाजार का शोर मन्द पडने लगा था। मैदान वीरान हो रहा था। प्रकाश उठा और उसने किसी तरह से नाश्ता लिया। वह देर तक बिना किसी उत्साह और दिलचस्पी के अखबार पढ़ता रहा। कोई भी खबर उसे कहीं भी नहीं छू रही थी। हवाई दुर्घटना में एक सौ व्यक्ति मारे गये, निक्सन ने चीन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। अगला बच्चा अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं। घर में बच्चा होता, तो प्रकाश कितनी आसानी से उसे पाल लेता। मगर वह खाता क्या? ईश्वर सबका इन्तजाम करके धरती पर भेजता है। मगर लिंडियाल जिन्दाबाद! किरण भुलक्कड़ है, मगर ‘लिंडियाल’ लेना नहीं भूलती। भूल गयी तो कन्फरमेशन खटाई में पड़ जायेगा, मिसेज बोस के साथ यही हुआ था कच्ची नौकरी में ही बच्चे ने धर दबाया और अँधेरी से कांदिवली पहुँच गयी।

हल्के से दरवाजा खुला और बाई प्रकाश के पास से गुजर गयी। बाई जवान है और घर में एकान्त है, प्रकाश फिर भी जड़ बैठा रहा।

‘बाई!’ – प्रकाश ने जोर से आवाज दी।

‘क्या है?’ बाई ने झाँक कर उसकी तरफ देखा।

‘अगर मैं तुम्हें पकड़ लूँ और बदतमीजी कर दूँ, तो तुम क्या कर लोगी?’

‘यही सब करना होता, तो मैं बर्तन ही क्यों मलती।’ बाई ने कहा, ‘पाँच नम्बर का मारवाड़ी बाबू जानबूझ कर टकरा गया था, मैंने तभी काम छोड़ दिया।’

‘मारवाड़ी बाबू की तो चाल में बहुत इज्जत है।’

‘होगी!’ बाई ने कहा, ‘मगर मुझसे आँख मिलाने को कहो।’

‘तुम्हारा आदमी क्या करता है?’

‘मजूरी, और क्या करेगा?’

‘कहाँ?’

‘फैक्टरी में, और कहाँ?’

‘कौन-सी फैक्टरी में?’

‘वह सामने वाली फैक्टरी में, जहाँ काँच के गिलास बनते हैं।’ बाई ने कहा, ‘मगर अब कई दिनों से वह बैठ गया है। कहीं भी जम कर काम नहीं करता। उसे कहीं कोई काम दिलवा दो, तो मेरी छुट्टी हो।’

प्रकाश को हँसी आ गयी। अकेलापन कितना काटता है। बाई से बात करना बहुत आच्छा लग रहा था। उसकी इच्छा हुई, बाई को गोद में उठा कर झूम जाये। वह सुबह से कितना मनहूस बैठा था। अभी वह अपने आदमी की फैक्टरी का पता बता रही थी, अभी कह रही है, बेकार है।

‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’

‘दो।’ बाई ने कहा, ‘तीसरा पेट में है। इसके बाद बस।’

‘कौन-सा महीना है?’

‘कार्तिक में होगा।’ बाई ने कहा, ‘बाबू तुम्हारे यहाँ भी तो होना चाहिए। दो तो सरकार भी कहती है।’

‘तुम ठीक कहती हो।’

‘साठे को क्यों नहीं दिखाते। सब उसी का इलाज कराते हैं।’ बाई ने कहा, ‘रोज पर एक फकीर बैठता है, उसका ताबीज भी काम करता है।’

‘अच्छा!’

‘बबलू की माँ कहती थी, बहू कोई गोलियाँ खाती है।’

प्रकाश ने बाई की तरफ देखा, उसके ब्लाउज का बीच का बटन खुला था। और वह पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदने की कोशिश कर रही थी।

‘साली मुझे अकेला पा कर फाँस रही है।’ प्रकाश ने मन-ही-मन कहा और अखबार में मशगूल हो गया।

बाई तुरंत वहाँ से हट गयी अन्दर जा कर बर्तन मलने लगी। कमरे में पोंछा लगा दिया, कपड़े धो कर कमरे में ऊँची टँगी तारों पर बाँस से फैला दिए। प्रकाश कौतुक से उसे देखता रहा। अपना काम निपटा कर वह दरवाजे के पास जा कर खड़ी हो गयी।

‘आज बाजार है, दो रुपये दे दो।’

‘बहू से लेना।’ प्रकाश ने कहा। उसे वाकई मालूम नहीं था कि घर में रुपये हैं या नहीं हैं।, हैं तो कहाँ हैं। किरण रुपये कुछ इस ढंग से निकालती है कि पास खड़ा आदमी भी नहीं जान सकता, अभी-अभी उसके हाथ कहाँ गये थे।

बाई के जाते ही कमरा भाँय-भाँय करने लगा। प्रकाश कुर्सी से उठा और मछली बाजार की तरफ खुलने वाली खिड़की के पास जा खड़ा हुआ। चाल की स्त्रियाँ आलू-प्याज से भरे थैले ले-ले कर लौट रही थीं। मगर बीच में नाला पड़ता था। स्त्रियाँ आलू-प्याज और बच्चे के साथ आसानी से नाला फाँद जातीं। खिड़की के सामने फैक्टरियों की चिमनियाँ धुआँ उगल रही थीं।

‘बाजार में अगर मंदी है तो यह फैक्टरियाँ धुआँ क्यों उगल रही हैं, गाड़ियों में इतनी भीड़ क्यों है? गगनचुम्बी इमारतें कौन बना रहा है? जबकि देश की उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक के पास ईंट खरीदने के लिए पैसा नहीं है, काम करने के लिए जगह नहीं है। मैं दो बम बनाऊँगा, एक गुणवन्तराम की खोपड़ी पर और दूसरा बैंक की भव्य इमारत पर दे मारूँगा।’ प्रकाश बुदबुदाया, ‘शट-अप प्लीज! तुम कुछ नहीं करोगे। बीवी की डाँट खाओगे और अजगर की तरह पड़े रहोगे। एक दिन यो ही पड़े-पड़े तुम्हारे बाल सफेद हो जायेंगे और तुम बिना औलाद के मर जाओगे। दादर स्टेशन पर जा कर कुलीगिरी क्यों नहीं करते? अभी-अभी किसके सामने शेखी बघार रहे थे? बोलो! बोलो!’

प्रकाश उठ कर बालकनी में आ गया। चाल की यह संयुक्त बालकनी है। बाहर केवल औरतें और बच्चे ही नजर आ रहे थे। इस समय शायद वह चाल में अकेला पुरुष था। नहीं, अकेला नहीं। एक और माई का लाल इसी चाल में रहता है। पाल प्रशांत। प्रशांत महासागर की औलाद!

प्रकाश ने ऊपर से पाल के कमरे की ओर निगाह फेरी। पाल हास्बेमामूल टाइपराइटर से भिड़ा हुआ था। टाइपराइटर बिगड़ जाये, तो पाल मैकेनिक की तलाश नहीं करता। दहेज में मिला उषा सिलाई का पेचकस निकाल कर खुद ही ठीक-ठाक कर लेता है। प्रकाश ने यह महसूस किय पाल के अलावा चाल सो रही थी। चाल की स्त्रियाँ खाने वाने से निपट कर बालकनी में जगह-जगह सुस्ता रही थीं। दरअसल यह समय सबके लिए फुरसत का समय है। बड़ी-बूढी औरतें खाँसते हुए बच्चों को टाँगों पर बैठा कर चंदामामा की सैर कराते हुए, बहू के सिर से जुएँ निकाल कर अथवा खाट पीट कर पिस्सू निकालते हुए अपना समय बिताया करती हैं। जिन स्त्रियों को अपने मैके से आई चिट्ठी पढ़वानी या कुछ भेद-भरी बात माँ को लिखवानी होती है, वे प्रकाश के कमरे के आस-पास मँडराया करती हैं। पहले पाल कभी यह काम बखूबी कर दिया करता था, मगर इधर वह इस काम की भी फीस माँगने लगा है। यही कारण है कि प्रकाश की लोकप्रियता लगातार प्रगति की मंजिलें तय करती जा रही हैं। प्रकाश चुपचाप पत्र वगैरह लिख देता है और उसके पत्र लिखते ही चाल में कृष्णा की ढुँढ़वाई मचती है। चाल के बच्चे उसे कहीं-न-कहीं से ढूँढ़ निकालते हैं। कृष्णा आँखें नचाता, कमर मटकाता कहीं से प्रकट हो जाता।

कृष्णा हिजड़े का नाम है, जो चाल में सीढ़ियों के नीचे एक छोटी-सी कोठरी में रहता है। शाम घिरते-घिरते उसकी व्यस्तताएँ नये रूप में प्रकट होने लगती हैं। शृंगार करके निकलता, उसे पहचाना मुश्किल हो जाता है। बालों में वेणी, होठों पर लिपस्टिक, साड़ी में लिपटी स्लीवलेस बाँहें, कांता सेंट की महक और पीछे-पीछे बच्चों की लम्बी कतार। बच्चे दूर तक उसके पीछे जाते हैं। रास्ते में मौका मिल जाये और दो-एक शरीर बच्चे साथ हों, तो उसके चीरहरण के प्रयास शुरू हो जाते हैं।

बच्चों का विश्वास है कि कृष्णा, हिजड़ा नहीं, भला-चंगा आदमी है। वे यह भी जानते हैं कि कृष्णा ने इस समय जो ब्लाउज पहना हुआ है, वह उसे पप्पू की माँ ने दिया था। साड़ी देवकी ने दी थी। लिपस्टिक अग्रवाल की पत्नी की है। पाउडर उसे चोपड़ा साहब के यहाँ से मिलता है।

कृष्णा के पीछे भागते बच्चे पार्क के पास पहुँच कर, सहसा ठिठक जाते हैं। वहाँ कृष्णा के आशिकों का एक नया दल उसकी प्रतीक्षा में बीड़ी-पर-बीड़ी फूँकता नजर आता है। शाम की पाली से छूटे आशिकों का दल मुँह से तरह तरह की सीटियाँ बजाता। पहले यह दल चाल तक भी हो लेता था, मगर एक दिन कपूर साहब ने अपनी बीवी और दोनों बेटियों को इस तरह से एक दृश्य का मजा लेते देख लिया। कपूर साहब गुस्से में पैर पटकने लगे और बीवी के रोकते-रोकते संतरी को पाँच रुपये थमा कर अपने साथ लेते आये। संतरी ने मजदूरों को देखते ही गाली बकना शुरू कर दिया। दो-तीन दिन तक संतरी ने ऐसा समाँ बाँधा कि उन लोगों ने चाल तक आना छोड़ दिया। अब पार्क उनकी सीमा-रेखा थी।

