मैम, नावेद जब बोलता है तो उसकी गले की नसें फूल जाती हैं, चेहरा भी तमतमाने लगता है। साफ पता लगता कि टॉपिक को लेकर ओवर इमोशनल हो रहा है…। यह क्लास का ऐक्टीविटी सेशन था। छात्रों के एक ग्रुप को दूसरे ग्रुप की कमियाँ बतानी थीं। सबने एक-दूसरे की कमियाँ गिनानी शुरू कीं। मैडम घोष ने शैली को बोर्ड पर सारी कमियों की लिस्टिंग का जिम्मा दिया। बैड कम्युनिकेशन, लैक ऑफ नॉलेज, लैक ऑफ कान्फिडेंस, इमप्रापर बॉडी लैंग्वेज, एक सर्पीली लिस्ट बननी शुरू हुई। धीरे-धीरे उस सर्पीली लिस्ट ने छात्रों को बाँधना शुरू किया। बोर्ड पर विशाल अजगर करवटें लेने लगा। भयावह बड़े मुँह वाला अजगर नन्हें छौनों को निगल रहा। छौने के दो छोटे-छोटे पाँव हवा में तड़पड़ा रहे थे। ग्रुप डिस्कशन का टॉपिक था स्पेशल इकॉनॉमिक जोन बून ओर बेन। नावेद का सर अभी तक झनझना रहा है। यमुना के किनारे से लेकर देहरादून शहर के किनारे तक की पट्टी सेज के तहत आती थी। उसके देखते-देखते लीची के बाग, आम के बाग कटे, गहरे हरे रंग से ढकी बासमती के खेतों की खुशबू न मालूम कहाँ खो गई। कैसी बकवास कर रहा था सचिन कि सेज ने माइग्रेशन रोका है। पहले पहाड़ के आदमी को पहाड़ मे रोजगार नही था। काम की तलाश में दूसरे शहरों में भटकता रहता था। अस्पताल, सड़कें स्कूल, पूरा का पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलप करता है सेज। वेस्ट पड़ी जमीन का सही इस्तेमाल होता है। पक्का सचिन ने सेज के फायदे संबंधित कोई आर्टिकल पढ़ा है, पढ़ा क्या होगा रटा होगा क्योंकि टॉपिक तो पहले से पता था। नावेद ने व्यंग्य से कहा उदाहरण के लिए देहरादून को देखिए कैसे वेस्ट पड़ी जमीन का इस्तेमाल किया गया है फिर वह बोलता गया बोलते-बोलते अँग्रेजी दगा दे गई, लीची और आम के बाग और भी जाने कितने फलों की पट्टी थी हाईवे के किनारे, सड़कें तो यहा पहले भी थीं जरा बताओ कौन सी नई सड़क बनी है। कौन से नए अस्पताल खुले हैं। कौन सा नया स्कूल कंपनियों ने बनवाया है।

कंपनियों को कह कर देखें सरकार जाओ पहाड़ में रोजगार दो। कुछ सड़क बनाओ अस्पताल बनाओ। वहाँ तो आलू का खेत तकते-तकते दिन निकल जाता है। सड़क तक आते-आते कमर झुक जाती है। बोलते-बोलते कब वह अपने पिता का दुख बयान करने लगा, उसे पता नही चला। वह ग्रुप डिस्कसन की क्लास में असल डिस्कसन करने लगा। उसका अपना घर त्यूनी में था। उसके अब्बू का फलों का काम था। सहसपुर में रखवाली, तुड़ाई और फलों का सौदा करते थे। इस काम मे उनका पूरा परिवार लगा हुआ था। बाबा-चाचा सब। पिछले दो वर्षों से उनका यह रोजगार किसी तरह से चल रहा था। इस सचिन का क्या इन लोगों ने यही मकान बना लिया है। डेढ़ सौ गज में दस कमरे और उसके ऊपर भी दस। इसे प्लेसमेंट की क्या जरूरत। सेज ने तो इसे क्या इसके मकान तक को मैनेजर बना दिया।

नावेद का सिर झनझना रहा था। देहरादून की खूबसूरत पहाड़ों की तलहटी में बसे माइट की एमबीए का फाइनल का सेमेस्टर का बैच कभी सचमुच में तो कभी अँग्रेजी माँजने के लिए क्लास के बाहर भी ग्रुप डिस्कसन में उलझ जाता। कब वह बहस होती कब बहस की रिहर्सल का हिस्सा कहना मुश्किल था। बस बीच-बीच में फक-शक, फक-शक की ध्वनि जरुर सुनाई देती थी। हर बार ध्वनि के साथ प्यार, गुबार, क्षोभ के अलग-अलग भाव भरे हुए थे।

