बदरंग दीवार के पार | रजनी गुप्ता
बदरंग दीवार के पार | रजनी गुप्ता

बदरंग दीवार के पार | रजनी गुप्ता – Badarrang Devar Ke Par

बदरंग दीवार के पार | रजनी गुप्ता

अन्नी कितनी बार खुद को अलग-अलग नजरिए से जाँचती-परखती, फिर अपने लिए तय कसौटियों पर कठोरतापूर्वक खुद को कसती और कठघरे में खुद को खड़ा करके वकीलों जैसी तेज जिरह करने लगती। ऐसा नहीं कि अन्नी इन सवालों से बेखबर हो बल्कि वह ऐसे धारदार सवालों से पूरी तरह बाखबर, चौकस, सतर्क और चौकन्नी होकर अपनी तेजस्विता की तार्किक धार से लोगों के नुकीले वारों को झेलती रहती लेकिन न तो सवाल उसका पीछा करने से रुकते और न वह अपनी तरफ मुँह बाए इन नुकीले सवालों का मुकाबला कर पाती। अक्सर उसे ऐसा लगता जैसे उसकी आँखों ने जमीन से लेकर आसमान तक कोई अदृश्य सी कभी खत्म न होने वाली सीढ़ी बना ली है कि वह सीढ़ी दर सीढ़ी पाँव जमाकर ऊपर चढ़ती ही चली जा रही है पर लगता है जैसे वह तो कहीं पहुँची ही नहीं, बस जस के तस खड़ी हैं तो क्या वह एक ही जगह गोल-गोल चक्कर लगा रही थी जहाँ न आसमान तक ले जाने वाली कोई अलक्षित सीढ़ी, न सपने, न सपनों को पूरा करने वाला जज्बा बचा जैसे वक्त ने सब कुछ लील लिया हो और आँखें खोलो तो कहीं कुछ नजर ही नहीं आ रहा था। सब तरफ धुंध ही धुंध, धूल, सर्दी और गिरते तापमान से छाए कुहरे को भेदकर कहीं न पहुँच पाने की विवशता में पूरा दशक बीत गया। कितनी बार उसने अपने जीवन को नए सिरे से भरने, खँगालने और निचोड़कर धूप दिखाने की कोशिश की मगर अंततः जीवन से सब कुछ सूखता चला गया।

जीवन और मौत के तांडवी खेलों से गुजरकर जीने की जेद्दोजेहद करती अन्नी अपनी अंदरूनी यात्रा में मिले दुख, कचोटें, अपनों से मिले अपमानों को भूले रहना चाहती हैं मगर रूह कभी नहीं भूलने देती कि चेहरे कितने ही नकली हों, आवाजें कितनी ही नाटकीय क्यों न हों मगर एक समय ऐसा आता है जब मन की इन सच्ची आवाजों को और नहीं दबाया नहीं जा सकता जो चीख-चीखकर अपने होने का सुबूत देना जानती है लेकिन जब वह बोल नहीं पाती तो घुटन में अक्सर ऐसा लगता मानो देवी माँ के कई हाथों में कई तलवारें एक साथ उसकी गर्दन उड़ाने पर आमादा हो उठी हों।

अन्नी, अभी खुद को बचा वरना महिषासुरमर्दन हेतु बढ़ते मुखाकार की तरह वक्त तुझे निगल जाएगा, अन्नी, ओ अन्नी, अंदर की तेज आवाजें सुनकर मन घबड़ाने लगा तभी उसकी माँ ने झपट्टा मारकर उसे इस जलते हवनकुंड में भस्म होने से बचा लिया।

‘अम्मा, क्यों बचाया हमें? मर जाने देती तो कितना अच्छा रहता। कम से कम इन झमेलों से तो राहत मिलती। इस नरककुंड में भस्म‍ हो जाती तो आपको भी घर-बाहर के पैने सवालों से सामना न करना पड़ता।’

