बापू और फागूराम | प्रेमशंकर मिश्र
बापू और फागूराम | प्रेमशंकर मिश्र

बापू और फागूराम | प्रेमशंकर मिश्र

बापू और फागूराम | प्रेमशंकर मिश्र

अधमरी प्रभात-फेरियों
खोखले नारों
और
खोलकर
हवा भरोसे छोड़ दिए गए
सरकारी तिरंगे की नीचे
अभी-अभी
मकड़जालों से मुक्‍त हुई
तुम्‍हारी तस्‍वीर
पहले
रेशमी खद्दर से ढँकी जाएगी
फिर
कोई भारी भरकम तलबधारी
उसका अनावरण करेगा
अन्‍य सालों की भाँति
इस साल भी
नए मॉडल का
एक और कामचलाऊ गांधी गढ़ेगा।|
”रघुपति राघव राजा राम” बुदबुदाते हुए
तुम्‍हारे ‘वैष्‍णव जन’
आज
”पराई पीर” हरेंगे।
जितनी कुछ
बची खुची
तुम्‍हारी सीख याद है
इन्‍हीं चंद घंटों में
घड़ी देखकर
वाजिब-वाजिब

सब कुछ करेंगे।

बापू!
तुने समझा
ऐसा क्‍यों है?
जी हाँ
बस इसी युक्ति की बदौलता
वे और उनका यह देश
आज इतने वर्षों से
उसके लिए सुरक्षित
और हमारे लिए ज्‍यों का त्‍यों है।

तुम्‍हारे जाते ही
सबसे पहले
”आराम हराम” हो गया
रातों रात
मैं फगुआ भंगी
बिना कुछ जाने समझे
फागूराम हो गया।
तब मैं भी जवान था
हरी भरी धरती
और खुला आसमान था।
धीरे-धीरे
आती गई समझदारी
बढ़ती गई चिमनियाँ
मिटती गई जमींदारी।
खेत खलिहान
खलिहान बने कारखाने
तुम्‍हारी टोपी और कुर्ता पहने बहुत सारे कौए
गेट पर लगे कमाने खाने।

See also  चाँद की तरह | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

तुम जाकर शहर-शहर करते थे सभाएँ
तुम्‍हारी लीक पकड़कर

अब तो सारे गाँव
खुद सभा बन गए हैं।
कांच के टूटे-टूटे टुकड़े
अपने-अपने क्षितिजों की
अलग-अलग प्रभा बन गए हैं।

तुम्‍हारे चित्र का कैनवास
बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया है
कि ढँक उठा है सारा हिंदुस्‍तान
कैलेंडर से
हाथों हाथ बिकती है बीड़ी दियासलाई
और
गांधी प्रतिष्‍ठान की छाया में
सुरक्षित सोते हैं
बखिया और मस्‍तान।
बापू!
मैं तुम्‍हारा
फागूराम
आज भी उधेड़ता हूँ
कभी सूखी ह‍ड्डी से हरा
कभी हरी हड्डी से सूखा चाम।

See also  तुम्हारा पता | अंकिता रासुरी

इस महज्‍जर से
मुझे क्‍या लेना देना?
पर
मुझे याद है
पचास साल पहले
तुमने एक दिन
मेरी झुग्‍गी में देखा था एक सपना
लगा था
कुछ ही दिनों में
कोट, कचहरी, पुलिस, जमादार
यह गाँव यह शहर

सब हो जाएगा अपना।
पर बिटिया के आते-आते
घर की माता मम्‍मी हो गई
अपनी दुधबहिना बोली
अपने भैया के लिए निकम्‍मी हो गई।
पता नहीं कैसे बात बढ़ गई
चारों दिशाएँ आपस में लड़ गईं
वैसे तो उपज इतनी बढ़ी कि
गोदाम सड़ने लगे
लेकिन
स्‍तर बनाये रखने के लिए
भूख के साथ
सरकारी भाव बढ़ने लगे
शासन से भीड़ गया अनुशासन
न रातिब रहा रातिब
न राशन रहा राशन।

अभी पिछले साल की ही तो बात है
लँगोटी लगाए
तुम्‍हारा यह फागूराम
उस दिन भी राजघाट पर खड़ा था
सच कहता हूँ बापू!
उस दिन मैं
पाँचों पांडवों से कहीं बड़ा था।
तुम्‍हारा नाम लेकर
लोग रोते थे गाते थे
अपनी-अपनी झंडी पताका
हल, बैल, झुग्‍गी, झोपड़ी
एक-एक कर यमना में डुबाते थे
जनता-जनता चिल्‍लाते थे
सौ-सौ कसमें खाते थे
मुझे लगा तुम्‍हारे बिना आज भी
इतना जीना मुहाल है।

See also  तुम खुश तो हो न ? | विमल चंद्र पांडेय

अब ये नए सिरे से चेतेंगे
अलग-अलग
अपने को अब कभी नहीं सटेंगे।
पर
सब गुड़ गोबर हो गया
कुर्सी मिलते ही ड्रामा ओवर हो गया।
बापू!
मैं तुम्‍हारा अपढ़, गँवार फागूराम
एधेड़ता हूँ रातों दिन
कभी सूखी कभी हरा-हरा चाम
पर इन चेलों की तरह
कतई नहीं हूँ नमकहराम
यदि इस माटी की हरियाली
तुम्‍हें सचमुच है पसंद
तो आज से
इन बहुरूपियों के बीच
आना करो बंद।
बापू!
राम-राम
मैं
तुम्‍हारा फागूराम।

Leave a comment

Leave a Reply