बाहुबली | जयनंदन
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बाहुबली | जयनंदन – Bahubali

बाहुबली | जयनंदन

प्रोफेसर अतुल ने अपने दोनों बेटे विपुल और विनय के लिए कई-कई सपने देखे थे। वे सारे व्यर्थ हो गए और उन्हें पता भी नहीं चला कि कब विपुल और बाद में उसी के नक्शेकदम पर कब विनय अपराध की दुनिया में दाखिल हो गया। जब उनकी मार्फत घर में ऐश्वर्य, विलास और नफासत की महँगी-महँगी दुर्लभ चीजें आने लगीं तब उनके कान खड़े हुए, मगर तब तक काफी देर हो चुकी थी।

वे चाह कर भी कुछ नहीं कर सके थे… कर भी नहीं सकते थे, चूँकि उनके पैर के जूते अब विपुल-विनय को छोटे पड़ने लगे थे। देखते ही देखते छोटी-मोटी मारधाड़, लूट-खसोट और लुच्चई-लफंगई के रास्ते वे अपराध के शीर्ष पर काबिज होते चले गए।

अतुल बाबू का खयाल था कि विपुल के आतंककारी और असामाजिक रवैये के कारण लोगों की उनके और उनके परिवार के प्रति घनघोर नफरत हो जाएगी। लेकिन यह देख कर वे हैरत में घिरते चले गए कि विपुल की साख और धाक किसी धुंध की तरह आसपास तेजी से फैलती चली गई। किसी की आँख में या चेहरे पर एक बुरे आदमी के प्रति दिखनेवाली स्वाभाविक हिकारत या अवहेलना के जो भाव होने चाहिए, वे कहीं नहीं थे। उल्टे, उत्सव-समारोह में उसे एक गणमान्य व्यक्ति के तौर पर बुलाया जाने लगा था… बडे़-बड़े उलझे हुए सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए उसे सानुरोध शामिल किया जाने लगा था। एक असामाजिक आदमी के द्वारा सामाजिकता का ऐसा भयानक स्वाँग!

अतुल बाबू ने समझाया था खुद को कि शायद ये सब ठकुरसुहाते व्यवहार हैं। वस्तुस्थिति का सही आकलन तो तब होगा जब इस घर से रिश्तेदारी करने या किसी मुसीबत में साथ देने की बात होगी। निश्चय ही उस समय लोग मुँह फेर लेंगे। लेकिन उनका यह अनुमान भी गलत साबित हुआ। विपुल के लिए एक से एक बड़े-बड़े नामी-गिरामी घराने से शादी के रिश्ते आने लगे। अतुल बाबू एक बार फिर अचंभित… स्तंभित। बुद्धि भ्रष्ट तो नहीं हो गई इनकी कि हिंसा-रक्तपात के सौदागर से संबंध बनाना चाहते हैं? वे भी इतनी बड़ी-बड़ी हैसियत-लियाकत के लोग! आनेवालों में एक सांसद थे, एक उद्योगपति, लाखों से खेलनेवाला एक व्यापारी। ये रसूखदार लोग तो जब चाहें तब अपने लिए एक से एक होनहार-प्रतिभावान लड़के आसानी से ढूँढ़ सकते हैं। प्रोफेसर ने उन्हें दबे स्वरों में आगाह कर देना उचित समझा कि वे जान-बूझ कर दलदल में न फँसें। मगर उनमें से एक सांसद महोदय इस तरह उनकी बातों को हँसी में उड़ा गए जैसे वे बहुत नादान-नासमझ हों। मना करने से भी न मानने पर अंततः उन्होंने अपनी पत्नी रैना देवी से उन्हें बातचीत करने की राय दे, खुद कन्नी काट ली।