कपूर साहब की आत्मा को शांति मिल गयी थी। उनकी दानों जवान बेटियाँ अब पाली छूटने का भोंपू सुनते ही कपाट बन्द कर लेतीं। छोटा भाई मटकू किराये की किताबों की दुकान से गुलशन नंदा का कोई उपन्यास ला देता। चाल से जरा ही दूर सड़क पर किराये की किताबों की दुकान थी। जहाँ आलू-प्याज मटके की पत्रिकाएँ और सिगरेट-बीड़ी एक साथ बिकते थे। चाल में किताबें लाने, ले जाने का काम कृष्णा ही करता था, मगर कपूर-परिवार चूँकि कृष्णा से खफा था, इसलिए यह काम मोटू को ही करना पड़ता था।

कृष्णा के आशिक कृष्णा को देखते ही उसे कंधों पर उठा कर भाग जाते। चाल के बच्चे हो-हो करते उनके पीछे दौड़ते मगर मछली बाजार के आगे कोई नहीं जाता।

कृष्णा रात देर से लौटता। अक्सर एक ही पिक्चर उसे रोज देखनी पड़ती। सुबह होने से पहले वह उठ कर नहा लेता और बन्तासिंह की टैक्सी धुलाते हुए नजर आता। कहते हैं, चाल में किसी ने उसे सोते नहीं देखा था। सुबह जब चाल के पुरुष काम-धंघे के लिए निकल जाते, तो चाल पर कृष्णा का साम्राज्य हो जाता। औरतों के पास आँख लड़ाने के लिए यह हिजड़ा ही रह जाता। सिन्हा की बीवी सिन्हा साहब और बच्चों का खाने का डिब्बा भिजवाते ही खटिया बाहर निकलवा लेती और घण्टों कृष्णा से टाँगें दबवाती।

पाल की पत्नी चाल में किसी से बात नहीं करती थी। पाल से भी नहीं। मगर कृष्णा से उसकी पटती थी। अक्सर वह टैक्सी में लौटती और कृष्णा से पैसे ले कर भाड़ा चुकाती। वह ड्राइवर से दो-तीन बार हार्न बजाने को कहती, कृष्णा कच्चे धागे से बँधा चला आता। पाल या उसके बच्चों पर हार्न की इस आवाज को कोई असर नहीं पड़ता। पाल बदस्तूर टाइप करता रहता। चाल की भावुक स्त्रियाँ दिन-भर यतीम की तरह घूमते पाल के बच्चों को देख कर कई बार रो पड़तीं। शुरू में कई बार दया-भाव से प्रेरित हो कर स्त्रियाँ बचा-खुचा भोजन पाल के बच्चों के लिए भिजवा देती थीं, मगर एक दिन पाल को कहीं से तीन सौ का चैक मिल गया। वह चाल में शेर की तरह दहाड़ने लगा कि उसके बच्चों की तरफ किसी ने टुकड़ा फेंका, तो वह उसे कभी माफ नहीं करेगा। उसके पास खाने को नहीं होगा, तो वह बच्चों-समेत आत्महत्या कर लेगा, मगर भिखमंगों की तरह नहीं जिएगा। ऐसी हालत में पाल की बीवी का टैक्सी में आना-जाना चाल की स्त्रियों को बड़ा रहस्यमय लगता। वे आपस में फुसफसातीं, ‘इस छिनाल के कई यार हैं। जाड़िया की रखैल है। वही नित नयी-नयी साड़ियाँ देता होगा। कैसे सती सावित्री की तरह जमीन की तरफ देखते हुए चलती है।’

स्त्रियों का खयाल था कि कृष्णा पाल की पत्नी के बारे में बहुत-कुछ जानता था। कई बार वह उसे अज्ञात जगहों पर दौड़ाया करती। वह घण्टों गायब रहता और गृहणियाँ पाल की पत्नी की गाली देतीं। कृष्णा लौटता, तो कुछ भी न बताता। स्त्रियों की कोशिश रहती कि किसी प्रकार कृष्णा को फुसला कर उस छिनाल के बारे में जानकारी हासिल करें, मगर कृष्णा इतना ही कहता, ‘उसके दिन फिरने दीजिए बहन जी!’ सिन्हा की पत्नी कृष्णा से टाँग दबवाते हुए उसकी बात छेड़ती, तो कृष्णा छिटक कर अलग हो जाता, ‘बहन जी हमसे अंट-संट की बात न किया करो। कृष्णा के इस रवैये का परिणाम यह निकला कि वह सब किसी का विश्वास प्राप्त करने लगा। स्त्रियाँ उसके प्रति इतनी निश्चिन्त हो गयीं कि उसके सामने ब्लाउज अथवा पेटीकोट बदलने में भी उन्हें संकोच न होता, साड़ी की बात तो दर किनार।

फिल्मी दुनिया की चकाचौंध पाल को बम्बई खींच लाई थी। वर्षों के संघर्ष के बाद पाल को एक फिल्म के निर्देशन का काम मिला था, मगर निर्माता कहीं भाग गया। निर्माता की तलाश में वह पागलों को तरह भटकता रहा, मगर किसी मनचले ने उद्योग में यह भ्रम फैला दिया कि जो भी निर्माता पाल से फिल्म करवाएगा, इस दुनिया से जरीवाला की तरह कूच कर जायेगा। आखिर थक-हार कर पाल ने ‘मीत’ फिल्म की कुछ तस्वीरें फ्रेम करवा के अपने कमरे में टाँग लीं और रोजी-रोटी के लिए दूसरे दरवाजे खटखटाने लगा। ‘मीत’ की तस्वीरें आज भी पाल के कमरे में लटक रही हैं। घर में गन्दगी रहे, पाल सुबह उठ कर उन तस्वीरों का अवश्य झाड़ देता है। इस सैट के लिए उसने मद्रास से कारीगर मँगवाया था, मुधुवाला की यह मुस्कराहट ‘मीत’ के बाद किसी फिल्म में न आ पाई, हैलेन का यह कैबरे आज भी कोई न दे सका। पाल तस्वीरें झाड़ते जाता और उदास होता जाता। दुनिया ने उसकी कला की कद्र नहीं की। पाल को आज भी कभी कभी उम्मीद होने लगती कि कोई न कोई माई का लाल उसके पास जरूर आयेगा और फिल्म पूरी करने को कहेगा। सत्यजित रे उसके सामने पानी भरेगा। हृषिकेश मुखर्जी बम्बई छोड़ देगा। उन दिनों बाँठिया उसके पीछे-पीछे घूमता था, जरीवाला के चक्कर में न आ कर बाँठिया से अनुबंध कर लिया होता तो, आज नक्शे दूसरे होते। पाली हिल पर फ्लैट होता, यही हरामजादी मिसेज पाल दुम हिलाते हुए चापलूसी करती। आज उसे गरीबी से नफरत हो गयी है, मुझसे विरक्ति और बच्चों से एलर्जी।

दरअसल अपनी सफलता की प्रत्याशा में पाल ने बहुत असावधानी और निश्चिन्तता में एक के-बाद दीगरे चार बच्चे पैदा कर लिए थे, जो क्रमशः पब्लिक स्कूलों से म्युनिसिपैलिटी की पाठशालाओं में पहुँचते गये। उन दिनों वह माहिम में रहता था। रात देर को लौटता और अपनी पत्नी के आगोश में डबल बेड पर धँस जाता। फिर उसे सुबह ही होश आता था। अपने सुनहरे दिनों में पाल ने पत्नी को ढेरों कपड़े दिए थे, और बहुत से गहने। पाल की पत्नी मूर्ख नहीं थी। उसने ये सब चीजें कुछ ऐसे सँभाल कर रखीं कि आज भी जब वह चाल से निकलती है, तो किसी फिल्म निर्देशक की पत्नी से कम नहीं दिखती। कड़के के दिनों में पाल नाक रगड़ कर रह गया कि जेवर बेच कर कोई धन्धा जमा ले, मगर पाल की बीवी ने अँगूठी तक नहीं दी। उसने अपने को दुर्घटनाओं से कुछ इस तरह बचा कर रखा कि बड़े से बड़ा स्त्री-विशेषज्ञ भी नहीं कह सकता कि यह चार बच्चों की माता है। वह सुबह दस-ग्यारह बजे बन-सँवर कर घर से निकल जाती और शाम को तब तक न लौटती जब तक पाल शाम का भोजन वगैरह पका कर बच्चों को खिला और सुला न देता। पाल चूँकि पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर का पुराना स्नातक था, धाराप्रवाह अंग्रेजी और उर्दू बोल सकता था, उसे फिल्मों में दूसरी तरह का काम मिलने लगा। बहुत से नायक निर्माता अपनी फिल्म के लिए पाल से पटकथा और संवाद लिखा लेते और नाम अपनी पत्नी का दे देते। उसकी लिखी कुछ फिल्में सफल भी हुईं, मगर इससे पाल को कोई लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे पटकथा और संवादों के अंग्रेजी अनुवाद करने का काम मिलने लगा। यह काम उसे पसन्द आया। इसमें ज्यादा खुशामद भी दरकार न थी। पूरी फिल्म का अनुवाद वह पचास-सौ रुपये में कर देता, इसलिए उसके पास काम की कमी भी नहीं थी। जबकि चाल के लोगों का खयाल था, कि यह काम भी उसकी बीवी ही लाती थी।

पाल को तीन चीजें जिन्दा रखे थीं। उसके पास अगर टेलीफोन, टाइपराइटर और खूबसूरत बीवी न होती, तो वह भूखों मर जाता। चालभर में फोन पाल के ही पास था, इसलिए फोन से भी उसे अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। शुरू में चाल के बहुत से मनचले तो फोन के बहाने, उसकी बीवी से आँख लड़ाने चले आते थे। बीवी पलट कर भी न देखती कि कौन आया है। वह अधलेटे उपन्यास पढ़ती या शूल्य में ताकती। अब केवल जरूरत-मन्द लोग ही फोन करने आते। बहुत से लागों ने अपना सिक्का जमाने के लिए अपने विजिटिंग कार्ड पर पाल का फोन नम्बर दे रखा था, जिससे रह-रह कर फोन की घण्टी टनटनाने लगती।