‘अन्नी, मैंने इन सवालों की कभी कोई चिंता नहीं की और न तेरे कमलेश भाई ने फिर भी तू खामखाह खुद को जलाने पर क्यूँ आमादा है? अम्मा ने आँसू भरी आँखों से अन्नी के रुआँसे व सपाट चेहरे को देखा जहाँ कोमलता की जगह उचाट भाव पसरे थे। चेहरा पर सूखा राख जैसा रंग पुता हुआ था। अम्मा की बात की जवाब दिए बगैर अन्नी ने खुद को वहाँ से बेरहमी से काटा और धम-धम करते हुए अंदर अँधेरी कुठरिया में पड़े तख्त पर ढह गई मगर मन था कि पूरे दो दशक की जुगाली करते हुए उलझे रिश्तों के तार-तार को बेरहमी से उधेड़ता रहा। बदरंग धागों के रेशे-रेशे उस काली कुठरिया की दीवारों पर चस्पाँ होते गए। सूने मन में अड्डा जमाकर बैठी दशकों पुरानी घटनाएँ फिर से जिंदा हो उठीं।

सोलहवें साल के चिकने पायदान पर पैर टेकते ही अन्नी की शादी की चर्चाएँ जोर पकड़ने लगीं मगर पढ़ाई की धुनी रमाए अभी वह किसी भी तरह से शादी जैसे झमेलों में कतई नहीं पड़ना चाहती थी। इधर कमलेश भैया पर पारिवारिक-सामाजिक दबाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था कि अन्नी की शादी जब तक नहीं होगी तब-तक कमलेश भैया भी शादी नहीं करेंगे। कमलेश भैया व अन्नी जुड़वा भाई-बहन जो थे सो कमलेश भैया संग अन्नी का रिश्ता भी खूब आत्मीयता से भरा पूरा व भरोसे के गहरे कुएँ जैसा पारदर्शी था जिसमें दोनों ही अपना अक्स देख सकते थे। अन्नी जबरदस्त मेहनती है व उतनी ही मेधावी भी, ऐसा मानने के उनके पास पुख्ता सुबूत जो थे। कमलेश भैया चाहकर भी फर्स्ट डिवीजन नहीं पा सके जब कि अन्नी घर बाहर के ढेरों काम समेटते हुए भी आसानी से फर्स्ट आ जाती। इसे कमलेश भैया की समझदारी कहें या बाहरी सामाजिक दबाव कि वे शादी से मना करने वाली अन्नी को उल्टा समझाने लगे – ‘लड़का एम.एस.सी. कर रहा, पढ़ा-लिखा है तो नौकरी तो करेगा ही और तुम्हारी पढ़ाई का भी ख्याल रखेगा।

कमलेश भैया की बातों पर आँखें मूँदकर भरोसा करने वाली अन्नी को उनकी बात मानने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं सूझा।

अन्नी की शादी के छह महीने बाद ही कमलेश भैया की भी शादी हो गई और जल्दी ही उनकी सहचरी निम्मी भाभी अन्नी की राजदार बनकर घर परिवार का अभिन्न हिस्सा बनती गई। इसके पहले कि इस त्रिकोण को खूबसूरत आकार-प्रकार मिल पाता कि ससुराल गई अन्नी के ससुराल वालों ने उसके लिए उल्टे-सीधे फरमान जारी करने शुरू कर दिए – ‘न, इसे अपने पति अमर संग यहीं इसी गाँव में रहना पड़ेगा और हम अन्नी को आगे पढ़ने की इजाजत नहीं देंगे। अमर भी ऐसा ही चाहता है सो अन्नी को यहाँ रहकर परंपरागत बहू की तरह वैसे ही रहना होगा, जैसा हम चाहें वरना जैसा उसका मन करे, करने के लिए आजाद है।’