बाद में उन्हीं सांसद की लड़की से खूब धूम-धड़ाके के साथ विपुल की शादी संपन्न हो गई। अतुल बाबू एकदम निरपेक्ष भाव से अलग-थलग रह गए। निभ भी गया, चूँकि शादी एक नई विशाल कोठी में हुई। उनका नाराज रंग-ढंग और तेवर देख कर शादी में सक्रिय होने के लिए उनसे पूछा ही नहीं गया, अगर पूछा भी जाता तो वे तैयार नहीं होते। उन्होंने तय किया था कि बिटिया नम्रता की शादी वे अपनी इच्छा के अनुरूप अपने बलबूते अपनी औकात और अपने साधन लगा कर करेंगे। किसी की कोई सहायता लिए वगैर खुद ही लड़का ढूँढ़ेंगे और सारा इंतजाम करेंगे। इसमें अपनी शुद्ध गाढ़ी कमाई का उपयोग करेंगे और विपुल के एक भी दूषित-नाजायज पैसे को लगने नहीं देंगे।

विपुल और विनय की बर्बर आपराधिक कारगुजारियों से पुलिस की नींद हराम होने लगी थी और अक्सर घर पर छापा, तलाशी और पूछताछ का दौर चलने लगा था। दो-तीन बार तो गिरफ्तारी वारंट के बावजूद फरारी के कारण घर की कुर्की-जब्ती तक हो गई। आजिज आ कर अतुल बाबू ने कोर्ट में उससे संबंध विच्छेद कर लेने की अर्जी दे कर एफिडेविट करा लिया। लोगों ने समझा कि कानून से बचने के लिए यह एक दाँव खेला है अतुल बाबू ने। लेकिन उन्होंने कहा कि यह एक दिखावा भर नहीं है, बल्कि हकीकत है। ऐसी चारित्रिक बेईमानी वे कतई नहीं करेंगे कि आचरण कुछ और व्यवहार कुछ। संबंध विच्छेद कर लिया तो इसका पालन करते हुए वे वाकई विपुल से कोई लगाव नहीं रखेंगे, यहाँ तक कि बातचीत भी नहीं। अतुल को सनकी समझ कर घर के अन्य सदस्यों ने इस कदम को बस कानूनी फायदा उठाने तक ही सीमित रखा और विपुल-विनय से सान्निध्य में कोई कमी नहीं आने दी।

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नम्रता जब बी.ए. कर गई तो अतुल बाबू ने सोचा अब उन्हें अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर ही देना चाहिए। वे वर की तलाश में लग गए… कई जगह आना-जाना शुरू कर दिया। एक जगह बात पक्की हो गई। लड़का डॉक्टरी पढ़ रहा था और उसके पिता किसी दवाई कंपनी के सेल्स एक्जीक्यूटिव थे। वे दूसरे शहर के होने के बावजूद अतुल बाबू को जानते थे। चूँकि अतुल बाबू का एक सहकर्मी प्राध्यापक उनका दोस्त था जो अक्सर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा किया करता था।

वे सज्जन जब नम्रता को देखने आए तो पहले अपने प्राध्यापक मित्र से मिले। मित्र ने कहा, ‘तुम्हारा सौभाग्य है कि शादी बड़े मशहूर घराने में तय हो रही है।’

लड़के के पिता ने कहा, ‘हाँ जब प्राध्यापक ही हैं और वह भी प्रकांड विद्वान तो इनका घर मशहूर तो होगा ही।’

मित्र ने टोका, ‘नहीं, यह घराना इनकी वजह से नहीं बल्कि इनके ज्येष्ठ पुत्र विपुल की वजह से मशहूर है।’

वे हैरत में पड़ गए। फिर तो सारी बातें जान कर ही उन्होंने दम लिया। मित्र ने तो यह समझ कर बताया कि वे जान कर और प्रभावित हो उठेंगे पर वे बुरी तरह बिदक गए और उससे साफ-साफ कह दिया कि ऐसे संस्कारोंवाले घर में वे अपने बेटे का ब्याह नहीं करेंगे।