गर्ग के फोन सबसे अधिक आते। गर्ग ताजमहल होटल में होजरी की एक दुकान में मुनीम था। मालिक लोग लुधियाना में थे, लिहाजा उसे ऊपर की आमदनी भी हो जाती थी। वह अपनी बीवी से बेतरह डरता था। उसने बंगालिन से शादी की थी और इस शादी में उसने तन-मन-धन सब खो दिया था। वह दरअसल प्यार का मारा हुआ आदमी था। बंगालिन से प्यार का एक छींटा मिलते ही वह उस पर फिदा हो गया और बाप के मरते ही अपनी सारी जायदाद बंगालिन के नाम कर दी और खुद हौजरी की दुकान में मुनीम हो गया। उसके चेहरे पर, होठों पर सफेद कोढ़ था। औरत को पा कर उसका जीवन सार्थक हो गया, मगर जल्दी ही वह मनचिकित्सकों से परामर्श लेने लगा कि उसकी पत्नी होंठ पर चुम्बन नहीं देती, संभोग से उसे वितृष्णा है, गर्ग अगर प्यार के अतिरेक में बच्चे को चूम लेता तो बंगालिन कई हफ्तों के लिए विनोबा भावे की तरह मौन व्रत धारण कर लेती। हस्पतालों के चक्कर लगा कर वह थक गया तो चाल के एक सफल डॉक्टर से परामर्श लेने लगा। डॉ बापट नया-नया डॉक्टर हुआ था, और धंधे की अपेक्षाओं से अपरिचित था। नतीजा यह हुआ कि शीघ्र ही गर्ग की ये बातें चाल में फैल गयीं। मेढेकर नाम के लाइनो-ऑपरेटर से डॉक्टर की मित्रता थी, जो गर्ग के बगल वाले कमरे में रहता था। इन अफवाहों का असर यह हुआ कि एक दिन गर्ग को सपना आया कि उसकी पत्नी डॉक्टर बापट के प्रेमपाश में फँस गयी है। गर्ग बेचैन हो गया। उसने सपने को सच मान लिया और उदास रहने लगा। दुकान से असमय उठ आता और ‘चेकिंग’ करके लौट जाता। पाल को गर्ग जैसे वहमी किस्म के ग्राहकों से बहुत असुविधा होती थी। गर्ग का फोन आता, तो उसकी बीवी कहलवा देती, टिंकू को दस्त आ रहे हैं, उनसे कहो फोन न करें। पाल इस बात से चिढ़ जाता। उसे तब तक चवन्नी नहीं मिलती थी, जब तक बात न हो जाये। गर्ग बात भी क्या करता था, चिल्लाता था,’बच्चे की ‘फीड’ में पाँच बूँद ‘पिपटाल’ जरूर मिला देना, फिर भी पेट ठीक न हो, तो ‘केल्टिन-सस्पेंशन’ दे देना। जरूरत पड़े, तो मुझे बुलवा लेना, मैं बापट से सलाह कर लूँगा।’

गर्ग साहब, तीन मिनट हो गये। अब दुगना पैसा देना होगा!’ पाल कहता। वैसे ग्राहक से ज्यादा बात करना पाल के स्वभाव में नहीं है। पैसे उगाहने का काम प्रायः उसकी बेटी ही करती है। सब से छोटी बेटी रेणु। रेणु अब स्कूल नहीं जाती। सुबह नहा कर खुद ही धोया हुआ फ्राक पहन लेती है और फोन के निकट रखे स्टूल पर ऊँघने लगती है। एक दिन गर्ग का फोन आया, तो रेणु ने फटाक से कह दिया कि वह बंगालिन को नहीं बुलायेगी। वह खाली पीली बोम मारती हैं और चवन्नी भी नहीं देती। पाल ने चौंक के बिटिया की ओर बड़े स्नेह से देखा। कितना अच्छा है! उसकी बेटी अब बात-बात पर परेशान नहीं करती और स्वयं ही निर्णय ले लेती है।

गर्ग ने कहा कि उसकी बीवी अगर फोन नहीं भी सुनती वह चवन्नी देगा। तब से रेणु बैठे-बैठे चवन्नियाँ कमाने लगी। गर्ग का फोन आता दे, तो वह ‘होल्ड ऑन’ कह कर कमरे में नाचने लगती है और थोड़ी देर बाद आवाज में खीझ भर कर कहती है, बंगालिन दरवाजा भी नहीं खोलती।

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एक दिन गर्ग से बीवी की यह उदासीनता बर्दाश्त न हुई और वह तीखी दोपहर में घर चला आया। यह संयोग ही था कि बंगालिन सोयी हुई थी, गर्ग के लाख खटखटाने पर भी उसने दरवाजा न खोला। गर्ग को विश्वास हो गया था, जब उसकी पत्नी दरवाजा नहीं खोलती, तब अवश्य डाक्टर बापट उससे रंगरलियाँ मनाता होगा।

पाल अपनी बेटी की इन शरारतों पर ध्यान न देता। यह लड़की दिन भर में पाँच रुपये की रेजगारी जमा कर लेती थी। आने वाली ‘कालों’ में कुछ खर्च भी नहीं होता था। इस लिहाज से रेणु दिन-भर में ढाई-तीन रुपये तो कमा ही लेती थी। पाल के लिए यह पर्याप्त था। लड़की अपना काम दिलचस्पी और जिम्मेदारी से कर रही थी। जिस किसी का भी फोन आता, रेणु घोड़े की चाल से भागती और उस व्यक्ति को ढूँढ़ निकालती। ग्राहक के रिसीवर रखते ही वह चवन्नी वसूल लेती। उसके आगे किसी का बहाना न चलता। रेजगारी न होती तो वह हाँफते हुए डाकखाने तक जाती और रेजगारी ले आती। डाकखाने के बाबू लोग उसे पहचानने लगे थे।

प्रकाश को रेणु ने खुली छूट दे रखी थी।, कि वह भी अपने विजिटिंग कार्ड पर उसका फोन नम्बर दे दे, मगर प्रकाश कहीं ‘विजिट ही नहीं करता था। रेणु को प्रकाश पर दया आ गयी। उसने कहा, प्रकाश का फोन आयेगा तो वह उससे बुलाने के पैसे नहीं लेगी। मगर प्रकाश को पाल की ही तरह किसी के फोन का इन्तजार नहीं था। प्रकाश के कमरे में पाल के फोन की टनटनाहट स्पष्ट सुनाई देती थी। प्रकाश को कभी नहीं लगा कि टनटनाहट उसके लिए हो सकती है। पाल पर भी इस घंटी का कोई असर नहीं होता। रेणु आस-पास न हो, तो वह रिसीवर भी नहीं उठाता।

दिन में पाल जितना ही शांत नजर आता, पी के लौटने पर उतना ही अशांत और खूंखार हो जाता। घर की चीजें इधर-उधर पटकने लगता। एक बार तो उसने खाट के नीचे पड़े पत्नी के ट्रंक पर इतने जोर से ठोकर मारी कि उसके पाँव के अँगूठे का नाखून छिल गया। कई बार वह भोजन की थाली बाहर मैदान में पटक देता, फिर थोड़ी देर बाद स्वयं ही उठा लाता। उसकी पत्नी की आवाज बहुत कम लोगों को सुनाई देती, मगर वह सुई की तरह कोई-न-कोई बात अवश्य चुभो देती होगी कि पाल आपे से बाहर हो जाता।

शुरू में पाल के पास ‘मीत’ फिल्म का एक रिकार्ड था, और ग्रामोफोन। गाना सुनते ही उस पर ऐसा पागलपन सवार हो जाता, वह कमरे में तेज तेज चलने लगता और कई बार अपने कपड़े फाड़ने लगता। आखिर जब पाल ने महसूस किया कि इस गीत के चक्कर में उसके बहुत से कपड़े तार-तार हो चुक हैं, वह चुपके से ‘मीत’ का एक मात्र रिकार्ड नाले में फेंक आया और देर तक गुमसुम बैठा रहा। ज्यों ही पाल की पत्नी कपड़े बदल कर कमरे में आती, पाल बुडबुड़ाने लगता। धीरे-धीरे उसकी आवाज तेज होने लगती। बच्चे कमरा छोड़ कर भाग जाते और दालान में गर्ग के घर की रोशनी में ‘लूडो’ खेलने लगते या माँ और बाप के साथ-साथ रोने-लगते। झगड़े के दौरान पाल को अपना कमरा छोटा लगता। अक्सर वह कमरे से बाहर निकल आता और तमतमाता हुआ इधर-उधर से घूमने लगता। बच्चों पर नजर पड़ जाती, तो एक ही ठोकर से ‘लूडो’ पलट देता। कुछ लोगों का खयाल था, कि पाल की बीवी बारह नम्बर के संतोष से फँसी है।

संतोष चाल का एक मात्र कुँआरा था। वह स्वस्तिक में फोरमैन था। हमेशा चुस्त-दुरुस्त दिखाई देता। चाल में बारह-चौदह वर्ष के बच्चों से उसकी खूब दोस्ती थी। उसे दफ्तर में देर हो जाती तो बच्चे बेचैन होने लगते। जब तक सन्तोष चाल में रहता, कोई-न-कोई बच्चा उसके कमरे में जरूर रहता। कोई स्कूल के लिए रद्दी ले जाने का बहाना करके आता, कोई दीदी के लिए उपन्यास ले जाने का। कोई रेखागणित का सवाल हल कराने। आखिर तंग आ कर मोटू के बाप ने मोटू को ट्यूशन रख दी ताकि सवाल समझने के लिए उसे बार-बार संतोष के पास न जाना पड़े। कुछ लोगों ने यह भी उड़ा दिया था, कि संतोष बच्चों को खराब करता है, मगर अभी तक इस बात की पुष्टि नहीं हुई थी। संतोष दिखने में इतना सरल, भोला और शर्माऊ लगता था, कि उसके बारे में कुछ-न-कुछ उड़ती रहती। लोगों को पूरा विश्वास था, कि पाल का परिवारिक जीवन इसी संतोष ने नष्ट किया है। सारे गड़बड़-घोटाले की वही जड़ है। वे तो यहाँ तक माने थीं, कि एक दिन संतोष पाल की बीवी के साथ गायब हो जायेगा। वह अपना सूटकेस होल्डाल ले कर कभी दफ्तर के काम से बाहर गाँव जाता, तो वे सोचतीं आज पाल की बीवी भी नहीं लौटगी। मगर ऐसा कभी नहीं हुआ। पाल की बीवी भी लौट आई और दो-एक दिन बाद संतोष भी।

