भिनसहरे | नज़ीर बनारसी
भिनसहरे | नज़ीर बनारसी

भिनसहरे | नज़ीर बनारसी

भिनसहरे | नज़ीर बनारसी

गरे में डारि के किरिनन के हार भिनसहरे
ऊ रोज आवै लैं गंगा के पार भिनसहरे

रहींला घाट प हम, सूर्य जब उदै होलैं
करींला एक नजर जा के चार भिनसहरे

परान देहलों प केहू खरीद नाहिं सकत
लगैला सुन्‍नरियन के बजार भिनसहरे

See also  भीख के लिए | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

चमक-चमक के लहरिया उठैला गंगा में
ठुमक-ठुमक के चलेला बयार भिनसहरे

सरीर घाट प डोलेला नाव के नाईं
रहेला मौज में जियरा हमार भिनसहरे

अन्‍हरिया देखि के अँखियन से तोर उजियरिया
तोरे दुआरे पटकलस कपार भिनसहरे

सुरुज के ओट से निसदिन ई ताक-झाँक तोहर
घरे से हमके लियावेला यार भिनसहरे

See also  दो : संवाद | अभिज्ञात

तू ई बतावऽ कि रतिया कहाँ बितावेलऽ
देखाइ देला सुरतिया तहार भिनसहरे

जो सुनलीं ध्‍यान से, मनवा हमार झूमि गयल
लहर-लहर जे बजवलस सितार भिनसहरे

हिरदै से जे के लगल हौ उहै करी दरसन
सबै दुआर बनी हरिदुआर भिनसहरे

के जाई उनके जगावे बदे, ऊ खिसियालिन
तू काहे आके सतावेलऽ यार भिनसहरे

पात-पात प लिखलीं जे रात के पाती
किरिन के तार प भेजेला तार भिनसहरे

See also  मुझे चाहिए | अशोक वाजपेयी

ई के के सुरुजनरायन दिखावेले ऐना
ई कौन रोज करेला सिंगार भिनसहरे

ऊ सरवा राते धतूरा मिला के देलस का?
भँवर के नाईं झुमवलस कपार भिनसहरे

हईं सुनले हमउँ कि रोज-रोज निपटे बदै
नजीर आवेले गंगा के पार भिनसहरे

Leave a comment

Leave a Reply