बेगाने देश में | चंद्रकांता
बेगाने देश में | चंद्रकांता

बेगाने देश में | चंद्रकांता – Begane Desh Mein

बेगाने देश में | चंद्रकांता

अँधेरा! गाढ़ा और घना! दूर तक फैले तारों जड़े बिजली के श्यामल खंभे भूत जैसे कब और क्यों दिखाई पड़ते हैं, इसका दहशत-भरा अहसास पहली बार नसों को झनझना रहा है। इस अँधेरी बस्ती में कौन कहाँ कुकुरमुत्तों की तरह ढूहों, ढलानों के पीछे उग आए और लंबा हाथ बढ़ाकर गला दबोच ले, इस हलक सुखाते भय से चौकन्ना रोम-रोम चौतरफा की हल्की आहटों पर सिहर उठता है।

हाइवे एक सौ एक! और इस हाइवे की इमरजेंसी लेन में हमारी गाड़ी आगे-पीछे की तमाम लाल बत्तियाँ टिमकाती आने-जाने वालों को अपनी मुसीबत की सूचना और मदद की याचना के संकेत दे रही हैं, रोशनियाँ भी डरी-सहमी धुकधुकाती नजर आ रही हैं। अभी-अभी तो हमारी गाड़ी एक सौ दस किलोमीटर घंटे के हिसाब से इस हाइवे पर दौड़ रही थी। गहराती रात में हवा के ठंडे झकोरों का लुत्फ उठाते हम पिछले दिनों के अनुभव को बार-बार जी रहे थे, और अभी-अभी यह अचानक हादसा! हादसा ही तो! जोरदार ब्रेक में रफ्तार के प्रवाह को रोकने की कोशिश में गाड़ी घिसटती हुई ‘क्री… च’ की कटखनी आवाज के साथ यहाँ, मारगन हिल से कुछ दूर, वाटसन विले रोड पर बंद हो गई। भीतर सतरंगी खयालों के झरने, बाहर हवा से होड़ लेती रफ्तार का सुख, सब जैसे एक जबरदस्त ब्रेक के साथ थम गया।

क्या हुआ? हमारी आवाजों में खौफ खाए सवाल पैदा हो गए। इस अँधेरी रात में, यहाँ इस सुनसान रास्ते पर अचानक गाड़ी खराब हो गई तो क्या होगा? हमारी सहायता को कोई आसमान से कोई फरिश्ता भले उतरे, पर आँधी के रेलों-सी गुजरती कारें हमें देख भीलें तो भी अनदेखी कर लेंगी, दिन होता तो बात अलग थी? पर यह अँधेरी घनी रात!

कोई सेंसर लगी कार शायद पुलिस को इत्तला कर दे या खुद की गश्त लगाती कोई पुलिस कार उधर से गुजर जाए तो कोई उम्मीद हो सकती है…।

सनी की आवाज में कोई आवेश नहीं, जैसे अपने आप से बतिया रहा हो, मतलब यही कि तब तक इस बेहिस्स, ठस अँधेरे को घूर-घूर कर भेदने के सिवा कोई विकल्प नहीं।

भयभीत व्यक्ति या तो बिल्कुल सुन्न हो जाता है या दूसरी रफ्तार से दिमागी जोड़-तोड़ बिठाने लगता है। भय से मुक्ति तलाशता रहता है मेरी हालत आधी इधर आधी उधर वाली थी। यहाँ वालों ने जगह-जगह कॉल बॉक्स की सुविधाएँ तो दी हैं पर एक कॉल बॉक्स तो पीछे छूट गया, अगले तक चलकर जाना पड़ेगा।

भाभी की बात याद आई। यहाँ रात को भी गाड़ी में कोई खतरा नहीं, पर अगर देर शाम भी कोई अकेले रास्ते पर चले तो जेब छिन जाने से लेकर गला रेत जाने तक कोई भी हादसा हो सकता है…।

शायद पेट्रोल खत्म हो गया…।

सनी का छोटा-सा वाक्य गहरे अँधेरे कुएँ में भी पत्थर की तरह लुढ़क आया या शायद वह पत्थर हमारे सिर की ओर ही लुढ़का हो। हमने बचाव के लिए दाएँ-बाएँ देखा।