किसी न किसी बात को ले कर बीवी से उलझ जाना पाल की आदत हो गयी थी। झगड़े के बाद पाल आत्महत्या की धमकी दे कर सो जाता। जब पाल की पत्नी को विश्वास हो गया, कि पाल कभी आत्महत्या नहीं करेगा और जसतस बच्चों को पाल लेगा, वह निश्चिन्त हो कर एक दिन गायब हो गयी। पाल हताश हो कर घर में पड़ा रहा। उसने पुलिस तक को भी खबर नहीं की कि उसकी बीवी गायब हो गयी है। कुछ लोगों ने सूचना दी उसकी बीवी माला सिन्हा के ड्राइवर के साथ भाग गयी है, मगर पाल ने कहा, ‘रामसिंह ऐसा नहीं कर सकता। मैं उसे आठ वर्षों से जानता हूँ। उसकी पत्नी इस चुड़ैल से कहीं सुन्दर है।’

किसी ने पाल को बताया कि वह खार स्टेशन पर एक बूढ़े सिक्ख के साथ चाय पी रही थी। पाल ने कहा, ‘वह बूढा सिक्ख मेरी बीवी का बाप है, और खार में ही रहता है।

इस समय चाल में सन्नाटा था। एक व्यक्ति कब से अपने कमरे का दरवाजा पीट रहा था। प्रकाश ने देखा, गर्ग पड़ोस की खटिया पर बैठा धीरे-धीरे दरवाजा खटखटा रहा था। प्रकाश को देख कर, वह झेंप गया और उसकी तरफ चला आया।

‘मैं बहुत दिनों से आप से एक सवाल करना चाहता हूँ।’ गर्ग ने झेंपते हुए कहा।

‘कीजिए।’

‘सवाल जरूर आपको मूर्खतापूर्ण लगेगा, मगर मेरी इच्छा है, आप इसका जवाब जरूर दें।’

‘कहिए!’

‘औरतों के बारे में आपकी क्या राय है?’ गर्ग ने पत्थर की तरह प्रकाश के ऊपर सवाल लुढ़का दिया।

‘जो मर्द के बारे में है।’ प्रकाश ने कहा।

‘मर्द के बारे मे आपकी क्या राय है? मेरी बात को गम्भीरता से लीजिए।’ गर्ग बोला।

‘औरत के बारे में मेरी राय बहुत अच्छी है। मगर मर्द के बारे उतनी अच्छी नहीं।’ प्रकाश ने कहा।

प्रकाश गर्ग की समस्या से परिचित था। जो आदमी पिछले डेढ़ घंटे से अपने ही घर का दरवाजा खटखटा रहा हो, उसके लिए यह उत्तर बहुत निराशाजनक हो सकता था। गर्ग परेशान-सा वहाँ बैठा रहा। गर्ग का खयाल था कि प्रकाश अवश्य कोई ऐसी बात कहेगा, जिससे उसकी संतप्त आत्मा को कुछ शान्ति मिलेगी।

‘आप जानते ही होंगे।’ प्रकाश ने गर्ग की ओर देखते हुए कहना शुरू किया – ‘किरण नौकरी पर जाती है और मैं घर में गुलछर्रें उड़ाया करता हूँ। दाल-रोटी की चिन्ता मुझे नहीं है। कपूर को देखिए, मेढेकर को देखिए, जिन्दगी से कितने संतुष्ट हैं। शाम को जब मेढेकर दम्पती एक-एक बच्चा कंधे से लगा कर घूमने निकलते हैं, तो कितना अच्छा लगता है। संतोष की शादी नहीं हुई, कितना गमगीन रहता है। दरअसल औरत के बिना आदमी अधूरा है। आप ही सोचिए, शादी से पहले आपकी क्या हालत थी। मैं तो आपसे तब परिचित नहीं था, आप खुद ही बताइए, आपको ऐसा नहीं लगता था, कि आप शून्य में जी रहे हैं। अब निचिश्त रूप से आपका दिल सिर्फ अपने लिए नहीं धड़कता होगा। पहले कौन आप के लिए इतनी लगन से मछली बनाता होगा। क्यो मैं ठीक कह रहा हूँ या गलत?

‘आप जैसे लोगों से मुझे बीच-बीच मे मिलते रहना चाहिए।’ गर्ग ने कहा और टाँग हिलाने लगा। गर्ग ने एक सिगरेट प्रकाश को दी और एक खुद सुलगा ली।

‘आप कभी कोलाबा की तरफ नहीं आते?’

‘वह क्षेत्र मेरे लिए वर्जित है। बेकार आदमी कोलाबा की सड़कों पर घूमेगा, तो उसका दिमाग खराब हो जायेगा।’ प्रकाश ने कहा, ‘मैंने बहुत जगह अर्जियाँ दे रखी है। मगर इधर मंदी है। नई नौकरियाँ बहुत कम निकल रही हैं।’

‘मंदी तो सब जगह है। हौजरी लाइन भी चौपट हो रही है। कुछ वर्ष पूर्व हमारा चार-छह लाख का धन्धा था, अब प्रतिष्ठान का खर्च मुश्किल से निकलता है।’

प्रकाश को हँसी आ गयी, प्रतिष्ठान का मुनीम इस तरह दोपहर में उठ-उठ कर आता रहा, तो रहा-सहा धन्धा भी चौपट हो जायेगा।

सिगरेट पी कर और प्रकाश से बतिया कर, गर्ग का तनाव स्खलित हो गया था वह उठा और प्रकाश से हाथ मिला कर, चला गया। जा कर वह दोबारा दरवाजा पीटने लगा। प्रकाश ने कुर्सी खिसका ली और इस दृश्य का मजा लेने लगा।

गर्ग के दरवाजे पर चाक से लिखा हुआ था – एक से चार के बीच दरवाजा न खटखटाना।

इस बीच बंगालिन पोस्टमैन को भी दरवाजा नही खोलती थी। मगर आज गर्ग का सितारा बुलन्द था, इससे पूर्व कि वह दरवाजा पीटते हुए थक जाता और खटिया पर बैठ कर दरवाजा पीटने लगता, बंगालिन ने दरवाजा खोल दिया और गर्ग के घुमते ही बन्द भी कर दिया। अन्दर पहुँच कर गर्ग को बहुत अफसोस हुआ। उसने पाया, बंगालिन घर में अकेली थी। डॉ. बापट का घर में कहीं नाम-निशान भी नहीं था। वह सरदर्द का बहाना करके लेट गया। उसने शिकायत भी नहीं की वह इतनी देर से दरवाजा पीट रहा था। उसे अपने सपने पर क्रोध आ रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी, उठ कर कपाट पर बंगालिन की ही शैली में चाक से लिख दे – सपने पर विश्वास न करना।

बच्चों के स्कूल से लौटते ही चाल में नया जीवन आ गया। कृष्णा छोटे बच्चों को कन्धों पर उठा कर घर पहुँचाने लगा। पार्क के पास खोमचे वालों की भीड़ लग गयी। अब किरण भी लौट ही रही होगी, प्रकाश ने सोचा। वह बहुत बेताबी से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने आवश्य आज गुणवन्तराय की रिपोर्ट कर दी होगी। किरण चुपचाप यंत्रणा भोगने की आदी नहीं है। बहुत सम्भावना है, मामला रजिस्ट्रार अथवा कुलपति तक पहुँच गया हो, वह अपने अधिकारों के लिए लड़ना जानती है अच्छा होता, वह सुबह मुझे अपने साथ ले जाती। गले में रूमाल बाँध कर उसके कालिज के दो-एक चक्कर तो लगा ही सकता था। गुणवन्तराय कालिज में घुसने लगता तो ऐसी पटकी देता कि मुँह के बल गिर पड़ता। गुणवन्तराय को पागलखाने, हवालात अथवा अस्पताल में से किसी-न-किसी स्थान का चुनाव करना ही होगा।

चाल के पास आ कर एक कार रुकी तो, प्रकाश को पहचानने में देर न लगी। यह शिवेन्द्र की छोटी मौरिस थी। यह कम्बख्त आज कहाँ से टपक पड़ा। गुणवन्तराय की सिफारिश ले कर आया होगा। इसका मतलब हुआ, गुणवन्तराय रात भर सोया नहीं, हमारे दोस्तों का पता लगाता रहा। बहुत सोच-विचार कर उसने शिवेन्द्र को इस काम के लिए चुना होगा। मैं शिवेन्द्र से साफ-साफ शब्दों में कह दूँगा, भैया, यह मामला दोस्ती की परिधि में नहीं आता।

शिवेन्द्र कार से अकेला नही निकला। संजाना और सुनन्दा भी साथ थीं। प्रकाश को लगा, मामला कुछ दूसरा है। गुणवन्तराय की बात न हुई तो उसके लिए पाँच मिनट भी शिवेन्द्र को सह पाना मुश्किल हो जायेगा। वह एक दूसरी दुनिया का वाशिंदा है। शराब, लड़कियाँ और चन्द बोसीदा शेर उसकी जिन्दगी हैं। ऐसे में कहीं किरण आ गयी, तो सब चौपट हो जायेगा। यह दूसरी बात है कि शिवेन्द्र ने प्रकाश को हमेशा आकर्षित किया है। मगर किरण को उससे चिढ़ है! प्रकाश को अच्छा लगता है शिक्षा और पूँजी के अभाव में भी वह मजे से दिन काटता है। दो चीजें तो उसके पास थी हीं, एक मौरिस और एक नन्हीं-सी एडवर्टाइजिंग एजेंसी – पार्क डेविस एण्ड ली।

‘पार्क डेविस एण्ड ली’ कौन थे, शिवेन्द्र नहीं जानता। नाम उसे अच्छा लगा, उसने रख लिया। संयोग से उसे दो-एक बहुत अच्छी माडल मिल गयीं, जिनके बल पर वह एक-न-एक अच्छे एकाउण्ट का जुगाड़ कर लेता।

