“नहीं मैं नहीं आऊँगी।” शैली को अपनी आवाज में भरे आत्मविश्वास पर स्वयं ही यकीन नहीं हो पा रहा था…। और वह खामोश हो गई।

टेलिफोन के दूसरे छोर से आवाज छन छन कर बाहर आ रही थी, “हलो, हलो, फोन बंद मत कीजिए… प्लीज!”

“नहीं, मैं फोन बंद नहीं कर रही… मगर… मैं आऊँगी नहीं – इस दफा आवाज में उतनी सख्ती नहीं थी।

“मगर आप तो… आपने तो वादा किया था… एक बार आने में कोई नुकसान थोड़े ही हो जाएगा आपका…।”

शैली की सोच उसे परेशान करने लगी है। आखिर कब तक ऐसे ही जिंदगी जीती रहेगी। यह जीवन बार बार तो मिलता नहीं। अगला जन्म कहाँ लेगी, कैसी होगी वो जिंदगी।

अगर घनश्याम को कहीं मालूम हो जाए कि वह पुनर्जन्म के बारे में सोच रही है तो उसकी सोच पर भी पहरे बैठा देगा। दुनिया में आज पहरेदारों को सबसे अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। तमाम पहरेदारों को चकमा देकर आज के जवान बच्चे बच्चियाँ अपने आपको बमों से उड़ा रहे हैं। क्यों ऐसे पाप करते हैं ये युवा?

पाप से ही तो डरती है शैली। अगर ऐसा न होता तो वह जीवन में कितने फूल समेट चुकी होती। सुबह चिड़ियों की तरह चहचहाती; उड़ती फिरती; ऊँचे गगन में उड़ान भरती, थक कर उसकी गोद में आ गिरती; जी भर कर प्यार करती। शैली को तो उसके पसीने की महक भी खुशबू लगती।

फोन की घंटी फिर बजी। उसने ऐसे लपक कर उठाया जैसे उसी फोन की तरफ कान लगे थे। “शैली… शैली…!” वह बस उसका नाम लिए जा रहा था। शैली ने मद्धम आवाज में कहा, “हाँ! …”और फिर खामोश हो गई। अपने जज्बात को काबू में करती रही।

“शैली, प्लीज हाँ कह दो। मैं आकर ले जाऊँगा।”

“देखो… आने की कोई समस्या नहीं, पर… मैं ऐसा कर नहीं सकती।”

विधु की आवाज में प्रेम था, अकीदत थी, चाहत थी पर वह यह सब समझने की स्थिति में नहीं थी। डरती थी; घबराती थी। घनश्याम से, दुनिया वालों से और अपने आप से। आज उसने एक बार फिर विधु को मना कर दिया। मगर सोच भी रही है कि वह ऐसा क्यों कर रही है? आखिर विधु की बात मान लेने में हर्ज ही क्या है! वह बेचारा कब तक इंतजार करेगा?

इंतजार तो घनश्याम का करना पड़ता है। सुबह से जो इंतजार शुरू होता है उसका कहीं कोई अंत नहीं होता। उसका पूरा जीवन ही इंतजार कि कड़ियों से जुड़ा है। पहले चाय बना कर फिर नाश्ता लगा कर मेज पर इंतजार करती है कि घनश्याम जी नीचे उतरें तो वह भी अपना पहला चाय का घूँट पी ले।

सुबह होते ही उसे बाथरूम खाली होने की भी प्रतीक्षा करनी होती है। यहाँ लंदन में हर कमरे के साथ अटैच-बाथरूम तो है नहीं। घर में एक ही बाथरूम है जिसमें घनश्याम घुस जाते हैं और बाकी सब को अपनी बारी का इंतजार करना होता है। और फिर सिगरेट के धुएँ भरे बाथरूम में जा कर धुआँ पीना होता है।

सुबह के इस इंतजार की तो आदत पड़ चुकी थी। काटने को दौड़ता था शाम का इंतजार जो रात को ग्यारह बजे से पहले कभी खत्म नहीं हो पाता था। …मगर आजकल कुछ नया महसूस करने लगी है। रात की दुल्हन तारों भरा काला घूँघट उठाती सुबह की रोशनी उसके चेहरे से अठखेलियाँ करती तो वह सिहर जाती। उसे विधु की उँगलियों का स्पर्श महसूस होता।

