मुझे कोई प्यार नहीं करता। सब कहते हैं मैं बात करती हूँ तो मेरे मुँह से थूक निकलता है। लोग यह भी कहते हैं, मुझे बात करना नहीं आता, मैं जोर-जोर से बोलती हूँ। जब मैं बोलती हूँ तो मुझे लगता है कोई मुझे सुन नहीं रहा। बस मैं जोर-जोर से कहने लगती हूँ। मुझे डाँट किस बात पर नहीं पड़ती। बैठती हूँ तो माँ कहती है इस तरह नहीं बैठा जाता है, ठीक से बैठो, अपने पाँवों को ढक कर। चलती हूँ तो कहती है टेढ़ी क्यों चल रही हो, सीधी चला करो। हर बात में डाँट। मैं अच्छी नहीं हूँ। तभी तो मम्मी-पापा-दीदी मुझसे कोई भी काम नहीं करवाते। उस समय वे सभी चुप हो जाते हैं जब मैं उनके सामने आकर बैठ जाती हूँ। वे सोचते हैं मैं उनकी बातें इधर-उधर करती हूँ। मैं सच कह रही हूँ मैं ऐसा कुछ नहीं करती। मैं तो बस पापा की बात मम्मी को और मम्मी की बात पापा को कह देती हूँ। अब मैं क्या करूँ? मुझसे कोई बात रखी नहीं जाती। कल दीदी अपनी सहेली से कह रही थी, मैं कुछ नहीं समझती। दीदी बहुत समझदार है। ऐसा मम्मी-पापा कहते हैं। वे झूठ नहीं कहते। मैं देखती हूँ वह तरह-तरह के लोगों से तरह-तरह की बातें करती है। सारे बड़े लोग उससे बात करना चाहते हैं। पर वह मुझे अच्छी नहीं लगती। मुझे उसकी कोई भी बात अच्छी नहीं लगती। जब उसकी कोई भी बात मेरी समझ में नहीं आती तो वह फिर से नहीं समझाती। कहती है अभी नहीं समझोगी। वह कुछ और भी कहती है पर अभी मैं वह बात भूल गई हूँ। मैं हर बात भूल जाती हूँ। हाँ, याद आया वह मुझसे बात करने के बाद कई बार एक शब्द कहती है, ‘अविकसित’। यह बात तब ज्यादा कहती है जब मैं मम्मी से लड़ती हूँ। क्यों न लड़ूँ! और पापा तो मुझे हर बाहर वाले आदमी के सामने कहते हैं, तूलिका जाओ, जाकर कमरे में बैठो। क्यों बैठूँ? मैं भी हर उस आदमी से बात करूँगी जो मेरे घर में आता है तभी तो मैंने पापा को गाली दी। उन्होंने दीदी के ससुरालवालों के सामने मुझे कहा, तूलिका अंदर जाओ। मैंने कहा, साला कुत्ता मुझे बैठने नहीं देता। कौन-सी नई शादी हुई है दीदी की। हो चुका एक साल।

मम्मी ने मुझे खींचकर चाँटा मारा तो मैंने मम्मी को भी गाली दी। कहा, साली कुत्ती… मुझसे प्यार नहीं करती। दीदी ने जब यह सुना तो वह मेरे पास आई। मुझे लगा वह मेरा सिर दीवाल से दे मारेगी पर उसने मुझे कमरे में बंद कर दिया और चली गई। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने उसे गाली दी, कहा, साली कुत्ती अपने को ज्यादा पढ़ी-लिखी समझती है। एक बात बताऊँ, गाली देने के बाद क्या होता है? मुझे अच्छा लगता है। मुझे नींद नहीं आती तब मैं खूब गालियाँ बकती हूँ फिर खूब अच्छी नींद आती है। मुझे गाली देना आता नहीं था। जानते हैं ये दो गालियाँ देना मुझे कैसे आया?

बहुत दिन पहले की बात है, मैं लिफ्ट से बार-बार ऊपर-नीचे आ-जा रही थी। अचानक लिफ्ट पाँच तल्ले में खड़ी हो गई। वहाँ जो अग्रवाल अंकल रहते हैं, वे जल्दी से आए और अपने ड्राइवर पर चिल्लाए, बोले, “यह समय है आने का। मैंने नौ बजे कहा था।” मैंने देखा पर वहाँ और जो लोग खड़े थे वे भी अग्रवाल अंकल की फटकार को सुन डर गए। बाप रे! इतनी जोर से अंकल कैसे बोल पाते हैं? ड्राइवर जो देर से आया था घबराकर लिफ्ट की तरफ भागा। वह कोई फाइल लाने के लिए लिफ्ट में घुस गया। मुझे एक बार फिर लिफ्ट से ऊपर जाने का मौका मिल गया। मैंने देखा ड्राइवर कुछ देर चुप खड़ा रहा। फिर बड़बड़ाने लगा। उसने अंकल को गाली दी। कहा, साला कुत्ता… एक मिनट लेट आया हूँ तो चिल्ला रहा है। मैं लिफ्ट से नीचे आई तो मैंने देखा अग्रवाल अंकल भी वैसे ही कह रहे थे। ये साला एकदम कुत्ता है। उसके बाद भी वह बहुत कुछ बोलते रहे पर मुझे सबसे ज्यादा अच्छा लगा साला कुत्ता बोलना। उस दिन मैं दर्पण के सामने बैठकर बहुत देर तक अपने को साली कुत्ती कहती रही। मुझे बहुत अच्छा लगा। अगर आपको विश्वास न हो तो आप भी बोल कर देखिए। पर आप क्या यह बता सकते हैं कि जब मैंने पहली बार पापा को साला कुत्ता कहा तो मम्मी ने मुझे चाँटा क्यों मारा? मैंने मम्मी से कहा, तुम भी गाली दो। तुम्हें भी अच्छा लगेगा।

अग्रवाल अंकल को यह बोलना अच्छा नहीं लगता तो क्या वे ऐसा कहते? उनके ड्राइवर को भी अच्छा लगा था तभी तो उसने भी वैसी ही गाली दी। पर मम्मी मुझे डॉक्टर के पास ले गई। कोई मनोविज्ञान की डॉक्टर के पास। वह डॉक्टर अच्छी थी। वह मुझे डाँटने की बजाय प्यार करने लगी। उसने मम्मी से जो कहा मुझे कहाँ समझ में आया। मैं तो घर आकर वह दवा खाकर सो गई जो उसने मम्मी को मुझे खिलाने को दी थी। उस दिन मुझे गहरी नींद आई और जानते हैं क्या हुआ!

नींद में मैं एक ऐसी जगह पहुँच गई जहाँ बहुत ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे। वहाँ बहुत अच्छी ठंडी हवा चल रही थी। कुछ देर वहाँ खड़े रहकर लाल मिट्टी की सड़क को देखना मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर अजीब सा लगने लगा, ये भी कोई जगह है। इतनी शांत! न हल्ला-गुल्ला न शोर। छी; मैं ऐसी जगह पर एक मिनट भी नहीं रह सकती। मुझे तो आवाजों के बीच रहना अच्छा लगता है। मैं वहीं उस जगह को गाली देने लगी कि दूर से कोई आता दिखलाई पड़ा। एक बूढ़ा धीरे-धीरे चलकर आ रहा था। उसने बहुत लंबा इलायची रंग का कुरता पहन रखा था। सफेद, खूब सफेद दाढ़ी थी। बहुत पास आकर धीरे से बोला, “क्या कर रही थी?” मैं बोली, “गाली दे रही थी कैसी हरामी जगह है।” बूढ़ा आँखें फाड़कर देखने लगा। पूछा, “कहाँ से सीखा?” मैंने गुस्से में कहा, “क्यों बताऊँ?” उसने कहा, “ठीक है मत बताओ। नाम क्या है तुम्हारा?” मैंने कहा, “तूलिका।” अच्छा! बूढ़ा बहुत खुश हुआ। पूछा – तुम्हारे साथ कौन है? कौन होगा मेरे साथ? तुम यहाँ क्या अपने आप आई हो? तो क्या साले तुम मुझे लाए थे? वह कुछ नहीं बोला। कैसे बोलता। मैंने उसे डाँटा जो था कि तुम कौन होते हो मुझसे इतने सवाल करनेवाले। वह न जाने क्या सोचता रहा। मेरे सिर पर हाथ रखकर धीरे से बोला, “तुम बहुत अच्छी हो।” मैंने कहा, “झूठ मत बोलो। कोई भी मुझे अच्छा नहीं कहता।” वह पूछने लगा कि कोई भी तुम्हें अच्छा क्यों नहीं कहता।

मैंने, कहा “इसलिए कि मैं गाली देती हूँ। मैं ठीक से नहीं चलती। मैं ठीक से बोलती भी नहीं और लोगों की बातें इधर-उधर किया करती हूँ। झगड़ा करना मुझे अच्छा लगता है।” वह बोला, “तो इससे क्या फर्क पड़ता है, मुझे देखो मेरे नाखून कितने बढ़ गए हैं। मुझे पता ही नहीं चलता ये बढ़ जाते हैं और जब तक काटता नहीं हूँ लोग सोचते हैं यह गंदा-शंदा आदमी है पर मैं गंदा थोड़े ना हूँ।” मुझे बूढ़े की यह बात अच्छी लगी। “पर जो भी हो मेरी तरह गाली थोड़े देते हो?” वह बोला, “हो सकता है देता होऊँ।” मैं बहुत खुश हुई। मैंने झट से पूछा “क्यों? तुम गाली क्यों देते हो?” वह मेरी बात का जवाब दिए बिना मुझसे ही पूछने लगा कि मैं क्यों देती हूँ? मैंने सच कह दिया कि मुझे अच्छा लगता है। वह पूछने लगा, कौन-कौन-सी देती हो? मैंने दो गाली दोहराईं। वह बोला, बस! मैं बोली, क्या और गाली सुनोगे? वह बोला, क्यों नहीं? मैंने फिर उसे वे गालियाँ सुनाईं जो मैं जानती थी पर निकालती नहीं थी। वह मेरे मुँह से एक के बाद एक कई गालियाँ सुनकर खुश कहाँ हुआ? कैसे होता? इतनी कम गालियाँ जो जानती थी। उसने सोचा था मुझे ढेर सारी गालियाँ आती हैं। मैंने कहा, तुम कहोगे तो मैं कल और दस नई गालियाँ याद कर आऊँगी और सुनाऊँगी। वह चौंका, दस! कहाँ से सुनाओगी। मुझे मालूम है वह क्यों चौंका। उसे इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं गालियाँ याद रख सकती हूँ। वह भी तो मुझे भुलक्कड़ मानता होगा? मैंने कहा, ”तुम क्या समझते हो, मैं भुलक्कड़ हूँ? हाँ, मैं मम्मी का नाम भूल जाती हूँ, स्कूल का होमवर्क भूल जाती हूँ! पर गाली! कभी नहीं। मुझे गालियाँ बहुत अच्छी लगती हैं।” मैं समझ गई उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने उससे कहा “यह जो मैंने झगड़ा करना सीखा है न, उसी से मुझे गाली याद रखना आया है। तुम भी खूब झगड़ा करो, कभी अपनी माँ से कभी अपने पापा से, कभी अपनी बहन से। पर यह तो बताओ तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं?” वह बोला, चौदह। मैंने कहा, “सच! तब तो बहुत मजा आता होगा। तुम्हारे घर का नाम तो ‘झगड़ा-कोठी’ होगा।”