प्रकाश से शिवेन्द्र का परिचय एक मारवाड़ी सहपाठी के यहाँ हुआ था। तबसे वह दो-तीन बार शिवेन्द्र की पार्टियों में हो आया था। नगर के कॉटन मैगनेट सेठ मनुभाई के यहाँ लड़की पैदा हुई, शिवेन्द्र ने ताजमहल में पार्टी फेंक दी। निरंजन बिड़ला की सगाई पर उसने अपने घर में पार्टी दी और एक ही शाम में हजारों रुपये फूँक दिए। शराब और लड़कियाँ उसकी पार्टी में प्रचुर मात्र में होतीं। यह एयर होस्टेस मिस फर्नाडीज है, वह बहुचर्चित मॉडल पर्सिस खम्बाता, यह भारतसुन्दरी पाटनवाला। यह शर्मिला टैगोर, प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री। प्रकाश ने इतनी सुन्दर लड़कियाँ एक साथ इतने निकट से नहीं देखी थीं। वह घण्टों लड़कियों से बतियाता रहता। पार्टी खत्म होने से पहले शिवेन्द्र नशे में धुत्त सो जाता। श्रीमती शिवेन्द्र मेहमानों को बिदा करतीं।

पार्टी से लौटते हुए प्रकाश पाता कि वह अपनी मनहूसियत वहीं फेंक आया है मगर किरण को यह सब शोर-शराबा सख्त नापसन्द था। वह अक्सर कहती, शिवेन्द्र को ज्यादा मुँह मत लगाया करो। मुझे वह आदमी ठीक नहीं लगता।

शिवेन्द्र से चिढ़ने का किरण के पास एक और कारण भी था। शिवेन्द्र ने पिछले वर्ष तय कर लिया कि ‘न्यू इयर ईव’ किरण की ओर से मनाई जायेगी। उसने बॉम्बोली में अपने बहुत से मित्रों को आमंत्रित कर रखा था। वहाँ किरण और प्रकाश का कई लोगों से परिचय हुआ। किरण का नाम बार-बार आ रहा था। वह इतना प्रसन्न हो गयी कि हँस-हँस कर बिल चुकाती रही। दूसरे दिन उसने पाया, घर में अनाज के लिए भी पैसा नहीं है। तभी से वह शिवेन्द्र ‘फ्रॉड’ कहने लगी। शिवेन्द्र और किरण दोनों एक दूसरे को फ्रॉड कहने लगे।

शिवेन्द्र ने आते ही व्हिस्की की बोतल मेज पर रख दी और लड़कियों से कहा कि जहाँ कहीं जगह मिले, बैठ जायें।

‘मेज की चारों टाँगे हिल रही हैं। ऐसा न हो, तुम्हारी बोतल लुढ़क जाये।’ प्रकाश ने कहा।

‘आज बोतलों की कमी नहीं।’ शिवेन्द्र ने कहा।

प्रकाश ने सुबह से बिस्तर भी साफ नहीं किया था। संजाना खाट पर बैठ गयी और सुनन्दा किताबों के रैक से जा लगी। प्रकाश दोनों लड़कियों से परिचित था। उसने कभी नहीं सोचा था, यह शिवेन्द्र का बच्चा किसी दिन इन लड़कियों को भी उसका घर दिखा देगा। घर में तीसरे आदमी के लिए बैठने की भी जगह न थी। उसने सोचा कि गर्ग के यहाँ से दो-एक कुर्सिया उठा लाए। कुर्सियाँ आ गयीं, तो हो सकता है, ये लोग यहीं जम जायें। वह चाहता था, किसी तरह किरण के आने से पहले इन्हें विदा कर दे। घर में जगह नहीं है, तो मैं कहाँ से लाऊँ? मैं कौन-सा इन लड़कियों से शादी करने की सोच रहा हूँ, जो इन्हें देख कर परेशान होऊँ। मैं इन्हें बुलाने तो नहीं गया था। शिवेन्द्र को सोचना चाहिए था कि मेरे घर में बैठने की भी व्यवस्था नहीं है। अब क्या इन्हें सर पर बैठा लूँ?

शिवेन्द्र उठा और रसोई से तीन गिलास और एक कप उठा लाया। तीनों गिलास अलग-अलग मेल के थे। उसने संजाना को चाबी दी कि जा कर डिकी से बर्फ निकलवा लाये। संजाना घर में ऐसे चल रह थी, जैसे कीचड़ में चल रही हो। दरवाजे पर चाल के बच्चों की भीड़ लग रही थी। प्रकाश ने उठ कर पर्दा गिरा दिया।

‘हम लोग आज मड आइलैण्ड पर मिडनाइट पिकनिक मनाएँगे। तुम लोग भी जल्दी से तैयार हो जाओ। किरण से कहो, कुछ पराँठे सेंक ले औ साथ में नीबू का अचार ले ले, जो उसकी माँ भेजा करती है। वैसे हमारे पास बहुत से कबाब हैं। किरण को रशियन सैलड बहुत पसन्द है, वह लेते आये हैं।’ शिवेन्द्र बोला, ‘बाकी लोग तो अब तक वहाँ पहुँच चुके होंगे। मैंने तय कर रखा था, जिन्दगी में कभी अँधेरी से गुजरा तो तुम से अवश्य मिलूँगा।’

‘किरण तो अभी कालिज से नहीं लौटी। दूसरे, उसकी तबीयत भी ठीक नहीं है।’

‘तबीयत ठीक हो जायेगी।’ शिवेन्द्र ने कहा, ‘मैं उसका फ्राड नहीं चलने दूँगा।’

संजाना थर्मस ले आयी, तो शिवेन्द्र ने सबके गिलासों में थोड़ा-थोड़ा बर्फ डाल दी और खुद कप उठा लिया, ‘चियर्स!’

शिवेन्द्र अपना कप सिर से भी ऊपर ले गया।

‘चियर्स!’ सबने कहा और पीने लगे।

‘यहाँ कहीं फोन है?’ शिवेन्द्र ने पूछा।

‘हाँ है। एक नम्बर में।’

‘जरा दफ्तर में फोन पर मारिया से कह दो कि शिवेन्द्र यहाँ है और एक घण्टे तक इस फोन पर उपलब्ध है।’ शिवेन्द्र ने गटागट अपना प्याला खाली कर दिया।

प्रकाश ने इधर-उधर चवन्नी ढूँढी उसे कहीं न मिली। एक दिन उसने रसोई में एक कटोरी में कुछ रेजगारी देखी थी, मगर आज वह कटोरी भी नहीं मिल रही थी।

‘क्या ढूँढ़ रहे हो?’

‘रेजगारी।’ प्रकाश ने कहा।

शिवेन्द्र ने पर्स खोला और एक दस का नोट उसकी ओर बढ़ा दिया – ‘इधर रेजगारी की शहर में बहुत कमी है।’

प्रकाश ने नोट थाम लिया और पाल के कमरे की ओर चल दिया। वह खुश था कि कुछ समय के लिए तो शिवेन्द्र से दूर हो सका। दोनों बन्दरियाँ घर में कैसे फुदक रही हैं। किरण आयेगी, तो सब को सीधा कर देगी। मॉडल होंगी, अपने घर होंगी। प्रकाश को उनकी हर हरकत पर क्रोध आ रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी, अँधेरी चला जाये और किरण को ले कर तब तक कहीं बैठा रहे, जब तक यह चंडाल चौकड़ी लौट नहीं जाती।

पाल कुर्सी पर उकड़ूँ बैठा था। टाइपराइटर केस में बन्द था। मेज पर कोई कागज नहीं था। जैसे पाल ने यह धन्धा बन्द करने का निर्णय ले लिया हो। बच्चे भी कोनों में दुबके थे।

‘पाल साहब!’ प्रकाश ने धीरे से कहा।

पाल ने आँखें उठाईं। उसकी आँखें सुर्ख हो रही थी। उनमें लहू था, और कुछ नहीं था। प्रकाश सहम गया। वह आदमी किसी भी समय बदतमीज हो सकता है।

‘मैं शायद बहुत गलत समय पर आ गया। लगता है, आप की तबीयत नासाज है। मुझे जरूरी फोन करना था।’

‘कीजिए। फोन नहीं कटा, यही गनीमत है, वरना कोई मेरे घर की तरफ ताकता भी नहीं।’

प्रकाश ने फोन मिलाया। मारिया मिल गयी। उसने शिवेन्द्र का संदेश दे दिया और पाल के सामने दस का नोट फैला दिया।

‘रेजगारी हो तो दीजिए।’ पाल ने कहा।’

‘रेजगारी नहीं है।’

‘फिर कभी दे दीजिएगा।’ प्रकाश लौटने लगा, तो पाल ने आवाज दी।

‘कल तक के लिए क्या आप दस का नोट स्पेयर कर सकते हैं? आप दे सकें तो दे दीजिए। कल ग्यारह तक लौटा दूँगा।’ पाल ने मेज के ड्रॉअर से सौ रुपये का एक चेक निकाला और प्रकाश को दिखाते हुए बोला, ‘यह कल की तारीख का चैक है। बियरर चेक। आप चेक रख सकते हैं। कल मुझे नब्बे रुपये लौटा दीजिए।’

दरअसल यह दस का नोट मेरा नहीं है।’ प्रकाश ने कहा, ‘शिवेन्द्र ने फोन के लिए दिया था।’

‘कोई बात नहीं।’ पाल ने कहा।

‘रेणु कहाँ है?’ प्रकाश ने पूछा।

‘दरवाजे में मुँह छिपाये रो रही है।’

‘क्यों?’

