बला | हरि भटनागर
बला | हरि भटनागर

बला | हरि भटनागर – Bala

बला | हरि भटनागर

पाल का दिमाग बुरी तरह पलझाया हुआ है।

पलझाया इसलिए कि दस-पंद्रह दिनों से धंधा पूरी तरह चौपट है। एक तो भयंकर गर्मी और जानलेवा उमस कि लोग मजबूरी में घर से निकलते, दूसरे मंदिर-निर्माण को लेकर शहर में जुलूसों का रेला है। प्रशासन ने शहर के तमाम रास्ते जाम कर रखे हैं। बेरीकेड्स और कंटीले तार …बावजूद इसके जुलूसों का शोर कम होने का नाम नहीं ले रहा है। जुलूस, हल्ला, गिऱतारी और पुलिस… शहर के तकरीबन सभी रास्ते अँटे पड़े हैं, उस पर हाहाकारी गर्मी और उमस…

पिछले दस-पंद्रह दिनों से यह सब मचा है।

पाल रिक्शा चलाता है। रिक्शा किराये पर है। रोजाना के हिसाब से पच्चीस रुपए लगते हैं। सवारी मिले, न मिले। पच्चीस रुपए उसे हर हाल में भरने हैं। ऐसी हालत में गलियों में निकलने पर भी उसे सवारी न मिली। उसने सोचा था जब बड़े रास्ते बंद हैं तब छोटी गलियाँ आवाजाही के लिए खुली होंगी और सवारी जरूर मिलेगी, लेकिन गलियों का हाल भी बुरा था। दिन पर दिन निकलते गए सवारी न मिली। उसका दिल रो रहा था। क्या करे वह? घर का पेट कैसे पले? दस दिन पहले पिसान खत्म हो गया था। सिर्फ एक झोला शकरकंद थी। वह और उसका परिवार भूख जगने पर जिसे भूनकर, थोड़ा-थोड़ा और जरूरत से ज्यादा पानी के साथ हलक के नीचे उतार लेता था, लेकिन कल रात से शकरकंद भी न थी। खुद वह भूखा रह सकता है, पत्नी भी रह सकती है, मगर छोटी बच्ची, उसे तो कुछ खाने को चाहिए सोचकर वह परेशान था।

उसकी घरवाली ने साफ कह दिया था कि किरानेवाले और पड़ोसियों ने उधारी के लिए हाथ जोड़ लिए हैं। उसे देखते ही वे मुँह फेर लेते हैं। अभी वह पड़ोसी मंगल के यहाँ गई थी कि आलू या कुछ भी मिल जाए लेकिन जब खुद मंगल के पास कुछ न था तो वह उसे क्या देता! पत्नी खाली हाथ, उदास लौटी और टटरे से टिक के बैठ गई, कनखियों से पाल को देखते हुए।

– सब जगह फिर आई, किसी के पास खाने को संखिया तक नहीं! – थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने उदास स्वर में कहा।

पाल ने पत्नी की बात सुनी जैसे आग से चहक गया हो। फिर भी अनमना बना रहा। उसने उदास भाव से धुंध भरे आसमान की ओर देखा जिसमें गर्मी की वजह से एक भी चील-गिद्ध न थे। अगर होते तो जरूर उसके ढेर होने के इंतजार में मँडरा रहे होते!

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– कब तक मंदिर की आग बरती रहेगी? पत्नी ने माथा पीटते हुए पाल से पूछा।

पाल जवाब देना नहीं चाहता था। सहसा उसके माथे पर बल आ गया, क्रोध में बोला – यह आग कभी बुतने वाली नहीं, हम लोगों को जलाकर भी नहीं!