मिसेज घोष की क्लास अभी-अभी ओवर हुई थी। वह इस कालेज की प्लेसमेंट ट्रेनर थीं। इन दिनों उनकी क्लास खचाखच भरी हुई होती है। पिछले छह साल से मिसेज घोष अपनी प्रतिभा के दम पर इस कॉलेज में बनी हुई है। मैंगो कट बाल, डीप ब्लाउज और सिफॉन की साड़ी में वो बेहद आर्कषक लगती थीं। अँग्रेजी बोलने की उनकी खास अदा थी। ऐसी कि बड़े-बड़े अँग्रेजी बोलता भी लड़बड़ा जाएँ। उनका काम था स्टुडेंट्स की अँग्रेजी ठीक करना, उनकी पर्सनालिटी डिवेलप करना। नावेद जानता था अगर प्लेसमेंट लेनी है तो मैडम घोष से पासिंग टिकट लेना पडेगा। वह मिसेज घोष से अलग से मिलने गया। जीडी सेशन की सुबह की बेवकूफी के लिए माफी माँगना चाहता था। कौन-कौन सी कंपनी आ रही है दरयाफ्त करना चाहता था। मिसेज घोष ने उसके शुरुआती दो वाक्य मुश्किल से सुने। फिर हमेशा की तरह वह कहने लगीं, ‘वैसे कोई भी कंपनी आए पहले वह आपकी पर्सनालिटी देखेगी।

यस मैम आई अंडरस्टैंड मेरी पर्सनेलिटी में कुछ बैरियर है। मेरा कान्फिडेंस कम है।

…और इंग्लिश कम्युनिकेशन पुअर और प्लीज वर्क ऑन योर बॉडी लैंग्वेज। मिसेज घोष ने जोड़ा। ठीक है आप लोगों से क्लास में बात होगी। नाउ गो।

मिसेज घोष ने बामुश्किल हिंदी में यह कहा और यूँ कहा मानों उनकी जबान किसी विदेशी उच्चारण से झगड़ रही हो और वह थोड़ी टेढ़ी होकर कुछ अटक सी जा रही है। नावेद चुपचाप बार निकल गया।

पीजी के कमरे में वह शीशे के सामने खड़ा होकर कुछ बोलने का अभ्यास करने लगा। वह कभी आँखें मिचियाता कभी कंधे उचकाता, हाथों को थोड़ा खोलकर थोड़ा फैलाता फिर वापस समेट लेता। कभी कभी वह चेहरे पर एक व्यंग्य भरी मुस्कुराहट ले आता कभी आश्चर्य से आँखें मिचियाता वह अभ्यास कर रहा था। प्रापर बॉडी लैंग्वेज की। पर थोड़ी देर में वह थक गया। उसे लग रहा था कि वह अभिनय कर रहा है। कभी वह सचिन बन जाता कभी शुचि कभी मिसेज घोष। वह आईने में इतने लोग देख कर घबरा गया। आल द एक्सप्रेशन आर इनकंप्लीट बिदाउट बाडी लैग्वेज… वह आपके मन का आईना है… आईने में कोई कह रहा था… वह डर गया क्योंकि वह आईने में था ही नहीं। बाहर बारिश हो रही थी। जैसे बादल फट जाएगा। आसमान पानी उलीच रहा था।

रातना नदी के किनारे हिमालय की तलहटी में यह विशाल बिल्डिंग बनी हुई थी। साल और सागौन के जंगल साफ करके यह इंस्टीट्यूट खडा था। बिल्डिंग के बीचो-बीच एक बूढ़ा बरगद भी था। लंबी-लंबी जटाओं को कंक्रीट में धँसाए, अपने होने पर आश्चर्य करता हुआ। पूरी बिल्डिंग सेंट्रली एयरकंडीशंड थी। चारों ओर काँच से ढकी हुई। सूरज की किरनें जब कंक्रीट के जंगल को लाँघ कर बरगद को छूतीं तब वह सिहर उठता। बूढ़े की तरह थोड़ा हिलडुल कर अपनी जवानी के किस्से किसी को सुनाने को बेताब हो जाता। लेकिन उसके आसपास कोई नही था। प्लास्टिक के फूलों की एक लता उस पर लिपटी हुई थी। वह कभी-कभी सिर झटकता यह जानने के लिए कि कही वह खुद भी तो प्लास्टिक का तो नहीं। जरा सा हिलडुल कर फिर खामोश हो जाता। बाहर से छात्र बरगद को काँच की दीवारों से देख सकते थे। यह बरगद मालिकान का टोटका था या फेंग्शुई या प्रकृति प्रेम कह नहीं सकते। बगल में बहती रातना यानि दिन-रात बहने वाली नदी तो सदानीरा थी। न मालूम कब वह बदल गई। अब तो वह अपने लोगों को ही निगलने लगी है। अकसर ही इस पार पेट से जमीन उगल देती है। हर साल बिल्डिंग का एक सिरा इसके पास तक खिसक आता है। वह थोड़ा और खिसक जाती है। दूसरी ओर यह नदी कितनी झुग्गियों को निगल करके निचाट पथ पर पटक-पटक कर मार देती। नदी लगातार मायट को बजरी और जमीन देते-देते पागल हो गई है शायद। माँ की तरह पूजते लोगों पर ही हमला कर देती है। पिछले दस सालों में यह इंस्टीट्यूट विशाल और विशाल हुआ है और यह नदी विकराल।


