घनी हरियाली थी, जहाँ उसके बचपन का गाँव था। साल, शीशम, आम, कटहल और महुए के पेड़। ये बड़े-बड़े पेड। पेड़ के नीचे खड़े हो कर एकदम ऊपर देखो तो सूरज न दिखाई दे। चारों तरफ धान के खेत, छोटे-बड़े पोखर और कुछ दूर इच्छा नदी। लकड़ी-मिट्टी-घास-गोबर के मकान और केले के पेड़, लौकी-कद्दू की बेलें और बैगन-टमाटर की बाड़ी। हाथ-हाथ भर के काले बिच्छू और चार-चार गज के जहरीले साँप। पोखर में कूदती-फाँदती मछलियाँ और चूल्हे पर चढ़ी काली हाँड़ी में खदबदाता भात।

अगर सुख का मतलब पेट-भर भात और आँख-भर नींद ही होता है तो वह एक सुखी बचपन ही रहा होगा। था ही। पेट-भर भात और आँख-भर नींद से ज्यादा भी कुछ चाहिए होता है क्या?

परिंदे सुखी होते हैं, लेकिन वे भी लड़ते हैं पेड़ की एक शाखा विशेष के लिए… मादा विशेष के लिए… वहाँ भी लड़ाइयाँ थीं। कई साल पहले लिए कुछ रुपयों की खातिर मर्द लड़ते… बच्चों को ले कर, घर के सामने कचरा फेंकने से ले कर बेटा-बहू पर टोना करने तक के अबूझ आविष्कृत कारणों पर औरतें, और मरद पर काबू रखने या उससे पिटने के लिए पत्नियाँ अपने पतियों से लड़तीं। लेकिन लड़ाइयाँ ठंडी, कसैली, एकरस, हूहू रातों में आत्मा को, जीवन को जगाए रखने के लिए ज्यादा होती थीं। लड़ कर भी कोई पराया नहीं होता था। कितनी ही लड़ाई के बावजूद किसी पर किसी का अधिकार खत्म नहीं होता था। छोटे-छोटे खेल थे। खेल के साधन थे पत्थर, मिट्टी, घास, पत्तों, चिड़ियाओं के पंख, फलों के बीज… लकड़ी के अटपटे खिलौने… क्या खजाना था जिसे छाती से लगा कर रखा जाता था। खेल माने शर्त बद कर नदी पार करना… किसी का बछड़ा खोल देना… किसी का कटहल चुरा लेना… किसी को कीचड़ में धक्का दे देना… खिल-खिल… खिल-खिल…

कहानियाँ थीं। उनमें भूत-प्रेत-चुड़ैल-डाकन, पंखों वाले साँप, परियाँ और राजा-रानी बहुत पास थे… बीस किलोमीटर दूर आबाद जिला मुख्यालय सुंदरगढ़ बहुत दूर था। उसका मानो अस्तित्व ही नहीं था। अस्तित्व को मानो उसकी आवश्यकता ही नहीं थी।

फिर देखते-ही-देखते सब कुछ बदल गया। टोप पहने कुछ लोग जीप और ट्रक में बैठ कर आए और जगह-जगह तंबू लगा कर रहने लगे। वे मशीन से जमीन में घर्रर्र छेद करते और पत्थर की पूरी लाठी निकाल कर डिब्बे में रख कर कहीं भेज देते। फिर कुछ दिन बाद कुछ ज्यादा लोग आए। उन्होंने गाँव के मरदों से बात की। उन्हें भात चाहिए, मुर्गा चाहिए, दारू चाहिए, रास्ता दिखाने वाला चाहिए। उन्होंने बताया, जमीन के नीचे खजाना है। खजाना माने कुदाल से खोदने से नहीं चलेगा। सिक्के नहीं हैं। मोहरें-अशर्फियाँ नहीं हैं। धातु का पत्थर है। पत्थर कीमती है। उसे निकाला जाएगा और उससे सीसा बनाया जाएगा। वही… जिससे बंदूक की गोली बनती है।

देखते-ही-देखते वहाँ एक कारखाना बन गया। पेड़ कटे। उनकी जगह पक्के मकान खड़े हो गए। भूमि समतल कर दी गई। बड़ी-बड़ी मशीनें। मकान… और मकान के बीच भी डामर की सड़क। सारी जिंदगी बदल गई। अब खूब मुर्गे चाहिए। भात चाहिए। काम करने वाले आदमी चाहिए। पहली बार बड़े-बड़े नोट देखने को मिले। घर-घर मारामारी। और अंडे… और मुर्गे… और मछली और भात।

पतलून पहने आदमी… जूते पहने बच्चे… गोरे-गोरे… और सिनेमा के परदे से मानो निकल कर आई हों ऐसी औरतें।

लेकिन जब ग्रामलक्ष्मी ने एक बार जाना शुरू किया तो दूसरे रास्ते से दबे पाँव दरिद्रता भीतर घुस आई। अब जो कुछ अच्छा था… सब बेचे जाने के लिए था। अपने उपभोग के लिए नहीं। न दूध न माछ। न सब्जी न भात। अब रुपए थे और भस्मासुरी इच्छाएँ। मरद दिन-भर साहब लोगों के पीछे-पीछे कुत्तों की तरह घूमते थे और हर रात दारू में धुत्त नजर आते थे। खेत पड़े रहते थे उपेक्षित। महिलाएँ जो जितना कर पातीं उसी से घर चलता था। कइयों की जमीनें चली गईं। बदले में कुछ नोट और नौकरी का आश्वासन। खजाना है भी क्या? क्या हम उसे छू सकते हैं? देख सकते हैं? हाँ-हाँ, क्यों नहीं! चाहे तो ले भी जाइए। पर यह तो पत्थर है। कुछ चमकता है बस! क्या इसे चूल्हे में डालने से… नहीं-नहीं… वह सब बड़ा प्रोसेस है। वह सब यहाँ नहीं होगा। दूसरे कारखाने में भेजा जाएगा। अब झगड़े होते रोज। और कड़वे। गाली-गलौज। अबोलाबोली। लंबे मनमुटाव। गाँव के लड़के साहब लोगों की नकल करते। सुंदरगढ़ से पतलून सिलवा कर लाते। सिगरेट पीते। साइकिल की जिद करते। नौकरी का खवाब देखते। सड़क पर तरह-तरह के बाहर के लोग आने-जाने लगे। दूकाने खुलने लगीं। कोई कद्दू बेच रहा है, कोई चाय-भजिया। एक कद्दू का एक रुपया! माई रे! इन साहब लोगों के पास फेंकने के लिए कितना पैसा है! यह आरंभ था समाज के बाजार बनने की प्रक्रिया का। बच्चे भूखे रहते थे। चोरी करने के लिए हालात द्वारा उकसाए जाते थे और हमेशा के लिए गाँव से मुक्त हो जाने का सपना देखते थे। जर्जर और कृशकाय औरतें सभ्य समाज का चाल-चलन जिन नजरों से देखती थीं, उनमें कुतूहल कम होता था, भय ज्यादा। अब तालाब पर कभी भी नहाने नहीं जाया जा सकता था… न दिशा-फरागत के लिए और यदि नदी में मछली थी, पेड़ पर फल, आसमान में परिंदा और धरती में जड़… तो जरूर उनकी भी कोई कीमत होगी। सोचना जरूरी था कि क्या?

यहीं और इसी समय में थी, लड़की।

उत्सुकता के मारे वे कुछ बच्चे साहब लोगों की कॉलोनी में चले गए थे। एक मकान में रेडियो बज रहा था। कोई गाना। वहीं खड़े हो गए। कैसी सुगंध आती है इन लोगों के घरों से। कैसी भीनी-भीनी। उसे खा जाने की इच्छा हो, ऐसी। कैसे गोल-गोल हाथ होते हैं इनके। कैसे रेशमी बाल। कितने सुंदर कपड़े, एकदम सिनेमा जैसे। मालकिन निकली थीं। इन्हें देखा था। आशंका से। चोरी तो नहीं करेंगी? फिर मुस्कराई थीं। जवाब में बच्चे भी बरबस मुस्करा दिए थे। मालकिन भीतर जाते-जाते पलट कर आई थीं। हाथ के इशारे से पास बुलाया था। काम करोगी? खाना देंगे। भात। पैसे भी देंगे।

सब बच्चे खिलखिला कर भाग आए थे बगटुट।

कुछ दिन बाद सुना, मंगली एक मामी के घर काम करने लगी है। मामी क्यों? क्या वह तुम्हारे मामा की घरवाली है? नहीं, पर उसके बच्चे उसे मामी ही कहते हैं। तो मैं भी। अच्छा बताओ, क्या किया वहाँ? और क्या दिया उन्होंने तुम्हें खाने को?

मंगली का बाप नहीं था। माँ बहुत बूढ़ी हो गई थी। उससे कुछ काम नहीं होता था। चार-चार दिन माँगे हुए नमक-माँड़ से गुजारा करना पड़ता था। कभी-कभी कोई मछली मिल जाती। या इस-उस घर की जूठन। बस, यही आसरा था। तन पर पूरे कपड़े नहीं थे। कहीं से होंगे, इसकी भी आशा नहीं थी। चेहरा लाश जैसा लगता था। बदन कटे पेड़ की सड़ी लकड़ी-सा। बातों में, सपनों में हर वक्त भूख-भूख। कौन उसके साथ खेलता! पर आने वाले महीने-भर के लिए वह गाँव की लड़कियों के लिए हीरोइन बन गई। साहब लोग क्या खाते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे हँसते हैं, क्या करते हैं… क्या अपनी घरवाली को एकदम नहीं मारते? एक बार भी तुमने उन्हें मारते नहीं देखा? …क्या-क्या चीज है वहाँ? क्या तुमने खुद देखा? छू कर देखा? …आदि-आदि।

फिर जब उसे उसकी मामी ने अपनी बेटी का एक पुराना फ्रॉक पहनने को दे दिया और साबुन का एक छोटा-सा टुकड़ा, कि नहा कर आना कल… तो मंगली अभागिन उत्सुकता की नहीं, ईर्ष्या की चीज हो गई। साबुन खुशबूदार था। सबने बारी-बारी सूँघ कर देखा। फ्रॉक? अहा! कैसा नीला रंग था उस फ्रॉक का कि जिसे देखते ही पीने की इच्छा हो जाएगी। उस पर कुछ-कुछ लाल-सफेद फूल थे, जो बस हिलते भर नहीं थे… और एक खरगोश था… मुन्ना-सा… सफेद झक्क… गुलाबी गोल आँखों से बिटर-बिटर ताकता… जैसे अब फुदका कि तब। और कपड़ा कैसा मुलायम और रेशमी… जैसे किसी बछड़े का गलकंबल! बदन पर फ्रॉक हो तो बदन को कैसा महसूस होता होगा? उसे भी कई और लड़कियों की तरह लगा कि या तो मामी ने भूल से यह फ्रॉक मंगली को दे दिया है या यह चुरा कर लाई है। या तो कल वह वापस माँग लेगी या यह फ्रॉक मंगली पहन कर जाएगी ही नहीं। देख लेना। लेकिन दूसरे दिन मंगली वही फ्रॉक पहन कर काम पर गई और मामी ने उससे फ्रॉक वापस भी नहीं माँगा।