वह बोला, “क्यों?” मैंने कहा, “बहुत सारे भाई-बहन मतलब खूब गाली मार-पीट-झगड़ा और खूब अच्छी नींद। मुझे अपने घर में मजा नहीं आता। मेरे ज्यादा भाई-बहन नहीं है न! एक बहन है वह भी झगड़ती नहीं, फिर उसकी शादी भी हो गई है। मैंने कितनी बार उसकी साड़ियों को फाड़ दिया पर वह बड़बड़ा कर चुप हो जाती है। वह तो गाली देना जानती नहीं और अब मैंने यह ठान लिया है कि उसी को अपना दोस्त बनाऊँगी, उसी से अपनी बातें कहूँगी जो मेरी तरह का हो। क्या तुम मेरे साथ झगड़ा, गाली-गलौज करोगे?” वह चुप था। थोड़ी देर बाद बोला, “हाँ! पर, तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी। हम जब बात करेंगे तब कमरा बंद कर लिया करेंगे ताकि हमारी बात कोई सुन न सके। हम एक-दूसरे को गालियाँ सुनाएँगे। तुम मुझे हर गाली की कथा बताओगी। तुम मुझे यह बताओगी कि जो गाली तुमने सीखी वह किससे कहाँ और कैसे? मैं भी तुम्हें हर गाली की कथा बताऊँगा। यह बताऊँगा कि मैंने जो गालियाँ सुनीं वह कब कहाँ कैसे और किसने दी।”

उससे मेरी दोस्ती हो गई। उसने मुझे अपना ‘गाली गुरु’ बना लिया। पर जितनी जल्दी दोस्ती हुई उतनी ही जल्दी झगड़ा भी हो गया। होता ही क्योंकि वह है ही वैसा। जब मैंने उसे गालियों की कथा बतानी शुरू की तो बोला, “बताओ कोई तुम्हें प्यार करे तो क्या तुम उसे गाली दोगी?” मैंने तपाक से कहा, “कोई करे तब न। मैं जानती हूँ मुझे कोई प्यार नहीं करता।” वह फिर बोला, “अगर तुम्हें विश्वास हो जाए कि सचमुच प्यार करता है तब?” मैं सोच में पड़ गई। मैंने पहले तो कुछ नहीं कहा फिर बोली, “तुम बताओ अगर तुम्हें कोई प्यार करे तो क्या तुम गाली दोगे?” तुरंत बोला, “क्यों दूँगा?” मैंने पूछा, “क्यों नहीं दोगे? तुमने तो कहा था कि तुम गाली देते हो?” “हाँ, मैंने कहा था पर यह थोड़े ही कहा था कि जिससे प्यार करूँगा उसे दूँगा।” मैं बोली, “अगर कभी कोई मुझे सचमुच प्यार करेगा तो भी मैं उसे गाली दूँगी।” बूढ़ा असमंजस में पड़ गया। बोला, “देखो मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और मैं तुम्हें कभी गाली नहीं दूँगा। जिसे हम प्यार करते हैं, उसे हम सचमुच बहुत प्यार करते हैं और उसे हम गाली कैसे दे सकते हैं?” मैंने कहा, “तब तो तुम एकदम पागल हो। जिसे प्यार करते हो उसे गाली नहीं दे सकते तो फिर किसे दे सकते हैं?”

बूढ़ा तूलिका की यह बात सुन सोच में पड़ गया। उसने बारह वर्ष की तूलिका को ध्यान से देखा। सुरमई रंग, बड़ी-बड़ी आँखें। नाक कुछ मोटी पर ऐसी कि प्यार उमड़ आए। गोल-गोल प्यारा सा चेहरा। अच्छी लड़की है। ऐसी कैसी हो गई? बूढ़े ने तूलिका के गाल पर प्यार से हाथ रख कर कहा – प्यार करने के बाद हम अच्छी-अच्छी बातें करते हैं, अच्छा बहुत अच्छा बनने की कोशिश करते हैं। मैं खड़ी हो गई बोली, “उफ! तुम्हारे साथ बात नहीं हो सकती। तुम प्यार-व्यार की बात करते हो। मुझे यह सब बातें सुहाती नहीं। अब मैं तुमसे बात नहीं करूँगी। तुम क्यों सपने में आए? तुम क्यों मुझसे मिले? अब तुम कभी मत आना। मुझे तुम्हारी बातें अच्छी नहीं लगतीं।” तूलिका नींद से जाग गई।

बूढ़ा अब सामने नहीं था। न जाने बूढ़े से हुई इस छोटी सी मुलाकात में ऐसा क्या था कि तूलिका के अंदर कुछ बदल गया। उसने बूढ़े को सपने में आने से मना तो कर दिया पर वह उसका इंतजार करने लगी। उसे लगा कि वह दिखलाई पड़ेगा, उसने सोने की कोशिश की और जब वह नहीं आया तो परेशान हुई। पहले वह जब भी परेशान होती तब खूब गालियाँ बकती और उसका उचाट मन अपने-आप ठीक हो जाता। इन दिनों तूलिका को कुछ हो गया था। वह उखड़ी-सी रहने लगी। वैसे तो वह हर बात पर पहले भी उखड़ती थी पर बूढ़े से मिलने के बाद यह बढ़ गया। सुबह-सुबह अपने को गाली देने लगी। बोली, “मैं चुड़ैल, हूँ मैं कुत्ती, हूँ मैं साली हूँ।” एक के बाद एक गालियाँ अपने को देने के बाद तूलिका का मन ठीक नहीं हुआ। मम्मी के कमरे में गई और ड्रेसिंग टेबल पर सजी हुई सेंट की बोतल को जमीन पर दे मारा। खच्च सी आवाज के साथ ज्यों ही सेंट की शीशी टूटी पूरा कमरा गमकने लगा। मम्मी प्रकट हुई। दीदी आई हुई थी, सो मम्मी के पीछे-पीछे चली आई। मम्मी ने तूलिका को घूरा। दीदी ने इशारे से मम्मी को रोका और बोली, “क्या हुआ टूट गई तो, मुझसे भी गिर जाती है।” तूलिका ने जोर से कहा, “यह भूल से नहीं गिरी, पटका है मैंने इसे। जान-बूझकर। तुम सभी मुझे मारो। मारती क्यों नहीं?” दीदी प्यार से बोली, “ठीक है। अब छोड़ो भी।” तूलिका को दीदी पर बहुत गुस्सा आया। साली दिखा रही है, प्यार। उसने झट से पास रखे पेपरवेट को उठाया और उसके ऊपर फेंक दिया। पेपरवेट भारी था। वह दीदी के माथे पर गिरा और खून की धारा बह निकली। तूलिका ने जोर से कहा, “पुचकारो मुझे, मत करो मेरी बात पर विश्वास। कहा तो था, सेंट की शीशी को पटका है, वह हाथ से फिसली नहीं है।” मम्मी दीदी को सँभाल उसे डॉक्टर के पास ले गई और तूलिका को दो चाँटे खींचकर मारे। कमरे में बंद कर गई। वह तो यही चाहती थी कि उसे मार पड़े, वह और गाली बके फिर उसे नींद आ जाए। उसे नींद कहाँ आई? नींद क्यों नहीं आ रही?

नींद कैसे आएगी? तभी वह दादी को याद करने लगी। उसकी दादी चुड़ैल थी। वह मम्मी को गालियाँ देती थी। मम्मी ने अपनी सास को कभी कोई गाली नहीं दी। हाँ, वह मम्मी को तूलिका जैसी गालियाँ बकती है वैसी नहीं देती थी। उसे तूलिका सी गालियाँ आती ही नहीं थी। दादी मम्मी को बच्चों जैसी गालियाँ देती। कहती – चटोरी है। हरामी तो बार-बार कहती। उस दिन तूलिका को बूढ़े के सामने यह बात याद नहीं आई कि उसकी दादी से उसने ‘हरामी’ बोलना सीखा था। दादी सुबह चार बजे उठा करती थी। उठते ही उसे चाय पीने की आदत थी। वह मम्मी से कहती कि वह उसके लिए ठीक चार बजे चाय रख दिया करे। मम्मी को पाँच बजे उठने की आदत थी, पर दादी के कारण उसे साढ़े तीन बजे जागना पड़ता था ताकि चार बजे चाय बना कर रख दे। मम्मी एलार्म घड़ी भी कहाँ लगा पाती थी। पापा की नींद टूट जाने का डर रहता। मम्मी ने कई बार चाय देने में साढ़े चार बजा दिए थे। एक दिन दादी सुबह-सुबह गालियाँ बकने लगी क्योंकि मम्मी ने उस दिन दादी को रात के दो बजे ही भूल से चाय दे दी थी।

दादी एकदम डरपोक थी। वह छोटी-छोटी गाली देती। अगर तूलिका दादी की जगह पर होती तो मम्मी से कहती, ‘तू नीच है, तू चुड़ैल है, हरामी तो है ही। जब तुझे पता है कि मुझे चार बजे चाय चाहिए तो फिर तू कभी साढ़े चार तो कभी आधी रात को ही चाय क्यों देती है?’ बूढ़ा तूलिका से मिलेगा तो वह उसे दादी की सारी बातें बताएगी। तूलिका सोच में पड़ गई। क्या बूढ़ा अब उसके सपने में कभी नहीं आएगा? क्यों आएगा? उसने मना जो कर दिया है। ठीक है, न आए उसे क्या? क्या वह उसके बिना मरी जा रही है? वह बूढ़ा उससे गाली सीखना चाहता था। उसने तूलिका को अपना ‘गाली गुरु’ बनाया था। अगर वह फिर नहीं आएगा तो वह उसे चुड़ैल, कमीनी, हरामी गाली कैसे सिखा पाएगी? तूलिका पूरी रात यही सोचती रही। उसे उस रात नींद भी नहीं आई। सुबह वह दीदी के कमरे में भी नहीं गई। कौन जाए पट्टियों से बँधा सिर देखने। वैसे ही प्यार-व्यार दिखाकर कहेगी, “आओ तूलिका। बैठो।” मम्मी-पापा गुस्से से घूरेंगे कि इसने सबका जीना हराम कर दिया है पर दीदी बड़प्पन दिखलाएगी, कहेगी, “छोड़िए न!”

अच्छा हुआ साली का हाथ टूट गया। ज्यादा पुचकारेगी तो दूसरा भी तोड़ डालूँगी। तूलिका अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। मम्मी उसके कमरे में आई, बोली, “तूलिका, शर्म नहीं आती तुम्हें! एक बार भी जाकर दीदी से नहीं पूछा कि दर्द कैसा है?” तूलिका चिल्लाई, “क्या होगा पूछकर? ठीक हो जाएगा?” मम्मी बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर निकल गई। मर जाओ, तुम मर क्यों नहीं जाती। तूलिका के ऊपर मम्मी की बातों का कहाँ कुछ असर हुआ। बस दूर खड़ी जीभ निकालती रही, निढाल-सी गद्दे पर पसर गई।

दो-तीन दिन हो गए थे उसे बिना सोए। आँखें जल रही थीं। उसने डॉ. दसानी की दवा खा ली। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उसे नींद आने लगी। अँधेरा गहरा होने लगा। घने अँधेरे में कोई नजर आया। एक चौकी थी, उस पर झुककर कोई कुछ लिख रहा था। जैसे ही उसने मुँह ऊपर किया तूलिका चिल्लाई – कुत्ते कहीं के। वह जोर से हँस पड़ा। हँसने से उसकी दाढ़ी हिलने लगी। उसकी हिलती दाढ़ी देखकर तूलिका भी जोर से हँस दी। बूढ़े को लगा तूलिका के चेहरे से हरसिंगार झर रहे हैं। उसने तूलिका के गाल के पास अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाई। तूलिका कुछ नहीं समझी। चिढ़कर बोली, “यह क्या कर रहे हो?” बूढ़ा बोला, “यह देखो तुम्हारे चेहरे से हरसिंगार झर रहे हैं, उन्हें बटोर रहा हूँ।” तूलिका चौंकी, “क्या फूल झर रहे हैं?” उसके चेहरे से! कहाँ? बूढ़ा बोला, “यहाँ देखो, यहाँ।” तूलिका को उसके हाथ में कोई फूल नजर नहीं आया। वह बोली, “झूठ बोलते हो।” बूढ़ा बोला, “तुम झूठ बोलती हो।” तूलिका बोली, “क्या झूठ कहा मैंने?” बूढ़ा बोला, “यह झूठ नहीं तो क्या है कि तुम्हें वह फूल दिखलाई ही नहीं पड़ रहे जो मुझे…।” “देखो तो सही, यहाँ मेरी अंजलि में।” तूलिका बोली, “कहाँ?” बूढ़ा बोला, “यहाँ।” तूलिका फिर बोली, “कहाँ?” तो बूढ़े ने कहा कि तुमने कभी हरसिंगार देखा है? तूलिका बोली, “नहीं।” बूढ़ा बोला, “तब तुम कैसे पहचानोगी? छिः! बहुत शर्म की बात है कि तुमने हरसिंगार नहीं देखा।” “इसमें शर्म की क्या बात है।” तूलिका ने मुँह बनाया। बूढ़ा बोला, “शर्म की बात नहीं है? जब तुमने मुझे ढेर सारी गालियाँ सुनाईं तो मुझे इस बात पर बहुत शर्म आई कि तुम्हें वे गालियाँ आती हैं पर मुझे नहीं? पर तुम तो कुछ सीखना ही नहीं चाहती।” तूलिका को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा। बूढ़ा समझ गया। बात बदलते हुए बोला, “जानती हो यह मैं क्या लिख रहा था? एक कहानी।”

“कहानी! कैसी कहानी?”