नावेद कमरे में अभ्यास कर रहा था। मौन होकर जैसे एक्टिंग कर रहा हो। लेकिन रह-रह कर उसके गले की नसें फूल जा रही थी। बीकाम करके एमबीए करने आया था। बीकाम करके वह वह वापस त्यूनी चला गया था। एक दिन उसके घर पर एक फोन आया। आपके बेटे के बीकाम में मार्क्स अच्छे हैं। हमारा कालेज उसे एमबीए करने के लिए विशेष डिसकाउंट देगा। नावेद तो जैसे पागल हो गया था। सपने की कुंजी जैसे खुद ताला खोल रही थी। लोन लेने से लेकर एडमीशन तक में कोई दिक्कत नहीं हुई। काउंसिलिंग रूम में मुस्कुराते चेहरों के साथ सीनीयर्स की फोटो लगी थी। हर किसी ने मायट का शुक्रिया अदा किया था। काउन्सलर ने उसके अब्बा को कुछ यूँ समझाया था। जैसे आप बाग देखकर फलों का अंदाजा लगा लेते हैं और इतना रुपया इकट्ठा दे देते हैं वैसे ही कंपनियाँ मायट के स्टूडेंट्स के बारे में सोचती हैं। कंपनियाँ मायट के स्टूडेंट्स के बारे में क्या सोचती हैं। दो वर्षों के इस अंतराल में नावेद के सामने सब स्पष्ट हो चुका था। एडमीशन के समय पड़ा सुनहरा पर्दा कब के फट गया, समर इन्टर्नशिप के दौरान अनगिनत कंपनियाँ आईं। अलग-अलग नाम। अलग-अलग लोगो। अलग-अलग सीईओ। लेकिन सब ने छात्रों को एक ही काम दिया, सेल्स। बेचो। फर्मा, मीडिया, बैंक, एजूकेशन… सेकेंडरी डाटा जुटाओ सेकेंडरी न मिले तो प्राइमरी भुनाओ। बस बेचो और फिर उसको रिकार्ड करो फाइल बनाओ। किसी तरह रो-धो कर नावेद ने समर इंटर्नशिप की थी। उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। वह कभी मिसेज घोष की तरह चेहरा बनाता तो कभी सचिन की तरह। वह आईने में खड़ा होकर अभ्यास कर रहा था। किस चीज के इमोशन को कैसे मैनेज करना है… जब ज्यादा लोग फेवर में हों तो अगेंस्ट हो जाओ… जीडी में कंपनी सब देखती है। मार्केटिंग के लिए कंपनी आए तो आक्रामक दिखो। बूचर बनो काटो छाँटो। एचआर के लिए कंपनी आए तो शांत, गंभीर तर्क रखो। अंत में सबकी बात को इकट्ठा करो। लीडर बनो। और ये पक्ष-विपक्ष कुछ नहीं होता फोकस करो नौकरी पर। नावेद आईने के सामने प्रैक्टिस कर रहा था।

पेड़ कटे, जंगल जला। रोजगार नहीं मिला। हर दो-तीन साल बाद खेतों का नाश करके भागती कंपनियाँ कौन सा अस्पताल बनाई हैं, कौन सी सड़क बनाई हैं, ये नही सोचना है। कंपनी आपकी कम्युनिकेशन स्किल देखती है… अपने एंप्लायर को देखो उसके टेंपरामेंट को देखो। आपकी आबजेक्टिव नौकरी है। पूरा फाइनल सेमेस्टर इसी पैटर्न पर काम कर रहा था। लोगो, सीईओ, टर्नओवर, कंपनी का स्वाट एनालिसिस… नींद में भी यही सब कुछ।