बस, उसी दिन लड़की ने मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि चाहे जो हो जाए, वह भी काम करेगी और ऐसा ही फ्रॉक पाएगी। उसकी इच्छा के सामने अनेक बाधाएँ थीं। पहली तो यह कि वह अभी छोटी थी, अपने घर का काम भी ठीक से नहीं कर पाती थी, झाड़ू की मूठ तक कस कर नहीं पकड़ पाती थी… और दूसरे यह कि वह मंगली की तरह बेआसरा या विपन्न नहीं थी। काश! कि वह बेआसरा और विपन्न होती! तब उसने ऐसा ही सोचा।

उसे चार साल लग गए इसमें। तब तक गाँव की लगभग पच्चीस-तीस स्त्रियाँ-लड़कियाँ साहब लोगों के घर काम करने लगी थीं। तब तक साहब लोगों का भय पूरी तरह समाप्त हो गया था, लेकिन काफी कुछ कुतूहल भी। तब तक कामवालियाँ भात और कपड़े के अलावा पैसे भी पाने लगी थीं और काम करने के अलावा चिरौंजी-काजू-चावल-माछ साहब लोगों को बिकवाने की दलाली भी। साहब परंपरागत ग्रामीण संस्कृति पर हमला करने वाला दुश्मन नहीं था अब, बल्कि एक मोटा मुर्गा था जिसका किसी भी तरह फायदा उठाना था। तब तक लड़की का घर भी इतना विपन्न हो चुका था कि वह उठते-बैठते कारण-अकारण माँ-बाप की डाँट-मार खाने लगी थी।

सबसे पहले पंद्रह रुपए महीने पर बच्चा सँभालने का काम किया लड़की ने। पंद्रह रुपया मामी ने अपने मन से कहा। लड़की पाँच भी पाती तो प्रसन्न ही होती। दोपहर को भात-नमक दिया। बैंगन की सब्जी भी। भात लड़की की जरूरत के हिसाब से कम था, लेकिन वह कुछ नहीं बोली। दरअसल उस पूरे दिन वह कुछ भी नहीं बोली। हाँ-ना का जवाब भी गरदन हिला कर दिया। खूब सारी नई और कौतुकमय चीजों के बावजूद सच पूछो तो उसका मन नहीं लगा। पूरे समय एक तीन साल के बच्चे के पास बैठे रहो बस। इससे तो तालाब में नहाना, पेड़ों पर चढ़ना, भैंस की पूँछ मरोड़ना, पत्थर से इमली गिराना, खुली हवा में नीम के पेड़ की छाँव में पसर कर सोना और गला फाड़ कर हँसना-गाना यकीनन ज्यादा सुखद रहा होता।

घर में एक नौकरानी थी। जानकी मौसी। सारा काम वही करती थी। लड़की की देखा जाए तो वहाँ कुछ खास जरूरत नहीं थी। लेकिन मामी एक जानकी मौसी के ही भरोसे नहीं रहना चाहती थी। मान लो, कल को जानकी भाग गई तो लड़की झाड़ू-पोंछा तो कर ही लेगी। कम-से-कम बच्चे को तो सँभाल लेगी। फिर कुछ दिन में डाँट पड़ने लगी, परे हट के बैठ, कालीन गंदा हो जाएगा। नहा कर आई? सिर क्यों खुजा रही है? …ठीक से पकड़ बेबी को। मुँह दूर रखा कर उसके मुँह से… सुबह लेटरीन जा कर साबुन से हाथ धोती है या नहीं? …शक्ल-सूरत नहीं दी भगवान ने तो कोई बात नहीं, कम-से-कम कपड़े तो…।

लड़की ऊपर से कुछ नहीं कहती, पर मन-ही-मन उसमें एक शत्रुभाव घनीभूत होता जाता, खाने को तो पूरा देती नहीं और रोब कैसा झाड़ती है! महीना पूरा होगा तब पंद्रह रुपया देगी। सो मेरे काम आएगा? माँ ले लेगी वह तो। मैं तो उसमें से एक टिकुली भी नहीं खरीद पाऊँगी। कैसी-कैसी चीजें कचरे में फेंक देती है! उस दिन कचरे में से एक टिकुली निकालने लगी तो तुरंत टोक दिया, नहीं, उनमें से नहीं लो! चाहिए तो माँग लो… माँग लें। दो घंटे रगड़ कर नहाएगी… फिर पॉउडर-क्रीम-लाली थोपेगी… खून जैसे होंठ और खून जैसे नाखून बनाएगी… फिर भी किसी से पूछ लो… मैं ही ज्यादा सुंदर दिखूँगी… जरा-सा खाएगी… और दिन-भर ढ ढ डकार लेगी। पता नहीं बच्चा कैसे जन दिया! एक दिन घर में झाड़ू लगानी पड़े तो हाँफ जाए! कैसे साफ-साफ कपड़े धोने के लिए डाल देती है। हमारे यहाँ किसी को ऐसी लुगाई मिल जाए तो दूसरे दिन झोंटा पकड़ कर बाहर निकाल दे। हमारी जमीन से रूपा-सोना निकाल कर मजे मारते हैं और हमीं पर रुआब गाँठते हैं!

लड़की के क्रोध को व्यक्त होने का कोई उपाय नहीं था। न मामी के घर, न अपने गाँव में। काम से लौट कर आती तो प्रसन्नता का ही आवरण रखना पड़ता, वरना काम भी छूट जाता। क्या एक-से-एक खिलौने हैं। वह खुद भी चाभी भर कर चलाना सीख गई है, ऐसा ही बताती। कभी बच्चे को कमर पर टाँग कर बाहर घूमने जाती तब अकेले में बड़बड़ाती। मन करता, बच्चे को ही नोच ले जोर से।

एक बार नोच भी लिया। पर फिर वह जो रोया तो लड़की को लगा, गई उसकी नौकरी! भागी उस रोते बच्चे को कमर में टाँगे दूर, ताकि उसके रोने की आवाज मामी के कानों तक नहीं पहुँच पाए। दो घंटे लग गए बच्चे को चुप कराने में। गाई, नाची, लाड़ लड़ाया, तरह-तरह के फूल दिए, फल दिए… और रोना बंद किया तो कैसे? एक कुत्ते के पिल्ले की कूँ-कूँ सुन कर… डरते-डरते उसकी पूँछ पकड़ कर… घबराते-घबराते उसकी पीठ पर हाथ फेर कर।

मामी लड़की को ऐसी चीजों के लिए भी कोसती, जिन पर लड़की का कोई बस नहीं था। मसलन कहेगी, कैसी भाषा बोलते हो तुम लोग! जैसे लोटे में कंकड़ डाल कर हिला रहे हो! या क्या वाहियात इलाका है! पानी बरस रहा है तो बस पागलों की तरह बरसता ही जा रहा है! मार सीलन-ही-सीलन, कीचड़-ही-कीचड़! या जैसे ‘यहाँ के अनाज में वह स्वाद ही नहीं है!’ या जैसे ‘जमाना कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया, ये वैसे-के-वैसे ही रहे! जंगली के जंगली!’

इन आक्षेपों का लड़की कोई प्रतिवाद नहीं कर सकती थी। लड़की को टूट कर बरसते पानी में तर-बतर भीगते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव चले जाने में अपार आनंद की अनुभूति होती थी। वेग से हवा चलती तो शूँ-शूँ… झूँ-झूँ की आवाज आती। लगता, धरती पर नहीं किसी दिव्य लोक के रहस्य-रोमांच के बीच है। बिजली चमकती और बादल गरजते तो किसी से भी कस कर लिपटने को जी करता। पेड़ों के पत्ते और तने इधर-उधर झूमते-झुकते तो लगता, धरती को चंवर डुला रहे हैं। नदी-नाले पूरते तो लगता, अमृत की गागरें औंधी हुई हैं… ऐसे में कोई भी औरत प्याज-बैंगन के गरम-गरम भजिए छानने या तर मालपुए उतारने के अलावा कुछ नहीं सोचेगी। घर के पिछवाड़े अरबी के पत्ते हों तब तो कहना ही क्या! और इसे देखो! यह वर्षा को ही कोस रही है!

लेकिन वर्षा ही क्यों, इसे तो यहाँ कुछ भी पसंद नहीं। इसे तो ग्वार-फली जानवरों के खाने की चीज लगती है। और पके कटहल में से उबकाई लेने वाली बदबू आती है। हमारी गायों का दूध इसे पानी जैसा लगता है और हमारे खेतों का अनाज बेस्वाद। हमारे उत्सव पिछड़ापन और हमारे परिधान जंगली!

लेकिन लड़की कुछ नहीं कर या कह पाती। कभी सोचती, कल नहीं आऊँगी। दूसरे दिन पाती कि आ ही गई है और तब कल का यह निश्चय याद आया है। बच्चा भी उससे हिल गया था। अब माँ के पास भी नहीं रहता। माँ कुछ देर लाड़ करती है, कुछ देर ठीक से बात करती है, फिर कुछ देर उपेक्षा करती है। और फिर जाने को कहती है, न जाए तो थप्पड़ मार देती है। बच्चा उसे चिपकू लगता है, रोतला लगता है। व्यवधान लगता है, इल्लत लगता है, आफत लगता है।

लड़की को नहीं लगता। लगता भी, तो वह क्या कर सकती थी? बच्चे को चिपकाए अथवा उठाए रखने और बच्चे से माँ को आजाद रखने की ही वह उजरत पाती थी। लड़का उस पर लदा रहता। दो कदम पैदल नहीं चलता। कभी उसकी नाक पड़ता, कभी कान खींचता, कभी गाल खरोंचता, कभी बालों को मुट्ठी में भर लेता। लड़की हर बार प्रसन्न रहने को बाध्य थी। क्रीत थी।

फिर एक दिन लड़की नहीं गई। उसने कहा कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। माँ ने ज्यादा पूछा-पाछी नहीं की। कभी-कभी माँएँ ज्यादा पूछा-पाछी नहीं भी करतीं। होता ही है। उस दिन लड़की ने सोचा था कि खूब मौज-मस्ती करेगी। सहेलियों के साथ दिन-भर धमाचौकड़ी मचाएगी। आसमान को सिर पर उठा लेगी। इतने दिनों की सारी कसर पूरी कर लेगी। लेकिन वैसा कुछ भी नहीं हो पाया। साथ की लड़कियाँ मिल ही नहीं पाईं। कई तो काम पर गई थीं। जो नहीं भी जाती थीं वे उछल-कूद मचाने की बजाय एक पेड़ की घनी छाँव में छिपी बैठी गप्पें मार रही थीं। वे शरमा रही थीं। किसी मामी ने किसी लड़की को अपनी पुरानी ब्रेसरी पहनने के लिए दे दी थी। अब इस वक्त और इस स्थान पर उसे पहन कर देखने की समस्या सुलझानी थी। फिर उन्होंने मामियों के बारे में सुने-सुनाए किस्से शुरू कर दिए, कि मामियाँ माहवारी में भी रसोई में चली जाती हैं! कि एक शीशी में से एक सफेद मलाई निकाल कर लगाती हैं। बाल उड़ाने के लिए आदि-आदि। लड़की से भी उसकी मामी के बारे में पूछा जाने लगा। वह उठ आई।