इस पर उसकी घरवाली ने दाँत पीस डाले। थोड़ी देर रुककर वह आहत स्वर में बोली – पुष्पी सो रही है, जगने पर क्या दूँ? पत्नी के प्रश्न पर उसने गुस्से में तड़पकर सिर थाम लिया – नाहक दिल जलाती है ससुरी! उसका मन हुआ कि उठे और पत्नी को हन के थपारा मारे कि प्रान निकल जाएँ! कमीन, जान रही है हाथ बँधे हैं, फिर भी लुघरिया करने से बाज नहीं आ रही।

यकायक पत्नी को जैसे कुछ याद आया, वह उठी और झुग्गी के अंदर चली गई। थोड़ी देर बाद लौटी तो उसके हाथ में आधी रोटी का कई दिन का सूखा टुकड़ा था जिसे वह चेहरे पर हल्की करुण मुस्कान के साथ कागज के ऊपर रखकर लोढ़ी से चूर करने लगी।

पाल समझ गया कि पत्नी ने बच्ची को बहलाने का रास्ता ढूँढ़ निकाला। अब वह चूर्मा जैसा कुछ बनाएगी। चलो अभी का संकट तो टला! जिस गुस्से के हवाले वह था, अब काफूर था। पत्नी पर वह गलत नाराज हो रहा है। वह तो खुद बेहाल है। आर्त्त होता जब वह यह सोच रहा था तभी पड़ोसी रामहरस आता दिखलाई दिया। उसके पीछे एक अधेड़ आदमी बड़ा-सा लट्ठ लिए चला आ रहा था। उसके पीछे एक बूढ़ी-सी औरत थी। आदमी गंजा था, मटमैली बनियान पहने, उस पर लाल गमछा डाले। घुटनों तक धोती खुटियाये वह नंगे पाँव था। औरत नीली धोती पहने थी। मुँह सूखा और झुर्रियों से लदबद था। पाँवों में वह बड़े पट्टों की घिसी-सी हवाई चप्पल पहने थी। हाथ में प्लास्टिक का झोला था। जाहिर है, उसमें गृहस्थी का सामान होगा।

दोनों को देखते ही पाल पहचान गया। सुक्खू और उसकी घरवाली थे।

सुक्खू पाल के गाँव का है और बचपन का दोस्त। तीन साल पहले जब पाल गाँव से भाग कर इस शहर में आया था, शहर के एक कोने में पहले किराए से रहा, फिर अपनी झुग्गी डाल ली थी और रिक्शा पकड़ लिया था। उसे सुक्खू का खयाल आया था कि अगर वह भी आ जाए तो कितना अच्छा हो! सुख से दोनों जून रोटी तो नसीब होगी! वहाँ सूखे में क्या मिल रहा है उसे – भुखमरी और परेशानी! पिछले साल जब वह गाँव गया था, सुक्खू के पीछे पड़ गया, शहर आ जाने के लिए। उस वक्त सुक्खू ने कोई जवाब तो नहीं दिया था, लेकिन अंदर ही अंदर मन में वह शहर का सपना पाल बैठा था, पाल को देखकर।

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लेकिन पिछले माह जब प्यास से दोनों बैल मर गए और गाभिन गाय, उसने मन बना लिया शहर जाने का। और कल रात वह बस में बैठ ही गया पत्नी के साथ।

मगर इस वक्त सुक्खू को देखकर पाल पसीना-पसीना हो गया। इस संकट में यह सुक्खू कहाँ से और क्यों आ टपका, घरवाली के साथ?

रामहरस झुग्गी के सामने आ खड़ा हुआ। जूते में आ गए कंकड़ को निकालते हुए उसने सुक्खू को इशारे से पाल को दिखलाया और चलता बना।

यकायक पाल उठा और तेजी से चलकर झुग्गी के पीछे चला गया जैसे उसने सुक्खू और उसकी घरवाली को देखा ही न हो। अँगौछे से वह रिक्शा झाड़ने लगा और इतनी धूल करने लगा ताकि सुक्खू और उसकी घरवाली उसमें खो जाएँ।

लेकिन सुक्खू और उसकी घरवाली धूल में खोने वाले न थे। पाल ने संध से झाँका, उसकी घरवाली चिहुँक कर उठी और पहले तो सुक्खू के गोड़ छुए फिर सुक्खू की घरवाली से जोरों से लिपट गई और जोर-जोर से रो पड़ी।

दोनों औरतें खुशी में जोर-जोर से रो रही थीं और सुक्खू गमछे से अपने ऊपर हवा कर रहा था – मुँह बाए दोनों को भेंटाते हुए देखकर।

पाल अंदर तक भीग गया लेकिन उसने गरदन झटकी, अपने को कर्रा किया और रिक्शे पर बैठने को था कि पत्नी ने पीछे से उसकी कमीज खींची।

– कैसे मानुष हो जी तुम? कहाँ चले, कुछ तो करो!