इस प्रसंग की सूचना देते हुए उनके सहकर्मी प्राध्यापक ने सोचा था कि प्रोफेसर अतुल बहुत दुखी और नाराज हो उठेंगे, पर वे जैसे एकदम उत्साहित हो कर उछल पड़े। यह पहला बेबाक और दिलेर व्यक्ति उन्हें मिला जो विपुल को पसंद करने की जगह उसे सिरे से खारिज कर रहा था। शादी होने से भले ही उन्हें कुछ और सुख मिलता मगर इस इनकार से भी कम तसल्ली नहीं मिली। घरवालों को जब पता चला तो उन्हें भी अच्छा ही लगा। चूँकि वे उस दवा-दारू के धंधेवाले परिवार को अपनी तुलना में बहुत तुच्छ समझ रहे थे। विपुल का मानना था कि रिश्ता उससे करो जो हमारी टक्कर का हो और हमारे कुछ काम आ सके। विपुल ने सोचा – चलो इसी बहाने पापा के जोर की आजमाइश भी हो गई।

अतुल बाबू का उत्साह अब भी बना था। किसी और ठिकाने की तलाश का अब भी उनमें जोश था। इसलिए वे फिर से हरकत में आ गए थे। उन्हें इससे थकान नहीं स्फूर्ति मिल रही थी। इन्हीं दिनों रैना देवी ने हमदर्दी जताने का स्वाँग भरते हुए एक निर्णय सुनाया, ‘आप बेकार में झंझट को अपने सिर पर आमंत्रित न किया करें। नम्रता की शादी के लिए आप क्यों परेशान हैं? विपुल जब मौजूद है तो आपको खामखा मगजमारी करने की जरूरत भी क्या है? आप आराम से रहिए, देखिए तो कैसे आपकी सेहत गिरती जा रही है। सुन लीजिए, कल से आप इस मामले में कोई दौड़-धूप नहीं करेंगे। विपुल ने कह रखा है कि सारी व्यवस्था वह स्वयं करेगा।’

चिंतामुक्त करने की रैना की कोशिश ने उन्हें और चिंतित बना दिया था। वे इसे सीधे-सीधे अपने अधिकार पर हमला मान रहे थे। पर वे कर ही क्या सकते थे। मन ही मन वे ताड़ रहे थे कि शादी के लिए उनकी पहल को नम्रता भी पसंद नहीं कर रही थी। उन्होंने अपने निश्चय को स्थगित कर डालना ही उचित समझा। उनका हृदय बेहद अशांत हो गया और एक निरर्थकता-बोध से वे दुखी रहने लगे।

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चंद ही दिनों बाद नम्रता की शादी बड़ी भारी गहमा-गहमी के साथ मुकम्मल हो गई। लाखों रुपए पानी की तरह बहा दिए गए। लड़का पुलिस इंस्पेक्टर था और उसका बाप सीमेंट का होलसेलर। पसंद अच्छी थी… चूँकि विपुल को पुलिस और सीमेंट दोनों की बड़ी जरूरत थी। नासमझ नम्रता संबंध की आड़ में चल रहे व्यापार को ही धन्य-धन्य समझ रही थी। वह शायद सोच रही होगी कि अगर पापा अपने भरोसे यह विवाह करते तो इस तड़क-भड़क का आधा भी जुटा नहीं पाते। अतुल बाबू ने रैना के मुँह से नम्रता को कहते सुना, ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।’

अतुल बाबू के जेहन में महीनों यह व्यंग्य-शूल चुभा रहा। उनका भावुक मन आहत हो-हो कर उन्हें काफी दुर्बल बना गया। अपच, अनिद्रा और सिरदर्द की शिकायत क्रमशः बढ़ने लगी। बढ़ती उम्र और अस्वास्थ्य ने धीरे-धीरे उन्हें बिस्तर पकड़वा दिया। एक दिन यह नौबत आ गई कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। भर्ती होते ही उन्होंने रैना से साफ-साफ कह दिया था कि वे अपने ही पैसे से इलाज करा कर अपने ही प्रयास से ठीक होना चाहते हैं।

उनका इलाज चलने लगा और काफी दिनों तक चलता रहा… खिंचता रहा। डॉक्टर आता… चेकअप करता… दवाई देता… पर कहीं कोई असर नहीं। बीमारी चुपचाप ठहरी हुई थी। डॉक्टर को टोकने पर वह टाल-मटोल का जवाब पकड़ा देता। रैना देवी आते-आते ऊब रही थी। बीमारी उन्हें अंदर ही अंदर खोखला बनाती जा रही थी।

एक दिन उन्होंने अपने ऊपर विपुल को झुके हुए देखा। उसके चेहरे पर अपने लिए उन्हें काफी दया, ममता और सहानुभूति दिखाई पड़ी। अतुल बाबू संबंध विच्छेद कर लेने के कई वर्ष बाद विपुल के चेहरे पर एक निर्दोष, निष्पाप और आत्मीय भाव देख रहे थे। उनका मन भर आया। अनायास खयाल आया कि आदमी का कभी-कभी बीमार पड़ना भी कितना जरूरी होता है। उन्हें अपने बीमार होने का दुख बहुत हद तक कम हो गया। बीच-बीच में भी जब वह घर के भीतर अपनी माँ, बहन और पत्नी आदि से उन्मुक्त बातें कर रहा होता था तो अतुल बाबू की बड़ी इच्छा हो उठती थी कि वे भी उसमें जा कर शरीक हो जाएँ और विपुल के चेहरे पर उभरी मानवीय तरलता को जी भर कर महसूस करें और उसके हँसी-मजाक को अपने रेगिस्तान मन में उतर जाने दें। पर काश, ऐसा संभव हो पाता। विपुल से संबंध पुनर्जीवित करने में उन्हें अपना नहीं, सच्चाई, ईमानदारी और इंसानियत की बेइज्जती प्रतीत होती थी और वे ऐसा नहीं कर पाते थे।

विपुल ने न जाने क्या मंत्र फूँका कि उसके जाते ही डॉक्टर की एक टीम पूरी गंभीरता से इनके पीछे मुस्तैद हो गई। कई नर्सें देखभाल के लिए तैनात कर दी गईं। फिर एक पखवारे में ही वे चंगे हो गए। रैना ने आँखों में गर्व की चमक ला कर कहा, ‘देखा आपने विपुल का चमत्कार।’ अतुल बाबू के चेहरे पर जैसे एक कड़वी दवा का कसैलापन उभर आया – तो क्या उनके जैसे सीधे-सादे गंगू तेली टाइप आदमी को अपनी सामान्य हैसियत से इलाज ले कर स्वास्थ्य-लाभ करने का भी जमाना अब नहीं रहा? उन्हें लगा कि स्वस्थ और प्रफुल्लित होने की जगह किसी बर्बर राजा भोज के दूषित एहसान ले कर वे और दुखी हो गए हैं।

जब वे अस्पताल से घर आ गए तो आते ही एक सदमा पहुँचानेवाली खबर मानो उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्हें बताया गया कि उनके एक पुराने दोस्त मास्टर लोचन की जमीन पर रैना देवी के नाम से एक पेट्रोल पंप और भव्य सिनेमाहॉल का शिलान्यास एक राज्यमंत्री द्वारा करा लिए जाने का जुगाड़ बैठा लिया गया है। मास्टर पर उन्हें बेइंतिहा तरस आया, चूँकि वह एक पैर का लँगड़ा और निहायत बूढ़ा आदमी था। उन्होंने उससे मिल कर भयादोहन की सारी कहानी समझ ली। मास्टर उनका अत्यंत मुरीद और शराफत का एक पुतला था। उसने बताया कि उससे जबर्दस्ती दस्तखत ले कर जमीन उनके परिवारवालों ने अपने नाम करवा ली है। अतुल बाबू एकदम सन्न रह गए। मन में जैसे एक आँधी चलने लगी कि आखिर मूल्यहीनता के इस बेशर्म दौर में कोई कैसे अपनी इज्जत, हुरमत, जायदाद और भविष्य बचा कर रख सकता है… खास कर इन नरपिशाच बाहुबलियों से जो कुछ भी हड़प जाने के लिए मानो निरंकुश हो गए हैं। इस तरह जीने का तो कोई मतलब नहीं है। ऐसे प्रताड़ित और लांछित जीवन से तो अच्छा है कि सज्जनता से जीने में विश्वास करनेवाले लोग इस दुनिया से ही उठ जाएँ। वे एक गहरे संताप में इस तरह घिर गए जैसे अब वे इससे कभी निकल ही नहीं पाएँगे।