“वह जिसमें एक लड़की है। एकदम तुम सी। जिससे एक काबुलीवाला बहुत प्यार करता है।”

“क्यों करता है?”

“क्यों नहीं करेगा? वह बहुत अच्छी है।”

“अच्छे लोगों को सब प्यार करते हैं?”

“हाँ!”

दीदी भी यही कहती है। इसी कारण वह मुझे अच्छी नहीं लगती। इसलिए मैंने उसका सिर फोड़ दिया।

“क्या?” बूढ़ा चौंका! “यह तुमने अच्छा नहीं किया।”

“एकदम अच्छा किया। वह मेरी बात सुन ही नहीं रही थी। बार-बार मैंने कहा कि सेंट की शीशी मैंने तोड़ी है। उसने मेरी बात नहीं मानी। मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने पेपरवेट उठाया और फेंक दिया उसके ऊपर।”

“क्या?”

“और नहीं तो क्या!”

“कहाँ से सीखा?”

“क्या कहाँ से सीखा?”

“यही सामान उठाकर फेंकना।”

बूढ़ा चुप हो गया। वह कुछ नहीं बोल रहा था। वह चुप ही रहा। तूलिका बोली, “कुछ कहते क्यों नहीं। मैं जानती हूँ तुम्हें गुस्सा आ गया है। अब तुम मुझसे बात नहीं करोगे। मेरा मुँह भी नहीं देखोगे।” तूलिका बूढ़े के पास से जाने लगी। वह सचमुच उठकर जाने लगी। जाने के पहले मुड़कर बूढ़े को देखा। उसके पास आई, भोलेपन से बोली, “तुम मेरे ‘फूल गुरु’ बनोगे? मुझे फूलों के बारे में कहाँ कुछ पता है।” बूढ़ा हँस दिया। तूलिका ने जल्दी से अपनी दोनों हथेलियों को जोड़ा और बूढ़े के गाल से सटा दिया।

बूढ़ा बोला, “क्या कर रही हो?”

“फूल बटोर रही हूँ।”

“फूल! कहाँ से? कौन से?”

“तुम्हारी दाढ़ी से हरसिंगार के।”

बूढ़ा हँस दिया, बोला, “बटोर लिए?”

“हाँ!”

“तो चलो अब हम लोग कुछ बातें करें।”

हाँ पर, मैं बोलूँगी। तुम नहीं जानते। मेरे पापा के एक दोस्त हैं। उनका नाम है भोलाराम। कल उनका फोन आया था। जैसे ही मैंने फोन उठाया वह बोले, ‘हरामी कहीं के!’ मैंने कहा, ‘क्या?’ वह हकलाए, आवाज बदलकर बोले, ‘तूलिका तुम! स्कूल नहीं गई? क्या कर रही हो? पापा हैं? पापा को फोन दो।’ पापा ने कहा – कह दो उस सूअर को, मैं नहीं हूँ। फिर जल्दी से उठे मुझसे बोले, ‘कमरे में जाओ और खुद फोन पर गालियाँ देने लगे।’

सभी नई गालियाँ। सुनाऊँ? अच्छा पहले यह सुनो कि उस समय मैंने क्या सोचा जब मुझे लगा, पापा ने मुझे उनकी बात सुनते हुए देख लिया है। मुझे लगा, पापा मुझे खूब मारेंगे। मुझे यह भी लगा कि पापा गुस्से में भोला अंकल को भी फोन पर ही मारने लगेंगे। पर वह हँस रहे थे। मैं जब दीदी को गाली देती हूँ तब हँसती नहीं, न ही उससे बात करती हूँ। पापा ने भोला अंकल से बात बंद नहीं की। पापा ने एकदम वैसे ही किया, जिस तरह मैं तुम्हारे साथ करती हूँ। गाली देना और खूब बातें करना। ऐसा इसलिए ही तो करती हूँ कि तुम मुझे अच्छे लगते हो। पापा को भी भोला अंकल अच्छे लगते होंगे। है न? बूढ़े ने तूलिका की बात सुनकर पूछा, “मैं तुम्हें अच्छा लगता हूँ?” तूलिका झेंपी नहीं, जोरदार गाली देकर बोली, “साले, तुम मुझे एकदम अच्छे नहीं लगते।” बूढ़े के कान लाल हो गए। बुदबुदाया, एकदम अपने बाप पर गई है।

तूलिका ने टोका, बोली, “कहो साली एकदम अपने बाप पर गई है।” मुझे अपना ‘गाली गुरु’ कहते हो पर गाली नहीं देते। बूढ़ा हँस दिया। तूलिका ने कहा, “आज मैं तुम्हारे गाल पर हाथ लगाकर यह नहीं कहने वाली कि गुलाब झर रहे हैं।” एक बात को बार-बार बोलकर मैं तुम्हें उबाना नहीं चाहती। तुम्हें मुझे यह कहना चाहिए था कि साली एकदम अपने खानदान पर गई है। तुम पूछोगे कैसे? तो जान लो, मेरे दादाजी एकदम हरामी थे। वे नहाते नहीं थे। बुआ बताती है वह दो-तीन महीनों में जब एक बार नहाते तो उनके लिए नया साबुन आता था। वे नई धोती, नई गंजी पहनते। उनके लिए उस समय कंघी भी नई आती थी। उनको बहुत गुस्सा आता तो लगता आसमान गिर जाएगा, धरती फट जाएगी। मेरी दादी ऐसे ही बताती थी। कहती थी, ‘जब वह गुस्सा होते तो सबकी पिल्ली काँपने लगती।’ ये पिल्ली काँपना क्या होता है? तुम्हें भी नहीं मालूम? कुछ होता है। यही कि रोएँ-रोएँ काँप जाते हैं। एक बार एक मजदूर ने एक चवन्नी बालू के बड़े से ढेर में गिरा दी। तब उन्होंने क्या किया बता सकते हो? नहीं। तब उन्होंने एक बड़ी-सी छलनी मँगवाई और दो घंटे तक कड़ी धूप में उसी मजदूर से सारी बालू छनवा डाली। चवन्नी निकालकर ही दम लिया। अगर दादाजी होते तो मैं उनसे खूब गाली-गलौज करती। वह तुम्हारे जितने बूढ़े लगते। मैं गाली-गलौज तो तुम्हारे साथ भी करना चाहती हूँ पर तुम वैसे नहीं हो। कहते हो गालियाँ सीखना चाहते हो पर ऐसा करते नहीं। सुन लेते हो पर बोलते नहीं। बूढ़ा बोला, “बाप रे तुम तो एकदम बड़े लोगों की तरह बात करती हो। मैंने जो सोचा झट से तुमने कह दिया।”

“तुम मानते हो, मैं तेज हूँ?”

“हाँ, एकदम।”

“तो मैं तुम्हें एक कविता सुनाती हूँ।”

“तुमने लिखी है?”

“इसमें चौंकने की क्या बात है। तुम कहानी-कविता लिख सकते हो तो क्या मैं नहीं? तुम हरदम कुछ न कुछ लिखते रहते हो। इसलिए मैंने भी कविता शुरू कर दिया है। क्या तुम बता सकते हो कि कविता किस पर है? बूढ़ा सोचकर बोला,

“मेरा स्कूल।”

“नहीं।”

“मेरा घर?”

“नहीं।”

“मेरी प्रिय अध्यापिका। या मेरा प्यारा कुत्ता?”

“नहीं, नहीं।”

“तो तुम ही बताओ।”

“तिलचट्टे पर।”

“क्या?”

“हाँ।”

“तुमने क्या कभी कोई कविता तिलचट्टे पर लिखी है? नहीं लिखी न! तभी मैंने लिख डाली। तुम नहीं जानते कि मेरे घर में कितने तिलचट्टे हैं। तुमने कभी एक साथ ढेर सारे छोटे-बड़े तिलचट्टे नहीं देखे होंगे। बस मैंने लिख डाली एक कविता।”

तूलिका सुनाने लगी :

          आया तिलचट्टा आया
              अपने साथ दल-बल लाया।
              पकड़ो मारो भगाओ
              नहीं-नहीं, मत धमकाओ
              बस झाड़ू घुमाओ
              देखो आलू के पीछे छुपा है
              छुओ मत, वह ऐंठा है
              ठेंगा मत दिखलाओ
              प्यार से बुलाओ

              इसका घर कहाँ है?
              क्या यह बिन माँ-बाप का बेटा है?
              तो, इसे छोड़ दो
              छड़ी से छेड़ दो
              लौट जाएगा
              दल-बल के साथ कभी नहीं आएगा।

बूढ़ा अभिभूत हो बोला, “तुमने लिखी है?” तूलिका ने कहा, “हाँ।”

बूढ़ा ने फिर पूछा, “क्या, यह तुमने लिखी है?” तूलिका बोली, “हाँ।” बूढ़े ने तीसरी बार पूछा, “क्या सचमुच तुमने?” तूलिका खीझ गई बोली, “गधे हो तुम? एक बार में कोई बात समझ में नहीं आती।” बूढ़ा धराशायी हो गया। बोला, “गुस्सा हो गई! अच्छा, और भी तो सुनाओ। तूलिका ने कोई जवाब नहीं दिया। बूढ़ा उसे कुरेदने लगा। तूलिका, चुप रही। बूढ़ा जिद करने लगा। तूलिका एकदम बदल गई। दूसरी कविता निकालकर पढ़ने लगी। बोली, “यह भी तिलचट्टे पर है।”

“हाँ!”

“हाँ।”

“सुनाओ!”

सुनो

          यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ
              फैले हैं तिलचट्टे माँ
              पकड़ें, मारें, छोड़ दें
              इनका क्या करें?
              तुम कहती जाने दो
              मैं कहती निकल जाओ
              ये चक्कर पर चक्कर लगाते
              मेरे सपनों में भी आते

              कहो तो क्या करूँ माँ
              पसरे हैं ये – यहाँ-वहाँ
              तुम कहती – मत मारो
              सुनो यह क्या कहता है
              मैं कहती, सुनाओ तुम्हारी कथा
              क्या है ये?
              उदास हो जाते
              कहते – हमें कोई नहीं चाहता
              रोज पैदा होते रोज मर जाते

              इतने गंदे हैं क्या कि
              फैल नहीं सकते यहाँ-वहाँ!

बूढ़ा उछला। बोला, “तुम इतना अच्छा लिखती हो।” तूलिका रोने लगी। बूढ़ा चकराया। उसने क्या कुछ ऐसा-वैसा कह दिया जिससे तूलिका रोने लग जाए। वह रोने क्यों लगी? तूलिका रोते-रोते बोली, “तुम ही हो जिसने कहा कि ये कविताएँ बहुत अच्छी हैं और कोई नहीं कहता।” ये कविता मैंने अभी थोड़े न लिखी हैं? जब पापा को सुनाई तो वह बोले, “क्या फालतू काम करती हो।” मम्मी बोली, ‘स्कूल का होमवर्क तो होता नहीं तुमसे। इन सबमें समय बर्बाद करती हो।’

बूढ़े ने पूछा, “बड़ी दीदी। उसने क्या कहा?”