‘उसकी माँ भाग गयी। दो दिन से घर नहीं आयी।’

‘आपने कहीं पता कराया। कहीं कोई एक्सीडेण्ट न हो गया हो।’

‘नहीं एक्सीडेण्ट नहीं हुआ। वह बता कर गयी है। कहती है, मैं गरीबी में नहीं रह सकती।’

प्रकाश चुपचाप खड़ा रहा। दस का नोट उसके हाथ में था। उसने पाया उसकी कमीज या पाजामे में कोई जेब नहीं थी कि ठूँस ले।

‘वह गरीबी में नहीं रह सकती और मैं गरीबी से उबर नहीं सकता, मैंने बहुत हाथ-पाँव मारे जिसकी तकदीर ही फूट गयी हो, वह क्या कर सकता है। जाते हुए वह एक और दिलचस्प बात कह गयी कि उसने पैंतीस वर्ष की उम्र में पहली बार डिस्कवर किया है, कि प्यार किसे कहते हैं। आप को ताज्जुब होगा, उसके चार बच्चे हो गये, मगर उसे प्यार का एहसास नहीं हुआ।’ पाल ने कहा।

प्रकाश ने देखा, शिवेन्द्र बाल्कनी में खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

‘लीजिए आप दस रुपये ले लीजिए। मैं अपने मित्र से कह दूँगा।’ प्रकाश बोला।

‘आप मुझ पर दया करके मुझे दस रुपये दे रहे हैं। मैं दया का पात्र नहीं बना रहना चाहता। आपका मित्र चाहे तो नब्बे रुपये में सौ का यह चेक खरीद सकता है। किसी ऐसी, वैसी पार्टी का नहीं है। ओपी रल्हन ने खुद दस्तखत किया हैं।’

‘आप दस रुपये रखिए।’ प्रकाश ने कहा, ‘मैं अपने मित्र से यह प्रस्ताव नहीं रख सकता। उसके साथ कुछ दूसरे लोग भी हैं।’

प्रकाश ने दस का नोट पाल की मेज पर रख दिया और बाहर निकल आया। सूरज डूबने को हो रहा था। किरण को अब तक आ जाना चाहिए था। उसने सोचा, शिवेन्द्र की गाड़ी में उसे अँधेरी तक देख आये। अँधेरी जा कर क्या होगा, हो सकता है, वह बस में बैठ चुकी हो या किसी वजह से गाड़ियाँ ही अस्त-व्यस्त हों। तभी पाल का बड़ा बेटा तीर की तरह प्रकाश के पास से निकल गया।

‘अंकल रसगुल्ले लेने जा रहा हूँ। खाओगे? रेणु ने लिए गुड़िया लाऊँगा और अपने लिए पतंग।’ बच्चा बकता हुआ भागे जा रहा था। कुछ ही देर में वह आँखों से ओझल हो गया।

प्रकाश ने पलट कर देखा, पाल के घर का माहौल एकदम बदल गया था। बच्चा लोग इधर उधर से निकल कर बाप से चिपक गये थे। कोई बाप के कंधे पर सवार हो गया और कई कमर से लटकने लगा। शायद, बच्चों को प्रसन्न करने के लिए ही पाल को पैसे की जरूरत थी।

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‘तुम्हारा दस का नोट मैंने पाल को दे दिया। उसकी बीवी भाग गयी है और बच्चे रो रहे हैं।’ प्रकाश ने लौट कर घुसते ही शिवेन्द्र से कह कर दस रुपये से मुक्ति पा ली। शिवेन्द्र ने इस बात में कोई दिलचस्पी न ली। वह उस समय दोनों लड़कियों को अपनी स्पेन-यात्रा के अनुभव सुना रहा था। लड़कियाँ जानती हैं और शिवेन्द्र जानता है कि लड़कियाँ जानती हैं कि वह कभी समुद्र पार नहीं गया। एक बार नेपाल गया था और वहाँ से सिफलिस ले कर लौटा था। वह तुरन्त सतर्क न हो जाता, तो अब तक उसका जीवन नरक हो गया होता। इस समय शिवेन्द्र वही पुराना किस्सा सुना रहा था कि कैसे मेड्रिड में एक युवती ने उसकी गाल पर थप्पड़ दे मारा था। इसके बाद वह उसे अपने घर ले गयी। दरअसल शिवेन्द्र ने अपनी जवानी के दिनों में जो जो दो-एक उपन्यास पढ़ रखे थे, अक्सर उनके नायकों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करता रहता। शिवेन्द्र की शादी के समय उसके एक प्रसिद्ध साहित्यिक मित्र के पास उपहार देने को केवल ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ था। शिवेन्द्र ने जस-तस उपन्यास पढ़ लिया, पढ़ क्या लिया, पढ़-पढ़ कर अपनी बीवी को प्रभावित करता रहा कि वह पढ़ाकू किस्म का आदमी है। उपन्यास पढ़ कर वह वर्षों अपने का क्रिस्तोफ समझता रहा। उसे विश्वास हो गया, ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ कोई और नहीं शिवेन्द्र ही है। शिवेन्द्र ने देखा कि लड़कियाँ उसकी बात से प्रभावित नहीं हो रहीं और प्रकाश भी इधर-उधर ताक रहा है, तो उसने समझ लिया कि वह यह किस्सा जरूर दोहरा रहा होगा। अक्सर उसके दोस्त शिकायत करते हैं कि वह एक ही बात को महीनों किसी-न-किसी प्रसंग में दुहराया रहता है। वैसे शिवेन्द्र का बात करने का अंदाज इतना रोचक और आवाज इतनी संवेदनपूर्ण थी कि कोई भी आदमी उसकी बात को पाँच-छह बार आसानी में बर्दाश्त कर सकता था।

‘तुम्हारी बीवी लौट आई है और लौटते ही बड़ी बेनियाजी और अफसाना निगारी के अन्दाज में तथाकथित रसोई में घुस गयी है। उससे पूछ कर बता दो कि उसे तैयार होने में कितना समय लगेगा?’

‘कब आ गयी?’ प्रकाश ने पूछा।

‘जब तुम फोन करने गये थे। तुम साले पाल की बीवी की चिन्ता में मरे जा रहे हो जबकि तुम्हारी अपनी बीवी की भी हालत खस्ता है। तुमने कहीं अपना इंतजाम नहीं किया, तो तुम्हारा हश्र भी वही होगा, जो पाल का हुआ बताते हो। यह दूसरी बात है, तुम्हारे पास रोने के लिए बच्चे नहीं, दोस्त ही बचेंगे।’

शिवेन्द्र की बात से लड़कियों को बड़ा मजा आया। वे खिलखिला कर हँस पडीं। किरण अपनी सूरत की साधरणता के बावजूद पार्टियों में इन लड़कियों पर हावी रही है। दोनों लड़कियाँ सुन्दर हैं मगर बात करने में फिसड्डी। वे अपनी बात से नहीं मुस्कराहट से प्रभावित करती हैं। प्रकाश ने संजाना की तरफ देखा और व्यंग्य से मुस्करा दिया। शिवेन्द्र के घर की लिफ्ट में उसने एक सिंधी फाइनेंसर को संजाना से लिपटे देख लिया था। संजाना ने भी प्रकाश को देख लिया था। प्रकाश ने इस तरह देखते हुए पा कर वह अपनी घड़ी देखने लगी थी।

‘अब समय आ गया है पार्टनर, कि तुम भी फिट हो जाओ। तुम्हारे सामने कोई चारा न हो, तो ‘पार्क डेविस एंड ली’ तो है ही। तुम इंजीनियर आदमी हो, कुछ-न-कुछ तो पीट ही लाओगे। इधर ‘कमानीज’ का बहुत शोर है। सुनते हैं, इस वर्ष वे पाँच लाख का एकाउंट दे रहे हैं। तुम अगर तय कर लो तो एकाउंट हथिया लोगे। पाँच प्रतिशत कमीशन तो कोई भी दे देगा। ‘पार्क डेविस एंड ली’ तो साढ़े सात प्रतिशत तुम्हारे नाम डेबिट कर देगी। तुम्हारा सहपाठी चन्द्रा चोकसी उनका पी.आर.ओ. है। कहो तो अभी तुम्हारा नियुक्ति पत्र टाइप करवा दूँ। ‘कमानीज’ को हमारे मॉडल भी पसन्द है। कम्पेन के बारे में निश्चिन्त रहो। लोग एकाउण्ट्स एग्जीक्यूटिव होने के लिए वर्षों जूते चटखाते हैं, यहाँ ‘पार्क डेविस एण्ड ली’ का सोल प्रोप्राइटर तुम्हारे घर में तुम्हें यह ऑफर दे रहा है। शुरू में कृष्णमूर्ति हमारे यहाँ चार सौ पाता था, अब ‘प्रतिभा’ से फोर फिगर्स ड्रा कर रहा है। ‘पार्क डेविस एण्ड ली’ का आदमी बेकार नहीं रहता। सुनन्दा से ही पूछ लो, ‘उल्का’ उसे कितने प्रलोभन दे चुकी है। मगर सुनन्दा को मालूम है, हमारे यहाँ उसका भविष्य सुरक्षित है। तुम इस लाइन में नये आओगे। शुरू में ज्यादा नहीं दे पाऊँगा। मगर यह तय है कि पहले ही रोज तुम्हारी वार्डरोब बनवा दूँगा। तुम जल्दी ही जान जाओगे, हमारा खेल दिखावे का खेल है। मेरी जरूरतें पूरी हो जायें, चर्चगेट में दफ्तर ले लूँ, नीचे इम्पाला खड़ी रहे, फिर देखो कैसे ए.एस.पी. की ऐसी-तैसी करता हूँ।’

प्रकाश शिवेन्द्र से पूरा-का-पूरा यही भाषण कई बार सुन चुका था। शिवेन्द्र बात कर रहा था, और प्रकाश लगातार रसोई की तरफ देख रहा था। शिवेन्द्र की बात खत्म हो तो वह किरण से हाल-चाल मालूम करे। किरण ने आज जरूर गुणवन्तराय का सिर फोड़ दिया होगा। प्रकाश ने रसोई में झाँक कर देखा, किरण कहीं नजर नहीं आ रही थी। आटे के कनस्तर पर उसकी किताबें पड़ी थीं। रसोई में जा कर हो वह किरण को देख पाया। वह एक कोने में दुबकी चाय पी रही थी।

‘ये लोग अचानक चले आये। शिवेन्द्र को धीरे से समझा दो कि हम नहीं जा पाएँगे।’ प्रकाश ने कहा।

‘तुमने और तुम्हारे दोस्तों ने मुझे नौकरानी समझ रखा है। सुबह सात से निकली अब लौटी हूँ, और तुमने मेरे लिए दूसरे काम निकाल रखे हैं कि मैं कहीं सुस्ता न लूँ। रात को भी ठीक से सोने नहीं देते। कह दो जा कर मैं पराँठे नहीं सेंकूँगी। अब यहाँ मेरे सर पर क्यों खड़े हो? जा कर दोस्तों के संग पियो और मौज उड़ाओ। तुमसे इतना भी नहीं हुआ कि कालिज चले आते। मेरी मौत भी हो जाये, तुम पर असर नहीं पड़ेगा। पुरुष हो न, किरण रोने लगी।

