किसने सोचा था कि इतने जिन्‍दादिल और मसखरे दीखने वाले व्‍यक्ति की मौत ऐसी भयानक होगी। मुझे तो शायद और भी पता न चलता अगर मेरे पास आने वाले एक व्‍यक्ति ने यह न कहा होताः

”वकील साहब, क्‍या वजह है कि आपके कोर्टयार्ड में घुसते ही यह मालूम पड़ता है, जैसे एक मुर्दा सड़ रहा हो।” उसके यह कहने से मैं हैरत में आ गया मगर उसकी बात से मुझे भी कुछ-कुछ वैसा ही एहसास होने लगा। मैंने अपने मकान का भीतरी सहन खोलकर पड़ोसी का द्वार खटखटाया। वाक‍ई दुर्गंध असह्रा थी। नाक पर रूमाल रखकर मैं कोई आधे मिनट तक दस्‍तक देता रहा। मेरे कमरे से होते हुए इस बीच और दो-एक मुलाकाती अन्‍दर आ गये और सबने उसी तरह नाक दबोच ली। आखिरकार मैंने दरवाजे पर पांव से ठोकर दी और दरवाजा भड़ाक से खुल गया। किवाड़ अन्‍दर से बन्‍द नहीं थें, महज एक ईंट दरवाजों को उढ़काये हुए थी। अन्‍दर सारे कमरों की बत्तियां रोशन थीं। बदबू की हालत यह थी कि कमरों में घुसना असम्‍भव मालूम पड़ता था किन्‍तु अब हम कई आदमी एकसाथ थे इसलिए साहस करके घुस ही गये। सहन से लगे कमरे में चारपाइयों पर सारा सामान अस्‍त-व्‍यस्‍त पड़ा था। कमरे और चारपाइयों की हालत देखकर लगता था कि सन्‍दूक उलट गये हैं और उनको किसीने दोबारा भरने की कोशिश नहीं की। सूटकेस और चमड़े की अटैचियां इधर-उधर तितर-बितर होकर मुंह खोले पड़ी थीं और कमरे में चारों तरफ कपड़ों का अम्‍बार लगा था।

हम सभी लोगों की दृष्टि में यह विचित्र दृश्‍य आया किन्‍तु कुछ साफ समझ में न आने के कारण हम अगले कमरे तक बढ़ते चले गये। उस कमरे का नजारा देखकर हम सभी सन्‍नाटे में आ गये। कमरे के बीचों-बीच एक भारी पलंग पड़ा था और पलंग के पास एक मोढ़ा उलटा पड़ा था। वह ठीक पलंग के ऊपर छत के कुन्‍दे की रस्‍सी में गर्दन फंसा लटका झूल रहा था। ओफ! कितनी खौफनायक हो गयी थी उसकी शक्‍ल। दीदे बाहर निकले पड़ते थे, जुबान बिल्‍कुल कालीमाई की तरह मुंह के बाहर लटक रही थी और गर्दन खिंचकर लम्‍बी हो गयी थी। दो-तीन लोग तो चीखकर बाहर की ओर उल्‍टे पांव लौट पड़े। हम दो-आदमी हिम्‍मत करके डटे रहे। मैं अवाक् होकर कुछ सोचता रहा…आखिर यह दुर्घटना क्‍योंकर घटी! इतनी बड़ी दुर्घटना मेरे घर में ही घट गयी और मैं बिल्‍कुल अंधेरे में रहा, सोचकर मुझे भय के कारण रोमांच हो आया। मैं अपने घर में एक मुर्दे की उपस्थिति में कैसे सोता रहा! मेरे साथ वाला आदमी मुझे छोड़कर और आगे के कमरे में चला गया। मैं अभी अपने में ही उलझा था। जब मेरा साथी अपनी नाक दबाये लौटा तो मुझे दुर्गन्‍ध की तीव्रता का अनुभव हुआ और मुझे अपने मस्‍तक की नसें तड़कती प्रतीत हुईं। मेरा साथी यकायक पलंग की ओर झपटा और उसने पलंग पर पड़े एक पुर्जे को उठा लिया। वह जोर-जोर से, नाक दबोचकर, उस खत को पढ़ने लगा। मैंने उसकी ओर ध्‍यान दिया ही था कि बाहर से खिड़की के उस पार से कोई चीखा, ”अरे सक्‍सेना साहब, जरा इधर तो तशरीफ लाइए।”