“उसे मैं क्यों दिखलाऊँ! वह तुरंत अपनी सहेली को बताएगी। वह ऐसी ही है। सब कुछ अपनी सहेली को दिखा देती है।”

बूढ़ा बोला, “तुम मुझे पढ़ाया करो। जो भी लिखो मुझे दिखाना, पर इसमें गालियाँ तो एक भी नहीं हैं?”

“हाँ। एक भी नहीं।”

“क्यों?”

“मुझे नहीं मालूम, इसमें गालियाँ क्यों नहीं आईं। अब घुसा सकती हूँ। क्या तुम इसमें कुछ फूल के नाम डालोगे? मैं गालियाँ। फिर ये कविताएँ और भी अच्छी हो जाएँगी।”

“रहने दो। इनको मत छेड़ो। दसरी कविताओं में ऐसा करना।”

तूलिका ने हाँ में सिर हिला दिया।

कुछ दिनों से तूलिका को सब कुछ अच्छा लगने लगा था। मम्मी खुश थी कि तूलिका डॉ. दसानी की दवा अपने आप ले लेती है। तूलिका को इन दिनों नींद भी खूब आने लगी। रोज ही नींद में बूढ़े से मिलनेका इंतजार करती। आज उसने पाया बूढ़ा झाड़ू लगा रहा है। वह अपना खाना भी खुद बना रहा है। तूलिका को यह पता नहीं था कि बूढ़ा अपना सारा काम खुद करता है। उसे बूढ़े पर दया आई, सोचने लगी, बेचारा कितना अकेला है कोई भी नहीं है। इसकी शादी भी नहीं हुई है। उसने बूढ़े से पूछा, “सारा काम अपने आप करते हो?”

“तो कौन करेगा?”

“तुम शादी कर लो। वह जो तुम्हारी आएगी वह सब कुछ करेगी।” बूढ़ा हँसने लगा। बोला, “देखो मेरे सारे दाँत टूट गए हैं। अब मुझसे शादी कौन करेगा?” तूलिका दुखी हुई बोली, “दाँत टूटने से क्या कोई शादी नहीं करता?”

“कोई नहीं करता।”

‘तूलिका को सोच में पड़े देखकर बूढ़ा बोला, “तुम मुझसे शादी कर लो। करोगी?” तूलिका बूढ़े को मारने लगी, बोली, “तुम एकदम भी अच्छे नहीं हो। क्या मैं बिना दाँत के आदमी से शादी करूँगी।” मैं तो दाँत वाले से शादी करूँगी? बूढ़ा गंभीर हो बोला, “तो अब तुम्हीं बताओ मैं किससे शादी करूँ?”

“तुम अपना काम खुद कर लिया करो। तुमसे शादी कौन करेगा।”

बूढ़े ने हाँ में सिर हिला दिया। तूलिका बोली, “आज मैं तुम्हें अपनी सहेली के बारे में बताऊँगी। वही प्रियंका दास। आज फिर वह छुट्टी के बाद भी बहुत देर तक स्कूल में बैठी रही।”

“कौन प्रियंका दास…?” बूढ़ा तूलिका को देखने लगा तो तूलिका बोली, “क्या मैंने तुम्हें प्रियंका दास के बारे में नहीं बताया! वही जो मेरे साथ पढ़ती है। वही जो हमेशा स्कूल की छुट्टी होने के बाद भी स्कूल में बैठी रहती है। बैठना ही पड़ेगा। उसकी मम्मी उसे लेने के लिए देर से जो आती है। स्कूल का वह बड़ा दरवाजा है न, वहाँ दो अध्यापिकाएँ छुट्टी के आधे घंटे बाद तक खड़ी रहती हैं ताकि कोई भी लड़की स्कूल में न रह जाए। प्रियंका दास का नाम रोज उस कॉपी में रहता है जिसमें उन लड़कियों के नाम होते हैं जो छुट्टी के आधे घंटे बाद भी स्कूल में ही रहती हैं। जब पेरेंट्स मीटिंग हुई थी तब प्रियंका दास की मम्मी को कहा गया था कि आप अपनी लड़की को इतनी देर से लेने क्यों आती हैं? वह बोली, जल्दी कैसे आऊँ? सामने कोई न कोई मुवक्किल बैठा रहता है बीच में कैसे उठूँ? उसकी मम्मी वकील है न! पापा किसी दफ्तर में काम करते हैं। हमारी बड़ी मिस ने कहा, उसके लिए बस क्यों नहीं कर लेती तो वह क्या बोली पता है? बोली, कहाँ के लिए करूँ? घर में तो ताला लगा होता है। वह अकेले कैसे रहेगी। मैं अपने साथ ले जाती हूँ। जब मुझे फुर्सत मिलती है भागती सी लेने आती हूँ।”

बूढ़े ने पूछा, “अकेले खड़े-खड़े प्रियंका दास रोती नहीं है?”

“नहीं, रोते तो मैंने नहीं देखा। उदास रहती है। अध्यापिकाएँ बार-बार पूछती हैं, प्रियंका, आज क्या तुम्हारी मम्मी नहीं आएगी?”

बूढ़े ने तूलिका से पूछा, “और तुम घर कैसे जाती हो?” तूलिका झट से बोली,”गाड़ी से और कैसे। मेरी गाड़ी छुट्टी होने के पहले ही आ जाती है। एक दिन ड्राईवर देर से आया तो मैंने मम्मी से कहा। मम्मी ने पापा से और पापा ने ड्राईवर को काम से निकाल दिया। क्यों न निकालें, निकम्मा था। कामचोर कहीं का! पापा ने भी कहा कि वह हरामी है। यह भी कोई ढंग है कि मैं स्कूल में खड़ी हूँ और वह खाना खा रहा है।” बूढ़े ने गंभीर होकर पूछा, “क्या तुम लोग उसे खाने का समय नहीं देते?” तूलिका बोली, “कभी-कभी वह पापा के काम में फँस जाता है। उसी कारण देर हो जाती होगी। पर इससे क्या। यह उसकी गलती है कि वह देर से लेने आए। प्रियंका दास के मम्मी पापा गाड़ी खरीद लें तो वह भी समय से घर पहुँच जाया करेगी। पर उसके घर में तो ताला बंद रहता है। उसके मम्मी-पापा दोनों काम करते हैं। उसके कोई दादा-दादी हैं या नहीं यह मैंने पूछा तो वह बोली, ‘डायमंड हार्बर में एक मकान है वहाँ दादी रहती है।’ मैंने कहा तुम अपनी दादी को अपने घर बुला लो। फिर तुम्हारी मम्मी तुम्हारे लिए बस कर देगी और तुम भी छुट्टी होते ही घर जा सकोगी। वह बोली, ‘दादी कैसे आ सकती है?’ वह दादी का पुराना घर है। वहाँ से दादी के निकलते ही पड़ोस में जो चाचा रहते हैं वह उधर घुस जाएँगे। हम गर्मी की छुट्टियाँ और दुर्गा-पूजा वहीं तो मनाते हैं। अगर घर वह ले लेंगे तो फिर हम कभी भी वहाँ जा नहीं सकेंगे। तुम जानती नहीं हो वह मेरे सगे चाचा नहीं हैं। एक बार वह घर में आ गए तो कभी नहीं निकलेंगे। वह हम लोगों को प्यार नहीं करते। मुझे वह अच्छे नहीं लगते। उनका जो लड़का है बलाई, वह बहुत अच्छा था। जब हम छोटे थे तब साथ-साथ नहाया करते। वह हमेशा मुझे पानी में धकेल देता। मैं भी उस पर पानी गिरा देती। पर अब वह मुझसे बात भी नहीं करता। मैं भी क्यों करूँ? लेकिन मैं किसके साथ खेलूँ? मेरे कोई भाई-बहन भी तो नहीं।’

बूढ़ा जो इतनी देर से तूलिका की बात सुन रहा था बोला, “तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हें प्यार करते हैं।” तूलिका बोली, “नहीं करते तो?” बूढ़ा बोला, “नहीं करते तो क्या ड्राईवर को काम से निकाल देते।” वह तो इसलिए निकाला कि वह मुझे देर से लेने आया। बूढ़े ने पूछा, “वह ड्राईवर आजकल क्या काम कर रहा है?” तूलिका मुँह बिचकाकर बोली, “मुझे क्या मालूम कि क्या कर रहा है? बूढ़ा बोला, “तुम्हें पूछना चाहिए कि वह कहाँ है?” “क्यों पूछना चाहिए? मुझे उससे क्या मतलब। वह हमारे यहाँ काम नहीं करता।” बूढ़ा बोला, “तो क्या हुआ।” तूलिका कुछ याद कर बोली, “एक बार उसने मुझे गोद में उठाकर रास्ता पार किया था।” उस दिन बहुत बारिश हो रही थी। पूरी गली में पानी ही पानी था सो उसने कहा, घबराओ मत और झट से गोद उठा लिया। बहुत मजा आया। जब मैं उसकी गोद में थी मैंने कहा, “अरे, तुम्हारे कान में बाल हैं तो वह बोला, तुम्हारे पापा के कान में भी होंगे। उसने एकदम ठीक कहा था। पापा के कान में भी बाल थे। आओ, तुम्हारा कान देखूँ। तूलिका बूढ़े का कान देखते ही चिल्लाई, तुम्हारे कान में तो सबसे ज्यादा बाल हैं।” अपने कान को छूकर बोली, “मेरे में क्यों नहीं हैं? मेरे कान छोटे भी हैं। ये बड़े कब होंगे? बूढ़ा बोला, “जब तुम बड़ी हो जाओगी। तूलिका ने पूछा, “मैं बड़ी कब होऊँगी?” तो बूढ़ा बोला, “कल। अब आज बात बंद कर देते हैं। मुझे बहुत काम है। आज तुम जाओ।” तूलिका बोली, “ठीक है मैं जा रही हूँ पर कल अगर मेरे कान में बाल नहीं उगे तो मैं तुम्हें खूब मारूँगी।” तूलिका खुश हो चली गई कि कल उसके कान में बाल उग जाएँगे।

दूसरे दिन तूलिका जब बूढ़े से मिली गुस्से में बोली, “एकदम झूठे हो तुम।”

“क्या झूठ कहा मैंने?”

“यह झूठ नहीं है तो क्या है? कहाँ उगे मेरे कान में बाल? देखो। तुमने ही कहा था न कि कल मेरे कान में बाल उग जाएँगे। देखो, देखो, कहाँ उगे?”

तूलिका बूढ़े को अपना कान दिखाने लगी। उसका मुँह उतरा हुआ था।

बूढ़े ने यह नहीं सोचा था कि तूलिका को इस बात से इतना दुख होगा। उसने पुचकारते हुए कहा, “दो दिन ही तो हुए हैं। किसी-किसी के दो-तीन महीने लग जाते हैं और कभी तो दो साल।”

“दो साल!” तूलिका ने दुहराया।

“हाँ, दो साल। तुम इतनी छोटी भी तो है। दो साल बाद जरूर निकल आएँगे।”

तूलिका जो रोने-रोने को थी ठीक हुई। उसे यकीन हो गया कि बूढ़ा सच कह रहा है। आँखों के सामने झूलते बालों को हटाकर उसने बूढ़े से कहा, “जानते हो, झूठ बोलना अच्छी बात नहीं है। मुझे पता है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए फिर भी मैं झूठ बोलती हूँ। तुम झूठ नहीं बोलते।”

“तुमसे किसने कहा कि मैं सच कहता हूँ?”