थोड़ी देर और रुक कर देखते हैं नहीं तो मैं कॉल बॉक्स तक जाकर मदद के लिए फोन कर आऊँगा।

और हम यहाँ, इधर बैठे रहेंगे? मैं भीतर से धँसी जा रही थी। इस बेगाने देश में बेमौत मरना मुझे कतई मंजूर नहीं। कितने बेदर्द और निःसंग हैं इधर वाले, क्या पता हमें इस निर्जन में अकेला पाकर कोई गला दबा दे, या शूट कर दे। बंदूकें तो यहाँ कोई भी रख सकता है। मेरे दिमाग में ब्लेड से नस काटने वाले जैक रिवार से लेकर उस लड़के की तस्वीरें उभर आई जो दुनियावी ऐश्वर्यों से ऊबकर ‘जस्ट फॉर फन’ कभी भी किसी को गोली मार कर तड़पता सुख पाता था।

मैंने कई बार सनी से कहा भी है कि यहाँ की साफसुथरी शानदार सड़कें, असुआपंखी हरियाली, परियों की कथाओं वाले सुकूनदेह घर, बड़ी इमारतें, भौतिक समृद्धि और अनुशासन सब काबिले तारीफ है, पर यहाँ के लोग अपने में इतने गर्क हैं कि रुककर दूसरे से बात करना उन्हें वक्त की बर्बादी लगता है।

हमारे पास फालतू वक्त है माँ। तभी न घर, दफ्तर, सड़क, गली-मुहल्लों में रुककर हम गप्पगोष्ठियाँ करते रहते हैं। इसकी-उसकी नहीं हो सरकार की ही सही, आलोचना। वह भी बस बतकही की खातिर। ये लोग काम करना जानते हैं, और फुरसत मिले तो उस वक्त को अपने लिए जीते हैं…।

मैं सनी से बहस नहीं करती, उसके अपने अनुभव हैं, घर-बाहर के, खट्टे-तीखे। पिछले महीनों से यहाँ का जीवन-दर्शन भी काफी कुछ समझ चुकी हूँ। मेरी पड़ोसन जेनिफर ऑफिस से लौटकर भी जॉगिंग के लिए जाती है, लेकिन कुछ दिन बेटे की बीमारी के कारण वह सुबह जॉगिंग नहीं कर पाई थी। यों भी रुटीन में कोई खलल वह सह नहीं पाती। लेकिन इस रुटीन में वही सब शामिल है जो उसके साथ जा हुआ है। पहले आत्मा फिर परमात्मा। सब कुछ बेहद निजी। यों ओल्ड होम में रहते अपने माता-पिता को भी वे दो-चार मास में भी देखने जाते हैं, अच्छे लोग हैं, लेकिन फिर भी मैं कहे बिना नहीं रह पाती – “तुम्हारा शहर बड़ा बेदर्द है, कुछ लोग हैं, कुछ भी कहो, यहाँ बाहर का आदमी कितना अकेला होता होगा…।” सनी हल्का-सा हँसकर रह जाता है। बहस नहीं करता। क्योंकि काम में व्यस्त लोग अकेलापन बहुत कम जानते हैं, खासकर जवान लोग हमारे जैसे आधी उम्र गुजारे लोग ही अकेलेपन के डर के खौफ खाए रहते हैं। लेकिन इस वक्त इस बेदर्द दुनिया की निःसंगता मुझे अपने बेदर्द पंजों से बुरी तरह कस रही है।

क्रींच!

पीछे से एक कार आकर रुक गई है। सनी झटके से बाहर निकलकर पीछे रुकी लालगाड़ी की तरफ बढ़ा है।

एक… दो… तीन… मैं पहले सेकेंड फिर मिनट गिनने लगती हूँ। क्या बात कर रहा है सनी? कौन है गाड़ी में? क्या पता कितने जने हैं। पुलिस-कार तो नहीं लगती।

मुड़कर पीछे देखती हूँ, अधखुले दरवाजे से आधा ढका सनी गाड़ी के भीतर किसी से बात कर रहा है, क्या? कुछ सुनाई नहीं पड़ता। मुझे बर्कले की सड़कों पर घूमते कुछ फटेहाल भिखमंगे याद आ जाते हैं। उनमें कितने भिखमंगे थे। कितने चोर-उचक्के? कौन जाने?