उस दिन लड़की उन सब स्थानों पर गई जिन स्थानों की स्मृति ने उसे मामी के घर सुबह से शाम तक काम करने के दौरान विह्वल किया था। लेकिन कहीं मजा नहीं आया। न पेड़ पर चढ़ने में, न पत्थर मार कर इमली तोड़ने में, न भैंस की पूँछ मरोड़ने में, न तालाब में नहाने और तैरने में। सारा कुछ एकदम सूना और भाँय-भाँय लग रहा था, जैसे हर तरफ धूल उड़ रही हो। हवा जैसे बहुत थकी हुई हो। आसमान जैसे बहुत बूढ़ा हो गया हो। तालाब जैसे बहुत गंदला हो गया हो। धरती जैसे बहुत खुश्क हो गई हो।

देर दोपहर घर लौटी तो ठंडा भात-माँड़ रसोई में… शाम तक सोचने लगी, इससे तो चली ही जाती तो ठीक रहता।

दूसरे दिन गई तो बच्चा दौड़ कर आया और लिपट गया। मामी लाड़ नहीं लड़ाने लगी, पर उसने डाँटा भी नहीं। वह निरंतर सशंक थी और चुप। उस दिन लड़की को उसने भात के साथ-साथ अपने जैसा खाना भी दिया। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में। मसाले वाली तर सब्जियाँ, हींग-घी से बघारी हुई दाल और कटोरी भर खीर। शाम को आते समय मामी ने एक पाँच का नोट पकड़ा दिया, रख ले। काम आएँगे। तनखा में से काट लूँगी।

यह लड़की की अपनी कमाई का पहला नोट था। नोट बहुत मैला और मुड़ा-तुड़ा था। उसे जल्दी-से-जल्दी चला देने की इच्छा होती। लड़की का मन काँप रहा था। उसने सोचा था, जब जिंदगी में पहली बार उसे पगार मिलेगी तो वह खूब खुश होगी। रोमांचित भी हो सकती है। लेकिन अभी ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था। वह चाहती थी कि वैसा कुछ लगे। उसने कोशिश भी की, पर उससे बना नहीं। वह बहुत उदास, बहुत तनहा, बहुत व्यथित थी। काली घिरी हुई बेबरसी घटाओं में प्यासी और उमस से छटपटाती। क्यों उसे खुशी नहीं हुई? क्यों दिन-भर ही उसके-मामी के बीच तनाव बना रहा?

फिर उसे गुस्सा आने लगा। यह औरत डरपोक भी है। सोचती होगी, मैं चली जाऊँगी तो बच्चा उसे खुद सँभालना पड़ेगा। बच्चा उसकी साड़ी की इस्त्री खराब करेगा। वह रिश्वत दे रही है। वह सुस्वाद भोजन भी रिश्वत था और यह पाँच का मैला-मुसा नोट भी। नहीं, यह उसकी मेहनत की, हक की कमाई नहीं है जो सुख-संतोष लाती है। यह रिश्वत है जो उसने चुपचाप सिर झुका कर स्वीकार कर ली है। यह उच्छिष्ट है… जो उसे दिया गया है और जिसे निर्विरोध गटक लेने के लिए मानो वह अभिशप्त है। उस सारी रात सो नहीं पाई लड़की। सोचती रही कि अब क्या करना है उसे? कल काम पर जाना है या नहीं जाना है? क्या कोई और घर देख लें? लेकिन वे पूछेंगे कि वहाँ पिछले घर में क्यों काम छोड़ा तो? और सब घरों में तो बच्चे भी नहीं होंगे। और उस घर में भी ऐसा ही व्यवहार मिला तो, कहाँ तब भागेगी?

मामी पर क्रोध आता। क्रोध में आँसू आ जाते, पर फिर मामी पर दया भी आती। क्या वह जान-बूझ कर अपमान करना चाहती है? उसे बोध ही नहीं होता कि उसके व्यवहार से किसको क्या कष्ट हुआ? बच्चा याद आता। वह रोएगा, पिटेगा, मार खाएगा। फिर कुछ रोज में कोई और लड़की आ जाएगी, बच्चा उससे हिल जाएगा, और कहीं राह-बाट में यह लड़की सामने पड़ गई, तो इसे पहचान भी नहीं पाएगा। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चा उससे उसकी भाषा सीख ले और यहाँ के लोगों से, फूलों से, फसलों से, मौसमों से प्यार करने लगे?

गाँव में और घर पर सब लोग कितना बदल गए थे इन्हीं कुछ दिनों में। पाँच का नोट माँ को दिया तो माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरा और नोट को फैला कर, देख कर, आँखों से लगा कर भगवान के सामने रख दिया। लड़की मानो रो पड़ी, ‘काश! माँ थोड़ा बिगड़ती। पूछती, कहाँ से लाई? चुरा कर तो नहीं लाई? माँगा तो नहीं? दिया भी तो मना क्यों नहीं किया? क्या तुम्हारी पगार के बिना हम लोग भूखे मर रहे हैं? क्या सोचती होगी तुम्हारी मामी भी? बेशऊर लड़की! ताड़ बराबर हुई, जरा-सी अकल नहीं। उन्होंने दिया और ये तुरंत ले आई। सारा ध्यान तो पैसे में है। अब तुम्हीं चाटो इसे।’ काश! ऐसा ही कुछ कहा होता माँ ने।

लेकिन नौकरी के पहले दिन से ही माँ डाँटना छोड़ चुकी है। वह काम न करे तो भी, बात न सुने तो भी माँ डाँटती नहीं। किसी दिन वह कपड़े न धोए तो माँ न केवल अपने बल्कि उसके भी कपड़े धो डालती है। कहती कुछ नहीं, केवल, जा रही है? आ गई? बस, यहीं तक सिमट कर रह गई है।

लड़की अपने ही घर में घुटने तोड़े बैठी विपन्नता से अपरिचित थी। जमीन कारखाने में चली गई थी। नौकरी का आश्वासन अभी तक पूरा नहीं हुआ था। मुआवजे की राशि के लिए भूमि में स्वामित्व का अकाटय प्रमाण प्रस्तुत करने थे, पिता को कभी भी जिनकी जरूरत नहीं पड़ी थी। वहाँ इतना कहने से नहीं होता था कि मेरा बाप भी इस जमीन पर खेती करता था। अब पिता पटवारघर-तहसील-कचहरी-वकील-दलाल-पंच-प्रधान आदि-आदि के चक्कर काट रहे थे। और उन्हें जो भी अपने पास था, एक-एक कर भेंट चढ़ा रहे थे। उन्हें हर दिन नए सिरे से पता चलता था कि उनसे बड़ा मूर्ख दुनिया में दूसरा नहीं और हर दिन बताया जा रहा था कि जो आदमी हो कर भी काइयाँ नहीं हुआ, उसका तो जन्म ही अकारथ है, जीवन ही एक तरह से अवैध है।

लेकिन यह सब लड़की कैसे समझती?

उस रात लड़की ने एक कठिन निर्णय लिया। वह इसी मामी के यहाँ काम करेगी। लेकिन दिखा देगी कि जो-जो और जैसे-जैसे मामी खुद करती है और दूसरी मामियाँ करती हैं… वह भी कर सकती है। बल्कि उनसे भी अच्छा। घर में जितने भी काम होते हैं, खाना, पकाना, सीना-पिरोना, काढ़ना-बुनना, बोलना-चालना, लिखना-पढ़ना… वह सब सीखेगी… इन्हीं से सीखेगी और एक दिन इन्हीं से अच्छा करके दिखा देगी। हरदम हँसती रहेगी। कभी किसी बात की खुद से भी शिकायत नहीं करेगी। हँसी और सेवाभाव, यही उसके हथियार होंगे। और जिस दिन मामी मान जाएगी कि ये जंगली लोग भी उनसे किसी बात में कम नहीं, बस मौका मिलने की बात है… और जिस दिन मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगेगी, जंगली लोगों से बराबरी का बरताव, वह उसे उसके हाल पर छोड़ कर अपनी दुनिया में वापस आ जाएगी, एक उन्मुक्तता और उत्फुल्ल प्राकृतिक दुनिया, जिसका रूप, रस, गंध और स्पर्श मामी जैसों के नसीब में ही नहीं है।

अगले दो साल लड़की के संपूर्ण कायांतरण के साल थे। पहले अनुनय से, फिर आग्रह से और फिर अधिकार से उसने धीरे-धीरे घर का एक-एक काम सीखना, करना और अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया। सीधा-सादा गुरुमंत्र था, उसने इस दुनिया की अपनी दुनिया से, इस जीवन की अपने जीवन से और इन मूल्यों की अपने परंपरागत-प्रचलित मूल्यों से तुलना करना एकदम बंद कर दिया। ठीक है। हैं, जैसे हैं। इन्हें अपने जैसा तो बनाना नहीं है। जब तक हैं, रहेंगे, फिर लौट जाएँगे। ले कर क्या जाएँगे? कुछ दे कर ही जाएँगे। एक बार मन पक्का करके मान लो कि ये लोग पराए हैं, बस, हो गया।

अब कठिनाई की जगह रोमांच ने ले ली। हाँ, वह बिजली की झाड़ू चला सकती है, मशीन से कपड़े धो सकती है, बटन दबा कर टीवी रेडियो या ठंडे पानी का पंखा चला सकती है। उसे मालूम है, मेजपोश मेज पर बिछाया जाए तो कौन-सा कोना सामने रखना चाहिए, किसी को पानी पिलाया जाए तो गिलास कहाँ तक भरे रहना चाहिए, टेलीफोन की घंटी बजे और उसे उठानेवाला कमरे में कोई न हो तो टेलीफोन उठा कर क्या-किस स्वर में कहना-पूछना चाहिए, कोई आए तो उसकी अगवानी किस तरह की जानी चाहिए… किसे बाहर खड़े रहने को कहना चाहिए, किसे बरामदे में बैठाना चाहिए, और किसे भीतर ड्राइंग रूम में ले आना चाहिए, रास्ते में बच्चे के साथ उसे देख कर कोई मुस्कराए तो क्या करना चाहिए और कोई कुछ दे तो उसे कैसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिए।

अब देखा जाए तो इसमें भी हजारों उलझाने वाले प्रश्न थे। इस समाज की छुटाई-बड़ाई, दूरी-नजदीकी, आव-आदर की तदनुसार बदलती भंगिमाएँ, शिष्टाचार के नाम पर प्रचलित नफीस अभिनय और लगभग अबूझ कुंठाएँ… लेकिन इन तथा ऐसे प्रश्नों को लड़की ने स्थगित करना सीख लिया था। समझ में आना होगा तो एक दिन अपने-आप समझ में आ जाएगा। नहीं आना हो, न आए, उसकी बला से!

एक साल बाद ऐसी बात चली कि साहब का ट्रांसफर हो रहा है। साहब खुश हुए। सारा घर। साहब बहुत दिनों से कोशिश कर रहे थे। बात चली कि जाएँगे तो क्या ले जाएँगे, क्या छोड़ जाएँगे, नई जगह कैसे क्या किया जाएगा, बच्चे की पढ़ाई का क्या करेंगे… वगैरह। रस ले कर ये बातें की जा रही थीं। बातों-ही-बातों में मामी ने कहा कि कुछ भी कहो, नई जगह जा कर उसे लड़की की बहुत याद आएगी, क्योंकि इतने कम पैसों में इतना काम करने वाली, इतनी ईमानदार और मेहनती लड़की उन्हें कहाँ मिलेगी?

यह बात सुन कर लड़की को एक गर्हित-सी खुशी हुई। कद्र की आखिर। मेहनत की, ईमानदारी की। पर अभी पूरी तरह उस पर निर्भर नहीं हुई है। ऐसा नहीं कहा कि लड़की के बगैर कैसे काम चलेगा? चलो, इसे भी ले चलें। जाती तो वह क्या, पर सुन कर अच्छा लगता। शायद उसे जल्दी करनी चाहिए। खैर, देखते हैं।

लड़की ने उन्हीं दिनों रसोई में प्रवेश किया था और मालिकों की पसंद के व्यंजन बनाना तेजी से सीख रही थी। उसने जिद करके एक घंटा रोज मामी से पढ़ना भी शुरू कर दिया, लेकिन इस क्षेत्र में उसकी प्रगति आश्चर्यजनक रूप से मंद थी। लगभग नहीं के बराबर। हिंदी का व्याकरण और देवनागरी के संयुक्ताक्षर उसकी खोपड़ी में एकदम नहीं घुसते। वह एकदम नहीं समझ पाती कि कार स्त्रीलिंग है तो स्कूटर पुल्लिंग कैसे है? दोनों ही क्लीव लिंग क्यों नहीं हैं? ‘सीता आ रही है’ तो ‘राम-सीता आ रहे हैं’ कैसे हो गया? आमदनी को ये लोग आम दनी क्यों बोलते हैं? एक दफा हम गए। ठीक है तो हम दफा-दफा जाएँगे में हँसने की क्या बात है? हम भूल करते हैं तो ये लोग हँसते क्यों हैं? ये हमारी भाषा सीखेंगे तो भूल नहीं करेंगे क्या?

इस दिन मामी ने लड़की को एक नई शैंपू की शीशी उपहार में दी। शैंपू खुशबूदार और महँगा था। लेकिन लड़की जानती थी कि साहब द्वारा कहीं से लाया गया वह शैंपू मामी को पसंद नहीं आया था और वह साहब के सामने इसकी आलोचना भी कर चुकी थी कि इसे लगाने से तो उनके सिर में दर्द हो गया। पर लड़की ने आश्चर्य, उत्फुल्लता और अविश्वास का अभिनय किया। क्या सचमुच आप मुझे दे रही हैं? इतना महँगा? लेकिन मैं कैसे ले सकती हूँ? क्या अच्छा लगेगा हम लोगों को इतनी महँगी चीज इस्तेमाल करना? आप सचमुच कितनी दयावान हैं आदि।

परिस्थितियों ने उसे सच छिपा कर सामने वाले को खुश करने वाली बातें करना सिखा दिया था। अपनी इस बकवास का वांछित प्रभाव देख कर उसे खूब मजा आता था। तुम लोग इसी लायक हो। यही पा कर प्रसन्न रहो। यह गलत था, लेकिन इस दुनिया में समझदार और स्वीकार्य बनने की यही शर्त थी।

लेकिन साहब का ट्रांसफर टल गया। नहीं हुआ। और लड़की कस्टर्ड, जैम, जेली, पुडिंग, नानखताई, आइसक्रीम, शरबत, स्क्वैश, ये वो जो-जो वे खूब पसंद करते थे, खूब अच्छा बनाना सीखती गई।

प्रिय पाठक! मैं अगर भगवतीचरण वर्मा टाइप लेखक होता तो कितनी आसानी से अभी कह देता कि इस तरह धीरे-धीरे लड़की को बच्चे से सचमुच प्यार हो गया और वह हृदय की कल्पना से छिप-छिप कर रोने भी लगी और एक दिन उसने अपनी जान पर खेल कर… वगैरह-वगैरह। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। बच्चे की उद्दंडता में कोई कमी नहीं आई, बल्कि धीरे-धीरे लड़की की जरूरत उसके लिए कम-से-कम होने लगी। मामी एकाधिक बार साथवालियों-सहेलियों-पड़ोसिनों को यह बता कर चमत्कृत कर चुकी थीं कि सुबह आपने जो दही-बड़े खाए या कल आपको जो पुडिंग भिजवाया था… वह लड़की ने बनाया था। उनमें से अनेक मामी के सामने लड़की की प्रशंसा करती थीं, पीठ पीछे मामी से जलती थीं और एकाध तो लड़की को फुसला भी चुकी थीं कि हमारे यहाँ आ जाओ, वह जितनी तनखा देती है उससे पाँच रुपए ज्यादा ले लेना।

इसलिए बगैर भेजे लड़की यदि किसी के भी घर जाती तो मामी सशंक हो जातीं। क्योंकि मामला अब सिर्फ आराम और सहूलियत का नहीं, सामाजिक प्रतिष्ठा का भी हो गया था, इसलिए एक दिन साहब से बात करके मामी ने लड़की की तनखा दुगुनी कर दी और वहीं एक कोठरी में उसके रहने की व्यवस्था कर दी। इतवार के इतवार दो-चार घंटे के लिए अपने घर चली जाया करेगी।

लड़की के मन में सवाल तो उठा कि जैसे पालतू जानवर होते हैं, क्या वह पालतू आदमी बनाई जा रही है? चुभा भी, पर उसने स्वीकार कर लिया। माँ को भी राजी कर लिया। माँ को अजीब तो लगा, जब सुबह जा कर शाम को आ जाती है, यह रात में भी क्यों रहेगी? आशंका भी हुई… लड़की जवान हो रही है… कोई उलटा-सीधा चक्कर तो नहीं है? कुछ पूछताछ भी की… कोई आदमी तो नौकर नहीं है? या चपरासी या रिश्तेदार जो वहाँ रुकता हो? साहब कैसा आदमी है? हँस कर तो बात नहीं करता? …सिर या पाँव की मालिश तो नहीं करवाता? …पानी का गिलास पकड़ाते समय बहाने से उँगली तो नहीं दबाता? …मामी की अनुपस्थिति में बार-बार कमरे में तो नहीं बुलाता? …लुंगी-कपड़े ठीक से पहनता है तो? …सब तरह से आश्वस्त हो कर दुगुनी पगार की बात सोच कर हाँ कर दी। इस पर भी दूसरे दिन साहब और मामी खुद कार में बैठ कर लड़की के घर आ गए और माँ-बाप को आश्वस्त कर गए… कि जैसे हमारे बच्चे वैसे ही यह लड़की। किसी तरह की चिंता न करें।

यह कितना बड़ा छल था, इसे उन लोगों ने कई साल बाद समझा। पर तब तक काफी से ज्यादा देर हो चुकी थी। इस समय तो पूरी बस्ती में कोलाहल ही मच गया। क्या साहब खुद आया था? अच्छा? मामी भी थी? फिर तुम लोगों ने उन्हें कहाँ बिठाया? उन्हें क्या खिलाया-पिलाया? कार का रंग कैसा था? ठेठ घर तक कार आई? वगैरह।

अब लड़की वही खा रही थी जो वे खा रहे थे। उसी बाथरूम में नहा रही थी क्योंकि बाथरूम एक ही था। उसी संडास का इस्तेमाल कर रही थी और उसी साबुन से हाथ धो रही थी। धीरे-धीरे वह परिवार की सदस्य जैसी हो गई। किसी को रात बारह बजे भी प्यास लगती तो अब रजाई से निकलने की जरूरत नहीं थी। लड़की को आवाज दी जा सकती थी। साहब का परिवार तीन रोज को भी बाहर जाता तो लड़की के भरोसे घर छोड़ जाता। चोरी का भी अंदेशा नहीं रहता और लौटने पर घर भी झाड़ा-पोंछा मिलता। सौदा-सुल्फ तो वह करती ही थी, अब हिसाब भी रखने लगी। अब पहनने-ओढ़ने-खाने-पकाने में उसकी राय भी ली जाने लगी और साहब अब जब भी बाहर से आते, जैसे सबके लिए वैसे उसके लिए भी कुछ-न-कुछ जरूर लाते। वह खुद भी इस-उस मामले में राय देती या टोकती और सलीके तथा मितव्ययिता से घर चला कर दिखाने की धुन में रहती।

मामी लड़की से बहुत अपनापन महसूस करती और जब भी लड़की को ध्यान से देखती उन्हें लगता, उन्हें इसके लिए कुछ करना चाहिए। यह उन पर कर्ज चढ़ा रही है जिसे कभी किसी तरह उतारने की जुगत सोचनी चाहिए। सोचतीं और सोच में पड़ जाती, देखो! कहाँ के हम और कहाँ की यह! और कैसे घुलमिल गई है! जैसे दूध में बताशा। जरूर पिछले जन्म का कोई रिश्ता है।

मामी पति से भी कभी-कभी यही बात कहतीं। वे भी भीग-से जाते। कितना घबराते हुए आए थे इस जगह! पता नहीं कैसे रहेंगे बच्चों के साथ! कैसे दो-चार साल कटेंगे। कठिनाइयाँ भी हैं। लेकिन कठिनाइयाँ कहाँ नहीं होंगी। इस लड़की ने कठिनाइयों में जीवन आसान कर दिया है। पिछली जगहों के नौकरों के बारे में सोचते… सब-के-सब साले चोर, मक्कार, भुक्खड़… तुलना करते तो लगता कि नहीं, लड़की को सिर्फ नौकर नहीं माना जा सकता। अब तबादला न भी हो तो कोई बात नहीं। कुछ पढ़ी-लिखी होती तो अपनी कंपनी में ही कहीं लगवा देते।

लड़की जो अब हर चीज छू-बरत सकती थी, सब चीजों पर अपना जरा-जरा मालिकाना समझने लगी थी। ‘हमारा साहब’ और ‘हमारी मामी’ अब ‘हमारा घर’ और ‘हमारी कार’ तक पहुँच गए थे। एक दिन लड़की ने कमरे में जा कर खुद को खोला और टटोला तो हैरान हो कर पाया कि जो शत्रुभाव उसने इस घर में रहने की मूल प्रतिज्ञा और अभिप्राय के रूप में धारण किया था, वह पता नहीं कब, कैसे बहुत पतला और फीका पड़ गया है। बल्कि वह इसे बीच-बीच में तो एकदम भूल जाती है। बल्कि उसे खुद को याद दिलाना पड़ता है कि वह इन लोगों में से एक न है, न हो सकती है। उसकी दुनिया कोई और है और वह वहाँ किसी और मतलब से आई है।