“कौन साला कहेगा? तुम दूसरों जैसे नहीं हो। तुम पापा जैसे नहीं हो। तुम झूठ नहीं बोलते।”

“हो सकता है बोलता होऊँ।”

“जिस तरह गाली देते हो।”

“हाँ।”

“गाली तो अकेले में देते हो। तुम्हारी गाली कोई सुन नहीं सकता। झूठ भी ऐसे ही बोलते हो।”

बूढ़ा बोला, “कोई और बात करें।”

“कोई और बात क्यों? यही क्यों नहीं? तुम्हें मालूम है मैं कभी भी झूठ नहीं बोलती थी।”

बूढ़ा खुश हुआ, बहुत खुश।

“हाँ। मैं सच ही बोलती थी। मम्मी-पापा दीदी बात-बात पर कहते – तूलिका, तुम सच नहीं कह रही। तूलिका, तुम झूठ कह रही हो। तूलिका, तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं कर सकते। इन लोगों ने मुझे कोई दवा उस समय नहीं दी जब मेरी जान पेट दर्द के मारे निकली जा रही थी। मैंने बार-बार कहा – परीक्षा है, अगर दवा नहीं मिली तो पढ़ नहीं पाऊँगी। तुम बताओ, पढ़े बिना भी क्या कोई पास हो सकता है? कहाँ मेरी बात पर मम्मी-पापा ने विश्वास किया। उलटे डाँटने लगे, बोले, बहुत हुआ नाटक। मैं नाटक नहीं कर रही थी। मैं हमेशा सच कहती थी। याद नहीं आता कब झूठ बोलना शुरू किया।”

उस दिन हेमा ने जो मेरे साथ पढ़ती थी कहा, ‘चलो टॉफी खरीदेंगे। मुझे मालूम है हेमा टॉफी कैसे खरीदती थी। उसके साथ मैं भी स्कूल की कैंटीन में टॉफी बेचनेवाले से थोड़ी दूर खड़ी हो जाती। वह एक खुला बक्सा लाता, जिसमें तरह-तरह की सुपारी, रंगीन चॉकलेट अलग-अलग खाने में रखे होते। लड़कियों का झुंड उस पर टूटता। झट से हेमा मुझे अपने साथ खींचकर बिना पैसे दिए ढेर सारी टाफियाँ उठा लेती। किसी को पता ही कहाँ चलता। फिर एक कोने में खड़े हो हम उसे आधी बाँट लेते। हेमा थोड़ी देर में ही सारी टॉफी खाकर खतम कर डालती पर मैं उन्हें घर ले आती। लाकर फेंक देती।”

“फेंक देती! क्यों? – बूढ़ा चौंका।

“तो क्या करती? वह सब मुझे नहीं भाता।”

“तो चोरी क्यों करती थी?”

“क्यों न चुराऊँ? कितनी बार माँगती थी पैसा। न मम्मी देती न पापा। मत दो। क्या मैं भीख माँगती रहूँगी। मैंने एक बार चोरी थोड़े न की। और भी तो की। पापा के साथ पटाखा खरीदने गई थी। बार-बार पापा से कहा – मुझे लड़ी बम खरीदना है। वह बार-बार झिड़कते रहे। मैं चुप हो गई। पर उस दीवाली में मैंने ढेर सारे लड़ी बम छोड़े।”

“कहाँ से आए तुम्हारे पास?” बूढ़े ने पूछा।

“कहाँ से आते? दुकान से उठा लिए थे?”

“क्या?”

“हाँ।”

“पापा ने डाँटा नहीं?”

“पापा को पता भी नहीं चला। मुझे एक बार डर लगा। फिर मैं डरी नहीं। यही तो पापा करते न, मुझे मारते, उठा कर नीचे फेंक देते, पंखे से लटका देते…।”

“क्या तुम्हारे पापा तुम्हें पंखे से लटका देते हैं?”

“लटकाया तो नहीं। पर बोलते हैं। मैं अच्छी नहीं हूँ। मैं झूठी हूँ। मैं चोर हूँ। दीदी ऐसी नहीं है पर आजकल वह बदल गई हैं और मुझे अच्छी लगने लगी हैं। कल मैं उसके साथ बाजार गई थी। रास्ते में हमने बहुत अच्छे ताजा सेब देखे। दीदी ने पूछा – तूलिका, खाओगी? वह सेब तुलवाने लगी। अचानक उसे कुछ हो गया। वह जोर से सेब वाले पर चिल्लाई, “ठीक से तौलो, कम क्यों तौल रहे हो? दो बार फलवाले को डाँटने के बाद तीसरी बार फल के ठोंगे को वहीं पटक दिया। बोली, साला लूट रहा है।”

मैं बोली, “तुम्हें भाव ठीक तो लगा था।”

“क्या ठीक लगा। दुगुना बोल रहा था। ये सब चोर हैं। ऐसा कह उसने घर आने के लिए टैक्सी कर ली। टैक्सी ड्राईवर अच्छी गाड़ी चला रहा था। एकदम हमारे ड्राईवर जैसी। दीदी को न जाने क्यों वह अच्छा नहीं लगा। रास्ते भर वह मुझे बोलती रही, कुत्ता है यह ड्राईवर। इसने अपना मीटर भी गड़बड़ कर रखा है। मैं दीदी को देख रही थी। मेरा मन हुआ दीदी को चूम लूँ।”

बूढ़ा अवाक था। पूछा, “ऐसी कैसे हो गई तुम्हारी दीदी?”

तूलिका बोली, “भगवान जाने, आजकल मुझसे बड़ों की तरह बात करती है।”

“अच्छा!”

“हाँ!”

“कहती है किसी पर विश्वास मत करो।”

“क्यों?”

“सब झूठे हैं। सब ठग। कोई अपना नहीं।”

कहती है, “मानसी मुझे फूटी आँख सुहाती नहीं है।”

“कौन मानसी?”

“वही उसकी सहेली। ये फूटी आँख का मतलब क्या होता है? आँख का फूट जाना। फिर उसमें से दिखेगा कैसे? सुहाती का भी मतलब समझ में नहीं आया। सुहाती यानी सुहाना? सुहाना तो अच्छा लगना होता है ना? सुहाना सफर और ये मौसम हसीं… का मतलब अच्छा मौसम ही तो होता है। यानी आँख टूट-फूट गई है और कुछ अच्छा नहीं लग रहा। दीदी न जाने इस तरह कुछ भी क्यों बोलती है? सो बोली, ‘मानसी ऐसी निकलेगी कौन जानता था। घूमती फिरती है जीजाजी के साथ। तो क्या हुआ दीदी से मैंने कहा।” यह भी कहा, “तुम घूमती हो तो ठीक है मानसी दीदी घूमती है तो ठीक नहीं। कितनी सुंदर है मानसी दीदी। ये बड़ी-बड़ी आँखें। पतले होंठ कितने खूबसूरत हैं उनके हाथ। घूमना ही चाहिए जीजाजी को। इसमें गुस्सा होने की क्या बात है!”

बूढ़ा अचानक बोला, “क्यों घूमना चाहिए! क्यों वह दीदी की सहेली के साथ घूमेंगे?”

“क्यों नहीं घूमेंगे? तुम मानसी दीदी से मिलोगे तो तुम्हारा मन भी होगा उनके साथ बात करनेका। उनके पास बैठने का, उनके साथ घूमने का, उनका हाथ पकड़ने का। इसलिए ही तो मैंने दीदी को गाली दी थी। कितना मन होता था मेरा मानसी दीदी को छूने का पर दीदी मुझे भगा देती। हरदम उसके साथ अकेली बैठती। अलग जाकर बात करती।”

बूढ़ा कहीं और था, बोला, “मुकुल भी ऐसा था?”

“मुकुल! कौन मुकुल?”

“कोई नहीं।”

“बताओ। बताना होगा। बताओ न। मुझे इसलिए ही नहीं बताते हो न कि मैं समझती नहीं हूँ। पर आजकल दीदी भी मुझे हर बात बताने लगी है। बताओ।”

बूढ़ा किसी तरह बोला, “मेरा दोस्त मुकुल। घूमता-फिरता था अपनी पत्नी की सहेली के साथ।”

“वह सुंदर थी?”

“हाँ।”

“तब तो उसे घूमना ही चाहिए। तुम नहीं घूमते थे? क्यों? तुम एकदम पागल हो। कभी मेरे स्कूल चलो। तुम्हें दिखाऊँगी कि वहाँ कितनी सुंदर-सुंदर अध्यापिकाएँ हैं। तुम्हारा मन होगा उनके साथ घूमने का। उनका हाथ पकड़ने का।”

“नहीं-नहीं, यह सब ठीक नहीं।”

“क्या ठीक नहीं?”

“कुछ नहीं। तुम नहीं समझोगी, ऐसे लोग लंपट होते हैं।”

“क्या होते हैं?”

“लंपट।”

“लंपट। क्या यह गाली है। बहुत अच्छी है लम और पट। पट पट पट। खट पट मत कर। चट पट पढ़। हठ मत कर। खट खट कर। यह हम लोग पढ़ते थे। तुम नहीं जानते?”

“जानता हूँ। मैं भी पढ़ता था। पथ पर डट। हठ मत कर। मत नट। चल सट।”

तुम्हारी यह गाली बहुत अच्छी है। इससे एक कविता बनाऊँ –

बोला लंपट

घर चल झट पट

चल निकल, हट

हठ मत कर।

मैंने गाली पर एक भी कविता नहीं बनाई। देखो अब बन गई। अब तुम फूल पर एक कविता लिखो।”

“नहीं। आज नहीं। किसी और दिन।”

“ठीक है। मेरी कविता कैसी लगी। मैं दीदी को सुनाऊँगी। अब वह अपनी सहेली को नहीं सुनाएगी।”

बूढ़ा जल्दी से बोला, “नहीं, नहीं, किसी को मत सुनाना।”

“क्यों? क्या अच्छी नहीं है?”

“है।”

“तो…?”

“यह शब्द ठीक नहीं है,’लंपट’।”

“पर मुझे तो बहुत अच्छा लगा। कभी-कभी मैं खाली बोतल को पानी से भरने के लिए भरी हुई पानी की बाल्टी में घुसाती हूँ तो उसमें बुलबुले उठते हैं। पट पट आवाज भी होती है। च्युंगम खाते-खाते जब उसे हवा भर कर फुलाती हूँ तब भी ऐसी आवाज उस समय होती है जब वह फट जाता है ‘पट’ से।”

बूढ़ा चुपचाप सुनता रहा। कैसे समझाए तूलिका को कि वह यह शब्द बार-बार न दुहराए। तभी झट से बूढ़ा खड़ा हो गया बोला, “छिः। पट। पट पट पट। यह भी कोई ध्वनि है। एकदम भी अच्छी नहीं है। लंपट अच्छे नहीं होते। लड़कियों के साथ घूमते हैं।”

तूलिका बोली, “अच्छे होते हैं तभी तो घूमते हैं। जो अच्छा लगे उसके साथ ही घूमना चाहिए। जब हम लोग स्कूल से चिल्ड्रेन म्यूजियम गए थे मुझे कहाँ मजा आया। मिसेज मुखर्जी के हाथों में इतनी अच्छी खुशबू आती है। मैं पूरे दिन उन्हीं के साथ उन्हीं के पास रही। तुम लंपट बन जाओ। बहुत अच्छी-अच्छी खुशबू सूँघ सकोगे।”

बूढ़ा तूलिका को एकटक देखता रहा। वह द्वंद्वं में फँस गया। जो भी हो तूलिका बच्ची है, एकदम बच्ची। उसे समझाना पड़ेगा। कैसे समझाए कि वह लंपट शब्द न दुहराए। बूढ़े ने लपक कर हिंदी शब्दकोश उठाया। कुछ क्षण किसी पन्ने पर आँख गड़ाए रहा, फिर खुश हो बोला, “तभी।”

“तभी मैं सोच रहा था कुछ गड़बड़ है।”

“क्या हुआ? कैसी गड़बड़।” तूलिका चौंकी।

“यही गड़बड़। भयंकर भूल। लंपट कुछ नहीं होता। गलत शब्द है यह। सही है लंबा पट। यानी लंबी किवाड़। देखो तुम भी देखो। इस शब्दकोश में तुम्हीं देखो। कहीं भी यह शब्द है। मैंने गलत बताया था।”

“गलत बताया था? तो क्या ‘लंपट’ कुछ नहीं होता। लंबा पट होता है। लंबी किवाड़। लंबा दरवाजा। छिः। साला यह भी कोई शब्द है। एकदम बेकार। तुम्हें कुछ भी पता नहीं। तुम गलत-सलत बोलते हो। तब तो वह कविता भी बेकार हो गई। अब मैं उसे दीदी को थोड़े न सुनाऊँगी?”