सनी वापस आया है। “मैं पैट्रोल लेकर आता हूँ। बस पंद्रह मिनट लगेंगे… तुम लोग चिंता मत करना… लिफ्ट मिल गई है… गाड़ी के शीशे चढ़ा लो।” वह गाड़ी की डिक्की से केन निकालकर चला गया है। गाड़ी से कोई पच्चीस-छब्बीस साल की लड़की निकल आई है, या शायद पहले से वहाँ खड़ी थी, अब सनी और वह लड़की दोनों गाड़ी में बैठकर आगे बढ़ गए हैं।

रात के एक बजे यह कौन लड़की अचानक हम पर मेहरबान हो गई? भाभी की बातें फिर जेहन पर दस्तक देने लगी, यहाँ देर रात ऐशपरस्त औरतें घूमा करती हैं, फ्री कंट्री है न। ये औरतें युवा पुरुषों के पीछे लग जाती हैं और मौका पाकर उनसे मनचाहे काम करवाती हैं। अपने क्षणिक सुख से लेकर बड़ी जालसाजियों तक।

मनचाहे काम! दुनिया-भर की वाइरल बीमारियाँ, एड्स वगैरह से ध्यान हटाकर मैं तमाम मुमकिन कामों के बारे में सोचने लगी। लॉस बेगास! जुआघर! हाँ, वहाँ भी ले जा सकती हैं, सनी की जेब में कितने पैसे हैं? यहाँ ज्यादा पैसे जेब में कौन रखता है! लेकिन… क्रेडिट कार्ड? वह तो है ही… हो सकता है किसी नाइट क्लब में ले गई हो…।

मेरा दिल बैठा जा रहा है, कहाँ-कहाँ से तो लोग यहाँ आकर बसे हैं। बंदूक के जोर पर वह न्यूयार्क में एलिस आइलैंड शहादत बनकर खड़ा नहीं है क्या? इंग्लैंड, फ्रांस, स्पेन, इटली… किधर-किधर से आकर यहाँ के धर्मभीरु रेड इंडियंस पर हावी हो गए… हमारी जैसी सभ्यता और संस्कृति इनके पास कहाँ? मैं शायद अनर्गल बातें सोचने लगी हूँ।

राजन चुप हैं। सनी की लापरवाही पर थोड़ी बुड़बुड़ जरूर की, “…रास्ते में पेट्रोल भरवाता। इतना लंबा सफर मगर साहब हैं कि चल जाएगा।” कहकर गाड़ी हाँक दी… अब भुगतो… कुछ कहो दो बहादुरी दिखाएँगे… “डैडी! आप हमेशा डरे हुए क्यों रहते हैं? क्या कश्मीर और पंजाब के आतंकवाद ने आपको इतना सहमा दिया है!’ माँ, तुम जरा-सी आहट से क्यों चौंक जाती हो? मरना तो एक बार ही होता है इस तरह दिन में कई बार…!”

बेटे का दर्शन अभी काम नहीं दे रहा। मरना तो सच है, पर यहाँ इस तरह, रास्ते पर? वह भी अपनी ना समझी और लापरवाही के कारण? कितना सुनसान है चौतरफ? लगता है साँस भी थम गई है। दूर तक खड़े बिजली के विशाल खंभे जैसे विचित्र आकार बना रहे हैं। डिज्नीलैंड के ‘पारइरेट आइलैंड’ में जो डाकू और हत्यारे देखे थे, लगता है वही अलग-अलग बिंदुओं पर शस्त्रों से लैस खड़े हैं। दाईं ओर जरा-सा मुड़ा तो प्रहार कर देंगे, बाईं ओर देखो तो दंदियाँ दिखता काला खप्पर हड़्डियल पंजे गले में घोंप देंगे।