आगे की और भी ढेर सारी जहरीली व कड़ुवी बातें उसके लिए कही सुनी गई जिन्हें मुँह खोलकर कभी कमलेश भैया को वह नहीं बता पाई। अन्नी के मुँह से इतना सब सुनते ही आँखें भर आई उनकी और वे विचलित हो उठे तो कुछ समझने के अंदाज में भाभी ने अपने पति की तरफ देखा भर, बोली कुछ नहीं मगर संवेदना के धनी कमलेश ने अन्नी की खामोशी को समझते हुए तुरंत ऐलान कर डाला – ‘अन्नी की सारी पढ़ाई का खर्चा मैं खुद उठाऊँगा और जब तक वह पढ़ाई करके अपने पैरों खड़ी नहीं हो जाती, वह ससुराल नहीं जाएगी फिर अंजाम चाहे जो हो।’ उनकी आवाज में आत्मविश्वास की खनक साफ सुनी जा सकती थी।

यह सब अन्नी के लिए बड़ी चुनौती थी कि उसे हर हाल में सबसे पहले अपने को बिखरने से बचाना होगा, तभी वह आगे की पढ़ाई करने लायक अंदरूनी बल जुटा पाएगी। कमलेश भैया की हर अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए उसने भी कमर कस ली और ठान लिया कि सबसे पहले उसे अपनी भावुकता और स्त्री सुलभ कोमलता को हर हाल में तजना होगा। उसे लड़की होने की मनोग्रंथि से भी खुद को मुक्त करना होगा सो हर रोज वह अपने आप से लड़ती और अपनी भावुकता की चीरफाड़ करती। अपने से लगातार चलते इस युद्ध में वह दिनोंदिन परास्त होकर लहुलुहान होती मगर फिर खुद को पढ़ाई में झोंके रहती। दरअसल ये ऐसा लगातार चलता लंबा युद्ध था जिसके दोनों सिरों पर वह खुद को बेरहमी से कटते देख रही थी कि उसके वजूद के कई टुकड़े कट-कटकर जमीन पर बिखरते जा रहे थे। कभी शक करते पति की कटूक्तियाँ, गाली-गलौज और उसके चरित्र पर आए दिन दागे गए लांछन उसे बेचैन कर देते तो कभी उसके ससुराल न जाने वाले फैसले पर अडिग अन्नी को अम्मा के उलाहने रात भर सोने नहीं देते मगर आधी रात बीतने के बाद वह पूरी मेहनत व एकाग्र साधना से अपने वजूद के गिरे हुए टुकड़ों को समेटकर सहेजती, सिलती और फिर नए मोर्चे पर तैनात सिपाही की तरह खुद को स्टडी टेबल तक खींच लाती। तब उसके टूटे सपनों के अक्स फिर से जिंदा होने की जद्दोजहद करते। रात के अँधेरे में अक्सर लगता जैसे वह अपने ही अँधेरों से घिरकर भागने की कोशिश करती, लेकिन ये अँधेरे साए तो उसकी ही परछाई बनकर नमूदार हो जाता। इससे बाहर आने की कोई तरकीब नजर आती।

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क्रमशः अन्नी का वजूद फौलादी बनता गया मगर अपनी सहज इच्छाओं को गलाने की इस प्रक्रिया में अक्सर ऐसा लगता जैसे उसे किसी से खास मोह या आसक्ति नहीं रही जैसे भूख न लगने पर भी हम आदन खाना गटक लेते हैं या तमाम रूटीन काम नियम समय पर निबटाते रहते, वह भी तो उसी तरह जीने की आदत डालती जा रही है, जैसे अनायास साँसें आती-जाती हैं स्वचालित मशीन की तरह, बिल्कुल वैसे ही जीती है वह। रात भर वह किताबों के भीतर बसे अक्षरों के अक्स अपने अंदर उतारती जाती मगर अक्स थे कि नए आकार-प्रकार लेते हुए संजीवनी बनकर उसके प्राणों में ताजी हवा का संचार करते रहते।