“क्यों नहीं सुनाओगी?”

“क्यों सुनाऊँगी?” एकदम गलत है वह। ऐसा कहकर तूलिका जाग गई।


तूलिका की गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी। पूरे दिन करने को कुछ नहीं था। उसने कागज और कलम उठाया और बूढ़े की तरह कहानी लिखने बैठ गई। मम्मी कई बार स्कूल का होमवर्क करने के लिए कह जाती और तूलिका कमरा बंद कर साफ सफेद कागज पर कहानी लिखती जाती। उसने आज तक कभी कोई कहानी नहीं लिखी पर वह जानती है कहानी लिखना एकदम आसान है। कहानी का एक नाम होना चाहिए उसके बाद कहानी जल्दी पूरी हो जाएगी। वह एक रिकार्ड बुक रखती है। उसमें रोज के बारे में लिखती है। उसमें जैसे लिखती है वैसे ही तो कहानी लिखी जाती है। बस यही है कि कहानी को खुले कागज पर लिखना चाहिए। तूलिका ने कहानी लिखना शुरू किया।

नाम दिया, “चोरी, सूदखोरी और गू”

दिनांक : 3 जनवरी 2002

प्रथम पीरियड : क्लास टीचर अनुपस्थित।

घटना – 1

प्वाइंट – 1 : स्नेहा बोहरा ने जो मॉनिटर को अपने में मिला चुकी है कक्षा का दरवाजा बंद कर दिया।

प्वाइंट – 2 : अध्यापिका की कुर्सी पर खड़ी हो गई, बोली किसे पॉकेट मनी चाहिए। कई हाथ उठे।

प्वाइंट – 3 : सबको दस-दस रुपये दिए। साथ ही पर्सनल डायरी में नाम पता फोन नंबर लिखवा लिया। तीन दिन बाद ये लड़कियाँ सात रुपये लौटाएँगी।

दिनांक : 5 जनवरी 2002

दूसरा पीरियड : प्रार्थना के बाद सबने नाक पर रूमाल रख लिया। कक्षा थ्री ‘ए’ के बाहर किसी ने हग दिया था। किस लड़की ने किया? अध्यापिका ने नाक सिकोड़ी।

प्वाइंट – 1 : मेहतरानी आई। हाथ में कपड़ा। गू को उठाया।

प्वाइंट – 2 : गू गू नहीं था।

प्वाइंट – 3 : गू खिलौना था।

प्वाइंट – 4 : प्रधानाध्यापिका आईं। एक-एक करके स्टाफ रूम की सभी अध्यापिकाएँ आईं। सभी देख गईं।

प्वाइंट – 5 : कक्षा बारह की सोनल मिन्नी को पकड़ा गया। प्रधानाध्यापिका ने उससे कमरा बंद करके बातचीत की।

प्वाइंट – 6 : सभी लड़कियाँ सोनल मिन्नी को गंदी लड़की कहती हैं।

कहानी खत्म हो गई। कहानी खत्म होते ही तूलिका बूढ़े को पढ़ाने के लिए बेचैन हो गई। बूढ़े से मिलना है उसे कहानी पढ़ाना है। बूढ़ा दिख गया। भागी। हाँफते-हाँफते बोली, पढ़ो – जल्दी से। बूढ़े के सामने कोई बैठा हुआ था। वह उसी से बात किए जा रहा था। तूलिका तो चाहती थी कि बूढ़ा जल्दी से उसकी कहानी पढ़ ले। पर वह तूलिका की बात सुन नहीं रहा था। अपने सामने बैठे माधव सिंह की बातों में उलझा रहा। तूलिका को गुस्सा आने लगा। वह उसे फिर बोली – पढ़ो। बूढ़े ने ध्यान नहीं दिया। तूलिका अधीर हो गई। चिल्लाई, पढ़ते क्यों नहीं। माधव सिंह ने तूलिका को देखा। उसने उसे पहली बार देखा था। वह उसे बच्ची लगी। उसने सोचा स्कूल का कोई होमवर्क होगा। बात सँभालते हुए बोला, “तुमने स्कूल के लिए कहानी लिखी है।”

तूलिका ने उसकी बात कोई जवाब नहीं दिया।

उसने फिर कहा – “तुमने कुछ लिखा है?” तूलिका बोली, “आप चुप रहिए। बूढ़ा तूलिका को देखने लगा। वह चिल्लाई, “घूरो मत। एक तो पढ़ नहीं रहे हो ऊपर से आँखें दिखा रहे हो।”

बूढ़े ने तुरंत कहा, “दो।” तूलिका बोली, “क्यों दूँ। नहीं दूँगी। करते रहो बात। कौन है यह तुम्हारा? दोस्त! तो पहले कहाँ था? तुमने पहले तो कभी नहीं बताया कि तुम्हारा कोई दोस्त भी है? मैंने कभी पूछा नहीं पर साले, तुम मुझे बता नहीं सकते थे कि तुम्हारा कोई दोस्त भी है! तूलिका के मुँह से गाली सुनकर माधव सिंह ने आँखें बड़ी करके कहा, “देखने में तो एकदम बच्ची लगती हो। पर ऐसी बात करती हो?” बूढ़े ने माधव सिंह को इशारे से चुप रहने को कहा। पर माधव सिंह फिर बोलने लगा, “बड़ों से क्या ऐसे बात करते हैं? तो कैसे करते हैं?” बूढ़े ने फिर माधव सिंह को रोकने की कोशिश की तब तक तूलिका जोर-जोर से बोलने लगी थी, “मैं ऐसे ही बोलती हूँ। मैं गाली देती हूँ। मैं चिल्लाती हूँ। मेरे पापा मुझे मारते भी हैं तो भी मैं मम्मी को सब को बुरी बात कहती हूँ। मैं इस बूढ़े को भी गाली देती हूँ। इसे गाली सुनना अच्छा लगता है। इसने तो मुझे अपना ‘गाली गुरु’ बनाया है। मैंने इसे कई गालियाँ सिखलाई हैं। इसे तो गाली देना आता ही नहीं था। इसने मुझसे ढेर सारी गालियाँ सीखी हैं – साली, कुत्ती, कमीनी, चुड़ैल और भी। कई बार हम कमरा बंद करके बातें करते हैं।” एक साँस में तूलिका बोल गई। माधव सिंह आँख फाड़े कभी बूढ़े को देख रहा था तो कभी तूलिका को। उसने कहा, “यह सब ठीक नहीं है। तुम्हें यह सब नहीं करना चाहिए।”

“क्यों नहीं करना चाहिए। तुम कौन होते हो मुझे समझानेवाले। अपने आपको क्या समझते हो?” माधव सिंह को अजीब सा लगा। आश्चर्य हुआ कि बूढ़ा तूलिका को कुछ नहीं कह रहा। तूलिका माधव सिंह को यह कह कर कि तुम तो साले कुछ समझते ही नहीं लौट आई। माधव सिंह गुस्से से लाल हो गया। बूढ़े से बोला, “यह लड़की पागल है?”

बूढ़ा बोला, “हाँ।”

“तुम्हें इसे बढ़ावा नहीं देना चाहिए।”

“हाँ।”

“क्या हाँ, हाँ! कुछ और बोलो। तुम भी पागल हो गए हो!”

“हाँ।”

“क्या इसका पूरा खानदान ही ऐसा है?”

“हाँ।”

“फिर इसे ज्यादा मुँह मत लगाओ, कम बात किया करो।”

‘अच्छा।”

माधव सिंह गुस्से में लौट गया। उसके जाते ही बूढ़ा तूलिका के फिर से आने का इंतजार करने लगा।

तूलिका की नींद खुल गई। आज नींद टूटते ही वह जोर-जोर से मम्मी को पुकारने लगी – “मम्मी, मेरी किताबें किसने छुई हैं? किसने कलमों को इधर-उधर किया?” मम्मी आई तो तूलिका अपनी किताबें और कलमों को फेंकने लगी बोली, “कितनी बार कहा मेरा सामान मत हटाया करो। छबि कहाँ है? उस कुत्ती ने ही मेरी चीजें इधर-उधर की हैं।” उसकी नजर अपने कपड़ों पर गई तो वह पहले से भी ज्यादा जोर से चिल्लाने लगी, “सारे कपड़े खोलकर चली गई। मेरे कपड़ों को वह क्यों छूती है? क्यों मेरे कमरे में आती है? अलमारी को भी ठीक से बंद नहीं करती। सब यहाँ कुत्ते हैं।” मम्मी ने डाँटा। बोली, “फिर तुमने चिल्लाना शुरू कर दिया। कहाँ से सीखती हो ऐसी गालियाँ। जब देखो तब गंदी-गंदी बातें बकती रहती हो।”

“हाँ, मैं गंदी बातें कहती हूँ। मैं गंदी हूँ। मैं मर क्यों नहीं जाती। कोई मुझे प्यार नहीं करता। सबके सब स्वार्थी हैं।” मम्मी ने ध्यान दिया, तूलिका का बड़बड़ाना बढ़ गया है। वह एक बात को दो बार तीन बार, बार-बार दुहरा रही है। पढ़ाई-लिखाई नहीं करेगी तो यही सब करेगी, मम्मी को उसकी चिंता खाए जा रही थी कि तूलिका परीक्षा में फेल न हो जाए। इस बार तो स्कूल से निकाल दिया जाएगा। दिन भर कागज कलम लेकर बैठी रहती है। न जाने क्या-क्या लिखती है। कभी तो बहुत समझदार लगती है और कभी ऐसी कि किसी को बताने में भी शर्म आए कि तूलिका मेरी बेटी है। इधर तूलिका की माँ कभी तूलिका को डाँट रही थी, कभी परेशान हो रही थी तो कभी चिंतित। उधर तूलिका स्नानघर में पानी के टब में मुँह झुकाए छुप कर बैठ गई।

बैठे-बैठे बूढ़े के लोक में पहुँच गई।

बूढ़ा कमरे में बदहवास-सा गोल चक्कर लगा रहा था। वह न जाने कितनी देर से उसी तरह कमरे में घूमता रहा था।

तूलिका को देखते ही झट से बोला, “क्यों चली गई तुम?”

“क्यों नहीं जाऊँगी? तुम्हारा दोस्त एकदम कुत्ता है। मुझे आँखें दिखा रहा था और तुमने उसे कुछ भी नहीं कहा।”

“किसने कहा तुमसे कि कुछ नहीं कहा?”

“मैंने अपनी आँखों से देखा। मुँह झुकाकर बैठे थे तुम। इसलिए मैं वहाँ से चली आई।”

“इसलिए ही तुम्हें कुछ मालूम नहीं। तुम रुकती तब पता चलता। तुमने मेरी बात भी नहीं मानी। क्या हम लोगों के बीच में यह बात नहीं हुई थी कि हम गाली वाली बात को किसी से नहीं कहेंगे। तुमने उसके सामने सब कुछ कह दिया। यह भी कि हम कमरे में गाली-गलौज करते हैं। उसने सब कुछ सुन लिया। जब उसने तुमसे कहा कि तुम्हें ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए तब जानती हो वह क्या सोच रहा था? उसे भी गालियाँ नहीं आतीं और उसे जलन हुई कि तुम मुझे सिखा रही हो और वह सीखे बिना ही रह जाएगा।”

“हाँ!”