मैं ओर मेरा साथी लपकते हुए उधर बढ़े तो क्‍या देखा कि सारा कमरा चीर-चीर करके फाड़े हुए कागजों की चिन्दियों से भरा हुआ। फूलस्‍केप साइज की कोई तीन-चार सौ शीटें फटी पड़ीं थीं। कुर्सी, फर्श, सोफा, गरज यह कि कमरे का प्रत्‍येक कोना फटे कागजों से अटा पड़ा था। मेरे साथ-साथ कमरे में प्रवेश करने वाले मेरे मुवक्किल त्रिवेदी जी बोले, ”लगता है किसी उपन्‍यास की स्क्रिप्‍ट फाड़ी गयी है” और यह कहने के साथ ही उन्‍होंने कमरे की चिटकनी खोलकर बाहर के बराण्‍डे में निकलने का प्रयत्‍न किया मगर बाहर से दरवाजा बन्‍द था। विवश होकर हम लोगों को तीनों कमरे पार करके अन्‍दर के चौक में लौटना पड़ा और मैं तथा त्रिवेदी अपने घर से बाहर निकलकर बाहर सड़क से लगे बराण्‍डे में पहुंचे। त्रिवेदी शायद उसके लिखे आखिरी पुर्जे को पढ़ चुकें थे, इसलिए इस बीच बाहर एकत्रित भीड़ को सम्‍बोधित करके सुनाने लगे, ”भाइयो, मरहूम का आखिर सन्‍देश यों है”, यह कहकर उन्‍होंने बढ़ते हुए मजमे को बहुत गम्‍भीर और गमगीन नजरों से देखा और अटककर पढ़ना शुरू कर दिया, ”अन्‍तःकरण को मार देने की विवशता के बाद भौतिक अस्तित्‍व बनाये रखने से बड़ी विडम्‍बना और कुछ नहीं है।”

चन्‍द बहुत पढ़े-लिखे दिखाई देने वाले आदमियों के अलावा शायद किसीकी समझ में इस दार्शनिक और विलष्‍ट वाक्‍य का मतलब नहीं आया। ज्‍यादातर लोगों को उसे देखने को कौतूहल था, सो लोग अन्‍दर कमरे की ओर बढ़े जा रहे थे। एक कथाकार की ऐसी कथाप्रधान मृत्‍यु के प्रति आखिर लोगों की जिज्ञासा कैसे कम होती! कुछ स्‍टूडेंट किस्‍म के लोग-जो शायद उसके पाठक भी रहे हों या महज उसकी अखबार में छपी तस्‍वीरों में दिलचस्‍पी रखते हों-सामने के आस्‍पताल से पुलिस को फोन करने चले गये। पुलिस के पहुंचने से पहले उसे किसी तरह भी खोलकर छत से उतारा नहीं जा सकता था। लोगों को तरह-तरह की अटकलें भिड़ाने का मौका मिल गया था और सभी एकसाथ कुछ न कुछ कहने के चक्‍कर में किसी दूसरे की बातें नहीं सुन रहे थे। कोई पच्‍चीस मिनट के बाद पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर दो सिपाहियों और फोटोग्राफर को लेकर आ पहुंचा। यह एक सीधा-सादा आत्‍महत्‍या का मामला था, किन्‍तु पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर ने इसे किसीकी साजिश मानकर अपनी तहकीकात शुरू की। त्रिवेदी जी के हाथ का पुर्जा पुलिस इंस्‍पेक्‍टर के हाथ में पहुंच गया और उसे गलत-सलत पढ़कर उसने एकत्रित भीड़ की ओर प्रश्‍नवाचक दृष्टि से देखा। उसने छत से लटके हुए लेखक की ओर देखा और सिपाहियों को बुलाकर लाश को उतारने का आदेश दे दिया। सिपाहियों ने बहुत तेजी से लाश उतारी और बराण्‍डे में लाकर रख दी और रस्‍सी वगैरह इकट्ठी करके अपने झोले में डाल ली साथ ही लाश का फोटो ले‍ लिया गया।