जब उसकी हैरानी, ग्लानि और आत्मक्रोध थोड़ा ठंडा पड़ा तो एक नई समस्या उठ खड़ी हुई। उसने पाया कि अब उसमें घृणा और शत्रुता धारण करने की शक्ति ही शेष नहीं रह गई है। वैसा आत्मविश्वास ही कहीं नजर नहीं आ रहा है जैसा विजय की आकांक्षा के लिए लाजमी होता है। और जो था, किसने उसे ठग लिया? किसने छीनी यह दौलत उससे? बल्कि हद है, शर्म जैसी बात है कि वह अपनी प्रतिज्ञा, अपने अभिप्राय के औचित्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा रही है! अब मन-ही-मन, खुद से भी चोरी-चोरी पूछ रही है कि क्या यह बेहतर अभिप्राय नहीं होगा कि खाओ, पीओ, मजा करो, जब तक साहब यहाँ हैं, फिर भूल जाओ इसे और कोई दूसरा घर पकड़ लो। क्या उसके भासित रूप से सक्षम होते जाने ने उसे भीतर से एकदम अक्षम ही बना दिया है।

लड़की को बहुत असहायता का अनुभव हुआ। उसे लगा, जैसे अब वह तैर नहीं रही है, सिर्फ बह रही है। बहना आसान है, तैरना कठिन… लेकिन तैरने वाले को पता होता है कि उसे कहाँ जाना है अथवा कहाँ नहीं जाना है। बहने वाले के हाथ में कुछ नहीं होता। लड़की उदास और अनमनी-सी रहने लगी और तरह-तरह के अटपटे और असंभव दिवास्वप्न देखने लगी… खरीदारी में से पैसे बचा कर उसने दो रुपए वाला लॉटरी का टिकट खरीद लिया है… और उसका एक लाख रुपए का इनाम खुल गया है… कोई यूनिट इन जंगलों में अपनी फिल्म की शूटिंग करने आई है और इन्हें एक लड़की की तलाश है जो पेड़ों पर चढ़ सकती हो और थोड़ी-बहुत अंग्रेजी भी समझती हो… और उन्होंने लड़की को चुन लिया है और अपनी अगली फिल्म में उसे नायिका का रोल दे दिया है… किसी साहब का खूबसूरत लड़का उस पर मोहित हो गया है और दोनों ने मंदिर में जा कर गुपचुप विवाह कर लिया है… जानती थी। जानती थी कि ऐसा कुछ भी कभी भी नहीं होगा। फिर और दुखी, और अनमनी, और अकेली, और उदास हो जाती थी। वह अपने भीतर की बात किसको बता सकती थी?

अंततः एक दिन साहब का तबादला हो गया।

जब सचमुच हो गया तो खुशी मनाने की कोई जरूरत महसूस नहीं की गई। खुशी का स्थान व्यस्तता ने ले लिया। कब जाना है? कैसे जाना है? क्या-क्या ले जाना है? क्या-क्या छोड़ जाना है? देखो, पता नहीं चलता और सामान कितना बढ़ जाता है। अब पैकिंग। अब कारपेंटर। अब पेंट। अब रस्सी-सुतली-कील-लकड़ी-टाट-जूट। अब ट्रक। अब रिजर्वेशन। अब चिट्ठियाँ। अब विदाई पार्टियाँ। अब बच्चे का टीसी। अब बैंक खाता। अब अलमारी-पलंग-सोफा-टीवी-कूलर-फ्रिज-कोठी-कालीन-कील-काँटा। सबकी गिनती हो चुकी तब जाकर अंत में लड़की का ध्यान आया। लड़की का क्या करेंगे? क्या इसे यहीं छोड़ जाना होगा?

और लड़की को तो बस रोना-ही-रोना आ रहा था। पता नहीं क्यों? क्या वह नहीं जानती थी कि ये लोग एक दिन जाएँगे? क्या वह अपने मिशन के अधूरा छूट जाने पर दुखी थी? लेकिन देखा जाए तो वह मिशन तो कभी का पूरा हो चुका था। क्या वह यह सोच रही थी कि अब जीवन में कभी भी दोबारा इन लागों को नहीं देख पाएगी? क्या यह कि अब दूसरी किसी मामी के यहाँ काम करना पड़ेगा और फिर से एक ओछा और गला हुआ फ्रॉक पहन कर एक नीम अँधेरी कोठरी में उकड़ूँ बैठ कर नमक-भात खाना पड़ेगा…। लड़की जो भी सोच रही हो, यह सोचने की फुर्सत किसी को नहीं थी कि वह क्या सोच रही है। घर में अब न झाड़ू की जरूरत थी न पोंछे की। न सजावट-सलीके की न व्यंजनों-पकवानों की। न सौदा-सुल्फ की न सैर-सपाटे की। न मेहमाननवाजी की न हिसाब-किताब की। अब घर में लकड़ी-टाट-बोरे-रस्सी-सुतली-कील-कनस्तर बिखरे हुए थे। दीवारों पर से सजावटें उतार ली गई थीं। दीवारें नंगी और भुतहा लग रही थीं। अब सिर्फ सामान जल्दी-जल्दी पैक करने की जरूरत थी… जिसका लड़की को कोई अभ्यास या अनुभव नहीं था। दो-चार चीजें उसने तोड़ भी दीं। वह फिर डाँट खाने लगी। मामी उसे हर गलती, हर नुकसान के लिए जोर से डाँटतीं और जब वह रोने लगती तो मामी भी रोने लगती। जैसे-जैसे जाने का दिन नजदीक आता गया मामी की घबराहट, उच्च रक्तचाप और हाथ-पाँव फूलना बढ़ता गया। जब सबसे ज्यादा फुर्ती की जरूरत थी, मामी एकदम निढाल हो गई।

यह अभी निबटा भी नहीं था कि दावतों का सिलसिला शुरू हो गया। सुबह इनके यहाँ जाना है तो शाम को उनके यहाँ। सुबह गोयल्स के यहाँ लंच है तो शाम को परीडाज के साथ डिनर। दो-चार जगह वे लड़की को छोड़ कर गए तो सबने लड़की के बारे में पूछा कि उसे भी साथ क्यों नहीं ले आए? वह क्या अकेली के लिए चूल्हा जलाएगी? फिर उसे साथ ले जाने लगे तो और ज्यादा परेशान हो गए। लड़की की थाली अलग से लगा कर दे दी जाती कि उधर कोने में बैठ कर खा ले और फिर अपेक्षा की जाती कि घर-भर के बरतन साफ कर जाएगी।

लड़की को भी अजीब लगता इस सजे-धजे परिवार के साथ मेहमान की तरह और घरों में खाने जाना। आखिर वह तो यहीं है। कहीं जा नहीं रही। फिर विदाई-भोज में उसका क्या काम?

लड़की के पास प्रस्ताव आने लगे, हमारे यहाँ काम करना, हमने पहले ही कह दिया है। कहो तो तुम्हारी मामी से भी कह दें। किसी और को हाँ मत कहना। लड़की को ऐसे प्रस्तावों पर विचार करना भी बेवफाई जैसा लगता। वह कान ही नहीं देती।

फिर वे नई जगह की बातें करने लगे। वहाँ कैसा घर होगा, कौन-कौन पुराने लोग मिलेंगे, वहाँ से कौन-कौन शहर पास पड़ेंगे और कहाँ-कहाँ घूमने जाया जा सकेगा आदि-आदि।

इन अनुमानों-अंदाजों-कल्पनाओं में भी लड़की कहीं नहीं थीं। लड़की को लगा, जैसे पिंजरे में फँसे चूहे को दूर छोड़ आया जाता है, घर में नहीं रखा जाता, और फिर याद भी नहीं किया जाता, उसी तरह उसे भी छोड़ जाया जाएगा और फिर कभी याद नहीं किया जाएगा। धीरे-धीरे उसने फिर अपने मन की कमर कसी और सोचने लगी कि इन लोगों के बगैर भी उसका जीवन क्यों नहीं संभव हो सकता? ऐसा होने का एक कारण यह भी था कि मामी हर दिन कोई-न-कोई फालतू चीज उसे पकड़ा रही थीं, तू ले ले, तू रख ले करके और इन चीजों से उसकी संदूकची भर गई थी और हर चीज इतनी लुभावनी थी कि फिर वह चीजों के बारे में ही सोचने लगी कि देखें ये और ये और वो मामी साथ ले जाती हैं या उसे दे जाती है।

जैसे-जैसे जाने का दिन पास आता गया, मामी का व्यवहार ऐसा होता गया जैसे वह लड़की को पहचानती ही न हो। मानो लड़की से उन्हें कोई मतलब ही न हो। मानो वह कोई और औरत थी जो लड़की से पिछले जन्म का कोई रिश्ता मान रही थी। अब लड़की को फिर मामी के दोष दिखाई देना शुरू हो गए और वह थक कर सोचने लगी कि जाएँ बाबा ये लोग जल्दी ताकि उसे मुक्ति मिले और वह चैन से बैठ कर कुछ सोच सके कि आगे उसे क्या करना है?

लेकिन रवानगी से एक दिन पहले साहब और मामी फिर लड़की के घर थे। बहुत सारे उपहारों के साथ। बहुत सारी दिल जीत लेनेवाली बातों के साथ। बहुत सारे सभ्य चमत्कारों के साथ। छह महीने की अग्रिम तनखा के साथ। और इस अनुरोध के साथ कि लड़की को वो सिर्फ दो महीने के लिए उनके साथ भेज दें। वहाँ सब घर-गृहस्थी जमा कर वापस आ जाएगी। साहब खुद छोड़ जाएँगे। और किसी बात की चिंता न करें, क्योंकि जैसे आपकी बेटी वैसे हमारी बेटी। क्योंकि अब इनसे तो कुछ होता नहीं और नई जगह जाएँगे तो सब नए सिरे से शुरू करना पड़ेगा। फिर बच्चा भी इससे इतना हिल गया है कि… मैं तो कहती हूँ माँजी की जरूर अपना पिछले जन्म का कोई संबंध है… वरना कौन किसी के लिए… और अगले दिन लड़की ट्रेन में बैठी थी। जिंदगी में पहली बार। उसकी आँखों के आगे उसके अपने प्यारे देश के नदी-पहाड़-तालाब-झरने-पेड़-गाछ-खेत-मैदान-गाँव-जवार-आम-महुआ-केले-कटहल-कोयल-मैना… भाग-भाग कर पीछे छूटता जा रहा था और वह मन-ही-मन बार-बार खुद से कह रही थी, मैं जानती थी, यही होगा। मैं जानती थी। मैं जानती थी।

नई जगह, नया शहर, नए लोग, नया मकान, नया माहौल। पुराना था तो बस मामी का उच्च रक्तचाप और लड़की के सिर पर गृहस्थी का सारा बोझ। लेकिन लड़की बोझ को जरा भी बोझ नहीं समझ रही थी, बल्कि सब कुछ इस तरह कर रही थी कि जैसे वह नहीं करेगी तो और कौन करेगा?