“हाँ।”

“जलन तो बच्चों को होती है। तुम लोग तो बूढ़े हो गए हो।”

“पागल हो क्या तुम ! जलन सबको होती है इतना भी नहीं जानती! मैं जानता हूँ इसलिए तो मैंने तुम्हें चुप रहने को कहा और तुम चली गई तो रोका भी नहीं।”

“क्यों नहीं रोका?”

“रोकता तो तुम उसको सारी बात बता देती। दीदी की बात, मानसी की बात और फिर अगर वह भी मानसी के साथ घूमना चाहता तो?”

“हाँ, तुम ठीक कह रहे हो। मानसी दीदी है ही ऐसी। उससे सभी दोस्ती करना चाहते हैं। तो क्या हुआ। तुम तो जलनखोर हो। कर लेता वह मानसी दीदी से दोस्ती।”

“क्यों कर लेता? तुम्हारी मानसी दीदी खाली थोड़े न बैठी हैं? समय कहाँ बचता होगा जीजाजी को छोड़कर।”

“हाँ, एकदम नहीं बचता।”

“पर आज मेरे पास बहुत समय है, तुम अपनी कहानी सुनाओ।”

तभी तूलिका बूढ़े को ध्यान से देखकर बोली, “तुम्हें हुआ क्या है?”

“क्या हुआ?” बूढ़ा सकपकाया।

“कैसा हो गया है तुम्हारा चेहरा! एकदम जली हुई पावरोटी की तरह, जैसी छबि मुझे दूध के साथ बनाकर देती है। इतनी बार मैंने कहा पावरोटी मत जलाया करो। फिर मैं उसके ऊपर जैम लगाती हूँ तब जाकर वह खाने लायक होती है। पर पावरोटी को तो छबि जलाती है, तुम्हें किसने जलाया?”

“तुमने और किसने?”

“मैंने?”

“हाँ। गुस्से में चली गई फिर आई भी नहीं। तुम भी नहीं आई और नींद भी नहीं आई।”

“रात आई। फिर सुबह कोयल गाई”, तूलिका ने जोड़ा।

बूढ़ा हँस पड़ा, “देखो हमने कैसी कविता गाई!”

“हमने नहीं। मैंने। मैंने जोड़ी वह पंक्ति।”

“ठीक है तुमने। तुम तो अब कवयित्री बन गई।”

“कवयित्री तो तिलचट्टे ने बना दिया। अब तो लेखिका हूँ। मेरी पहली कहानी का नाम है : चोरी, सूदखोरी और गू।”

“यह नाम है?”

“क्यों तुम्हें अच्छा नहीं लगा?” तूलिका का मुँह उतर गया।

“बहुत अच्छा है। एकदम नया। तुम हमेशा नई बात करती हो।”

“पर मम्मी-पापा कहते हैं तुम पुरानी बात दुहराती हो। मम्मी को मैं कहानी कभी नहीं सुनाऊँगी। सुन सकते हो। सुनाऊँ? सुनो।”

तूलिका कहानी सुनाने लगी। एक साँस में पूरी कहानी पढ़ डाली। कहानी सुन बूढ़ा तेजी से बगल वाले कमरे में गया। उसके हाथ में कुछ था। तूलिका की तरफ बढ़ाकर बोला, “लो इनाम।”

“इतनी सारी मिठाई।” तूलिका उछलकर बूढ़े से लिपट गई। तूलिका का सिर बूढ़े के सिर से टकराया। आँखें सिर पर उगे केशों से। वह चिल्लाई, “जुएँ।”

“कहाँ?” बूढ़ा भी चिल्लाया।

“तुम्हारे माथे में। तब तो तुम्हारे पेट में कीड़े भी होंगे। मैं दोनों चीजों का इलाज जानती हूँ। मैं तुम्हारे सिर में नारियल तेल के साथ कपूर मिलाकर लगाऊँगी और पेट के लिए दवा लाकर दूँगी। तुम यह बात किसी से मत कहना।”

“कौन-सी बात?” बूढ़ा आश्चर्य से बोला।

“यही कि तुम्हारे सिर में जुएँ हैं और पेट में कीड़े। अपने उस दोस्त से भी मत कहना। वह सब जगह इस बात को फैला देगा।”

“हाँ। कभी नहीं कहूँगा। वह वैसा ही है। सब बात फैला देता है।”

“बचपन में बंदर रहा होगा। मैं भी थी। खूब फैलाती थी दूध और पानी कमरे की जमीन पर। अब नहीं फैलाती। बड़ी हो गई हूँ। तुम्हारा वह दोस्त बड़ा नहीं हुआ।”

“हाँ।” बूढ़ा तूलिका को देखने लगा। “वह बड़ा नहीं हुआ। कितनी पते की बात तुमने कही है। यह बड़ा नहीं हुआ। पर क्यों? क्या बता सकती हो?”

“अभी बिल्कुल नहीं। आज सिर्फ कहानी।”

“कहानी! कौन सी? वही गू वाली फिर से।”

“नहीं दूसरी आजादी वाली।”

“आजादी?”

“हाँ आजादी।?” शीर्षक है : “काली को मिली आजादी।’

बचपन : काली एकदम काली है। हमेशा सफेद पत्थर वाली एक अँगूठी पहने रहती है इसलिए कि फिर कभी आत्महत्या न कर सके। बहुत गुस्सा आता था काली को तब जब उसकी माँ उसे घर में कैद रखती। एक दिन वह अपने ऊपर किरासन तेल डालकर मरनेवाली थी पर उसकी माँ ने उसे कहीं से एक अँगूठी ला दी। अब वह कभी भी मरने की बात नहीं सोचती।

संघर्ष : काली की शादी हो गई। वह नौकरी करके बहुत खुश हुई। ‘सर्वोत्तम’ राशन दुकान में सेल्स गर्ल है। पति भी एक दुकान में सेल्स बॉय।

प्यार : पति ने शाम को काली से कहा – यह घर पिंजड़ा नहीं है। जो चाहो पहनो, जहाँ चाहो घूमो, जो चाहो खाओ। तुम आजाद हो।

आजादी : काली खुश है। काली परेशान है। काली ज्यादा क्या है? खुश या परेशान? काली सब कुछ कर सकती है। सिर्फ उसकी दो वर्ष की पंखुड़ी का अगले वर्ष स्कूल में दाखिला हो जाए। काली जो मन में आए खाएगी। किसी तरह उसके पति को फिर से नौकरी मिल जाए। काली हर जगह घूमेगी, बस घर खर्च के बाद उसके पास थोड़े पैसे बच जाएँ। हर समय सोचती है पंखुड़ी को मल्टीपरपज गर्ल्स स्कूल में दाखिला मिल जाए। दाखिला मिल गया है। देखती है पंखुड़ी बेलतल्ला हाईस्कूल में जा रही है।

काली आजाद है।

कहानी खत्म हो गई और तूलिका चुप हो गई।

बूढ़ा भी चुप था।

तूलिका ने टोका, “कहो तो कैसी लगी कहानी?”

“बूढ़ा जागा। अच्छी, बहुत अच्छी। शीर्षक में व्यंजना है।”

“क्या है?”

“व्यंजना।”

“व्यंजन?”

“नहीं व्यंजना। काली आजाद है। पर काली आजाद नहीं है। वह सब कुछ कर सकती है पर कुछ नहीं कर सकती।”

“तूलिका बूढ़े को ताकती रही।”

बूढ़ा बोला, “नहीं समझी। मेरी नन्हीं सी लेखिका इतना भी नहीं समझी कि अब वह कैद हो गई है घर और पंखुड़ी में। इस शीर्षक में व्यंजना है।”

तूलिका झुँझलाकर बोली, “एक ही बात रटे जा रहे हो। व्यंजना, व्यंजना।” तुम्हें कुछ भी ठीक से नहीं आता। लाओ अपना वह शब्दकोश मैं दिखलाती हूँ तुम्हें। व्यंजना कुछ नहीं होता। व्यंजन होता है। व्यंजन। यानी तरह-तरह के खाने की चीजें- जैसे खीर, गुलाब जामुन, दही बड़े। रायता, गोभी की सब्जी और पकौड़े। मालपुआ, हलवा और रसमलाई। तुमने मुझे पहले भी गलत अर्थ बतलाया था। आज फिर। तुम लेखक कैसे बन गए। तुम्हारा नाम इसीलिए तो नहीं फैला कि तुम अर्थ बदल देते हो। फिर किताब खोलकर अर्थ को ठीक करते हो। तुम अगर मुझसे रोज बात करो तो तुम्हारी यह कमी ठीक हो जाएगी। देखो, तुमने मुझे अपना ‘गाली गुरु’ तो बना लिया अब अगर ‘अर्थगुरु’ बना लो तो मैं तुम्हें सारी चीजों का मतलब समझाऊँगी।”

बूढ़ा बोला, “ठीक है, चलो आज से तुम मेरी ‘अर्थगुरु’ भी हुई। पर तुम्हें एक वचन देना पड़ेगा।”

“वचन! क्या?”

“यही कि तुम किसी को भी मेरी वह बात मत बतलाना।”

“कौन सी बात?”

“वही बात। छुपा जाना।”

“कौन सी ठीक से समझाओ।”

“याद करो वही। सिर में जुएँ और पेट में केंचुए वाली। सब मुझे गंदा आदमी समझेंगे।”

“ठीक है नहीं बताऊँगी।” तूलिका ने बूढ़े को वचन दिया।

गर्मी की छुट्टियाँ खत्म हो गईं। इन छुट्टियों में तूलिका ने कई कहानियाँ लिखीं। धीरे-धीरे वह बदल रही थी। कई बार कई कहानियाँ बूढ़े को नींद में सुनाती। आज वह स्कूल गई। वहाँ उसने देखा उसके तल्ले पर जो नोटिस बोर्ड है उसमें एक जगह लिखा है, ‘मेरी रचना’। वहाँ लड़कियों ने अपनी कविताएँ चिपका रखी हैं। तूलिका के मन में आया कि क्यों न वह भी अपनी कहानी वहाँ लगा दे। उसने सोचा कि अगर ऐसा करेगी तो कहीं कोई नाराज न हो जाए। वैसे भी उससे खुश कौन रहता है। तूलिका ने दूसरे दिन ‘चोरी, सूदखोरी और गू’ कहानी वहाँ लगा दी।

धीरे-धीरे दिन ढलने लगा और तूलिका के पास एक के बाद एक ढेर प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। उसकी कक्षा की लड़कियों ने कहना शुरू किया – क्यों टाँगा, क्या यह सब लिखा जाता है? जो मन में आया लिखा और उसे नोटिस बोर्ड पर भी लगा दिया? एकदम पागल है तूलिका, तूलिका को शर्म भी नहीं आती, तूलिका बदतमीज है, तूलिका ने तो हद कर दी।

पूरे दिन स्कूल में यही सब चलता रहा। और अंत में जो हुआ उसने तूलिका को रुला दिया। वही सोनल मिन्नी आई और तूलिका से अकेले में बोली – स्कूल के बाहर देखूँगी। तुम्हारी टाँग तोड़ न डाली तो देखना…। तूलिका एक के बाद एक अनेक गालियाँ सोनल मिन्नी को देने लगी। बार-बार गालियों को दुहरा लेने के बाद उसे यह समझ में आया कि वह अकेले खडी होकर गाली दे रही है। सोनल मिन्नी तो कब की जा चुकी है।

तूलिका का चेहरा उतरा हुआ था। रात में वह बूढ़े से मिली। बोली, “अब तो पूरे स्कूल को पता चल गया कि मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ। पहले तो मम्मी, पापा, दीदी ही मुझे गंदा कहते थे। कहते थे मैं गालियाँ देती हूँ, मैं बदतमीज हूँ पर अब तो मेरी कक्षा की लड़कियाँ भी कहने लगीं। मुझसे हमेशा ऐसा होता है कि लोग मुझे गंदा कहने लगते हैं पर तुम ही बताओ, अगर मैंने कहानी लिखी तो क्या उसे पढ़ाना नहीं चाहिए और उसे मैंने ‘मेरी रचना’ में लगा दिया तो क्या बुरा किया। जो कुछ लिखा वो एकदम सच लिखा। उसमें कुछ भी झूठ नहीं था। तुम बोलते क्यों नहीं। मैंने तुम्हें कहा था न कि मैंने जो कुछ लिखा है वह सच है और सच पढ़कर सोनल मिन्नी ने कहा कि वह मुझे देख लेगी।

बूढ़ा जो बहुत ध्यान से तूलिका बात सुन रहा था, बोला, “तो देखने दो।”

तूलिका अपने शब्दों पर जोर देकर बोली, “क्या देखने दूँ?”