पुलिस के आने पर जो सन्‍नाटा छा गया था वह अब कानाफूसियों में बदल गया। पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर ने कई आदमियों से सवाल किये ओर उन्‍हें अपनी डायरी में नोट कर लिया। कई लोगों से बातचीत करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि इस मकान के दूसरे हिस्‍से में रहने वाला आदमी यानी मैं ही विश्‍वस्‍त तथ्‍यों पर प्रकाश डाल सकने वाला व्‍यक्ति हूं। इसके बाद मुझसे पूछ-ताछ शुरू हुई, ”इस शख्‍स की माली हालत कैसी थी?” मेरे कुछ कहने से पहले ही मुहल्‍ले के एक प्रौढ़ उठे, ”अरे साहब, क्‍या नाम आपका इन्‍स्‍पेक्‍टर साहेब, इसकी माली हालत क्‍या पूछते हैं…यह शख्‍स तो, सुना है, अफसाने…नावेल वगैरह गढ़ता था…कोई फिल्‍म-विल्‍म की भी बात सुनी जाती है। कुछ माजरा समझ में नहीं आवे है-आखिर भले आदमी ने किस गम में जान दे दी।” शायद इस जानकारी के बाद इन्‍स्‍पेक्‍टर की जानकारी कुछ बढ़ी और उसने अबकी बार ठीक मेरी ओर मुखातिब होकर पूछा, ”आपको इन साहब के बारे में जो मालूम हो, बयान कीजिए।” मेरा बयान इस आत्‍मघात के मसले पर अधिक प्रकाश डालने वाला नहीं हो सकता था, तो भी मैंने तीन दिन पहले की स्थिति का संक्षिप्‍त उल्‍लेख करके अपनी जान छुड़ाई। मेरे मकान के कोर्टयार्ड में थोड़ी देर बाद ही एक तांगा आकर रूका जिसमें एक सिपाही बैठा था और तांगे के पीछे की ओर मुर्दे को ले जाने वाला कटहरा लदा था। तीन सिपाहियों ने मिलकर उसे कटहरे में लिटाया और कटहरे को कई आदमियों की सहायता से उठाकर तांगे के पीछे बांध दिया। इंस्‍पेक्‍टर ने मकान में घुसकर अलमारी में रखे एक ताले को उठाया और सिपाही के हाथ में देकर कहा कि अन्‍दर के किवाड़ बन्‍द करके बाहर ताला लगा दो। तांगे में सवार होते हुए इंस्‍पेक्‍टर ने मुझसे अपने साथ बैठने को कहा और मैं अपने घर का चार्ज अपने मुवक्किल त्रिवेदी का सौंपकर इन्‍सपेक्‍टर के साथ तांगे में जा बैठा। रास्‍ते में उसने मुझसे पूछा, ”क्‍या इस शख्‍स को कोई भीतरी गम था-कोई मुहब्‍बत-ओहब्‍बत जैसी फितरत ने तो इसकी जान नहीं ली?” मैंने उसे समझाया कि ऐसी कोई बात मालूम तो नहीं पड़ती…शख्‍स लाख लेखक रहा हो, मगर बहुत घरेलू किस्‍म का आदमी था।

इन्‍स्‍पेक्‍टर ने पुलिस स्‍टेशन जाकर जरूरी लिखा-पढ़ी की…मुझसे उसके रिश्‍तेदारों का पता मालूम करके एक सिपाही से उसके बड़े भाई को तार दिलवाया और अपनी रवानगी दिखाकर लाश के कटहरे को उसी तांगे पर लदवाकर पोस्‍टमार्टम के लिए चल दिया।

हालांकि पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर ने सरकारी खर्चे पर उसके भाई को तार दिलवा दिया था किन्‍तु मैंने खुद भी उसके भाई को एक एक्‍सप्रेस टेलीग्राम दे दिया। जब एक बजे के करीब मैं घर लौटा तब भी त्रिवेदी जी के साथ कई आदमी बाहर बराण्‍डे में खड़े बातें कर रहे थे। मैं एक अजीब स्थिति में पड़ गया था-मेरी पत्‍नी एक माह से बाहर थी। मेरे और मृतक के मकान का बाहरी बराण्‍डा और कोर्टयार्ट एक ही था और भीतर का सहन भी ऐसा था जिसमें दोनों मकानों के दरवाजे खुलते थे। पत्‍नी दो माह के लिए बाहर गयी थी और मकान में इतनी भयंकर घटना घट चुकी थी…मैं कुछ न समझ पाने की स्थिति में विमनस्‍क होकर एक गर्द-भरी कुर्सी पर बैठ गया। मेरी कोर्ट जाने की इच्‍छा भी मर गयी थी।