जब बच्चे छोटे थे घनश्याम खुद तो रात को देर से आता था किंतु आदेश यह था कि बच्चे जागते रहें और उससे मिलने के बाद ही सोएँ। बच्चे भूखे बैठे रहते। उनको भी बचपन ही से इंतजार की आदत डाली जा रही थी। इसीलिए बड़े होते ही चिड़िया के बच्चों की तरह पंख निकलते ही उड़ गए।

बेटा तो अंग्रेज लड़की से ब्याह रचा के आप ही विदा हो गया। अगर कभी माँ बेचैन होकर मिलना चाहती तो गोरी सुनहरे बालों और हरी आँखों वाली पत्नी कहती, “उनसे कहो कि लंच लेकर वे लोग यहीं आ जाएँ तो हम साथ ही खा लेंगे। शैली को यह भी स्वीकार था कि चलो इसी बहाने बहू बेटे दोनों से मुलाकात हो जाएगी। घनश्याम नाक भौं चढ़ाता कि छुट्टी के दिन वह घर में ही रहना चाहता है; आराम करना चाहता है, तुम यह क्या फिजूल का प्रोग्राम बना लेती हो?”

“बच्चों को मिलने जाना फिजूल का काम होता है क्या?”

“शैली, तुम बहस बहुत करती हो…। तुम खुद तो सारे हफ्ते घर में बैठी आराम करती हो, मैं सारे हफ्ते मजदूरी करता हूँ। क्या एक दिन आराम करने का भी हक नहीं मुझे?”

शैली इस बात को बार बार सोचती है और अपने आप में ही मुस्कुरा लेती है। मर्सिडीज में बैठ कर मजदूरी करने वाले की मानसिकता समझने का प्रयास करती है।

अपने कोमल लंबे लंबे नाखूनों वाले हाथों को अक्सर हसरत से देखा करती थी शैली। एक बार एक संगतराश ने उसकी खूबसूरत उँगलियों को देख कर कहा था, “अपने हाथों का बीमा करवा लीजिए आप। वैसे अगर कुछ समय के लिए अपने हाथ मुझे दे दें तो मैं इन हाथों को पत्थरों में तराश दूँ।” ऐसी बातों पर झेंप जाया करती थी। आज वही हाथ पानी में धुल धुल कर खुरदरे और सख्त हो गए थे…। वेसलीन हैंड क्रीम भी हारने लगी थी। …भारत में तो वह सीधी सादी पॉमोलिव की हरे रंग की वैसलीन लगाया करती थी या फिर मलाई में ग्लिसरीन मिला कर।

यहाँ के दूध पर तो मलाई ही नहीं आती। दूध को उबाला ही नहीं जाता। उबाल आता जरूर है मगर उसकी तकदीर में। फिर भी वह लक्ष्मण रेखा को तोड़ नहीं पाती। क्या सीता ने लक्ष्मण रेखा को जान-बूझ कर तोड़ा होगा? क्या उसके हाथ की रेखाओं को भी राम ने घनश्याम की ही तरह मिटा दिया था?

रोशनी की एक हल्की सी लकीर जरूर दिखाई दी है… विधु! मगर उसकी उपस्थिति ने भी खौफ और दहश्त अधिक पैदा किए हैं। लंदन आने के बाद अभी शैली ने ड्राइविंग लायसेंस भी नहीं लिया था और घनश्याम ने आदेश सुना दिया था, “अब आपको ड्राइव करना होगा! बच्चों को स्कूल ले जाना होगा।”

“मगर मेरे पास तो लायसेंस ही नहीं है।” शैली की घबराहट माथे से बहने लगी थी।

“इंटरनेशनल लायसेंस का मतलब समझती हैं आप? एक हजार रुपये दिए थे एजेंट को। तब जा कर कहीं बना था।” घनश्याम की कड़कड़ाहट गरजी।

“मगर… कार कहाँ है?”

“जाइए, नीचे जा कर देखिए।”

“आप यहीं बता दीजिए न।”

“अरे कहा न, नीचे जा कर देखिए।”

दिन भर की थकी शैली खुश थी कि आज घनश्याम दफ्तर से कुछ जल्दी वापिस आ गया था। किंतु पति के पास प्यार के दो मीठे शब्द भला कहाँ थे। आदेश… बस आदेश! शैली नीचे चल पड़ी। …घर के दरवाजे के बाहर एक सेकंड हैंड फोर्ड एस्कॉर्ट खड़ी थी – सुनहरी रंग की कार! शैली को घनश्याम का सरप्राइज बिल्कुल पसंद नहीं आया। कार देख कर खुशी तो क्या होनी थी बस दिल बैठने सा लगा। भारत में एक बड़ी सी कार थी मर्सिडीज और एक ड्राइवर भी था। यहाँ यह खचड़ा सी कार उसे खुद चलानी होगी।

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ठीक है कि यहाँ लंदन में सब लोग अपना काम स्वयं ही करते हैं। मगर ऐसी कार! उधर घनश्याम लगभग भौंचक सा खड़ा था। उसे आशा थी कि शैली इस सरप्राइज को देख कर तारीफ करेगी; खुश होगी। शैली के सहज जवाब ने उसे हैरान ही कर दिया, “मैंने आपसे कार की फरमाइश कब की थी?”