बूढ़ा बोला, “देखो तो सही वह करती क्या है। वह कुछ नहीं करेगी। वह तुम्हारा कुछ नहीं कर सकती। तुम तो बहादुर लेखिका हो।” तूलिका बोली, “वह तो मैं हूँ।” मैंने उसे खूब गालियाँ दी पर वह जा चुकी थी। पर तूलिका परेशान थी। घबराहट में उसने पूछा, “क्या वह मुझे कुछ नहीं कहेगी, अगर उसने मुझे पकड़ लिया तो? मैं क्या उसे प्रधानाध्यापिका के पास ले जाऊँ। मैं उसकी टाँग तोड़ दूँगी। साली कुत्ती समझती क्या है अपने आप को?”

बूढ़ा बोला, “समझने दो। तुमने वही लिखा जो तुमने देखा और सुना तो फिर डरना किसलिए।”

तूलिका रोने लगी। तूलिका जोर-जोर से रोने लगी। तूलिका दूसरी बार बूढ़े के सामने रो रही थी। बूढ़ा परेशान हो गया। तूलिका के सिर पर हाथ रखकर प्यार से बोला, “अब क्या हुआ?”

तूलिका बोली, “मम्मी ने मुझे बहुत डाँटा।” बोली, ऐसी वैसी बात कहोगी, लिखोगी तो यही होगा। यह भी बोली कि देखना वह लड़की तुम्हें छोड़ेगी नहीं। बड़ी बनती हो सच लिखने वाली। जब थप्पड़ पड़ेंगे तब मैं बचाने नहीं आऊँगी फिर यह लिखना-विखना सब भूल जाओगी। मम्मी तो मेरी कलम और कॉपी भी उठा कर ले गई।”

“नहीं-नहीं, मम्मी को ऐसा नहीं करना चाहिए।” बूढ़ा धीरे से बोला। यह भी बोला कि मम्मी को समझाना।

तूलिका बूढ़े की बात न सुन रोए ही जा रही थी। हिचकी लेते हुए बोली, “घर में मुझे कोई प्यार नहीं करता। स्कूल में भी अब कोई प्यार नहीं करता। मैं कहाँ जाऊँ?”

बूढ़ा तूलिका की यह बात सुन चुप हो गया। बहुत प्यार से बोला, “सब ठीक हो जाएगा। अब तो तुम लेखिका हो गई हो।”

तूलिका बोली, “एक बात बताओ। ये ऐसे क्यों हैं? क्यों ये एक दूसरे को प्यार नहीं करते। मैं थोड़े न कहती हूँ कि मुझे गाली न दें। वे भी मुझे साली, कुत्ती, कमीनी कहें।” तूलिका ने बुजुर्गों की तरह कहा, “मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगता।”

“यहाँ कहाँ?”

“घर में, स्कूल में। मैं कहीं चली जाऊँगी।”

“कहाँ चली जाओगी?”

“मैं नहीं जानती।”

“क्यों चली जाओगी? तुम सबसे प्यार करो। प्यार करना सिखाओ।”

“मुझे क्या पड़ी है। मुझे पता है यहाँ कोई भी अच्छा नहीं है। खराब और गंदे लोग।”

“गंदा तो मुझे भी सब कहते हैं। पर बोलो, तुम मुझे गंदा मानती हो? नहीं न? उसी तरह ये लोग भी गंदे नहीं हैं। तुम अगर सबसे बात करो तो वे सभी तुम्हारे दोस्त हो जाएँगे। फिर तुम वहाँ रह सकोगी।”

“नहीं। कभी नहीं। ऐसे कैसे हो सकता है? वे कभी भी मेरे दोस्त नहीं बन सकते।”

बूढ़ा तूलिका को समझाने लगा कि तुम तो उन लोगों से एकदम अलग हो। तुमने इतनी अच्छी कहानी लिखी है। वह कहानी उन लोगों पर है तो वे पढ़ेंगे। पढ़कर भी दो ही बात कहेंगे, खराब लगी, अच्छी लगी। तुम्हारी सहेलियों ने तुम्हें यही कहा न कि खराब लगी तो अच्छा ही हुआ। इस तरह वे तुमसे बात करने लगीं। वे लड़कियाँ भी जिनको तुम नहीं जानती थी। इस तरह तुम बहुत सारी लड़कियों को जानने लगी। अब तुम ऐसी कहानी लिखना जो उनको अच्छी लगे।

“मैं उनको अच्छी लगने वाली कहानी क्यों लिखूँ?”

“मैं तुमसे ऐसा नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूँ कि तुम्हें उनसे प्यार करना है।”

“प्यार उनसे। कभी नहीं।”

“अब मैं कभी कहानी नहीं लिखूँगी। कभी नहीं। ऐसा कहकर तूलिका चुप हो गई।”


इन दिनों तूलिका में बहुत बदलाव आ गया। वह चुप और शांत नजर आती न जाने कैसे बड़ों जैसी बातें करती। इन दिनों न ही बूढ़ा तूलिका के सपने में आया और न तूलिका बूढ़े से मिलने को मचली। उसका जी इस बात से घबराता रहता कि कहीं सोनल मिन्नी उसके सामने न आ जाए। वही हुआ जिसका डर था। कल वह सुबह-सुबह तूलिका के पास आई। उसके हाथ में गुलाब के फूल थे। तूलिका के पास आकर उसने कहा, “मैंने ‘गू’ तो बस मेरी चाची की लड़की रीता को उल्लू बनाने के लिए रखा था। पर यह बात फैल गई।” मैं गंदी लड़की नहीं हूँ। तूलिका सोनल को देखती रह गई। सोनल मिन्नी मुड़ कर जाने लगी तो तूलिका ने पूछा, “ये गुलाब।” सोनल मिन्नी बोली, “रीता के लिए। उसका जन्म दिन है। तुम्हें चाहिए तो ले सकती हो।”

तूलिका बोली, “नहीं उसे ही दो।” पर सोनल ने जबरदस्ती उसे गुलाब दे दिए। तूलिका अपनी कक्षा में गई। पहले पीरियड में अध्यापिका नहीं आई। किसी लड़की ने आकर कहा, आज तुम लोगों की अध्यापिका नहीं आएँगी। तुम लोगों से एक निबंध लिखने को कहा गया है।

शीर्षक है : मेरा विद्यालय। तूलिका ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। अपने में खोई रही। कॉपी निकाली। शीर्षक लिखा : ‘गुलाब के फूल।’

गुलाब बहुत सुंदर होते हैं। गुलाब देकर हम किसी से फिर से दोस्ती कर सकते हैं। उसकी सुगंध से मन अच्छा हो जाता है…। निबंध तूलिका ने पूरे पन्नों का लिख डाला। पूरे दिन उन गुलाबों को सहेजती रही और घर आ उसने वह गुलाब मम्मी को दे दिया। मम्मी ने अचरज किया, “गुलाब?”

तूलिका बोली, “हाँ गुलाब।”

तूलिका बूढ़े के पास गई बोली, “मैं अपने रहनेवाली जगह को गुलाब बना सकती हूँ। मैं सबको गुलाब देना चाहती हूँ, महकते हुए सुंदर गुलाब। वैसे ही जैसे सोनल ने मुझे दिए।”

बूढ़ा खुश हुआ। उसे अचरज हुआ कि वह सोनल उसे कब और कैसे फूल दे गई।

तूलिका ने बूढ़े से पूछा, “तुम्हें गुलाब कैसे लगते हैं?”

बूढ़ा बोला, “बहुत अच्छे।”

“तब तुम्हें उसे अपने कुरते में लगाना चाहिए। क्यों नहीं लगाते? तुम्हें नहीं मालूम, गुलाब की बहुत सुंदर माला बनती है। जब उसे पहना जाता है तो हर जगह से खुशबू आती है। हाथ से, पाँव से, सिर से, सब जगह से। देखो, मैं ढेर सारे गुलाब लाई हूँ। हम दोनों इसकी माला पहनेंगे।”

बूढ़ा बोला, “माला बनाएगा कौन?” मुझे कहाँ आता है माला बनाना। तूलिका को भी नहीं आता। उसने कहा, “ऐसा करो एक फूल तुम कुरते में लगा लो, एक मैं अपने बालों में।” बूढ़ा बोला, “ठीक है।” यह एक फूल मेरी लेखिका के नाम का। तो तूलिका बोली, “यह फूल मेरे बूढ़े के नाम का।” मेरी इतिहास की अध्यापिका रोज अपने जूड़े में जो फूल लगाकर आती है। वह किसके नाम का लगाती होगी। बूढ़ा बोला, “उसी के नाम का जो गंदा भी होगा और अच्छा भी।” तूलिका हँस दी। बूढ़ा भी हँसने लगा। अचानक दोनों ने एक साथ एक दूसरे के गाल के पास हाथों की अंजलि बनाकर लगाई और कहा, “गुलाब झर रहे हैं।” तभी तूलिका बोली, “मैं गुलाब का फूल उसे भी देना चाहती हूँ।”

“किसे?”

“उसे ही।”

“कौन? प्रियंका दास?”

“नहीं।”

“अग्रवाल अंकल?”

“नहीं।”

“तो क्या दादा-दादी को? वे तो मर चुके।”

“नहीं।”

“मम्मी पापा या दीदी को?”

“नहीं”

“… “

“नहीं बता पाए। हार गए?”

“हाँ बाबा हार गया, अब तुम्हीं बताओ।”

“तुम्हारे मुकुल को। उस बंदर दोस्त को, जो बात फैला देता है।”

“नहीं-नहीं। मुकुल को नहीं। हाँ, उस बंदर को दे सकती हो।”

“क्यों? मुकुल को क्यों नहीं। उसे भी दूँगी।”

“नहीं, एकदम नहीं। मैं उससे बात नहीं करता।”

“उसका तुम्हारे अलावा भी कोई दोस्त है?”

“है क्यों नहीं। बहुत हैं। दर्जनों। पर एक बात कहूँ… कोई नहीं।”

“तब तो वह बहुत अकेला है?”

“हाँ।”

“तो तुम्हें उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।”

“वह है ही इसी लायक।”

“मैं उसे एक फूल दूँगी। तुम भी दोगे। बोलो दोगे न?”

“बूढ़े ने तूलिका को देखा।” उसका चेहरा उसे भोला और सच्चा लगा। एकदम गुलाब के फूल की तरह कोमल और सुंदर। वह उसे आहत करना नहीं चाहता था। बोला, “हाँ दूँगा।”

“तो फिर मैं चलूँ मुझे भी तो मुकुल को फूल देना है” ऐसा कहकर तूलिका ने करवट बदली। करवट बदलते ही उसके कानों में मम्मी के स्वर पड़े। मम्मी कह रही थी, “तूलिका उठो, तूलिका, बहुत देर हो गई, तूलिका, तुम कोई बच्ची नहीं हो, अपने आप उठा करो…।”

तूलिका हड़बड़ा कर उठी। आँखें खोलते ही खिड़की के सामने ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के घने पत्तों से छनकर आती सूर्य की किरणें उसकी आँखों पर पड़ीं और आँखें चौंधिया गईं। तभी याद आया बूढ़ा, वह कहीं चला गया है। वह बूढ़े को तलाशने लगी।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *