बड़ी माँ | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
बड़ी माँ | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

अचानक एक दिन
उस काया को ढोने में
पंचतत्वों ने मनाही की
और आत्मा ने कहा –
कि अब चलना चाहिए

देखते-देखते उसके चेहरे की कांति
कमते-कमते कम होती गई
अपनी बलकती आँखों से
उसने अंतिम बार हम सबको छुआ
हमारे चेहरों में
विवश हो उसने अपनी ही पीड़ा को पढ़ा
और अपनी दहकती देह में भटकते उसने देखा –
कि वह चरम पीड़ा के करीब है
फिर वह अपनी लौ में जगमगाई
और शांत हो गई

हमने देखा वह –
वह मेरी बड़ी माँ थी
जिसने मरने से पहले
मृत्यु को कई बार धोखा दिया था।

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