“अरे हर चीज की फरमाइश नहीं की जाती, मिसेज मेहरा! …इस मुल्क में टीवी, फ्रिज, कार, रेडियो वगैरह सब जरूरत की चीजें हैं। यहाँ इन्हें लग्जरी नहीं मानते। कार के बिना क्या मेरे बच्चों को पैदल घसीटेंगी आप? घर का सौदा सुल्फ क्या पैदल जा कर लाएँगी? और फिर मुझे सुबह शाम ट्यूब स्टेशन लाए ले जाएगा कौन?” घनश्याम जब जब गुस्सा होता तो शैली को मिसेज मेहरा कह कर बुलाता और तुम से आप पर उतर आता।

कौन का सवाल खूब था। इस कार ने शैली के जीवन में गर्माहट लाने के स्थान पर सर्दी की कड़कड़ाहट उसकी हड्डियों में भर दी थी। हाँ वो जनवरी की एक रात थी। शैली ट्यूब-स्टेशन के बाहर खड़ी अपने घन की प्रतीक्षा कर रही थी। बर्फीली रात के साढ़े ग्यारह बजे का सन्नाटा और सफेदी मिल कर कुछ ऐसा माहौल बना रहे थे कि शैली को लग रहा था जैसे कि चारों ओर सफेद भूत चल रहे हैं। बर्फीली रुई के फाहे उसकी कार की विंडस्क्रीन से टकराते। वह घबरा कर वाइपर चला देती। वाइपर फौजी जवान की तरह लेफ्ट राइट करने लगते; बस ऑर्डर मिलने की देर होती।

वाइपरों को देख कर शैली एक गहरी सोच में डूब जाती है। आदेश मिलते ही जो वाइपर लेफ्ट-राइट करने लगते हैं और बिना साँस लिए अर्ध-चक्कर में फँस जाते हैं; जब उनका रबर घिस जाता है तो उन्हें निकाल कर फैंक दिया जाता है। शैली का जीवन भला इससे अलग कहाँ है। उसकी सुबह भी अधूरी सी होती और शाम के ऊपर से होती हुई रात – जैसे कि बिन बुलाया मेहमान। वाइपर सा अर्धचक्र!

साढ़े ग्यारह बजे वाली सफेद रात में डर जरा अधिक ही समाया होता है। ऐसे में आहिस्ता आहिस्ता गाड़ी स्टेशन में दाखिल हुई। गाड़ी की खिड़कियों में से रोशनी बाहर झाँकती दिखाई देती और हर रोशनी के बीच से एक गोला सा नजर आता क्योंकि यात्रियों के कंधे ट्रेन की दीवार की ओट में होते। हाँ! कुछ लंबे तड़ंगे इनसानों के गोल सिर ऊपर को होते तो वे बेसर के भूत से बन जाते। शैली सड़क पर कार के भीतर से ही उन रोशनी के गोलों में से घनश्याम का सिर ढूँढ़ने की चेष्ठा करती रही। प्रतीक्षा बस प्रतीक्षा ही बनी रही।

वक्त की सुइयाँ आगे बढ़ती जा रही थीं। सफेद रात के साये और भयानक बनते जा रहे थे। एक चिंता यह कि घनश्याम आए क्यों नहीं। और दूसरी चिंता कि बच्चे अकेले डर रहे होंगे। घनश्याम ने अपनी मर्सीडीज में तो टेलिफोन भी लगवाया हुआ है। भला इस सेकंड हैंड कार में कौन फोन फिट करवाएगा। …आज तो शैली ने सर्दी और बर्फ के मारे कार बंद भी नहीं की। बस पेट्रोल फुंकता रहा।

चिंता में भी शैली की सोच रुक नहीं पा रही है। कार में बैठे हुए भी उसे लगता है कि वह डरी-डरी दीवार का सहारा लिए खड़ी है। उसके भाग्य में यही बदा था। घनश्याम स्वयं भी तो एक मोटी ताजी दीवार ही है। रात को घर आकर बच्चों को जागते देख एक विजयी सी मुस्कान बिखेरता है। चुप बैठा खाना खा लेता है। किसी बच्चे से कोई बात नहीं। बस टीवी के सामने बैठा बैठा अपने गले से बेसुरे राग निकालने लगता है। उन बेसुरी तानों से घबरा कर बच्चे एक एक करके अपने कमरों की तरफ खिसक लेते हैं।

अब शैली करे तो क्या? वैसे उसे विश्वास है कि उसकी नौ साल वाली बड़ी बिटिया बच्चों का ख्याल रख रही होगी। हालात को देखते हुए वह बच्चों की माँ नंबर दो बन गई है। अपने छोटे भाई व बहन को समझाती और अम्मा को परेशान करने और शरारत करने से रोकती। …लगता जैसे बच्चे भी बचपन ही में बड़े हो गए थे। शैली तय नहीं कर पाती थी कि इस अप्राकृतिक प्रक्रिया पर हँसे या रोए…। मगर उसका अपना रोना या हँसना भी कहाँ उसके अपने वश में थे – उनका नियंत्रण भी तो घनश्याम के हाथ में था।

शैली बेजान दीवार का सहारा लेते हुए सँभल सँभल कर फिसलती हुई, मजबूती से जमीन पर पैर जमाती हुई दरवाजे तक पहुँची और बर्फ से ठंडे हाथों से चाबी को की-होल तल ले जाने का प्रयास करने लगी। निशाना चूक चूक जाता। चाबी दरवाजे से बार बार टकराई तो कौन? कौन? करते घनश्याम ने दरवाजा खोला…। घनश्याम के ठंडे व्यवहार के मुकाबले चारों ओर फैली बर्फ की ठंडक में गर्माहट महसूस होने लगी, “अरे आप घर पहुँच गए…! कैसे?”

“यह क्या बेहूदा सवाल है? …क्या घर नहीं आता?”

“मगर आपने तो मुझे आखरी स्टेशन पर आने को कहा था।”

“अरे भई, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा अगर मैं जल्दी घर पहुँच गया?”

“… मैं तो वहाँ डेढ़ घंटा खड़ी रही। आपकी प्रतीक्षा करती रही!”

“ऐसी क्या मुसीबत आ गई। गरम कार में ही तो बैठी थीं न?”

बरफानी रात में भी शैली के कान जलने लगे। उसके गुस्से की गरमी भी उसके भीतर की बर्फ को पिघला न सकी…। बदन के काँपने में सर्दी, डर और गुस्सा… तीनों शामिल थे। जल्दी से गैस के चारों बर्नर जला दिए। खाने की तैयारी में जुट गई। रात के साढ़े बारह बजे गरम खाना डाइनिंग टेबल पर लगाया। लगभग दौड़ते हुए बच्चों को बुलाने गई। तीनों एक ही पलंग पर आड़े तिरछे एक दूसरे पर हाथ रखे हुए गहरी नींद में सो रहे थे। एक दूसरे के ऊपर हाथ रख कर तसल्ली देते हुए बच्चे कि “डरो नहीं हम जो हैं।” शैली खड़ी उन्हें देखती रही और धीरे धीरे उन पर रजाई ओढ़ाने लगी।

“अरे भाई क्या अब मेज भी मुझी को साफ करनी पड़ेगी? बच्चों को लेकर आओ और किचन क्लीयर करो!” नीचे से घनश्याम की ऊँची आवाज ने उसे दहला दिया।

शैली केवल सोच सकती थी बोलने की अनुमति उसे बिल्कुल नहीं थी। घनश्याम की महफिल में होंठ सिले रखने का आदेश था। शैली ने डरते डरते ही सोचने का दुस्साहस कर लिया – क्या बात कही है घनश्याम जी ने! क्या मेज भी मैं ही साफ करूँ? यानि खाना खाने की तकलीफ तो मैंने उठा ली अब क्या मेज भी…!

“मेरे बच्चे भूखे ही सो गए। …बस इसीलिए… “शैली की रुँआसी आवाज वाक्य पूरा नहीं कर पाई।

“क्या बच्चे अपने मायके से लाईं थीं आप? …ये मेरे कुछ नहीं लगते? …कम से कम बेटियाँ तो पक्के तौर पर मेरी हैं…। बेटे के बारे में… अब क्या कहूँ?”

“क्या कह रहे हैं? …इतनी गिरी बात…!”

“एक बात आप अच्छी तरह समझ लीजिए… तुम्हारा बेटा… बदतमीज… मुझे फूटी आँख नहीं भाता। उसमें मुझे अपने जैसी कोई बात नहीं दिखाई देती…। एकदम… ‘ईविल’ लगता है।

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“‘ईविल’! अपनी ही औलाद को आप ऐसा कैसे कह सकते हैं।”

“यार अब तुम हर वक्त बहस मत किया करो। सारे दिन का थका हारा वापिस आता हूँ… और यहाँ भी चैन नहीं। …सुनो… चाय ला देना टीवी वाले कमरे में।”

जब तक शैली चाय बना कर ले जा पाती, घनश्याम ऊँची आवाज में टीवी देखता उसके साथ अपने खर्राटों का मुकाबला शुरू कर देता। शैली बस इसी उहापोह में रह जाती कि क्या उसे चाय लाने में देरी हो गई। एक निगाह उस मांस के खड़खड़ाते लोथड़े पर डालती है… रहम आ जाता है… कितना थक गया है… चलो जूते उतार देती हूँ…

“ऊँ…हूँ… क्या करती हो, भई! सोने दो।”

वापिस किचन। सफाई शुरू कर देती है। जब बिजली बंद करके निकलने लगती है तो याद आता है कि उसने स्वयं तो खाना खाया ही नहीं। घनश्याम के साथ खाने के चक्कर में वह स्वयं तो भूखी ही रह गई।

भूखी तो वह अधिकतर रह जाती है। …उसकी तो कोई भूख शांत नहीं हो पाती। …सोचती है… आखिर घनश्याम इतना तृप्त और संतुष्ट कैसे रह लेता है? …दोनों की उमर में अंतर भी तो कितना है। अगर कुछ एक साल और बड़ा होता तो उसका पिता हो सकता था…। सोचते ही काँप सी गई …ऐसा ख्याल भी उसके दिल में कैसे आया? …अपने ही पति को अपना पिता…!

किचन का दरवाजा आहिस्ता से बंद किया, कहीं घनश्याम जाग न जाए… अकेली हर सीढ़ी पर दबा दबा कर पैर रखती हुई ऊपर पहुँच कर हसरत भरी निगाह से उस कमरे की तरफ देखती है जिसे घनश्याम और शैली का बेडरूम कहा जाता है। बच्चों के कमरे में पहुँच जाती है। खाली पलंग उसका इंतजार कर रहा है… मुँह चिढ़ा रहा है… आखिर वह है क्या? कुछ ऐसे ही सवाल उसे परेशान किए रहते हैं… और उसकी थकान उसकी आँखों को अंततः बंद होने को मजबूर कर देती है।

बच्चे भी बहुत बार यह सवाल कर बैठते हैं, “अम्मा, आप अपने कमरे में क्यों नहीं सोती हैं?”

“मुझे अकेला कमरा अच्छा नहीं लगता बेटा।”

“तो पापा से कहिए न कि वे ऊपर आ कर सोया करें।”

“वो… नहीं आते बेटा।”

“क्यों?” बेटा पूछ लेता है।

“मुझे नहीं मालूम बेटा…!” झूठ बोले या सच? तय नहीं कर सकती।

आज तक समझ नहीं पाई है कि आखिर उसमें कमी क्या है…। चौबीस घंटे बांदी की तरह काम करती है… और यह इनसान कहता है कि बेटा न जाने कहाँ से ले आई हो!… उसे ‘ईविल’ कहता है! शैतान तो खुद है। काश! …वह ऐसा कुछ कर पाती… अभी भी क्या कमी है उसमें? अभी भी लोग मुड़ कर देखते हैं… आँखों ही आँखों में अपनी बात कह जाते हैं… उनके आसपास के लोग इस बात से परिचित हैं कि उसकी रातें सिसकती, बिलखती अकेली हैं।

घनश्याम को घमंड है कि वह पैसा कमाता है। ठीक है कि दफ्तर जाता है काम करता है। मगर दफ्तर में उसके नीचे काम करने वाली दो दो सेक्रेटेरी हैं – एक काली है और दूसरी गोरी स्कॉटिश। दफ्तर का सारा काम वह अकेला तो नहीं ही करता। फिर इतना थकने का नाटक क्यों करता है। उसके लिए तो घर पर कोई नौकरानी नहीं है। वह तो अकेली ही बच्चों को बड़ा कर रही है। सारा महत्व घनश्याम खुद क्यों ले लेता है। कौन अधिक महत्वपूर्ण है? वह जो पैसा कमा कर लाता है या वह जो उसकी दूसरी पीढ़ी को संस्कार दे रही है; उसके घर को सँभाल संवार रही है? आज शैली ने सोचने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली है। क्या वह घर की नौकरानी भर है, बस? …अचानक घबरा जाती है। नहीं… उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। अगर उसकी सोच की भनक घनश्याम को मिल गई तो? …उसके शरीर ने झुरझुरी ली…!

बस सिर को एक हल्का सा झटका उसके सभी विचारों को बाहर फेंकने में सक्षम हो जाता है। एक बार फिर घर की दौड़ भाग में लग गई। किंतु आज उसके विचार उसे चैन नहीं लेने दे रहे – बस आंदोलित किए जा रहे हैं। उसे एक कटघरे में खड़ा कर रहे थे – जवाब माँग रहे थे। “…तुम घनश्याम से इतनी डरती क्यों हो?” इस सवाल का जवाब नहीं खोज पा रही थी।

फिर सोचती है, “शायद मैं आलसी हूँ…। हाँ मैं हूँ आलसी! ऐशो आराम की आदी हो गई हूँ। माँ बाप ने जैसे एक मखमल के डिब्बे में सँभाल कर रखा। यहाँ भी कालीनों पर चलने की आदत पड़ गई है। यहाँ इस देश में तो बाथरूम में भी कालीन बिछा रहता है। …क्या सच में घनश्याम ने उसके लिए कुछ ऐसा किया है जिसके लिए वह उसकी जीवन भर अहसानमंद रहे? यह सब तो ब्रिटेन में सभी के घरों में है। फिर भी इसे लेकर घनश्याम ताने मारता रहता है। पहले तो बंदिनी बना कर ले आया… अब तीर और ताने…!

मर्दों के बारे में सोच कर ही वितृष्णा सी होने लगती। उसे हर मर्द स्वार्थी, आत्म-केंद्रित, तंग नजर और बेगैरत लगने लगा है। बेचारी इससे आगे गालियाँ सोच ही नहीं पाती।

लगता है कि शायद स्वयं ही कमजोर है वो। वर्ना क्यों पागलों की तरह लगी हुई है काम करने में? …किंतु काम तो बच्चों का करती है… तो फिर…?

उसने तो सारा जीवन ही घनश्याम की इच्छाओं पर होम कर दिया। बिना बाँहों का ब्लाउज नहीं पहना; पूरे शरीर को इस तरह ढक कर रखा जैसे कि बुर्का पहन रखा हो। घुटनों तक लंबे उसके बाल… लोग दूर से देख कर भी निहारा करते थे। किंतु घनश्याम का कहना था कि देहाती लगते हैं। बस कंधे तक कटवा दिए। …उस दिन माँ की बहुत याद आई थी। बचपन में उसके बालों में नारियल का तेल लगाया करती थी। और रात को एक चोटी कस कर बाँध कर सोने देती थीं कि बाल रात को ही बढ़ते हैं। सुबह उठ कर दो चोटियाँ बंध जाती थीं। दोनों कंधों से लटकतीं, रंग बिरंगे रिबन वाली चोटियाँ लिए इतराती घूमती शैली।

उसके बालों की तारीफ घनश्याम के सभी दोस्त करते थे। शायद इसीलिए घनश्याम को लंबे बाल गँवारपन की निशानी लगते थे। आज जब पीछे मुड़ कर सोचती है तो समझ आता है कि घनश्याम के दोस्त उससे सीधे सीधे फ्लर्ट भी करते थे। सभी को मालूम था कि घनश्याम रात को देर देर तक अपने दफ्तर में अपनी सेक्रेटरी के साथ रहता है और घर में जवान बीवी आँसू बहाती रहती है।

आज शैली को बार बार मायका याद आ रहा है। बालों के बाद याद आया वो दर्जी – जो घर में ही नाप लेकर कपड़े सिला करता था। मासूम शैली उस दर्जी को बहुत ध्यान से कपड़ा काटते और पैरों से चलने वाली सिलाई मशीन से सिलते देखती थी। सवाल पूछती। उतने ही ध्यान से मास्टर जी के जवाब सुनती। बस इसी तरह देखते देखते ही वह कपड़े सीने भी सीख गई। मगर यहाँ लंदन शहर में भला कौन कपड़े सिलता है? हर कोई सिले सिलाए कपड़े डिपार्टमेंट स्टोर से खरीद लेता है। बच्चे, घनश्याम, शैली स्वयं सभी सिले सिलाए कपड़े खरीद लेते हैं। भारत वापिस जाती है तो ब्लाउज वहीं से सिलवा लाती है।