नतीजा सामने था। एम.ए. में टॉप करते हुए वह देश की टॉप यूनिवर्सिटी की अखिल भारतीय परीक्षा में चुन ली गई जिसके जरिए मिले वजीफे से अब उसके पैरों तले की जमीन ठोस रूप में दिखने लगी। आर्थिक मजबूती ने व्यक्तित्व के पीले मुरझाए पत्तों में नई जान बख्शी और मुरझाए पत्तों वाला पेड़ नए कोंपलों को सिर पर सजाकर ताजी हवा संग हिलते हुए नाचता नजर आने लगा। धीरे-धीरे तेज हवाओं संग उड़ान भरने लगा अन्नी का तन-मन और धीरे-धीरे नई सज-धज में लिखे जाने लगे अन्नी के जीवन के उजाड़ पन्ने। उसके हॉस्टेल में साथ रहती इनमेट्स की जिंदा कहानियाँ अन्नी के सामने स्क्रीन पर चलती फिरती जीवंत रूप में नजर आतीं कि वह आँखें गड़ाए विस्मय विमुग्ध होकर नई दुनिया के इस नए रूप व नई धुन में खुद को देखते हुए मोहासक्त‍ हो उठती। इस रंग-बिरंगी दुनिया से खुद को एकाकार करती अन्नी के सामने बिंदास पन्ना‍ खोले बैठी थी खूब स्मार्ट सी रेवती। जो उसे पहली बार देखता, तो देखता ही रह जाता। नए फैशन के मुताबिक कपड़े पहन वह जितनी तेजी से फर्राटेदार अँग्रेजी बोलकर सामने वाले को प्रभावित कर सकती थी, उतनी ही बातूनी, मुँहफट और जिंदादिल भी थी। वह ऐसी-ऐसी बातें किया करती जिसे सुनकर अन्नी को अपना जीवन सबसे निरर्थक, रूखा-सूखा, बेजान, नीरस और निगले गए बेस्वाद खाना की तरह बेमजा लगने लगा।

रेवती अपनी तिर्यक भवें चढ़ाते हुए अन्नी को अपनी जद में लेकर शुरू-शुरू में तो पढ़ाई या करियर से जुड़ी जरूरी बातें समझती लेकिन जल्दी ही दोनों में साझापन पनपता गया। रेवती को अन्नी की गहन स्टडी में ढली बौद्धिकता, एकाग्र अनुशासन, धैर्य, समझदारी और गंभीरता से बोले गए नपे-तुले तर्क रास आते तो रेवती का मस्ती भरा ‘फ्री स्टार लिंविंग’ कहीं न कहीं अन्नी के अंदर बंद संसार को साहसिकता से खोलते हुए नई खुलती दुनिया का जादू जगाने लगता। दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के भीतर बसे खालीपन को कहीं न कहीं भरते और धीरे-धीरे उनमें सखी भाव का विस्तार होता गया। वह अन्नी के भीतर बसी कोमलता के रेशे को कायदे से पकड़ लेती – ‘अन्नी दी, आपने अपने चेहरे पर जो गंभीरता का लेप लगा रखा है, इसे तुरंत हटाओ वरना ऐसी कड़क सूरत देखकर दहशत होने लगती। सच-सच बताओ, क्या आपको अपने ऊपर जबरन लादी इस सख्ती से घुटन नहीं होती?’

‘काहे की घुटन? जिसके हिस्से जो भी जैसा जीवन मिला है, वही है उसका अपना भाग्य। अगर वही हिस्सा मेरा कटा-फटा है, तो है, सो आई कांट माइसेल्फ… विगत के हलाहल को भीतर उड़ेलते हुए उसने बड़ी निर्लिप्तता से यूँ जवाब दे दिया जैसे ये सब वह अपने बारे में नहीं, किसी और के बारे में बता रही हैं।

‘गलत बात, मैंने भी तो अपनी मर्जी से बचपन में शादी कर ली थी मगर हमारी नहीं बनी तो साल भर के अंदर ही अलग भी हो गए। बस और क्या? पर आपने तो खामखाह खुद को बेरहमी से खारिज कर अपना जीना ही स्थगित कर दिया। ये तो गलत बात हुई न? बोलिए न?’ अन्नी की चुप्पी से बेखबर वह बोलती रही – ‘वैसे मैं कल आपके लिए जींस व टीशर्ट लाई हूँ, प्लीज न मत करना। आपको फेवरिट कलर है हल्का लैमन कलर…