यह एक बड़ी जगह थी। यहाँ इस बड़ी जगह में मकान छोटे थे। और साहब भी इतना बड़ा साहब नहीं था जितना उस छोटी जगह में था। नौकरों के लिए मकान में अलग से कोई कोठरी नहीं थी। लड़की के लिए एक खाट बच्चे के ही कमरे में डाल दी गई। अभी लोग मिलने-जुलने आ रहे थे। पूछ रहे थे कि कोई काम हो तो बताएँ। पूछ रहे थे कि क्या लड़की उनकी कोई रिश्तेदार है? उन्हें अंग्रेजी में बताया जा रहा था कि रिश्तेदार नहीं, नौकरानी है, कुछ दिनों के लिए साथ आ गई है, फिर चली जाएगी।

यहाँ आजू-बाजू के मकानों में काम कर रही सहेलियाँ-मौसियाँ-नानियाँ-ताइयाँ नहीं थीं। यहाँ लड़के थे जो साइकिल पर घंटी बजाते हुए आते थे और घंटे-दो-घंटे में काम निबटा कर साइकिल पर चढ़ कर घंटी बजाते हुए चले जाते थे। उसकी तरफ देखते भी नहीं थे।

लड़की के मन में आया कि वह भी साइकिल चलाती! बच्चे के आगे एक दिन उसके मुँह से यह बात निकल गई। बच्चे ने माँ से कह दी। माँ ने साहब से। साहब को लगा कि यह तो अच्छी बात है। इसमें तो कोई हर्ज नहीं है। सीखना ही चाहिए। बड़े बाजार से सब्जी ले आया करेगी। राशन वगैरह खरीदने के लिए, गेहूँ पिसवाने के लिए हर बार कार ले कर नहीं जाना पड़ेगा। लेकिन इसे साइकिल सिखाएगा कौन?

लड़की ने एक दोपहर एक नौकर से बात की, तू मुझे साइकिल सिखा देगा? उसने कहा, मेरे पास फालतू की बातों के लिए टैम नहीं है। चल फूट। लड़की ने आजिजी से कहा, सिखा दे न! ऐसा क्या करना है? कोई घिस जाएगा क्या? जिंदगी-भर तेरे गुण गाऊँगी। लड़के ने पूछा, साइकिल कहाँ है? लड़की ने झिझकते हुए बताया, साहब लाने वाले हैं। पर तब तक तेरी साइकल से ही सीख लूँगी। लड़का हँस कर बोला, ये तो जेंट्स है। डंडे वाली। लड़की बोली, तो क्या हुआ? रात के टैम सड़क खाली होती है। एक बार कूद कर कैसे भी बैठ जाऊँगी, तू पीछे से पकड़े रहना, बस। लड़का लड़की का हाथ पकड़ कर आँख मार कर बोला, बदले में क्या देगी? लड़की ‘धत्’ कह कर हाथ छुड़ा कर भीतर भाग गई।

एक दिन साइकिल आ गई। नई-नकोर। उस दिन लड़की की खुशी का ठिकाना नहीं था। उस रात साहब मामी से कह रहे थे, चलो! तुम्हारे लिए छह महीने का तो आराम हो गया। चिट्ठी लिख दो कि अभी साइकिल सीख रही है, इसलिए अभी नहीं आ पाएगी। कुछ रुक कर आएगी। फिर देखेंगे।

लड़की लेकिन साइकिल सीख नहीं पाई। तीसरे ही महीने उसका बाप आया और उसे ले गया। बाप को भी वहीं ठहरना पड़ा। बच्चे के कमरे में। वहीं वह खाँसा। वहीं उसने बीड़ी पी। शायद थूका भी। उसे जल्दी भेजना जरूरी था। मामी अब लड़की को रोकने का कोई बहाना नहीं कर सकी। घर जमा हुआ था। गृहस्थी चल रही थी।

मामी ने बाजार जा कर तरह-तरह के बहुत सारे कपड़े लड़की के लिए खरीदे। हैंडलूम की साड़ियाँ, सलवार-कमीज के कटपीस, गाउन और नाइटी भी। पेंटी भी। ब्रा भी। रोते-रोते टिकुली भी। चुटीला भी। चूड़ियाँ भी। मामी को लग रहा था जैसे घर से बेटी को विदा कर रही हो। लेकिन आखिर तो एक दिन उसे जाना था। कब तक रहती? कितना मुश्किल हो जाएगी! झाड़ू-पोंछा… कपड़े-बरतन… लड़के क्या-कितना कर लेंगे? नौकरानी यहाँ मिलती नहीं। सबसे कह कर देख लिया। क्या करें? खुद ही करना पड़ेगा। मरी ने काम करने की आदत ही छुड़वा दी। सुखी रहे जहाँ रहे। हमारा आशीर्वाद तो साथ रहेगा। क्या इसके बाप से पूछें कि कोई और औरत अगर आने को तैयार हो… आने-जाने का किराया दे देंगे… क्या पूछना ठीक रहेगा?

लड़की ना-ना कहती जा रही थी और मामी जाने क्या-क्या उसकी संदूकची में ठूँसे जा रही थी। लड़की का रोना बंद ही नहीं हो रहा था। हिचकियाँ बँध गई थीं। मामी ने खुद अपने हाथ से रास्ते के लिए खाना बना कर दिया। साहब ने लड़की के बाप को टिकट पकड़ाया और राहखर्च के लिए दस-दस के पाँच नोट। बाप ने पैसे माथे से लगा कर जेब में रख लिए और दोनों हाथ जोड़ कर बीड़ी-पानी के लिए कुछ पैसे और माँगने लगा। फिर बोला, रास्ते में कहाँ पानी के लिए रेल से उतरेंगे… हम तो ठहरे अनपढ़ गँवार आदमी… ट्रेन ने सीटी मार दी तो दौड़ कर चढ़ भी नहीं पाएँगे… आप कहें तो बबुआ के कमरे में जो पानी की बोतल टँगी है, वह मिल जाती तो… फिर पाँव छुए उसने साहब के और मामी के, बच्चे के भी छूने लगा और फिर जाते-जाते बोला कि यह साइकिल तो अब आपके कोई काम आएगी नहीं, आपके तो पैसे बेकार हो गए। अगर हमें ही दे देते… आप चाहें तो हम खरीद लेंगे…। और जेब से वही पचास रुपए निकाल कर बढ़ा दिया जो अभी-अभी साहब ने उसे दिए थे। साहब को यकीनन बुरा लगा होगा, पर उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि ले कैसे जाओगे? इस पर अपूर्व आत्मविश्वास के साथ बूढ़ा बोला कि आपकी कार के पीछे बाँध कर स्टेशन तक ले जाएँगे और एक बार रेलगाड़ी में चढ़ गई तब तो अपने गाँव पहुँच ही गई समझिए।

लड़की अब धाड़ें मार-मार कर रोने लगी। वह मामी से एकदम चिपक गई। अपना बाप उसे बहुत टुच्चा, नीच और कसाई जैसा लगने लगा। उसने कस कर मामी के पाँव पकड़ लिए और रोते-रोते गुहार करने लगी, मुझे मत निकालो! मुझे मत निकालो!

साहब और मामी को कुछ समझ में नहीं आया कि बात क्या है? घर जाने में यह लड़की इतना रो क्यों रही हो? निकाल कौन रहा है? बाप लेने आया है और यह छोड़ कर जा रही है। चक्कर क्या है?

ऊँची आवाज में रोना-धोना सुन कर पास-पड़ोस के बच्चे और महिलाएँ भी निकल आईं। ताका-झाँकी करने लगीं। साहब का दिमाग भन्नाने लगा। यह हो क्या रहा है? कोई तरीका है। नई जगह है। लोग देखेंगे तो क्या सोचेंगे! खामखा बातें उड़ेंगी। उन्होंने एकदम साहबी अख्तियार कर ली। बाहर निकल लिए। नौकर से जोर से कहा, साइकिल डिग्गी में घुसेड़ दे। मामी ने लड़की को समझाया, तेरी भी जिंदगी है कि नहीं कुछ? माँ-बाप का भी तुझ पर हक है। जा कर शादी-ब्याह कर। अपना घर बसा। हमारे साथ सारी जिंदगी थोड़ी न रह सकेगी। जा। जी छोटा मत कर। वहाँ तुझे अच्छा लगेगा। जितनी साथ लिखी थी, निकल गई। हमें तो खुद ही बहुत बुरा लग रहा है, पर क्या करें, पेट की जाई को भी विदा तो करना ही पड़ता है।

पच्चीस-तीस बार प्रणाम करके बूढ़ा आखिर गाड़ी में बैठा और लड़की विदा हुई। लड़की को ट्रेन में बिठा कर साहब लौटे तब तक मामी स्थिरचित्त हो चुकी थीं। घर पर हालाँकि उदासी पुती हुई थी। जैसे अभी-अभी तक कुछ चीज यहाँ थी जो अब नहीं है। एकदम खाली-खाली लग रहा था। साहब ने बूढ़े के काँइयाँपन की एक-दो बातें बताई। इन दोनों ने लड़की को कुछ देर बड़ी ममता के साथ याद किया। उसकी अच्छाइयों को याद किया, उसकी तारीफ की। मामी ने एकाध बार पल्लू से आँखें भी पोंछी। फिर कहा, चलो बाबा! राजी-राजी गई। जवान-जहान लड़की घर में थी। पराई औलाद। डर लगता था। जरा-सी कुछ ऊँच-नीच हो जाती तो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। उमर तो सब पर आती है, पर उस मरे रामेश्वर से साइकिल सीखने के बहाने हँस कर बातें करती थी तो मेरी तो तभी से नींद हराम हो गई। मैंने तो मानता कर ली थी कि हे भगवान! राजी-राजी जाए अपने घर तो परसाद चढ़ाऊँ। चलो ठीक हुआ। गई।

यह बातचीत इस बिंदु पर समाप्त हुई कि अब दूसरी कोई नौकरानी ढूँढ़ा जाए। उससे बिल्कुल नहीं होगा घर का काम। अच्छा, देखते हैं। एक कप चाय पिलवाओ। साहब ने कहा।

मामी के मुँह पर लड़की का नाम आते-आते रह गया कि चाय बना ला। घुटनों पर जोर दे कर उठीं… रसोई में गई… और… जैसे पहली बार चाय बना रही हों… चाय बनाने लगीं।