मैं उसके बारे में सोचने लगा। वह यहां एक स्‍थानीय दफ्तर में बराये नाम एक नौकरी करता था मगर इस मकान में आने से पहले ही उसे भी छोड़ चुका था। मुझे नहीं मालूम था‍ कि वह किस पेशे से सम्‍बद्ध है। प्रायः सुबह को जिस समय मैं बाथरूम जाता था तो उसे चौके में स्‍टोव जलाकर चाय तैयार करते देखता था। मुझे और मेरी पत्‍नी को शुरू में बहुत ताज्‍जुब होता था कि यह कैसा बाल-बच्‍चों वाला आदमी है जो किचिन में घुसकर सुबह खुद ही चाय तैयार करता है। रात को बाहर बराण्‍डें से लगे कमरे की बत्ती आधी-आधी रात तक जलती रहती। हम लोग और धीरे-धीरे आस-पड़ोस के लोग भी उसे केवल इस रूप में जानने लगे कि वह एक गुलामी में जकड़ा पति है और उसपर उसकी पत्‍नी एक तानाशाह की तरह शासन करती है। उसकी पत्‍नी के प्रति इस दब्‍बू प्रवृत्ति से मुझे बहुत चिढ़ पैदा हो गयी। मैं देखता कि कभी वह चाय तैयार करके केतली उठाये लिये जा रहा है-कभी हाथों में जूठे प्‍यालों और तश्‍तरियों को संभाले किचन में घुस रहा है-कभी बच्‍चों को ‘सू-सू’ करा रहा है। एक दिन तो हद हो गयीं वह गुसलखाने में घुसा कपड़े फींच रहा था। मैं कोर्ट से एक जरूरी फाइल लेने आया था-पत्‍नी रसोई में थी। उसने अन्‍दर के सहन में पड़ी चारपाई पर मेरा खाना रख दिया और मैं वहीं बैठकर जल्‍दी-जल्‍दी खाना खाने लगा। मेरा ध्‍यान एक महत्वपूर्ण मुकदमे के बारीक मुद्दों में उलझा था…वास्‍तव में मुझे उसके कपड़े फींचने का पता भी न चलता। वह तो पता मुझे इस तरह चला कि वह कपड़ो की एक पोट थामे गुसलखाने से बाहर आया और मुझे सामने देखकर एक क्षण झिझका मगर दूसरे क्षण मुस्‍कराता हुआ धम-धम जीने पर चढ़ गया। मैंने उसे सहन के ऊपर बिछे लोहे की छड़ों पर गुनगुनाते हुए कपड़े डालते देखा। जब उसने तारों के बीचोंबीच एक जनानी धोती लटकाई तो मैं शर्म और गुस्‍से में भर उठा। ओफ! कितना बेगैरत इन्‍सान है! यह घर वाली तक के कपड़े धोता है और कैसी चटक्‍को है जो इस नालायक को स्‍त्रैण बनाने पर उतारू है। उन दिन के बाद से मुझे उसे देखते ही एक अजीब-सी लिजलिजाहट महसूस होने लगती। वह लम्‍बा-चौड़ा सुन्‍दर व्‍यक्ति लगता था किन्‍तु उसके इन टुच्‍चे कामों ने उसके प्रति मेरी खीझ अजहद बढ़ा दी। मैंने यह तक‍ परवाह नहीं की कि मैं उसका काम और नाम-धाम तो जान लूं।

मैं शाम को प्रायः देखता था‍ कि उसके यहां मिलने-जुलने वालों की भीड़ जमा रहती थी। खूब हंसी होती, कहकहे गूंजते और मजाक के अन्‍दाज में डूबी उसकी पाटदार आवाज कमरे के दरवाजे को भड़भड़ाती हमारी तरफ आती। मैं अक्‍सर उसकी बातों को अनसुनी करने की कोशिश करता मगर मेरी चेतना बराबर उसके बारे में कुछ न कुछ जानने को उत्‍सुक रहती। मेरी पत्‍नी ने कई बार कहा भी, ”उनसे एकाध बार मिलिए-घर वाली तो काफी सलीकेदार लगती है।” मैं घृणा से मुंह बिचका कह देता, ”आई केयर ए स्‍ट्रा फार सच डाग्‍स।” एक दिन मुस्‍कराते हुए मेरी पत्‍नी ने कनखियों से संकेत किया-मैंने जंगले से हटे पर्दे के पार देखा, वह चाय हाथ में लिये कमरे से निकल रहा था। मेरा खून खौल उठा, हस्‍साला रेचिड-कमरे में इतने सारे लोगों के बीच चाय तैयार करके ले जाते हुए इस नकटे को जरा भी लिहाज नहीं आता। मैं सुन रहा था, उसकी घरवाली जोरों से गरमागरम बहस में उलझी हुई थी और कई स्‍त्री-पुरूषों की सम्मिलित आवाजें आ रही थीं।

उसके कारनामों की वजह से मेरी दिलचस्‍पी का उसके प्रति अन्‍त हो चुका था भी तभी एक दिन मुझे नये सिरे से उसके विषय में सोचना पड़ा। उसके घर ताला लगा हुआ था-शायद वह मय बाल-बच्‍चों के कहीं घूमने गया था। मैं अपना स्‍कूटर बाहर निकाल रहा था कि तभी एक टैक्‍सी दरवाजे पर आकर रूकी। एक अपटूडेट किस्‍म के प्रौढ़ सज्‍जन टैक्‍सी से उतरकर मेरी तरफ आये और पूछने लगे, ”क्‍या नावलिस्‍ट जयदेव वर्मा यहीं रहते हैं?” मैंने कुछ हैरत से उनकी बात सुनी और बोला, ”एक वर्मा यहां रहते जरूर हैं मगर मुझे यह ठीक से मालूम नहीं है कि उनका पेशा क्‍या है।” मेरी इस विरक्तिपूर्ण विवेचना से उन्‍हें जराभी कष्‍ट नहीं हुआ। वह हंसकर बोले, ”राइटर्स-आथर्स के साथ यह कोई नयी बात नहीं है, दे आर आलवेज डिस्‍कार्टेड एंड अननोटिस्‍ड!” वह एक क्षण रूके और बोले, ”गुस्‍ताखी माफ हो, मैं कैलकेटा से इधर आया हुआ हूं-उनकी एक कहानी पर मेरा फिल्‍म बनाने का इरादा है, अगर आपको तकलीफ न हो तो यहीं बराण्‍डे में मेरे लिए कुर्सी मंगवा दीजिये। मैं कुछ देर उनका इन्‍तजार कर सकता हूं।”

मुझे अपने अज्ञान पर जिन्‍दगी में पहली बार पछतावा हुआ। मैं उनकी बात को सुनने के बाद भी यह नहीं सोच सका कि यह सज्‍जन मेरे पड़ोसी से मिलने ही आये हैं। मैंने अपना बाहर जाना कैसिल कर दिया और उन महानुभाव को अपने ड्राइंग रूम में लिवा लाया तथा उन्‍हे सोफे पर बिठाकर पत्‍नी से चाय बनाने के लिए कहकर फिर उनके पास लौट आया। मुझे उनकी बातों से तसल्‍ली नहीं हुई तो मैंने माफी मांगते हुए उनसे पूछ ही लिया कि ”कहीं आपसे गलती तो नहीं हो रही है? यह साहब पिछले पांच-छह माह से मेरे पड़ोसी हैं मगर मुझे आज तक मालूम नहीं हुआ कि यह कोई मशहूर राइटर हैं।” मेरी बात से आगन्‍तुक के चेहरे पर एक क्षण के लिए उलझन आयी मगर दूसरे क्षण ही उन्‍होंने अपना पोर्टफोलियो खोलते हुए कहा, ”अभी कनफर्म हुआ जाता है। मैंने जो किताब खरीदी थी उसमें वर्मा साहब का यहीं का पता है और उनका फोटो भी है।”

मैंने आश्‍चर्याभिभूत हो किताब उनके हाथ से ले ली। किताब की पिछली तरफ उसका फोटो और परिचय छपा था। फोटो वाकई उसीका था, अब संदेह के लिए कोई गुंजाइश बाकी नहीं थी। मेरे हृदय में उसके प्रति असीम सम्‍मान की भावना जाग पड़ीं इतना निरीह लगने वाला साधारण-सा घरेलू नौकर की तरह काम करने वाला आदमी, अतिथि-अभ्‍यागतों के लिए स्‍वयं चाय बनाकर देने वाला क्‍या वाकई इतना बड़ा लेखक है? अजीब बात है कि किसी तरह भी इसने यह पता नहीं लगने दिया कि वह लेखक है। मैं लेखकों के बारे में बहुत रोमानी बातें सुना करता था, मगर यह तो बिल्‍कुल उल्‍टा निकला! इतनी देर तक कमरे की बत्ती जलने का राज अब मुझे मालूम हुआ। तो वह रात को लेट आवर्स में सबके सो जाने पर काम किया करता है! रियली ए ब्‍लण्‍डर! सो अनएम्‍यूजिंग ए ग्राण्‍ड मैन।