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वे निराशा की गहरी खाईं में गहरे धँसते जा रहे थे तभी एक दिन उम्मीद की एक किरण कौंध गई। उन्हें जानकारी मिली कि शिलान्यास के समय मास्टर लोचन किसी तरह खुद को बैसाखी पर ढोते हुए समारोह स्थल पर पहुँच गया। वहाँ काफी गहमा-गहमी थी। भीड़ को चीरते हुए रास्ता बना कर उसने खुद को आगे पहुँचाया। मंत्री के आसपास रैना, विपुल और उसके कुछ दरबारी, चिलमची और सिपहसलार मौजूद थे। मंत्री नींव की ईंट रखने ही वाला था कि मास्टर लोचन नींव-स्थल पर जा कर लेट गया और अपने रुँधे गले को साफ करते हुए निर्भीकता से कहने लगा, ‘मुझे इस नींव में दफ्न करके आप चाहें तो ईंट लगा लें। इस जमीन पर जिस तरह कब्जा किया जा रहा है, कल उसी तरह मेरी इज्जत और मेरी साँस को भी छीना जा सकता है। उस नौबत के आने के पहले क्यों नहीं मैं लोकतंत्र के एक मंत्री के हाथों ही सबके सामने बलिवेदी पर बलि चढ़ जाऊँ?’

मास्टर लोचन बोल रहा था तभी वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी सतर्क हो कर उसे मुँह के कौर में आए कंकड़ की तरह बाहर फेंकने के लिए तत्पर हो उठे। मास्टर की दिलेरी पर लोगों की आँखें अचरज से फैली रह गईं। विपुल की आक्रामकता को जाननेवाले लोग मास्टर के हश्र के बारे में मन ही मन अनुमान लगाने लगे कि अब या तो इस मास्टर की इतनी दुर्गति होगी कि इसके जीने में तिल भर भी चैन नहीं रह जाएगा या फिर केस, मुकदमा और जेल के चक्कर में इस तरह फँसा दिया जाएगा कि कहीं त्राण नहीं ढूँढ़ पाएगा। चूँकि इस तथ्य से सभी अवगत थे कि विपुल के खौफ से कोई उसका सगा भी उसके पक्ष में खड़ा होने की हिम्मत नहीं कर पाएगा।

ऐसा सोचनेवाले लोग तब हैरान रह गए जब उन्हें पता चला कि विपुल के पिता अतुल बाबू ने ही मास्टर के पक्ष में खड़े होने की घोषणा कर दी। अतुल बाबू उसका साथ देने के लिए उसे ले कर कोर्ट पहुँच गए। वकील को उन्होंने बताया कि लोचन को न्याय दिलाने के लिए वे अपनी सारी जमा पूँजी लगा देंगे। यह उनकी गाढ़ी कमाई का सबसे सार्थक और बेहतरीन उपयोग होगा। अस्पताल में रहते हुए उन्होंने तय कर लिया था कि स्वस्थ हो कर वे चारों धाम के तीर्थाटन पर चले जाएँगे, फिर उधर ही कहीं किसी आश्रम में शरण ढूँढ़ लेंगे। मगर उन्हें जैसे एक मकसद मिल गया और अपने जीने में एक लुत्फ दिखने लग गया। उन्हें महसूस होने लगा जैसे एक जहर भरे तालाब में सूराख करने की साहसिक और जोखिम भरी पहल करने में मास्टर लोचन का साथ देना उनके लिए सबसे बड़ा तीर्थाटन और पुण्यकर्म है। एक गहरे संतोष से वे अत्यंत ऊर्जावान हो उठे कि एक बर्बर और निरंकुश राजा भोज के रास्ते में एक निरीह गंगू तेली भी चाह ले तो रोड़ा अटका सकता है।

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