वैसी ही ट्रेन थी और छूटते गाँव-घर-नदी-नाले-पेड़-पुल-खेत-मैदान-ऊसर-जंगल-पर्वत- पठार… आँसू-से धुँधले। कहें कि लड़की सारे रास्ते रोती ही रही तो भी गलत नहीं होगा, क्योंकि जब आँखें नहीं रो रही थीं, तब भी दिल तो रो ही रहा था। एक दुनिया… एक पूरी दुनिया… सपनों और संभावनाओं का एक पूरा ब्रह्मांड उसके हाथ आ कर छिटक गया था। हाथ से छूट कर चूर-चूर हो गया था। जरूर मामी ने ही चिट्ठी लिख कर बाप को बुलाया होगा। उस दिन जब वह और रामेश्वर रात ग्यारह बजे तक घर के बगीचे के दरवाजे पर बातें करते रहे थे और जब मामी ने उसे देख लिया था और जब आँखें फाड़-फाड़ कर देखा तो था, पर कहा कुछ नहीं था। हाँ, बिल्कुल यही बात है। और कुछ हो ही नहीं सकता। दूसरे दिन मामी ने लड़की से कुछ चिट्ठियाँ पोस्ट भी करवाई थीं। और देखो दुर्भाग्य! कि लड़की खुद अपने ही हाथों से वे चिट्ठियाँ डाक के डिब्बे में डाल आई थी। काश! उसे पता होता। काश! वह पढ़ना सीख गई होती।

रामेश्वर कहता था, नाइट क्लास चलती है। दो घंटे जाना पड़ता है। फीस नहीं लगती। वह जाता है। वह उसे भी ले जाया करेगा। छोड़ भी जाया करेगा। पोथी-पाटी वहीं से फ्री मिलती है। आखिर में एक सर्टीफिकेट भी मिलता है। तू मेमसाब से परमीशन ले ले बस। काम जरा जल्दी निबटा देगी, सात बजे तक, तो मेमसाब मना थोड़ी करेंगी। पढ़ना तो अच्छी चीज है।

लेकिन मेमसाब ने परमीशन नहीं दी। वह समझ रही थीं कि पढ़ाई प्रेमालाप का बहाना है और कुछ नहीं। पढ़ना होता तो वहीं न पढ़ लेती? जरूर ये लोग रोमांस की बातें करते हैं। सेक्स की बातें करते हैं। गंदी-गंदी बातें करते हैं। जरूर रामेश्वर लड़की को भगा कर ले जाने की योजना बना रहा है। देखना, एक दिन आँख खुलेगी तो पता चलेगा, लड़की घर में नहीं है… और पुलिस… क्या घर में पुलिस आएगी? हो सकता है, वो लोग लड़की को रेप करके जंगल में मार कर पटक दें और…

…रामेश्वर कहता था, एंप्लॉयमेंट में नाम लिखाने से वे लोग खुद चिट्ठी भेजते हैं नौकरी के लिए। सात सौ-आठ सौ कमाना कोई मुश्किल बात नहीं है। मजे से अलग घर ले कर रहो। कब तक दूसरों की जूठन साफ करना!

रामेश्वर जैसे लोग बदमाश थे। किसी आदिवासी कबीले के नरभक्षी जंगली थे। लड़की को उबलते तेल के कड़ाह में डाल कर पकानेवाले और फिर किलकारियाँ भरते हुए उसकी बोटियाँ नोच-नोच कर खाने वाले। लड़की को रामेश्वर जैसे लोगों से बचाना जरूरी था। और मान लो, पढ़ने वाली बात ठीक भी थी तो भी इसे रोकना जरूरी था। सब पढ़ लिए तो घर का काम कौन करेगा? परमात्मा ने पाँचों उँगलियाँ बराबर तो नहीं बनाईं। लड़की सपने देखती है… हरी घाटी में लाल कवेलू की छत वाली एक झोंपड़ी है। छत पर कद्दू की बेल चढ़ी हुई है और उसमें पीले-पीले फूल खिले हुए हैं। आँगन में एक खटिया पर पड़ा रामेश्वर ट्रांजिस्टर सुन रहा है और वह भीतर अजवायन के पत्तों के भजिए छान रही है…

…साइकिल पर बैठ कर ऑफिस जा रही है और स्कूल की यूनिफॉर्म पहने एक छोटी-सी, गोरी गोल-मटोल बच्ची अपनी नन्हीं हथेली नचाते हुए उसे दरवाजे पर खड़ी टा, टा कर रही है। पास ही रामेश्वर खड़ा हँस रहा है…

…रेलगाड़ी बोगदे से गुजर रही थी। रेलगाड़ी बोगदे में रुक गई। चारों तरफ घुप्प अँधेरा है। मामी और साहब टॉर्च ले कर लड़की को ढूँढ़ रहे हैं। …सब अंडबंड। सब गड्डमड्ड। सब ऊलजलूल। सब चीजों का अर्थ कहीं छूट गया है। सारे शब्द निरर्थक ध्वनियाँ बन गए हैं। सारे विचार स्वार्थ भरे शोर। सारी कल्पनाएँ खंड-खंड भय। और सारे सपने सूखी रुई चबाने की तरह बेस्वाद और उकबाई-भरे।

रात होते-होते लेकिन नींद आ जाती है। नींद दोस्त है। रहम है। ईश्वरीय कृपा है। वह नहीं होती तो शायद हममें से बहुत-से पशु हो जाते। बाप ने पूरे रास्ते बात नहीं की है। न खाने को पूछा है, न पानी को। मामी ने जो खाना साथ रखा था, सारा बैठे-बैठे अकेला भकोस चुका है। पानी उसने पहले पिया, फिर उसी पानी से मुँह-हाथ धोए, कुल्ला किया, पाँव धोए और बोतल खाली करके लटका दी। हम वहाँ भूखे मर रहे थे। और ये यहाँ तर माल उड़ा रही थी। अब रह भूखी। अभ्यास कर ले भूखे रहने का, ठीक रहेगा। उठेगी तो आप ही किसी स्टेशन से भर लाएगी। ज्यादा भूख-भूख करेगी तो मूड़ी ले दूँगा कहीं।

लड़की एक स्टेशन पर पानी भर लाई। पानी पी कर फिर लेट गई। खाली पेट गुरड़-गुरड़ कर रहा था। उठ कर बैठ गई और खिड़की से मुँह सटा लिया। और फिर रोने लगी। कुछ ही देर में वही जाने-पहचाने दृश्य थे। वही कोयल-मैना, केले-कटहल, आम-महुआ, गाँव-जवार, खेत-मैदान, पेड़-गाछ, तालाब-झरने, नदी-पहाड़… वही ठंडी हवा… वैसी ही मादक सुगंध… अचानक उसे लगा, वह अपने-आपको बहला रही है… सुगंध नहीं दुर्गंध है… कहीं कुछ सड़ रहा है… हवा में कुछ सड़ रहा है… जैसे कहीं किसी जानवर की लाश सड़ रही हो… उसे लगा, मक्खियाँ बहुत हैं। डिब्बे में भी। वे वाकई थीं। उसे लगा, उमस बहुत है। उसे लगा, उसके प्यारे देश ने उसके स्वागत में बाँहें नहीं फैलाईं। उसकी मातृभूमि ने उसे उछाह में आकर अंग में नहीं भर लिया। अब वह एक अजनबी की तरह, एक भगोड़े की तरह, एक द्रोही की तरह अपने ही गाँव-घर में प्रवेश करेगी।
और वैसा ही हुआ। माँ उसे देख कर रोने नहीं लगी। मौसियाँ-ताइयाँ देखते ही सिर पर, गाल पर हाथ नहीं फेरने लगीं। चाचा-ताऊ आसीसने नहीं लगे… सखियाँ दौड़ कर गले नहीं लग गईं… बच्चे लटूमने-लटकने नहीं लगे… लड़के दीदी-दीदी कह कर हँसी-मजाक नहीं करने लगे।

सब उसे दीदे फाड़-फाड़ कर देख रहे थे। अब वह एक अजूबा थी। एक चमत्कार थी। एक अविश्वसनीयता थी। उसका बदन भर गया था। रंग साफ हो गया था। हथेलियाँ गुदगुदी थीं। पाँवों में बिवाइयाँ नहीं थीं। बाल लंबे और साफ थे। बदन पर पूरे बल्कि अच्छे कपड़े थे। डिजाइनदार सैंडल पहने थी। छातियाँ औरों की तरह थुलथुल या लटकी हुई नहीं, चोंचदार थीं। आँखों में चमकदार तरलता थी… दंतपंक्ति बिजली जैसी चमकती थी। नहीं, यह वह लड़की नहीं है जो यहाँ से गई थी। जिसे हम जानते थे। जो हमारी थी। गली में कीचड़ है। लड़की एक हाथ से साड़ी को जरा उठाए हुए चलती है। खाने से पहले हाथ धोती है। मक्खियाँ उड़ाती है… कमरे के भीतर जा कर, दरवाजा बंद करके कपड़े बदलती है… मुस्करा कर ‘कैसे हैं आप’ जैसी बातें पूछती हैं… तेल-मसाले में तरकारी भूनती है… गाय-भैंस से बच कर निकलती है… बार-बार चाय पीने की इच्छा करती है… साइकिल चलाना जानती है… नहीं, यह वह हमारी लड़की नहीं है।

लड़की फिर अकेली थी। वहाँ जैसे कपड़े पहनने के बाद भी और कीचड़ में फट-फट नंगे पाँव चलने-फिरने के बाद भी। दरअसल उसके भीतर ही कुछ बदल गया था। उसे कुछ अच्छा ही नहीं लग रहा था। उससे कुछ किया ही नहीं जा रहा था। अब न तालाब पर नहाया जाता था, न बगैर साबुन फचीट-फचीट कर कपड़े धोए जाते थे, न नमक-भात खाया जाता था, न मुस्कराया जाता था, न खुले में फरागत के लिए जाया जाता था। लेकिन इससे पहले कि वह कुछ सोचती, कुछ अनुकूल होने की कोशिश करती… कुछ दी हुई परिस्थितियों को अपना भाग्य मान कर स्वीकार करती… कुछ अपनी पुरानी दुनिया को भूल पाती… कुछ रातों को रामेश्वर के सपने देखना बंद कर पाती… और शायद वह जरूर ऐसा कर लेती, पर इससे पहले कि वह ऐसा कर पाती… उसकी शादी कर दी गई।

सब कुछ पहले से निश्चित था। तीसरे दिन सुबह उसे जल्दी उठा कर, नहला कर हल्दी लगा दी गई और फिर नहला कर ताँत की एक कोरी साड़ी पहना कर पवित्र नारियल हाथ में पकड़ा कर उसे पूजा में बैठा दिया गया। वह छटपटाई, तड़पी, रोई, गिड़गिड़ाई, चीखी, चिल्लाई, लेकिन उसकी किसी ने न सुनी। गाँव-भर की औरतें उसे समझाती रहीं। गाँव-भर के पुरुषों ने उसके आगे हाथ जोड़ लिए। तीसरे पहर बारात आ गई। बाप उसके आगे साष्टांग दंडवत की मुद्रा में लेट गया… हुलहुल ध्वनि और मंगलवाद्यों के शोर में उसकी आत्मा का हाहाकार अनसुना ही रह गया। और रात एक बैलगाड़ी पर सवार हो कर वह दस कोस दूर अपनी ससुराल पहुँच गई।