उसके लौटने पर डाइरेक्‍टर महोदय ने उसे अपने आने का उद्देश्‍य बताया और उसका फिल्‍म-सम्‍बन्‍धी समझौता हो गया। मुझे इस घटना के कई दिनों बाद तक ताज्‍जुब होता रहा और मैंने बाद में अपने कई सहयोगियों को उसके विषय में बतलाया। कई लोग जो मुझसे मिलने आते उसके पास भी जाने लगे ओर उसकी किताबें ले जाने लगे। मेरा ख्‍याल है कि लोगों को उसकी किताबें पढ़ने का तो कोई खास शौक पैदा नहीं हुआ, हां, यह देखने की उत्‍सुकता अवश्‍य हुई कि उनकी नाक के नीचे उनके शहर में ही नामी लेखक रहता है और सो भी इतने गुमनाम ढंग से। किताबों के स्‍थान पर उन्‍हें लिखने वालों में दिलचस्‍पी रखने वाले लोगों की आमदरफ्त बढ़ती ही गयी। कई लोग तो इस तरह आते थे गोया बच्‍चे चिडिया के छोटे अंडों या बच्‍चों को कौतूहल से निरख रहे हों। मैं अब उससे कई बार बेमतलब भी बातें करने की कोशिश करता। अपने यहां तथा दूसरे दोस्‍तों के घरों पर मैंने उसे कई बार निमंत्रित करवाया। मैं पहले ही कह चुका हूं कि उसकी बातों में हास्‍य-व्‍यंग्‍य का एक अलग ही रंग था, सो लोग उसकी बातों में इतना रस लेते कि वह उन्‍हें एक अच्‍छा-खासा जोकर मालूम पड़ता। मैं उसके लिट्लेचर के बारे में अब भी कुछ ज्‍यादा नहीं जानता। हां, यह जरूर पढ़ा है कि वह सीरियस टाइप का लेखक था मगर मुझे इस बात पर विश्‍वास नहीं हुआ क्‍योंकि मैंने उसे जिन्‍दगी में एक बार भी सीरियस नहीं देखा! जिस सभा-सोसाइटी में उसे देखा, वहां उसकी खुशगप्पियां और फुल‍झडियां किसीको एक मिनट तक गम्‍भीर होकर नहीं बैठने देती थीं। बात-बात पर छेड़छाड़, बात-बात पर छत फाड़ने वाले ठहाके। वह स्‍वयं को ‘टार्जेट’ बनाकर इतने अन्‍धाधुन्‍ध वार करता कि सुनने और देखने वाले लोग समझ ही न पाते कि वह अपना ही केरी-केचर खींच रहा है। वह खुद किसी बेचारेपन का नायक होता और अपनी दुर्दशाओं का इतने चटखारे ले-लेकर वर्णन करता कि लोग स्‍तम्भित रह जाते। उसकी पत्‍नी कई बार शरमा जाती। वह अपनी बातें गुप्‍त या व्‍यक्तिगत नहीं रहने देता था। वह गरीब या तो न सुनने का नाटक करती या दूसरों के साथ क‍हकहों में शामिल हो जाती।

मेरी पत्‍नी के मायके चले जाने के बाद उसने मुझे हमेशा सुबह की चाय दी। मुझे कई बार संकोच भी होता था मगर वह इतनी मजाकिया शैली में बातें करता था कि सारा संकोच एक पल में काफूर हो जाता था। उससे परिचय हो जाने के बाद मैंने नौकर से कह दिया था कि वर्मा साहब के किसी काम को मना मत करना। वर्मा साहब के रोज चाय बनाकर देने से तंग आकर मैंने नौकर को सख्‍त ताकीद की थी कि वह खुद वर्मा साहब को चाय बनाकर दिया करे! पर वाह रे वर्मा। नौकर को एक दिन यह मौका नहीं दिया कि वह वर्मा साहब से पहले उठकर चाय का प्‍याला तैयार कर ले।