प्रकाश ने वहाँ खड़ा रहना उचित न समझा। वह खड़ा रहेगा किरण बोलती जायेगी। किरण की आवाज अवश्य बाहर जा रही होगी। उसने यह सब धीरे से नहीं कहा था, कि शिवेन्द्र या लड़कियों ने न सुना हो। आखिर वह कलेजा मजबूत करके कमरे में आ गया। उसके मेहमान भी दीवारों वगैरह की तरफ ताक रहे थे।

शिवेन्द्र ने प्रकाश को देखते ही जल्दी से उसके लिए एक पेग बनाया और उसके हाथ में थमाता हुआ बोला, ‘परेशान मत हो। अभी थोड़ी देर में उसका गुस्सा शांत हो जायेगा। उसका नाराज होना जायज है। लड़कियाँ थकने पर अनाप-शनाप बका ही करती हैं।’

‘सुनन्दा तुम जल्दी से आटा मल लो। और संजना तुम आलू उबाल लो। तब तक किरण भी स्वस्थ हो जायेगी।’ प्रकाश ने कहा। इन्हें काम करते देख किरण ठीक हो जायेगी, वह जानता है।

‘न बाबा, मुझसे यह सब नहीं होगा।’ सुनन्दा ने तुरन्त सिगरेट सुलगा ली और बोली, ‘मुझे खाना आता है, पकाना नहीं।’

‘पकाने की जरूरत भी नहीं है। इतना खाना है, हमारे पास कि सुबह नाश्ते तक जरूरत नहीं पड़ेगी। यह तो शिवेन्द्र की जिद थी कि पराँठे भी होने चाहिए। बीच-बीच में इसके मध्य वर्ग के संस्कार जोर मारने लगते हैं। वह आज भी पराँठों को पिकनिक से एसोसिएट करता है।’

‘जिद नहीं है, जरूरत भी नहीं। मैंने तो किरण को फ्लैटर करने के लिए यह सुझाव रखा था। ये लड़कियाँ शायद जानती नहीं, मैं इन सबसे अच्छा खाना बना सकता हूँ! स्त्री तो अच्छी कुक हो ही नहीं सकती। आप बड़े-से-बड़े रेस्तराँ में चले जाइए, मेल कुक ही मिलेगा।’

शिवेन्द्र अपनी बात जारी रखता कि सहसा किरण कमरे में आ गयी। उसके हाथ में उबले हुए अंडों की तश्तरी थी। चाय पी कर और मुँह धो कर वह स्वस्थ हो गयी थी। वह प्रकाश के पास ही खटिया पर बैठ गयी और बोली; ‘आई एम सॉरी, शिवेन्द्र। मेरा दिमाग खराब हो गया था।’

लड़कियाँ अंडे देख कर मचल उठीं, ‘यू आर स्वीट, किरण! हम तो तुम्हारा मूड देख कर डर गयी थीं। ये लोग वर्किड वूमन की परेशानी कभी नहीं समझ सकते।’

कुकर की सीटी सुनाई दी, तो किरण उठ गयी, ‘आलू उबल गये हैं। मैं अभी तुम लोगों का टिफिन तैयार करती हूँ।’

‘हमें किसी चीज की जरूरत नहीं है। हमारे पास ढेर-सा सामान है। तुम्हारा प्रिय रशियन सैलड भी। तुम जल्दी से तैयार हो जाओ।’

‘प्रकाश को ले जाओ, मैं बेहद थकी हूँ।’ किरण ने कहा।

‘प्रकाश को हम अकेले नहीं ले जायेंगे, तुम्हें चलना ही होगा।’

‘आज मैं किसी भी सूरत में नहीं जा पाऊँगी। सब लोग मजे के मूड में हों और मैं थकान-थकान चिल्लाती रहूँ, यह मुझसे न होगा! पिकनिक का मजा तभी है जब सब लोग नाचने-गाने के मूड में हों। दुसरे सुबह मुझे कालिज भी जाना है। काम-काज के रोज तुम्हें यह मिडनाइट पिकनिक की क्या सूझी। सैटरडे नाइट को पिकनिक रखते, ताकि सण्डे को सब लोग सो पाते। तुम लोग सुबह काम पर कैसे जाओगे?’

‘हमारे धन्धे में इतवार का बन्धन नहीं। दफ्तर में तो लोग आज भी ओवरटाइम कर रहे होंगे। इधर ग्लायकोडीन की कम्पेन पर हम लोग दिन रात एक कर रहे हैं। यह फिल्म भी एनिमेटिड फिल्म होगी। शुरू और अन्त में केवल कुछ क्षणों के लिए मॉडल के शॉट होंगे।’

‘पिछले वर्ष इन्हीं दिनों तुम ‘वल्लभ ब्लेंकेट्स’ पर काम कर रहे थे, उसका क्या हुआ?’

‘होना क्या था, फिल्म बनी और रिलीज हो गयी। अलग-अलग रंगों के पचीस-तीस ब्लेंकेट्स भी मिले शूटिंग के लिए जो मैंने मित्रों में बाँट दिए। तुम लोगों के लिए भी मैंने बढ़िया कम्बल रखा था, मगर तुम लोग बड़े आदमी हो, शिवेन्द्र के यहाँ क्यों आओगे?’

‘ग्लायकोडीन की फिल्म अंग्रेजी में भी ‘डब’ होगी। अनुवाद तुम्हें करना होगा। पचास रुपये मिलेंगे। वे भी काइंड में यानी व्हिस्की की एक बोतल किंग्ज ब्लेन्ड।’

‘अनुवाद पाल से करा लेना। वह पचीस में कर देगा।’ किरण ने कहा।

‘दस तो तुम दे ही चुके हो!’ प्रकाश बोला।

किरण ने कुकर की एक और सीटी सुनी तो भाग कर रसोई में घुस गयी। उसे याद आया, आलू का तो अब तक हलुवा बन गया होगा।

‘तुम्हारी बीवी एक जिद्दी औरत है।’ शिवेन्द्र ने लड़कियों की तरफ देखते हुए कहा, ‘जाड़िया तो अब तक पहुँच गया होगा और गाली बक रहा होगा। चिन्ता मुझे चन्नी की है। कहीं लौट गया तो मनाने में हफ्तों खर्च हो जायेंगे। हम लोगों को अब फौरन से पेशतर रवाना हो जाना चाहिए। तुम लोगों को मालूम होना चहिए कि पिकनिक भी हमारे धंधे में एक काम है। चन्नी और चन्नी की बीवी को पेम्पर करने के लिए ही मैंने मिडनाइट पिकनिक आयोजित की हैं पहली ही भेंट में मैंने चन्नी की बीवी को चाँद की ओर टकटकी लगाए देख लिया। और तुरन्त मिडनाइट पिकनिक का सुझाव रख दिया। चन्नी मूढ़ आदमी है। बीवी की खुशी के लिए चला आयेगा। वैसे उसे न चाँद में दिलचस्पी है, और न बालू में। मगर उसके हाथ में तीन लाख का एकाउंट है।’

‘चन्नी कौन है?’

‘नया दोस्त। कैप्टन चन्नी। शिपिंग कम्पनी का अत्यधिक प्रभावशाली एग्जीक्यूटीव। किंग ऑफ किंग्ज ले कर आने वाला है।’ शिवेन्द्र ने प्रकाश को प्रलोभन दिया, ‘किरण न जाती हो, न सही। तुम तैयार हो जाओ।’

‘मुझे मुआफ करोगे। जाना होता तो हम अब तक तैयार भी हो जाते। अगली बार चलेंगे।’

शिवेन्द्र प्लीज, मजबूर न करो।’ किरण रसोई में से बोली, ‘आज मैं सिर्फ सोना चाहती हूँ।’

‘रेत पर सो जाना।’

‘नहीं, आज मन नहीं।’ किरण अल्युमिनियम के रंगीन डिब्बे में कुछ पराँठे भर लाई। घर में एकमात्र डिब्बा था। अब यह सुबह अपना खाना किस चीज में ले जायेगी।, प्रकाश सोचने लगा। किरण ने खड़े-खड़े ही डिब्बे के ऊपर कागज चढ़ा दिया और रिबन से बाँध कर सुनन्दा के हाथ में थमा दिया, ‘लेकिन प्रकाश जा सकता है। निस्संकोच। मिडनाइट पिकनिक है, सुबह तक तो लौट आयेगा।’

प्रकाश ने लड़कियों को उबाइयाँ लेते देखा तो बोला, ‘अब इन लोगों को देर न करो। शिवेन्द्र से मुलाकत हो गयी, यही बहुत है।’ शिवेन्द्र ने सिगरेट फेंक दी और सिगार सुलगा लिया। किरण तुरंत नमस्कार की मुद्रा में खड़ी हो गयी। जैसे उन लोगों की विदाई का इन्तजार ही कर रही थी।

लड़कियाँ कमरे से इस तरह निकलीं, जैसे जेल से रिहा हुई हों। दोनों ने जीन्स पहन रखे थे, और सिगरेट फूँक रही थीं, चाल के बच्चों और महिलाओं में हलचल मच गयी।

‘तुम लोग नहीं आओगे, मैं जानता हूँ।’ शिवेन्द्र जाते-जाते बोला, ‘मगर मैं आप लोगों का इन्तजार करूँगा। आधी रात को बालू का एक घरौंदा बनाऊँगा और खुद ही फोड़ दूँगा। फिर उस वीराने में रात भर पड़ा रहूँगा।’

‘तुम सिर्फ भावुक हो रहे हो, शिवेन्द्र।’ किरण ने कहा, ‘ए टोस्ट ऑव हैपी विशेज, फार दे बेस्ट ऑव एवरीथिंग एट मड आइलैंड।’

लड़कियाँ कार में धँस गयी थीं। चाल के बच्चे ‘जोर लगा के हैया’ कहते हुए कार धकेलने की कोशिश कर रहे थे। गोद में बच्चे उठाए महिलाएँ चाल की बाल्कनी पर जमा हो गयी थीं।

शिवेन्द्र की कार स्टार्ट हो, इससे पूर्व ही चाल में एक और घटना हो गयी। सब बच्चा लोग पाल के कमरे की ओर भागे प्रकाश और किरण ने भी शिवेन्द्र को हाथ हिला कर, विदा किया। और वे भी दूसरे लोगों की तरह तुरंत पाल के कमरे की तरफ देखने लगे। अचानक पाल की बीवी लौट आई थीं, और अब पाल अकड़ रहा था।

