बोझ | प्रेमशंकर मिश्र
बोझ | प्रेमशंकर मिश्र

बोझ | प्रेमशंकर मिश्र

बोझ | प्रेमशंकर मिश्र

जब जब
एक आँख खो कर
किसी एक डोलती लहर में
पीना चाहता हूँ
लाखों आँखों में बंटी
एक अजनबी भीड़
जाने कहाँ से किनारों को लस लेती है।
झील के वक्ष पर
उगी पसरी
रोशनी की बेदाग लतरें
एक फूटे हुए अट्टहास की भँति
दिशाओं में चिपक जाती है।

घूमकर फिर से
जब आईना देखता हूँ
पाता हूँ
निर्बलता का बीमार मुखौटा
जगह जगह से
चिटख गया है
और असली आकृति पर
बेशुमार गहरे दाग
उभर आए हैं।

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