यों तो कितना अच्छा लगा था डिज्नीलैंड! बच्चों की तरह हम उत्सुक हो उठे थे। ‘घोस्ट मैनशन’ में ट्रालियों पर बैठे कब्रिस्तान की सैर करना और कब्रों के पीछे मृतकों का अचानक सिर उठाकर हाल पूछना, रोमांच से भर गया था। मृतात्माओं को नृत्य कितना जीवंत लगा था। और जब शीशे की पारदर्शी चादर में खुद को देखा तो मेरे और राजन के बीच एक भूत बैठा देख मैंने उसको छूकर महसूस करना चाहा था – तब राजन हँस पड़ा था “डर गई? अरे यह तो भ्रमजाल है? सिर्फ भ्रांति!” लेकिन वह डर भी कितना रोमांचक था कि बार-बार डरने को मन करे। अब यह जो सामने है, यह तो कोई भ्रांति नहीं, बेलौस सच है। इसका सामना करना कितना तकलीफदेह लगता है।

मैंने राजन की तरफ देखा, वह बेचैनी से सीट पर पहलू बदल रहा था। मैं बोलना चाहती थी, कुछ भी, पर गले से आवाज नहीं निकल पा रही। कानों में उन्हीं भूतों की आवाज गूँजने लगी है, उन्हीं मुर्दों की… – ‘हम निन्यानवे हैं, अभी इधर एक और की गुंजाइश है…।’ वह एक… वह एक या हम दो में से कोई हो सकता है? गला खुश्क हो रहा है। थर्मस में पानी पर उसने इस कदर जकड़ लिया है कि हिल नहीं पा रही है। वह जो सामने सफेद दाँत निकाले कोई खड़ा है… अभी जो कार गुजरी उसकी हेडलाइट में सफेद हड्डियाँ चमक उठी थी। मेरे सामने सड़क के किनारे, कब्रों की कतारें उग आई हैं। इनमें से हमारी कौन होगी नहीं, कब्र नहीं। क्या पता कोई लावारिस समझकर दफना दे, हमारी जाति-मजहब माथे पर तो नहीं लिखे होते! अरे इतना फालतू वक्त इधर किसके पास है? हाँ, नगर पालिका को तो सड़कों से मलबा हटाना ही है।

इतनी दूर… पराए देश में! अपनी मौत सोचते ही मेरी आँखें भर आईं। मेरा पसीना-पसीना हुआ शरीर। क्या हो रहा है मुझे? इतनी बच्ची तो नहीं हूँ कि हौसला न रख सकूँ। होता है कभी ऐसा भी। इनमें घबराहट कैसी? अब बेचारे सनी को क्या मालूम था कि पेट्रोल इधर खत्म हो जाएगा, घंटे भर का तो सफर बाकी था। फिर थकान भी कितनी हुई थी। पूरे दस घंटे भर का लगातार ड्राइव। लास एंजिल्स… हॉलीवुड… मैक्सिको बार्डर। सेंट डियोगा में सी.वर्ल्ड अनाहाइम में डिज्नीलैंड। तीन दिन नए-नए दृश्यों अनुभवों को भरपूर जी लिए। पल भर भी तो सुस्ताए नहीं। मैंने दिमाग को दुरुस्त करने की कोशिश की। भूत-प्रेत ही तो नहीं देखे थे हमने, लास एंजिल्स की मायावी दुनिया रोशनी के आलम में सराबोर… वह डिज्नीलैंड में रोलर कोस्टर पर स्पेस की रोमांचक यात्रा आकाश में ग्रहों-नक्षत्रों के बीच गुजर जाना… आतंक भरी राइड्स… लेकिन थ्रिल भी कितना! डिज्नी के कार्टूनों के बीच नावों की सैर… आने के लिए चेतावनियाँ… दिस इज ए स्माल वन… आगे छोटी-सी ढलान पानी की, डरना नहीं, मिकी खुद हिदायतें दे रहा है। बोट सम पर तैर रही है, संगीत की मोहक धुनें आपका स्वागत कर रही हैं और यह… ‘दिस इज ए बिग वन’ और जूम… आपकी वोट ऊँचाई से नीचे की ओर तेजी से रपटती हुई धड़ाम-धम्म…!

‘ओ गॉड! राजन भय से पीला पड़ गया था, ‘मैंने समझा यही अंत है।’

‘ओ! दिस इज फन! मैं हँसी थी। कितना जल्दी डर जाते हैं। आप! ये छोटे लड़के भी तो हमारे साथ वाली नावों में सवार थे। दरअसल हम लोग हमेशा अपने बारे में ही चिंता करना चानते हैं…।’

हाँ भई, मुझे तो अपनी जान प्यारी है…। राजन स्वीकार करता है। अब यहाँ कौन डर रहा है? और क्यों? मैं फिर अँधेरे माहौल से घिर गई हूँ। हजारों आशंकाएँ फिर सिर उठाने लगी हैं। सनी को गए बीसेक मिनट हो गए हैं। अभी तक क्यों नहीं लौटा? मेरा आस्तिक मन ऊपर वाले को याद करने लगा है। राजन भी तो मुँह मेहँदी जमाए बैठा है। कुछ बात ही कर लेता। वक्त कैसे सीने पर पत्थर बनकर बैठा है। इस बीच कितनी तो कारें गुजर गई। किसी ने रुकने की जरूरत नहीं समझी। पर वह पूरे बालों वाली लड़की? क्या पता किस मकसद से बहका कर ले गई सनी को! किसी गिरोह में फँसा गई, तो? यहाँ इंतजार में बैठे-बैठे हमारी कौन-सी गति होगी? अपना देश होता तो किसी की मिन्नत-चिरौरी कर मदद माँग लेते! लेकिन हमें तो शायद इसी ढूह में जज्ब होना है।

अब भूतों का डर नहीं था। भूरे बालों वाली लड़की सुरसा बनकर मुझे लीलने लगी है। मैं बदहवास चीखना चाहती हूँ। कहाँ होगा मेरा सनी?

मेरी हृदयगति बंद हो जाए इससे पहले ही पीछे गाड़ी आ कर रुकी है। अरे! यह तो वही लाल गाड़ी है। राजन उचककर दरवाजा खोल बाहर निकल आया है। कहना चाहती हूँ हड़बड़ी मत करो, थोड़ा रुककर देखो पहले कौन है। पर नहीं कहती। अब कहने न कहने से क्या फर्क पड़ने वाला है। मैं भी गाड़ी के शीशे उतारने लगी हूँ। अब जो होना हो, हो जाए एक बार में ही।

लो देखो! राजन तो इस भूरे वालों वाली लड़की से हाथ मिला रहा है। आवाजें सुनाई पड़ रही हैं…।

नहीं, ज्यादा दूर नहीं था। बस, दस मिनट के रास्ते पर गैस स्टेशन था। लड़की की सधी हुई आवाज मुझे छू रही है। राजन बार-बार आभार प्रकट कर रहा है। उसे घर देर हो रही होगी।

‘ओ नो इट इज आलराइट… बाई… टेक केयर’

‘थैंक्यू… थैक्यू सो मच…’

जीती रहो खुश रहो, जो भी हो जैसी भी हो, ओ देवदूत! हमारे लिए आसमान से उतरा फरिश्ता हो…! मैं दुआएँ दे रही हूँ, पता नहीं किसे मेरे मन की अबोली दुआएँ सुन रहे हैं और मेरी आँखों में पानी का सोता थरथराया है। सनी कैन में लाया पेट्रोल गाड़ी में डाल कर सीट पर बैठ चुका है। मैं उसे छूकर महसूस करना चाहती हूँ। एक गहरी खाई फलाँग कर बेटा सकुशल वापस लौटा है। वह मुस्कराकर मेरे जर्द चेहरे को आश्वस्त-सा कर देता है, “इसे मैं कहता हूँ ई.एस.पी.।”

मैं ई.एस.पी. का अर्थ नहीं जानती, पूछती भी नहीं। वह भूरे बालों वाली लड़की जो डायन नजर आती थी अब ममतामयी बिटिया की जगह ले चुकी है, “इसे अपना पता नहीं दिया?” मैं जाने क्यों पूछ रही हूँ। जाने कौन थी?

सनी ने बेल्ट बाँध ली है। राजन ने भी। गाड़ी स्टार्ट करते वह सौ किलोमीटर की रफ्तार पकड़ने की तैयारी कर रहा है।

“यह लड़की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ती है। वीकएंड में माँ के पास जाकर लौट रही थी। कहने लगी, ‘तुम्हारी गाड़ी में शायद तुम्हारे माता-पिता थे। इसलिए रुक गई। वरना आजकल इतनी रात गए अकेली लड़की का किसी की मदद करने के लिए रुकना भी खतरे से खाली नहीं।’ मैं क्या चेहरे-मोहरे से डाकू मलखान लगता हूँ?” सनी मुझे हँसाना चाहता है। या अपनी भूल के लिए शर्मिंदा है – “ठीक कह रही थी” – राजन सहमति में बोल रहा है। “कोई भली लड़की होगी। नहीं तो क्यों आधी रात में हमारे लिए परेशान हो जाती। कितनी तो कारें गुजरी इस बीच, कोई रुका क्या?”

कह रही थी। एक बार वह अपने बूढ़े माता-पिता को आउटिंग के लिए ‘योसिमिटी’ ले गई थी। लौटते में रात हो गई और बीच राह गाड़ी खराब हो गई। अब बेचारे परेशान कि क्या करें। माता-पिता चल कर कॉल बॉक्स तक जाने न दें, ‘हम भी साथ चलेंगे’ की रट लगाए, पर तभी एक लड़का उधर से गुजरा जिसने अपनी गाड़ी में लिफ्ट दी…।

गाड़ी का क्या हुआ?

पुलिस कार मदद के लिए बुलाई होगी बाद में…।

इस लड़की को घर बुलाना चाहिए था। हमारे साथ खाना खा लेती।

मैंने सच्चे दिल से अपनी संस्कारिता के तहत कह दिया।

कहा था मैंने – पर वह इनकार कर गई, बोली मैंने तुम पर कोई अहसान नहीं किया, अपना फर्ज निभाया है। बदला क्यों चुकाना चाहते हो?

अब गाड़ी बेधड़क आगे बढ़ रही है। मेरे भीतर नए सवाल सुगबुगा रहे हैं। सानी के चेहरे पर नटखट-सी मुस्कराहट है। कुछ कहना चाहता है क्या – शायद मेरे किसी सवाल का जवाब देने का मौका आ गया है। मेरी सभ्यता का अभियान मुझे सहज कहाँ होने देता है?

उसने मुझसे एक वादा लिया, माँ।

वादा? कैसा वादा? लो! लिया न वादा? यों ही मदद करने वाले नहीं हैं, इस देश में। बड़े कैलकुलेटिव लोग हैं यहाँ।

कहाँ, ‘अगर कभी किसी को, देर रात गए रास्ते में मुसीबत में पड़े देखो, तो गाड़ी रोककर उसकी मदद कर देना। यही मेरा इनाम होगा…।’

सनी बात कर रहा है, राजन अभिभूत है। और मेरे जेहन में सहसा ही अज्ञेय की ‘शरणदाता’ और सुदर्शन की ‘हार की जीत’ जैसी कहानियों के पात्र आकार लेने लगे हैं। हालाँकि यहाँ न कोई दंगा फसाद हुआ है और न कोई शरणदाता ही है। यहाँ तो कोई डाकू, घोड़ा या बाबा खड़गसिंह भी नहीं और यह कभी तप और त्याग की रही भूमि अपनी भारतभूमि भी नहीं है, बल्कि यह तो घोर भौतिकवादी अमरीकी धरती है, यहाँ लोग मुड़कर पीछे नहीं देखते और जिनके पास हर गलती को छतरी की तरह ढाँपने के लिए कोई सदियों पुरानी सभ्यता-संस्कृति भी नहीं।

लेकिन सब कुछ ठीक-ठाक होने पर भी मेरे भीतर बेचैनी-सी क्यों उमड़ रही है? यह लड़की अनजाने में ही भीतर कहीं चोट तो नहीं कर गई? बड़ी गुम चोट!

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