– क्या करूँ?

– अतिथि को जलपान तो कराना होगा?

– जहर दे दे- पाल गुस्से में तड़पकर बोला – यहाँ क्यों आए? क्या रखा है यहाँ? देख नहीं रही है भूखे मर रहे हैं। और तू इस पे कह रही है जलपान तो कराना होगा? तू… तू… वह हकला उठा – तू कह दे, लौट जाएँ यहाँ से…

– कह दूँ? पत्नी ने सख्त होकर कहा।

– हाँ, कह दे। – कहता वह रिक्शा खड़खड़ाता सड़क की ओर बढ़ गया।

पाल ने अतिथि को जहर देने को कह जरूर दिया लेकिन अंदर ही अंदर वह इस वाक्य के गुंजलक में दिन भर तड़पता रहा। एक गली से दूसरी गली, इधर से उधर वह कभी पैदल, कभी पैडल पर खड़े होकर रिक्शा खींचता रहा, सवारी की खोज में, लेकिन दिमाग में सुक्खू और उसकी घरवाली बने रहे जिन्हें उसने देखकर भी नहीं देखा। भेंटाया भी नहीं। जल-पान तो दूर, मुँह फेर कर भाग खड़ा हुआ था।

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उसे दुख था कि क्यों वह उसे शहर आने के लिए न्यौत आया था और धंधा-पानी जमवा देने का वादा कर आया था! रह-रहकर वह सोचता और सिर धुनता जाता था।

दिन भर इन्हीं सवालों से लड़ता वह सवारी की तलाश में भटकता रहा। भूख-प्यास से उसका हाल बेहाल था, फिर भी सुक्खू पछतावे की तरह उसके दिमाग में बना रहा।

शाम होने को आई एक सवारी हाथ न लगी, उसका पछतावा और बढ़ गया। झुग्गी की तरफ किस मुँह से जाए? पत्नी से तो वह आँख मिला भी लेगा लेकिन सुक्खू और उसकी घरवाली से! रंज में डूबा वह यह सोच रहा था तभी एक सवारी रिक्शे में आ बैठी। हालाँकि उसे यकीन नहीं हो रहा था कि सवारी आ बैठी है क्योंकि लंबे समय से सवारी नहीं मिली थी।

सँकरी गलियाँ पार करता जब वह गंतव्य तक पहुँचा सवारी ने उसे दस रुपये दिये।

अप्रत्याशित रूप से दस रुपये पाकर वह इतना खुश हुआ कि सवारी के उसने पाँव छू लिए और जोरों से रो पड़ा। जैसे कहना चाहता हो, ये पैसे पहले मिल जाते तो कितना अच्छा होता। खैर।

दस रुपये का उसने चक्की से पिसान खरीदा और पैदल, दौड़ता हुआ रिक्शा खींचता झुग्गी की ओर बढ़ा, हुलास में। जल्द से जल्द वह ठीहे पर पहुँच जाना चाहता था, अतिथि के स्वागत में।

रिक्शा टिकाता जब वह झुग्गी पर पहुँचा, पत्नी ने गीले स्वर में बताया कि अतिथि तो उसी बखत उल्टे पाँव लौट गए!

उसी बखत लौट गए!!! वह पत्नी पर बेतरह बमका कि तूने रोका क्यों नहीं; पत्नी ने और भी गीले स्वर में कहा – मैंने तो लाख मनाया, दोनों माने नहीं। फिर कभी आने की कह के चले गए – एक क्षण रुककर पत्नी ने आगे कहा – पुष्पी के लिए दोनों सत्तू रख गए!

– सत्तू!!! खुद भूखे रहकर उल्टे सत्तू दे गए!!!

पाल को लगा जैसे किसी ने उसका कलेजा निकाल लिया हो। हाथ से पिसान का थैला छूटकर जमीन पर गिर पड़ा।

वह रो पड़ा।

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