प्रकाश ने लक्षित किया, कुछ देर पहले पाल की आवाज में जो संजीदगी और उदासी थी, उसकी जगह अब आत्मविश्वास ने ले ली थी। वह फिल्मी नायक के अन्दाज में कह रहा था, ‘अब यहाँ क्या करने आई हो, फौरन निकल जाओ। इस घर में अब तुम्हारे लिए जगह नहीं है। मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देख सकता। मुझे मुआफ करो और चली जाओ। तुम यहाँ रहना चाहती हो, तो मैं बच्चों को ले कर कहीं और चला जाता हूँ। सरदार जी, आप कल्पना नहीं कर सकते, इस औरत ने मुझे कितनी परेशानी दी है। मेरे बच्चों का सत्यानास कर डाला है। मेरी जिन्दगी तबाह कर दी है। बच्चों का मोह न होता, मैं दूसरी शादी करके अबतक सुखी हो चुका होता। आप बराय मेहरबानी इसे मेरे सामने से हटा लीजिए।’

पाल की बीवी के साथ शायद उसका बाप आया था। वह चुपचाप इस नाटक को देख रहा था। चाल के लोग जानते हैं, पाल की बीवी बोलने लगे, तो पाल तुरंत शांत हो जायेगा। मगर वह चुप थी। उसका बाप भी चुप था। आखिर उसने अपनी पगड़ी उतारी और पाल के पाँव पर रख दी, ‘मैं कुछ नहीं बोलूँगा, बेटा तुम कुछ भी कहते रहो। मेरी पगड़ी की लाज रख लो। मेरी लड़की सती-सावित्री है, मगर नादान है। आज वह जो कुछ भी है, तुम्हारी बनायी हुई है। मैंने तो तुम्हें एक भोली-भाली बिटिया दी थी, तुम खुद सोच लो।’

सरदार दीवार पर टँगी अपनी बिटिया की शादी की तस्वीर देखने लगा। वह शादी के तुरन्त बाद का चित्र था। पाल कोट-पेंट-टाई पहने अकड़ कर खड़ा था, और उसकी बगल में छुई-मुई-सी एक लड़की थी। आँखें झुकी हुई, गर्दन भी झुकी हुई। पाल ने तस्वीर की तरफ देखा तो उसका क्रोध और बढ़ गया। मेज पर एक चम्मच पड़ा था, पाल ने चम्मच उठाया और पत्थर की तरह तस्वीर पर दे मारा। गुस्से में पाल का निशाना चूक गया। चम्मच दीवार से टकरा कर नीचे गिर पड़ा। पास के हाथ मेज पर दूसरी चीज तलाश करने लगे। मेज पर लाल स्याही की दवात पड़ी थी, पाल ने दावात उठा कर तस्वीर पर पटक दी। तस्वीर चकनाचूर हो गयी, दवात भी और कमरे में लाल स्याही के नन्हें-नन्हें तालाब बन गये।

पाल के बच्चे कमरे के बाहर से इस दृश्य को देख रहे थे। फोन की घण्टी बजी, तो रेणू भाग कर कमरे में गयी और रिसीवर उठा कर अलग रख आई। फिर वह सहेलियों के साथ रस्सी टापने लगी। तोड़-फोड़ से कमरे का तनाव कम हो गया था। पाल भी अब शांत नजर आ रहा था। उसने अपने पैरों से उठा कर पगड़ी सरदार जी के सर पर रख दी। पाल के दूसरे बच्चों ने भी काण्ड में दिलचस्पी खो दी और कट कर आती हुई एक पतंग के पीछे भागे।

किरण और प्रकाश बिना एक दूसरे से बात किए कमरे में लौट आये। प्रकाश पलँग पर लेट गया और लेटते ही उसने दीवार की ओर करवट ले ली। किरण भी प्रकाश के निकट हो पलँग पर बैठ गयी और प्रकाश का हाथ सहलाने लगी। प्रकाश इतना थक गया था, और शिवेन्द्र लोगों के प्रति किरण के व्यवहार से इतना निराश हो चुका था कि उसकी इच्छा न हुई कि किरण से पूछ ले, गुणवन्तराय का क्या हुआ। वैसे उसे थकान गुणवन्तराय को ले कर ही आ गयी थी।

‘तुम नाराज हो, प्रकाश?’ किरण ने प्रकाश को सहलाते हुए पूछा। किरण की आवाज मधुर एवं शांत थी।

प्रकाश ने उत्तर नहीं दिया। वह उसी प्रकार दीवार की ओर देखता रहा। किरण ने उठ कर, किवाड़ बन्द कर दिए। कमरे में अँधेरा हो गया, मगर उसने बत्ती नहीं जलाई।

‘मैंने सोचा था, तुम सुबह मेरे साथ चलोगे। तुम बाद में भी नहीं आये।’

‘मैं आना चाहता था, मुझे टिकट के लिए कहीं पैसे नहीं मिले।’ प्रकाश ने बिना करवट लिए कहा। अचानक उसे अच्छा बहाना मिल गया था।

‘मेरी साड़ियों के नीचे अब भी तीस रुपये पड़े होंगे। तुम देख लो।’

‘तुमने साड़ियाँ कहाँ रखी हैं, मुझे मालूम नहीं।’

‘इस समय तुम जान-बूझ कर सता रहे हो।’

‘सॉरी।’ प्रकाश में रुखाई से कहा।

किरण प्रकाश को हिलाने-डुलाने की कोशिश करने लगी। वह सी-सा की तरह हिलने लगा।

‘प्रकाश।’ किरण ने कहा ओर उसे यहाँ-वहाँ से चूमने लगी, ‘मैंने अभी देखा, तुमने खाना भी नहीं खाया, सुबह से भूखे पड़े हो।’

‘मेरा मन ठीक नहीं है। मुझे सोने दो।’ प्रकाश ने कहा।

‘नहीं, तुम सो नहीं सकते।’ सहसा किरण के स्वर की कोमलता जाती रही और उसमें एक पेशेवर कठोरता आ गयी, जो अध्यापकों के स्वर में अनायास कक्षा के बाहर भी आ जाती है, ‘जब मेरा मन ठीक नहीं होता, तुम उस समय कुछ सोचते हो? मुझ में बात करने की शक्ति भी नहीं होती, मैं तुम्हारे साथ कहीं भी चल देती हूँ।’

प्रकाश ने किरण के हाथ झटक दिए। किरण और भी निकट आ गयी, ‘तुम भी दूसरे गुणवन्तराय हो। तुममें और पाल में भी कोई विशेष अन्तर नहीं है। हमेश स्त्री पर हावी रहना चाहते हो। तुम चाहते हो, वह तुम्हारे सामने रोती रहे और तुम आँसू पोंछ कर बड़प्पन दिखाते रहो। तुम अपने को मन में कितना भी उदार समझो, स्त्री के बारे में तुम्हारे विचार सदियों पुराने हैं। तुम चाहते हो, वह बिना किसी प्रतिरोध के तुम्हारे इस्तेमाल में आती रहे। यही समझते हो न? यही नहीं, घर में मेरी औकात नौकरानी, महराजिन और महरी से ज्यादा नहीं। झुठला सकते हो मेरी बात को?

किरण अपना हाथ प्रकाश की बनियान के नीचे ले गयी और जोर-जोर से चिकौटियाँ काटने लगी। किरण के हाथ ठण्डे थे, प्रकाश की रीढ़ के पास फुरफुरी-सी होने लगी। इसकी इच्छा हुई वह किरण को ऐसा झटका दे कि वह खाट से नीचे गिर पड़े। इसे जरूर किसी पागल कुत्ते ने काट लिया है, प्रकाश ने सोचा और खाट पर आराम से पसर गया। प्रकाश को इस तरह जड़ और निरपेक्ष पा कर किरण उसे दाँतों से काटने लगी। इसी संघर्ष में किरण ने कब अपने कपड़े फाड़ दिए या फेंक दिए, प्रकाश को इसका एहसास तब हुआ जब रह-रह कर किरण का पुष्ट और निम्न-वक्ष उसके सीने से टकराने लगा। वह अपना शरीर प्रकाश पर इस तरह पटक रही थी, जैसे प्रकाश पत्थर की सिल हो और वह उससे टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो जायेगी। किरण की साँस इतनी तेज चल रही थी कि उसके लिए मुँह से बोल पाना असम्भव था, मगर वह फिर भी बोल रही थी, ‘तुम्हें यही घमण्ड है न कि तुम पुरुष हो। मुझसे ताकतवर हो, मुझसे श्रेष्ठ हो। यही समझते हो न? हर पुरुष यही समझता है। मगर मैं आज तुम्हारे दिमाग से सदियों से बैठी यह गलतफहमी निकाल दूँगी।’ उत्तेजना के अन्तिम बिन्दु पर पहुँच किरण सहसा निढाल हो गयी और प्रकाश के ऊपर ही गिर पड़ी। उसका शरीर पसीने से तर था। ठंडा।

प्रकाश ने आँखें खोलीं, तो देखा अँधेरा घिर आया था। बालकनी में मेढेकर ने दो-तीन बल्ब लगा दिए थे। उसके यहा आज रतजगा था। बाहर बाल्कनी में बच्चा लोग मिल कर शायद तख्त घसीट रहे थे। कमरे के रोशनदान खुले थे। बालकनी से जलने वाले बल्बों से कमरे में जगह-जगह रोशनी के चकत्ते बन गये थे। प्रकाश ने देखा, मेज पर ह्विस्की की बोतल और सिगरेट का पैकेट पड़ा था। शिवेन्द्र जान-बूझ कर उसके लिए छोड़ गया होगा। बन्तासिंह की टैक्सी रुकी, दरवाजे बन्द हुए और वह ‘जपुजी’ का पाठ करता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ गया।

रतजगे की तैयारी में बच्चा लोग दरियाँ झाड़ रहे थे। मगर चाल पे उस ओर गहरा सन्नाटा था। फैक्ट्रयों की बिजलियाँ दूर-दूर तक टिमटिमा रही थीं, जैसे देश के उद्योगीकरण का काम पूरा हो चुका हो। मछली बाजार का मैदान सो चुका था। बीच-बीच में कुत्तों और सियारों के रोने की आवाज आती और शांत हो जाती।

वे बिलकुल आदमियों की तरह रो रहे थे।

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चाल – Chaal

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