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शैली को खाना बनाने, परोसने और खिलाने में विशेष आनंद की अनुभूति होती है। शायद इसीलिए उसे शनिवार और रविवार का इंतजार भी रहता था। मेज पर उसका छोटा सा परिवार जब भोजन के लिए बैठता वह सबके लिए गरमा गरम फूले हुए फुलके बना कर परोसती। भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी लड़की… संस्कारों को समझती… मगर घनश्याम को घर की लक्ष्मी के अर्थ नहीं मालूम थे। उसकी लक्ष्मी हमेशा उसके पर्स में और जेब में दबी रहती। शैली को आज तक नहीं मालूम कि उसके पति की पगार कितनी थी; बोनस कितना मिलता था; और किन किन बैंकों में किस किस करंसी में उसके अकाउंट हैं।

दरअसल आज उसे महसूस हो रहा है कि वह घर की मालकिन नहीं बल्कि एक खरीदी हुई बांदी की जिंदगी जीती रही है। बच्चों को घुड़सवारी, प्यानो, कराटे, होमवर्क सब करवाती रही है। घनश्याम के कपड़े निकाल कर मैचिंग टाई, मोजे, कफ-लिंक, रूमाल निकालना। और फिर जूते पॉलिश करना।

बचपन में उसके अपने जूते, भाइयों के जूते रामलाल बाबा पॉलिश किया करते थे। वे फौज से रिटायर हवलदार थे। चौकीदारी करते थे। घरके सभी लोगों के जूते फौजी स्तर पर चमकते थे। रामलाल बाबा द्वारा पॉलिश किए चमकते जूतों में शैली अपना मुँह देख देख कर हँसा करती। और बाबा को गर्व होता कि फौज छोड़ने के बाद भी वे जूते फौजी ढंग से ही पॉलिश करते थे। शैली घनश्याम के जूते पॉलिश करने के बाद उनमें अपना चेहरा देखने का यत्न करती। मगर आज चेहरा धुँधला दिखाई देता है!

फौज में तो विधु भी था। क्या वह भी अपने जूते ऐसे ही पॉलिश करता होगा। विधु का ख्याल भर ही जूते पॉलिश करने जैसी नौकराना गतिविध में भी रोमांस का पुट भर देता है। ऐसा क्यों हो रहा है? …वह तो विधु को बहुत बार कह भी चुकी है कि उसके मन में वैसा कुछ भी नहीं है जो विधु सोच रहा है। क्या वह झूठ कहती है कि वह एक पतिव्रता पत्नी और जिम्मेदार माँ है? विधु के बारे में सोचने भर से वह क्यों खिल उठती है। घनश्याम तक पूछने से बाज नहीं आते, “आप आजकल मंद मंद मुस्कुराती क्यों रहती हैं?” …क्या उसकी सोच में परिवर्तन आ रहा है? …क्या वह झूठ बोलने लगी है? …सोचती कुछ है और करती कुछ है!”

दो दिन से विधु ने फोन भी नहीं किया। कहीं घनश्याम ने कुछ कह तो नहीं दिया? …फोन पर बदतमीजी करना जैसे घनश्याम का जन्मसिद्ध अधिकार है…। टेलिफोन घनश्याम के नाम में है… घर का मालिक भी वही है… यह उसके मूड पर निर्भर है कि शैली की बात उसके किसी जानने वाले से करवाए या नहीं।

विधु कितना अलग किस्म का इनसान है? कितनी तारीफ करता है इस मुल्क की “शैली जी मुझे किसी ने इस देश में आने के लिए जबरदस्ती तो की नहीं। अपनी मर्जी से आया, कमाया खाया, और अपने घर वालों को पैसे भेजे। हमारे लोग यहाँ की सोशल सिक्योरिटी का पूरा फायदा उठाते हैं; अपने बच्चों को मुफ्त की पढ़ाई करवाते हैं; एन.एच.एस. में मुफ्त का इलाज करवाते हैं मगर अपना मुल्क उसे बताते हैं जिसे छोड़ आए हैं।” घनश्याम भी तो यही करता है। बस हिंदुस्तानी या फिर पाकिस्तानी चैनल देखता रहता है। क्रिकेट से लेकर मौसम तक ब्रिटेन की बुराइयाँ करता रहता है। एक तरफ घनश्याम – नकारात्मकता की पराकाष्ठा और दूसरी ओर विधु – सकारात्मकता की ठंडी बयार।

