वह ऐसा ही था। सुबह से शाम तक काम में लगा रहता। न किसी के पास बैठता, न अधिक बोलता… यहाँ तक कि गाँव में होने वाले किसी राग-रंग में भी भाग नहीं लेता। होली में समूचा गाँव फाग के रंग में रंगा होता, लेकिन वह अपनी चैपाल में पड़ा होता या खेतों में काम कर रहा होता। उसके संगी-साथी टोकते, ‘बिसराम किसके लिए खट रहा है तू… भाई-भौजाई-भतीजों के लिए… दिन रात एक किए रहता है… जवानी ख्वार किए दे रहा है।’

वह उनकी ओर एक उचटती दृष्टि डालता और कोई उत्तर नहीं देता।

‘बिसराम जैसा लक्ष्मण भाई भगवान सबको दे।’ गाँव के कुछ लोग कहते, ‘अपने रास्ते आना-जाना… किसी लड़की की ओर नज़र उठाकर भी न देखना…’

पंडित बृजमोहन मिश्र जिन्हें गाँव वाले बृजमोहन मिसिर कहते और जो गाँव में दूसरों के घर तोड़ने-फोड़ने के लिए प्रसिद्ध थे, प्रायः उसे छेड़ते, ‘तू रँड़ुवा ही मर जाएगा रे बिसराम… नाहक जिन्दगी अकारथ किए दे रहा है।’

बिसराम उनकी बात इस कान से सुनता, दूसरे कान से निकालता और अपने रास्ते चला जाता। मिसिर दाँत भींच लेते।

एक दिन मिसिर ने खेतों की ओर जाते हुए उसे घेर लिया, ‘बिसराम, तूने हाई स्कूल तक पढ़ाई की… नौकरी करने के बजाए तू भाई-भाभी की गुलामी कर रहा है और उन्हें तेरे विवाह की परवाह ही नहीं या तू…?’

पहली बार बिसराम ने पलटकर पूछा, ‘चाचा ‘तू’ से आपका मतलब?’

‘तू… तू… से मतलब तू समझ… अट्ठाइस साल की उमिर हुई… अब कौन करेगा तुझसे शादी! तू मूरख है… समझता क्यों नहीं कि तेरा भाई नहीं चाहता कि तेरा विवाह हो। उसने तो तभी शादी कर ली थी जब वह चौबीस का था… उसने कभी भी तुझसे तेरी शादी की चर्चा की? जब भी कोई तेरे विवाह के लिए आया तुझे मिलवाया उससे? पता नहीं क्या कह देता रहा कि रिश्ते वाले तुझसे बिना मिले पलटकर दरवाजे नहीं आए और अब वह कहते घूम रहा है कि शादी में तेरी रुचि ही नहीं है। तू निपट मूरख है… समझ यह सब… तेरी शादी होगी तो बच्चे भी होंगे… कभी न कभी पुश्तैनी जमीन बँटेगी… शादी नहीं होगी तो सब कुछ उसका… उसके बच्चों का…’

उसने अन्यमनस्क भाव से बृजमोहन मिसिर की बात सुनी थी। उत्तर नहीं दिया था।

‘तू सच ही मूरख है… कोल्हू का बैल है… दस जमात पढ़ाई की… सरकारी नौकरी मिल जाती… बाबू बना घूमता। सैकड़ों लड़की वाले तेरे आगे-पीछे घूमते… लेकिन तेरे भाई सुखराम ने ऐसा नहीं चाहा। सारा गाँव कहता है कि तब उसकी गुलामी कौन करता! उससे भी बड़ी बात… जायदाद…’

बिसराम चुप ही रहा था। उसके बाद वह बृजमोहन मिसिर के सामने आने से बचने लगा था। मिसिर जब भी उसे दिखाई देते, वह रास्ता बदल देता।

लेकिन एक दिन जब किसना ने भी कुछ वैसा ही कहा तब वह अपने को रोक नहीं पाया। गाँव में किसना एकमात्र उसका अच्छा मित्र था। दोनों ने साथ ही पहली से हाई स्कूल तक की पढ़ाई की थी। किसना ने सरकारी नौकरी के लिए कई वर्ष हाथ-पैर मारे और असफल होकर खेती की ओर रुख किया था। लेकिन उसने पहले ही सोच लिया था कि वह नौकरी नहीं खेती करेगा। उसके पिता बड़ा कर्ज दोनों भाइयों के सिर छोड़ गए थे, जो उन्होंने अपनी दो बेटियों के विवाह में दहेज देने के लिए लिया था।