रो-रो कर लड़की की आँखें सूज गई थीं। वह रो रही थी अपनी साइकिल के लिए… अपने कपड़ों-सैंडल के लिए… अपनी टिकुली-चुटीले के लिए… ब्रा-पेंटी के लिए… साड़ी-तौलिए के लिए… शैंपू-साबुन के लिए… साहब-मम्मी के लिए… अपनी खोई हुई आजादी के लिए… रामेश्वर के लिए… अपने अस्तित्व के लिए… अपनी असहायता-निरुपायता के लिए… अपने नारी-जन्म के लिए।

दो दिन पहले उसका मन रो-रो कर पूछ रहा था, क्यों मुझे स्वीकार नहीं करते हो भाई? मैं तुम्हारी ही हूँ। आगे बढ़ जाना ऐसा कोई अपराध तो नहीं, और आज उसे लग रहा था कि जिनसे वह अपने लिए स्वीकार चाह रही थी, उन्होंने ही मिल कर उसे एक कुएँ में धक्का दे दिया है और बाहर खड़े जय-जय बोल रहे हैं। बस… खत्म। खत्म। अब कुछ नहीं हो सकता।

लड़की का पति शराबी और निकम्मा था। वह शराबी और निकम्मा ही होता, लड़की निभा लेती। बहुत-से लोग शराबी और निकम्मे होते हैं। लेकिन यह मूर्ख भी था। घर में कोई भी औरत नहीं थी। अड़ोसनें-पड़ोसनें ही चाची-ताई थीं। वे सारा शुभकर्म और शकुन की रस्में यथासंभव कर-करा कर चली गईं।

मूर्ख पति ने उस रात लड़की के साथ जो किया उसे पशुता-बर्बरता-बलात्कार-पाशविकता क्या कहा जाए? क्या कहा जाए? मानो वह लड़की को मार ही डालने पर उद्यत था। लड़की कर्तव्य-भाव से भी भोग के लिए प्रस्तुत हो जाती, लेकिन नहीं, उसे अपने पौरुष का लोहा मनवाना था। उसे मानो सारे आगामी जीवन के लिए एक अधिपति भाव धारण करना था। उस मल्ल को मानो लड़की की बुनियादी अस्मिता तक का मानमर्दन करना था। मानो लड़की कोई कटखना साँड़ हो, जिसे काबू में करके दिखाना हो। उसे विश्वास ही नहीं था बगैर बलप्रयोग और पशुता के भी यह सब संपन्न किया जा सकता है।

सुबह लेकिन उस मैली-टुटली सुखशैया पर लड़की के सिर के उखड़े बालों और खून के कुछ धब्बों के अतिरिक्त इस हिंसा के कोई चिह्न नहीं थे। और इन्हें भी देखने वाला कोई नहीं था। लड़की वितृष्णा और उबकाई से भर गई। क्या शादी इसी को कहते हैं? क्या रामेश्वर भी उसके साथ ऐसा ही करता? उठ कर लस्त-पस्त बाहर आई और एक पेड़ की छाया में उकड़ूँ बैठ गई। सिर पकड़ कर। क्या भाग जाऊँ? लेकिन भाग कर जाऊँगी कहाँ? इस अपने मुलुक में क्या कोई भी ऐसी जगह है जहाँ वह भाग कर चली जाए और उसे दोबारा यहीं पकड़ कर न मँगवाया जाए? एक बार जो स्टेशन तक पहुँच पाती। लेकिन दस कोस अपना गाँव और वहाँ से पचपन किलोमीटर स्टेशन… पास में दमड़ी नहीं… और यहाँ तो प्राइवेट बस भी नहीं आती। क्या मामी… क्या रामेश्वर… कितनी दूर हैं वे सब! लेकिन एक दिन… एक दिन वह जरूर इस नरक में से निकल जाएगी, देख लेना।

सारी देह से मानो सड़ांध फूट रही थी। अभी सूरज नहीं निकला था। लोग सो रहे थे। आकाश पर तारे थे। घर के पीछे ही पोखर था। लड़की ने निश्चय किया कि सबसे पहले देह से ‘उसका’ स्पर्श छुड़ाएगी। गई और नहा आई।

लौटी तो आदमी अभी सो ही रहा था। नाक बज रही थी और खुले मुँह में मक्खियाँ घुस रही थीं। लड़की को भूख लगी। घर में कुछ नहीं था। बाहर आई कि एक पड़ोसन दिखाई दे गई। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। पड़ोसन ने पास आते ही कहा कि सुबह-सुबह मिल जाए तो मिल जाए वरना फिर गोबर दिन-भर नहीं मिलता। गाँव की औरतें इतनी खराब हैं कि गाय-भैंस की पूँछ में हाथ घुसेड़ कर सारा गोबर निकाल ले जाती हैं। तुम सुनाओ, मरद के साथ रात कैसे कटी? लड़की ने ससंकोच भूख का जिक्र किया। पड़ोसन तुरंत गई और एक दोने में पके कटहल का एक टुकड़ा रख कर ले आई। सिर पर हाथ फेर कर बोली, ले, खा ले। ईश्वर तुझे जल्दी से बेटे का मुँह दिखाए।

अभी यह बात चल ही रही थी कि लड़की की पीठ पर जोर से किसी ने लात मारी। इतनी जोर से कि लड़की आगे की तरफ मुँह के बल गिरी और दाँतों से खून निकलने लगा। दोना कहीं गिरा। पड़ोसन डर कर भाग गई।

पिटाई जरूरी है। कारण का होना आवश्यक नहीं है। पत्नी की नियमित पिटाई जरूरी है। कल रात जो कुछ हुआ वह तो घर के भीतर हुआ। अब सार्वजनिक रूप से उस आधिपत्य की घोषणा भी तो आवश्यक है। जब तक सारा गाँव जमा हो कर लड़की के लिए दया की भीख न माँगने लगे, वह उसे मारता ही जाएगा। इसी तरह औरत काबू में रहती हैं।

लड़की को चाहिए था कि पहली चोट लगते ही दहाड़ें मार कर रोती या फिर पलट कर खुद भी मारती, जो हाथ में आए उसी से। इतने साल मामी के यहाँ नहीं रही होती तो शायद ऐसा ही करती। लेकिन लड़की भूल चुकी थी और परेशानी यह थी कि वह एक तरह से पूरे इलाके में कुख्यात हो चुकी थी। जैसे कोई पालतू कुत्ता जंगली कुत्तों के बीच आ गया हो। परेशानी यह थी कि वह सुंदर जैसी थी, यानी जरूर कुलटा भी होगी। परेशानी यह थी कि साहब लोगों के बीच रह कर दीन-दुनिया के बारे में बहुत सारी बातें जानने लगी थी, यानी जरूर मन-ही-मन पति को मूर्ख और हेठा समझती होगी, या समझेगी। परेशानी यह थी कि रेल में बैठ कर दूसरे मुलुक घूम आई थी, यानी जरूर खूब माल कमा कर लाई होगी। और परेशानी यह थी कि इसके बाप ने वादा करके भी दहेज में कुछ नहीं दिया था और अपने कर्जे और अपनी दरिद्रता का राग अलापने लगा था ऐन टाइम पर। जिसे साइकिल जैसी वस्तु उपहार में मिल जाती हो, उसका बाप यदि कुछ न दे तो उसे तो मारना ही चाहिए। बल्कि मार ही डालना चाहिए।

पूरे एक साल लड़की सहन करती रही। खुद को हालात के अनुसार गढ़ा। कोई झगड़ा ही नहीं किसी से… न गाली-गलौज… न पति से न और किसी से। इससे पति की देह में और आग लग जाती। सब उसकी तारीफ क्यों करते हैं? वह अच्छी है तो अच्छी क्यों है? लबार क्यों नहीं है? छिनाल क्यों नहीं है? कुलटा क्यों नहीं है? पति की आशंकाओं को गलत सिद्ध करने का उसे क्या अधिकार है? जरूर वह पति को नीचा दिखाने और उसका मजाक उड़वाने के लिए ही अच्छी है।

पति-पत्नी के झगड़े में कोई बीच में नहीं पड़ता… लेकिन जब वह घर के बाहर लड़की को बेदर्दी से पीटता तो बहुत-से लोग बीच में पड़ते और उसे बचाने की कोशिश में पति को भला-बुरा कहते। इससे वह और चिढ़ता। साली ने सबको अपनी तरफ मिला रखा है। उसने लड़की के और साहब के, लड़की के और मामी के, लड़की के और शहरी लोगों के बीच कुछ बेहद गंदे संबंध कल्पित किए और उन्हें घर-घर जा कर सुनाने लगा, ताकि उसकी क्रूरता और वहशीपने को एक तार्किक आधार तो मिल ही जाए। अनेक लोगों ने इस बकवास पर विश्वास नहीं किया, लेकिन लड़की के कानों तक भी बात तो पहुँची ही… वह अर्द्धविक्षिप्त-सी हो गई, पति सारे सभ्य समाज को अपनी कुंठाओं की विष्ठा में लपेट कर सारे सभ्य समाज से अपने असभ्य रह जाने का बदला ले रहा था… और माध्यम थी लड़की।

पूरे एक साल उसने धैर्य से सहन किया। फिर थक गई। हताश हो गई। स्मृति की परीधि से बाहर चले गए साहब… मामी… बच्चा… रामेश्वर… साइकिल… ब्रा… टिकुली… माँ-बाप… सहेलियाँ… गाँव का पोखर… निश्चिंत बचपन… टोप वाले आदमियों का आकर जमीन खोदना… जमीन के नीचे खजाना है… बच्चों का यों ही घूमते-घूमते कॉलोनी चले जाना और एक मामी का पूछना, काम करोगे? भात देंगे। पैसे देंगे। और सबका खिलखिल बगटुट भाग आना… अब रेलगाड़ी एक घुप्प अँधेरे बोगदे में अनंतकाल के लिए खड़ी हो गई थी और कोई भी उसे टॉर्च ले कर नहीं ढूँढ़ रहा था।

साल-भर बाद एक रात लड़की ने यातना के इस अंतहीन सफर को एक झटके से खत्म कर दिया। गले में फंदे लगा कर छत से लटक गई। शायद मृत्यु के उस पार ही कहीं एक हरी-भरी घाटी हो… जिसमें एक लाल कबेलू की छतवाली झोंपड़ी हो… छत पर कद्दू की बेल चढ़ी हो… बेल में पीले-पीले फूल खिले हों… और स्कूल की यूनिफॉर्म पहने एक गोरी, गोल-मटोल बच्ची दरवाजे पर खड़ी अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेली नचा कर उसे टा टा करती हो। खबर कुछ दिन बाद मामी तक भी पहुँची। वह धम्म से सिर पकड़ कर बैठ गई। आधा घंटा साहब और मामी खामोश बैठे रहे। फिर लंबी उसांस छोड़ कर मामी उठीं और बोलीं, अच्छी थी बेचारी।
फिर उस घर में लड़की की बात कभी नहीं हुई।

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