भाग्यवती पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित हिन्दी उपन्यास है। इसकी रचना सन् १८८७ में हुई थी। इसे हिन्दी का प्रथम् उपन्यास होने का गौरव प्राप्त है। इसकी रचना मुख्यत: अमृतसर में हुई थी और सन् १८८८ में यह प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। इसे पंजाब सहित देश के कई राज्यो के स्कूलों में कई सालों तक पढाया जाता रहा। इस उपन्यास में उन्होंने काशी के एक पंडित उमादत्त की बेटी भगवती के किरदार के माध्यम से बाल विवाह पर ज़बर्दस्त चोट की। इसी इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय स्त्री की दशा और उसके अधिकारों को लेकर क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।

यह उपन्यास स्त्रियों में जागृति लाने के उद्देश्य से लिखा गया था। इस उपन्यास की मुख्य पात्र एक स्त्री है। इसमें स्त्रियों के प्रगतिशील रूप का चित्रण है एवं उनके अधिकारों एवं स्थिति की बात की गयी है। उस जमाने में इस उपन्यास में विधवा विवाह का पक्ष लिया गया है; बालविवाह की निन्दा की गयी है ; बच्चा और बच्ची के समानता की बात की गयी है। यह पुस्तक उस समय विवाह में लड़कियों को दहेज के रूप में दी जाती थी।

पं. श्रध्दाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ॰ हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रद्धाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं॰ श्रद्धाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। लेकिन यह मात्र हिन्दी का ही पहला उपन्यास नहीं था बल्कि कई मायनों में यह पहला था। उनके उपन्यास की नायिका भाग्यवती पहली बेटी पैदा होने पर समाज के लोगों द्वार मजाक उड़ाए जाने पर अपने पति को कहती है कि किसी लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं है।

उन्होने इस उपन्यास के जरिए बाल विवाह जैसी कुप्रथा पर ज़बर्दस्त चोट की। उन्होंने तब लड़कियों को पढाने की वकालात की जब लड़कियों को घर से बाहर तक नहीं निकलने दिया जाता था। परंपराओं, कुप्रथाओं और रुढियों पर चोट करते रहने के बावजूद वे लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहे। जबकि वह ऐक ऐसा दौर था जब कोई व्यक्ति अंधविश्वासों और धार्मिक रुढियों के खिलाफ कुछ बोलता था तो पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता था। निश्चय ही उनके अंदर अपनी बात को कहने का साहस और उसे लोगों तक पहुँचाने की जबर्दस्त क्षमता थी।

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