किसी का किसी से मुकाबला करना बुरी आदत है। फिर विधु और घनश्याम में तो किसी भी प्रकार का मुकाबला नहीं किया जा सकता…। घबरा गई है शैली… आज यह बार बार विधु क्यों चला आ रहा है उसकी सोच के दायरे में।

फोन की घंटी बजी है। शैली दौड़ कर फोन उठा लेती है। “हलो… हलो… हलो…!” सुनाई देते हुए भी उसे आवाज सुनाई नहीं दे रही। वह घबरा रही है…। विधु का नाम सोचा और फोन की घंटी बज उठी। भला ऐसा कैसे हो गया। उसकी उधेड़बुन से बेखबर फोन टूँ ऊँ…ऊँ… करने लगा। और अंततः बंद हो गया। …क्या उसे फोन कर लेना चाहिए…?

अगर अब फोन आया तो वह संयम से बात करेगी… आराम से हेलो करेगी… हालचाल पूछेगी… फिर हर उस बात का जवाब देगी जो वह पूछेगा… विधु तो शैली की हर बात बहुत ध्यान से सुनता है। कई बार तो वह इतनी खामोशी से बातें सुनता है कि शैली को लगता है जैसे वह सुन ही नहीं रहा… किंतु महीनों बाद वह शैली की बात शब्दशः दोहरा देता है।

“अरे तुमने मेरी पूरी बात सुन ली थी।” शैली आश्चर्य से पूछती।

“आपकी बात मेरे लिए देववाणी से कम नहीं होती… यह भला कैसे हो सकता है कि कोई देववाणी को न सुने?” शैली सोचने लगती है कि क्या वह कभी भी ऐसी बातें कर सकती है? उसने तो जीवन में जब भी मुँह खोला, यही सुनाई दिया, “तुम चुप रहो जी, तुम्हें क्या मालूम!” और वह घबरा कर चुप हो जाती और जल्दी जल्दी अपने चारों ओर देखती कि जब उसे मूढ़ घोषित किया जा रहा था तो किसी ने सुन तो नहीं लिया!

शैली के मोबाइल फोन की घंटी फिर से चहचहाने लगी… उसने अपने मोबाइल की टोन चिड़ियों की चहचहाट और झरने के शीतल और पुर-सुकून संगीत के साथ बना रखी थी। उस संगीत को सुनते हुए उसे महसूस होने लगा कि यह आवाज उसे उस झरने के पास ले जा रही है जो पहाड़ी से निकल कर धरती की ओर बढ़ रहा है… प्रेम उसके अंग अंग में है। ऊपर से शोर मचाता हुआ चलता है नीचे आते आते ज्यादा उज्जवल और सुरीला हो जाता है। फिर धरती की गोद में समा जाता है। दोनों एक हो जाते हैं… पास पड़े पत्थर इस मिलन पर मुस्कुराते हैं क्योंकि जाते जाते झरना उन पत्थरों को भी छूता, सहलाता, नहलाता पवित्र करता हुआ प्रेमिका की आगोश में खो जाता है…। खो जाने को जी तो चाहता है उसका भी …मगर कैसे?

फोन शायद अपनी चुप्पी से परेशान हो कर एक बार फिर चहचहाने लगा… उसने लपक कर उठा लिया… फोन को कान से चिपका लिया ताकि आवाज किसी और तक पहुँच न पाएँ… फोन को पकड़े पकड़े टहलने लगी… साँस रुकी सी जा रही थी… ध्यान से सुन रही थी शायद जो कुछ भी कहा जा रहा था… बिल्कुल खो गई केवल इतना बोल पाई… “मगर विधु…!”

फिर खामोश टहलने लगी…चेहरे पर एक खास चमक थी… आँखों में जिंदगी जी रही थी… शैली बस हूँ… हाँ… अच्छा… अच्छा… कहे जा रही थी, “नहीं, विधु… जिद न करो…!” फोन रख दिया।

सोफे पर बैठ गई शैली। मन में हलचल… जाए या नहीं… जाए… नहीं नहीं… क्या यह ठीक होगा? उसे बस एक कदम ही तो आगे बढ़ाना है, और एक नई दुनिया उसकी प्रतीक्षा कर रही है।

एक झटके से उसने अपना हैंड-बैग उठाया… दरवाजे की तरफ बढ़ी और बाहर निकल गई। दरवाजा बंद होने की आवाज आई और गुम हो गई।

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