कालेज की हवा में जहर सा घुला था। कहते हैं सुदूर अमरीका में लेहमन ब्रदर्स का दिवाला निकल गया है। वहाँ अनगिनत मकान बनाए गए थे कि लोग खरीदेंगे मकान बिके नही। बैंकों का कर्ज बढ़ा। कर्ज देने के लिए कर्ज दिया गया। तब भी असर नहीं हुआ। मंदी अपने लपेटे में सब कुछ ले थी। सार्थक सबको वैश्विक मंदी के बारे में बता रहा था। अमरीका, दुबई, भारत गोल-गोल घूमती हवा, टारनेडो, नावेद का दिल डूब रहा था। कोई किसी से बात नही कर रहा था। सोमेश मंदी का अर्थशास्त्र भूगोल विज्ञान सब खंगाल रहा था। वह भी इस उम्मीद के साथ कि शायद यह समझने से उसको नौकरी मिल जाएगी। कल्पना को समझ नहीं आ रहा था कि इतना कर्ज तो हमारे यहाँ तो देते नहीं। कामन सेंस इन प्रश्नों का उत्तर देने में अक्षम था। पिछले बैच के तीन सौ लोगों में से डेढ़ सौ लोगो की नौकरियाँ जा चुकी थीं।

कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व तक एक थे यहाँ। बारामूला से आया अशफाक, आइजोल से आया शेनफ्रे और इन दो स्थानों के बीच से आए अनगिनत लोग दरअसल चुप थे। कब कौन क्यों बोल रहा है कहना मुश्किल था। कैंटीन में बस बीच-बीच में शक फक की आवाज सुनाई पडती। शेष अँग्रेजी माँजने की कवायद ही थी।

इस पूरे माहौल में मिसेज घोष पर दुहरी जिम्मेदारी थी। स्टूडेंट्स के साथ मालिकान को भी जवाब देना था। कोई भी कंपनी स्टूडेंट्स को लेने के लिए तैयार नहीं थी। जिन कंपनियों का कालेज से करार था। उन्हें सिर्फ मार्केटिंग के लिए इक्के-दुक्के लड़के चाहिए थे। प्लेसमेंट की तैयारी जोरों पर थी। मिसेज घोष को हर रोज रिपोर्ट देनी थी। एडमीशन का सीधा वास्ता प्लेसमेंट से था।

भारत को पकिस्तान पर आक्रमण करना चाहिए या नही… नैनो क्या बाइक मार्केट पर संकट है… अनगिनत बहसें। भौं-भौं, झौ-झौ… एक स्वर एक मकसद – नौकरी।

कैंपस प्लेसमेंट के लिए कुल पाँच कंपनियाँ आईं। छात्रों को आईना दिखाने। भौ-भौ, झौ-झौ की प्रतियोगिता हुई। तमाम लिखित प्रतियोगिता हुई लेकिन किसी का चुनाव नहीं हुआ। छात्रों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। अचानक पता चला कि सबको पाँच-पाँच हजार रुपया जमा करने हैं कोई निजी प्लेसमेंट कंपनी कालेज में नौकरियाँ लेकर आएगी। उम्मीद की लहर दौड़ी। दो दिन में प्लेसमेंट आफिस में पैसे जमा हो गए। एक प्लेसमेंट कंपनी आई। उसने कुछ को छोड़कर सबको कहीं न कहीं फिट करा दिया। नावेद को भी काम मिला, एक आग बुझाने की कंपनी में। सबने आने वाले स्टुडेंटस के लिए मैसेज दिया। अगले बैच के एडमीशन की तकरीबन सीट भर गई।


रातना नदी थोड़ा चौंक गई। अभी तक उसने इस तरफ चीखते पुकारते लोग सुने थे। लेकिन आज मायट की तरफ चीख-पुकार मची थी। तीन महीने तक ज्वाइनिंग टालने के बाद कंपनियों ने छात्रों को लेने से मना कर दिया। कालेज ने जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। पुलिस की एक टुकड़ी कालेज के गेट पर तैनात थी ग्रुप डिस्कसन जोर-शोर से हो रहा था। एक साथ इतने लोगों की कम्युनिकेशन स्किल, कान्फिडेंस और लीडरशिप स्किल सबकुछ बेहतर दिख रहा था. नावेद की बॉडी लैंग्वेज परफेक्ट थी।

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