मैंने उस शाम की बातें यों ही उड़ते-उड़ते सुनी थीं। जब मैं शाम को बाहर से आया तो वह बाहर के कमरे मैं बैठा कुछ लिख रहा था। मैं कमरे का दरवाजा खोल ही रहा था कि मेरे कानों में वर्मा की पत्‍नी के शब्‍द पड़े, ”आपके दिमाग में कितनी नीली साड़ियों वाली बैठी हुई हैं। हम तो घर में बस बेवकूफ हैं, या तो आपकी कहानियां या यार-दोस्‍तों की गप्‍पें। हमारे बस का नहीं है इस तरह रहना।” मेरे मुख पर अनायास ही हंसी उभर आयी, मैंने सोचा दरवाजे से ही एक आवाज लगा दूं कि भाभी जी, वर्मा जी पर लगाम रखिए और इन्‍हें नीली साड़ी वालियों से बचाइए। पर यह सोचकर चुप रहा कि वह खुद ही इस किस्‍म की कोई मजाकिया बात कहेगा मगर उसका उत्तर सुनकर मैं सन्‍न रहा गया। वह कुछ तमतमाये लहजे में परेशान-सा होकर कह रहा था, ”खुदा के लिए मुझे तंग मत करो, गो विथ योर ओन बिजनेस!” मैंने अपने दिल में कहा, ‘टुडे ही इज रियली ए मर्ड।’ शायद किसी नावेल का काम गम्‍भीरता से चल रहा है। तभी मिसेज वर्मा की अपेक्षया चि‍ड़चिड़ी आवाज सुनाई पड़ी, ”आप बेकार की बातें करते हैं, मैं आपको क्‍या डिस्‍टर्व करती हूं, मैंने यह जो कह दिया कि लड़‍कियां ही लड़कियां दिमाग में भरी रहती हैं!”

मैं यह सोचता हुआ कमरे में चला गया कि औरतें पुरुष के मस्तिष्‍‍क में काल्‍पनिक औरतें तक बरदाशत नहीं कर सकतीं। मैं कपड़े वगैरह बदलने में लग गया। कुर्सियों के खींचने की आवाजें तथा सामान को इधर-उधर करने का शोर कुछ देर हुआ और फिर शान्ति हो गयी। खाली होने के कारण मैं चाय पीकर घर से बाहर निकल गया क्‍योंकि नौकर के छुट्टी जाने की वजह से मुझे खाना भी बाहर खाना होता था। जब रात को ग्‍यारह-साढ़े ग्‍यारह के करीब मैं लौटा तो उसके कमरे की बत्ती जल रही थी। मेरे मन में आया कि लाओ उससे चन्‍द मिनट बातें करूं मगर शाम की बातों से उसकी व्‍यस्‍तता का ख्‍याल करके मैं टाल गया। अगले दिन रसोई का दरवाजा देर तक नहीं खुला। मैंने सोचा कि सारी रात काम करने की वजह से वह अभी सो रहा है और मैं दस बजे अपने दैनिक कार्यो से निवृत्त होकर कोर्ट चला गया। शाम बाहर ही बाहर निकल गयी। रात को लौटकर जब मैं अपने कमरे में सोया तो मुझे दूर-दूर तक खयाल नहीं था कि घर में एक भयंकर दुर्घटना घट चुकी है। वह तो तीसरे दिन सुबह जाकर कहीं दूसरों के बताने से ही मुझे आभास मिला कि मेरी दीवारों के उस पार क्‍या अघट घट चुका है। हैरत है, हम लोग हजारों मील दूर की खबरें सबेरे अखबारों में पढ़कर निश्चिन्‍त हो जाते हैं मगर हमें शायद वर्षों तक यह पता नहीं चलता कि हमारी दीवारों के बिल्‍कुल उधर क्‍या कुछ हो रहा है।

मेरे कमरे में अंधेरा फैलने लगा तो मैंने उठकर स्विच आन कर दिया। मुझे सारे वातावरण में हौल पैदा करने वाली उदासी दिखाई पड़ी और मैं उठकर बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगा। मैं उसके बीवी-बच्‍चों के बारे में सोचने लगा कि इस समय वे कहां होंगे। क्‍या वह अपने मायके गयी होगी? शायद उसे देर तक भी इस बात का पता न चले, या पता चले भी तो शायद अखबार से। न जाने क्‍यों मुझे लग रहा था कि अभी देर बाद उसके किवाड़ खुलेंगे और वह अन्‍दर से कोई मजाकिया फिकरा कसते हुए निकलेगा और किचन में घुस जायेगा। वह मसखरा व्‍यक्ति हैं, शायद उसने यह महज नाटक किया हो कि देखो मैं कितना बहुरूपिया हूं। भय और अज्ञात करुणा से मेरा दिल भरा हुआ था और मैं उसके बारे में ही सोचे जा रहा था कि तभी दरवाजे पर एक मोटर घर्र-घर्र करके ठहर गयी। मैं फौरन बाहर निकलकर आ गया। एक टैक्‍सी से कई आदमी और बच्‍चे उतरे। वे उसके ही बच्‍चे थे। मैंने लपककर दरवाजा खोला तो सन्‍न रह गया। उसकी पत्‍नी को एक आदमी कन्‍धे से पकड़े हुए था। मैं उस आदमी को नहीं पहचानता था-एक व्‍यक्ति और टैक्‍सी से बाहर निकलकर आया। मैं उस व्‍यक्ति के भूरे बालों से पहचान गया वह लेखक वर्मा के बड़े भाई थे। वह सबसे आगे बढ़े और पागलों की तरह मेरे पास आये। मैंने उनका हाथ थाम लिया और उन्‍हें अपने साथ लेकर आपने कमरे में आ गया। मिसेज वर्मा वह व्‍यक्ति और दोनों बच्‍चे हम लोगों के पीछे-पीछे कमरे में घुसे। उसकी पत्‍नी मेरे कमरे में बैठ नहीं पा रही‍ थी-मैंने उन लोगों को सम्‍बोधित करके कहा, ”उधर का पुलिस ने ताला लगा दिया है-कल शायद खुल पाये।”

मैं स्‍वयं उनको दिलासा देने की स्थिति में नहीं था। मैंने उन लोगों को सहज करने के लिए चाय तैयार करने की बात कही। उसके भाई ने सिर हिलाकर मना कर दिया। उनकी आंखें एकदम लाल थीं और नाक का अगला हिस्‍सा फूला हुआ था। वह उठे और बाहर जाकर नाक साफ करने लगे। लेखक वर्मा के बच्‍चे कुछ देर तक सबके चेहरे देखते रहे और कुछ न समझ पाने के कारण उठकर बाहर बराण्‍डे में चले गये और उछल-कूद करने लगे। लगभग एक घंटे के बाद मैंने उसके बड़े भाई को स्थिति का हल्‍का-सा संकेत दिया तो वह उठकर खड़े हो गए। मैं और वह पुलिस स्‍टेशन पहुंचे तो पुलिस इन्‍स्‍पेक्‍टर ने बताया कि लाश का पोस्‍टमार्टम आज नहीं हो सका, कल होगा। हम लोग निराश होकर लौट आये और किसी तरह रात काटने की तैयारी करने लगे।

उसकी लाश लाकर जला दी गयी है और उसके घर का ताला खुल चुका है। पिछले दिन से मकान के गोशे-गोशे में उदासी और मनहूसियत फैली है। बच्‍चे भी शायद किसी अज्ञात चेतना के द्वारा इस रहस्‍यात्‍मक वातावरण से सहमे हुए हैं। उसकी पत्‍नी न रोई और न उसने कोई मर्मान्‍तक चीत्‍कार किया, किन्‍तु उसकी चुप्‍पी बहुत भयानक है। मुझे उसे देखकर जरा भी य‍ह अहसास नहीं कि यह वही औरत है जो पलंग पर लेटकर बराबर उपन्‍यास और कहानियां पढ़ती थी और इसका पति बराबर इसकी सेवा में लगा रहता था। आज शाम तक ये सभी लोग चले जायेंगे और मकान का व‍ह हिस्‍सा एकदम खाली हो जायेगा। मुझे रह-रहकर भ्रम होता है कि वाकई क्‍या वह अपने में कहीं इतना गम्‍भीर भी था जो अन्‍तः- करण को मार देने की अनुभूति होते ही मर गया। मुझे उसकी पत्‍नी की बात याद आ रही है जब उसने व्‍यंग्‍य किया था, ‘आपके दिमाग में कितनी नीली साडियां वाली बैठी हुई हैं।’ मैं आज भी कोर्ट नहीं जा सका हूं और सोच रहा हूं कि कल सबसे पहला काम यह करूं कि अपनी पत्‍नी को लौटने के लिए टेलीग्राम दे दूं-हालांकि दूसरी ओर होने वाली दुर्घटना को खयाल करके यह एक विसंगतिपूर्ण बात लगती है, मगर कुछ हो, अब इस मकान में मुझसे अकेले नहीं रहा जायगा।

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