‘हाई स्कूल पास को यदि नौकरी मिली भी तो उससे अपना खर्च पूरा करने वाला वेतन भी नहीं मिलने वाला। छोटी नौकरी से वह पिता द्वारा लिया गया कर्ज चुकता नहीं कर पाएगा।’ उसने सोचा था, ‘यदि भाई के साथ खेतों में मिलकर काम करूँगा तो बिगड़े हालात जल्दी ही सुधारे जा सकते हैं।’

और उसने भाई के साथ खेतों का काम सँभाल लिया था। हालात सुधरने लगे थे।

‘किसना’ वह बोला था, ‘तुम भी पंडित बृजमोहन की भाषा बोलने लगे।’

‘मुझे गलत मत समझो बिसराम… लेकिन इतना ध्यान रखो कि हर बात का समय होता है। यह मत भूलो कि तुम गाँव में रहते हो… जितने मुँह… उतनी ही बातें। शहर की बात और है… लेकिन…’

बिसराम चुप रहा तो किसना ने आगे कुछ नहीं कहा था।

उस दिन बिसराम खेतों में खाद फेंक रहा था। बैलगाड़ी खेत के मेड़ के पास खड़ी थी। बैल जुए से बँधे हुए खड़े थे और वह अकेले ही गाड़ी में घूर से भरकर लायी खाद टोकरे में भरकर पंक्ति से उसके ढेर लगाता जा रहा था। बृजमोहन मिसिर कब बैलगाड़ी के पास आ खड़े हुए उसने नहीं देखा। जब खेत में टोकरा पलटकर वह लौटा, गाड़ी के पास मिसिर को मुस्कराते पाया। उसने पाँयलगी की तो आसीसते बृजमोहन ने आशीर्वाद दिया।

बिसराम ने टोकरा फावड़ा के पास रखा और खड़ा हो गया और मिसिर को मुस्कराता देखता रहा। जून के पहले हफ्ते का कोई दिन और सुबह का समय था। सूरज का ताप बढ़ने लगा था। बिसराम का कुर्ता पसीने से तर-बतर होकर उसके शरीर से चिपका हुआ था। उस पर खाद और मिट्टी पड़ी हुई थी। उसके पसीने की बदबू मिसिर के नथुनों को परेशान कर रही थी, लेकिन वे कुछ कहने के लिए बिसराम के पास खड़े थे इसलिए उसके पसीने की बदबू को बर्दाश्त कर रहे थे।

एक गिलहरा गिलहरी के पीछे दौड़ता हुआ पास खड़े नीम के पेड़ पर चढ़ गया था। गिलहरी चीं…चीं करती हुई एक डाल से दूसरी डाल पर उछल रही थी और गिलहरा उतनी ही फुर्ती से उछलता उसके पीछे दौड़ रहा था।

‘बिसराम तू देख रहा है इस गिलहरी और गिलहरे को… कैसी केलि कर रहे हैं!’

बिसराम को गिलहरी-गिलहरे के खेल में कोई रुचि न थी। उसने उत्तर नहीं दिया। मिसिर का वहाँ होना उसे अखर रहा था। वह चाहता था कि सूरज चढ़ने से पहले कम से कम दो खेप वह और लगा ले। वह पहला खेत था, जिसमें सुबह से केवल दो चक्कर ही उसने लगाए थे। दो खेप और लगा लेने से पूरे खेत में खाद के ढेर लगा लेगा। उस खेत के अलावा दस खेत और थे जिनमें उसे खाद डालनी थी। उसके बाद बरसात से पहले खेतों में खाद फैलानी भी थी।

‘मैंने सुना कि तूने शादी से इंकार कर दिया है?’ बृजमोहन हाथ के बेंत से बैलगाड़ी में खट-खट करते हुए बोल रहे थे। बिसराम उनकी ओर देख रहा था। ‘तेरा भाई इस बात से बहुत परेशान है।’

‘आपको ही मालूम होगा।’ बिसराम अपने को रोक नहीं सका। उसके निजी जीवन में मिसिर का इस प्रकार दखल देना उसे पसंद नहीं आ रहा था। उलट उत्तर देने का स्वभाव नहीं था, लेकिन ‘बर्दाश्त की भी हद होती है।’ उसने सोचा।

‘मुझे मालूम है… तुझे नहीं?’

बिसराम के मन में आया कि वह पूछे कि उसके विवाह को लेकर वह क्यों परशान हैं लेकिन वह चुप रहा।

‘तू सच ही कोल्हू का बैल है। तूने शादी से इंकार किया तो कुछ बात तो होगी ही।’ बृजमोहन ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दी।

‘क्या बात होगी?’ बिसराम का चेहरा तमतमा उठा।

‘भई, मैं ही नहीं… अब तो पूरा गाँव कहने लगा है।’

‘क्या कहने लगा है मिसिर जी?’ बिसराम ने तल्ख स्वर में पूछा।

‘सही जगह उँगली रखी मैंने… यही बात है।’ बृजमोहन मिसिर यह सोचकर मगन हो रहे थे।

‘तू खुद सोच… छोटा नहीं है। कई देखुवा लौट गये। कुछ दिनों में ही जवानी उतार पर आ जाएगी… बात साफ है।’

‘क्या बात साफ है?’

‘यही… यही… कि तू शादी लायक है ही नहीं…’ बृजमोहन मिसिर ने व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ कहा और एक बैल, जो छुल्ल-छुल्ल मूत रहा था, की पीठ पर बेंत चुभाते हुए सड़क की ओर मुड़ गए।

‘मिसिर जी…’ बिसराम चीखा, ‘निवृत होते समय आपकी पीठ पर कोई बेंत चुभाए तो कैसा लगेगा?’’

बृजमोहन मिसिर ने उसकी बात को जैसे सुना ही नहीं, मुड़कर नहीं देखा।

बिसराम ने टोकरा उठाया और गाड़ी से खाद भरने लगा लेकिन उसे लगा कि हाथ बेजान हो रहे हैं। सिर पर टोकरा रख फेंकते जाते समय उसे पैर डगमगाते-से प्रतीत होने लगे थे। गाड़ी खाली कर वह दोबारा घूर की ओर नहीं गया। घेर में बैलों को बाँध वहीं चारपाई पर लेट गया और शाम तक लेटे सोचता रहा। पूरे समय बृजमोहन मिसिर का वाक्य उसके कानों में गूँजता रहा था।

बिसराम में हुए परिवर्तन ने सभी का ध्यान खींचा। उसकी भाभी ने पति से कहा, ‘आजकल बिसराम का मन काम मा न लागि रहा। बरसात नजदीक है अउर अबै तलक खेतन मा खाद नहीं पहुँची। तुमका अपने धंधे से फुर्सत नहीं…’

‘मैं भी देख रहा हूँ;’ सुखराम ने कहा, ‘लेकिन, अनाज मंडी नहीं पहुँचाऊँगा तो काम नहीं चलेगा। पाँच साल से बिसराम खेत सँभाल रहा है… उसी की सलाह पर मैंने अनाज खरीदकर शहर की मंडी में बेचने का काम शुरू किया था। इससे कुछ बरक्कत भी हुई… वर्ना बप्पा के लिए कर्ज से छुटकारा नहीं मिलता। कर्ज निबट आया है… उसकी सिर्फ पूँछ ही बची है। इस साल के आखिर तक वह भी खत्म हो लेगी।’

‘वो तो ठीक है, पर तुम शहर की मंडी मा अनाज बेचैं जात हौ तो दुइ दिन का काम चार दिन मा करिकै लौटत हौ।’

‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ सुखराम ने आँखें टेढ़ी करके पूछा।

‘यहै कि दुइ दिन का काम चार दिन…’

‘मूलगंज जाता हूँ… सरौता बाई के कोठे पर…’

‘हाय राम… हमार यो मतलब तो न था। मुला खेती की तरफ आपौ का ध्यान दें का चाही। पता नहीं का बात है… कई दिनन से बिसराम कुछ करि नहीं रहे।’

‘उसकी तबीयत कुछ ढीली होगी। मैं पूछूँगा।’

‘हमहूँ यहै सोची… पर तबियत ढीलि रहै तो बिसराम का बतावैं का चाही… हमरी एक बात सुनौ… तुम अब गंभीरता से उनकी शादी की चिन्ता करौ।’

‘करी खाक… कोई लड़कीवाला पतियाए तब न… जब भी कोई यहाँ आता है गाँव वाले भेड़ मार देते हैं। पता नहीं उसे क्या समझा देते हैं… लौटकर वह दोबारा नहीं आता। अब तो लोग बिसराम के बारे में उल्टी-पुल्टी बातें करने लगे हैं। किसना बता रहा था कि बृजमोहन मिसिर किसी से कह रहे थे कि बिसराम शादी लायक है ही नहीं… शादी करेगा तो… चौथे दिन ही बीवी उसको छोड़ भागेगी।’

‘आगि लागै मिसिर के मुँह मा… वह तो है ही अइस। घर तोड़ै-फौड़ै वाला।’ लम्बी साँस खीच पत्नी बोली, ‘गाँव परचंची होइ गया है।’

‘पहले से ही रहा… किसका मुँह रोकें… लोग मजा लेते हैं। मिसिर घरों में आग लगाकर दूर से तमाशा देखने में माहिर है।’

सुखराम की पत्नी कोई उत्तर न देकर सिर हिलाती रही।

शाम को सुखराम ने बिसराम से पूछा तो उसने बताया कि उसकी तबीयत ढीली थी इसलिए खेतों में खाद नहीं पहुँची।

‘डॉक्टर के पास क्यों नहीं गए? अब जाओ।’

‘अब ठीक है।’

‘मैं तुम्हारे साथ लग लेता हूँ… असाढ़ लगने़ वाला है। आसमान कभी भी टपक सकता है। खेतों में खाद पहुँचना बहुत जरूरी है।’

‘पहुँच जाएगी।’ बिसराम ने मंद स्वर में कहा।

‘एक मजदूर लगा देता हूँ।’

बिसराम चुप रहा। सुखराम ने इसे उसकी स्वीकृति माना और अगले दिन पसियाने से एक मजदूर की व्यवस्था कर दी। बिसराम ने पुनः खेतों में खाद पहुँचाना प्रारम्भ कर दिया। सुबह चार खेप और शाम को चार के बजाए वह दो खेपों में ही मजदूर के साथ रहता। शेष दो खेप मजदूर अकेले ढोता। शाम को बिसराम गाँव के पश्चिमी छोर पर बहने वाले बंबे की पुलिया पर जा बैठता। गाँववालों के लिए यह अचम्भे की बात थी, क्योंकि उन लोगों ने उसे उससे पहले घर और खेतों के बीच ही डोलते देखा था। कुछ लोगों ने चुटकी भी ली, लेकिन बिसराम ने कोई उत्तर नहीं दिया। गाँव नाते भौजाइयाँ उधर से गुजरते हुए उससे हँसी-मजाक करतीं, लेकिन बिसराम मुस्कराकर उन्हें टाल जाता रहा।

बृजमोहन मिसिर की जवान बेटी सरस्वती शाम को रोजाना अपने बाग की ओर जाती थी जो पुलिया से आध फर्लांग की दूरी पर बंबे की पटरी से सटा हुआ था। बाग आमों का था, जिसे मिसिर ने गाँव के एक मुसलमान कुँजड़े को अधाई पर दे रखा था। सरस्वती दिन भर टपके आमों में से आधे आम लेने जाती थी। कई दिनों तक बिसराम उसे आते-जाते देखता रहा। उसके पास से गुजरते हुए सरस्वती कनखियों से उसे देखती और एक हल्की मुस्कान के साथ तेजी से निकल जाती। बिसराम भी उसे उसी प्रकार देखता। एक दिन वह सरस्वती के पीछे उसके बाग तक गया लेकिन दोनों में संवाद नहीं हुआ। यह सिलसिला कई दिनों तक चला। एक दिन जब वह सरस्वती के पीछे जा रहा था, उसने पश्चिम की ओर से उठते भयानक चक्रवात को गाँव की ओर बढ़ते देखा। वे बीस-पचीस कदम ही आगे बढ़े थे कि धरती से आसमान तक अँधेरा छा गया। हवा इतनी तेज थी कि उड़ जाने का खतरा महसूस होने लगा। डरी-सिमटी सरस्वती एक पेड़ से सटकर खड़ी हो गयी थी और काँप रही थी। वह उधर बढ़ ही रहा था कि तभी उसे सरस्वती की चीख सुनाई दी। चक्रवात ने सरस्वती को अपने घेरे में जकड़ लिया था। वह उसे ऊपर को उड़ती दिखाई दी। उसने लपककर उसे पकड़ लिया और खींचकर जमीन पर लेट गया।

चक्रवात जब गुजर गया और अंधड़ जब खत्म हुआ, रात हो चुकी थी।

गाँव में एक बार फिर बिसराम की चर्चा थी।

मिसिर के घर से आती आवाजों को सुनने का दावा करते हुए पड़ोस के लोग चटखारे ले-लेकर बताने लगे थे कि उस शाम का खुला ब्यौरा घरवालों को देकर सरस्वती बिसराम के साथ विवाह करने पर अड़ गई थी। पंडित बृजमोहन मिसिर यह आघात बर्दाश्त नहीं कर पाए और पक्षाघात का शिकार हो गए थे।

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