‘ठीक है रेवती, पहनूँगी। पहनने-ओढ़ने में तो खासी मॉडर्न हूँ मैं।’ कहते हुए अन्नी हँस पड़ी।

‘कितनी प्यारी लगती हैं आप यूँ हँसने हुए। बस, ऐसे ही मुस्कुराते रहिए। लिसन, कल मेरा एक और नया दोस्त बन गया, अमल, बहुत जहीन लड़का है। बहुत बिंदास व मस्तमौला टाइप। हमने कल खूब इन्ज्वाय किया। ऐ, ऐसे क्यूँ घूर रही हैं आप मुझे?’ बोलते हुए उसकी आँखें में शरारत नाचने लगी।

‘और क्या-क्या किया? मूवी देखी, बाहर खाना खाया होगा और?’

‘नहीं, ये सब नहीं किया हमने। ये सब तो शरीफों के लिए छोड़ रखा है हमने। हमारी तो यूँ चंद लमहों में फटाफट दोस्ती हुई और महीने भर में ही हमारी नजदीकियाँ बढ़ती गईं।’ उसने सिर मटकाते हुए विशेष अंदाज में मुस्कराहट बिखेरी।

‘मतलब?’

‘वही और क्या? निकटता मतलब निकटता… आवाज में वही खनक, आँखों में मस्ती का सुरूर और चाल में फिर वही सानिध्य का सुख हिलोरें लेने लगा।

‘आप इतनी चुप क्यों हैं दी? प्लीज मुझे गलत मत समझना पर ये सच है कि मैं आपकी तरह एकांतवास जिंदगी कतई नहीं जी सकती। अपनी जिंदगी का हर लमहा पकड़कर पूरी तरह से जीने में यकीन है मेरा। मेरे लिए जीवन का हर पल उत्सव की शक्ल में सामने आता है जिसमें भरसक डूबकर मैं खाती-पीती, नाचती-गाती और परम मस्ती के सरोवर में खुद को डूबने देती हूँ। बस, यही है मेरा जीवन दर्शन और आपका?’

‘रेवती, अधूरे मन से जबरन रचाए गए ब्याह जैसे स्वाँग को तो मिटाना ही था क्यों कि हमारी सोच के केंद्र तो शुरू-शुरू से ही अलग-अलग थे और जल्दी ही हमें आपसी दूरी का अहसास भी हो गया था मगर कभी तलाक लेने की बात नहीं सोच पाई या शायद हिम्मत नहीं पड़ी जब कि हम कभी साथ नहीं रहे। यूँ मेरा जीवन दो अतियों के बीच घिसटता रहा। तभी से हमने जीवन को निर्मोही नजरिए से देखना शुरू कर दिया कि ये दुनियावी सुख मेरे हिस्से में नहीं है सो वीतरागी होती गई खरामा-खरामा…’ उस रुँधे गले से कही गई बातें कहीं दूर से आतीं सुनाई पड़ी लगी।

‘इस दौरान कोई साथी, कोई मनमीत नहीं बना आपका?’ उसने आँखें मटकाते हुए पूछा।

‘थे कुछ लोग जिनके अहसास ने कुछ समय के लिए समानांतर रेखाएँ बनाई जरूर मगर आसमान में अनायास बनी धुएँ की काली लकीर की तरह कुछ पल के बाद अपने आप ऐसे अहसास लुप्त होते गए लेकिन उस कसैली कड़ुवाहट जरूर देर तक बनी रही। बाद में पता चला कि स्त्री-पुरुष के बीच की दोस्ती उतनी सहज-सरल नहीं होती जैसा हम समझते हैं। दरअसल हम अलग-अलग रास्तों पर चल रहे थे।’ आगे कुछ और खुलकर कहने से अन्नी ने खुद को सायास रोक लिया।

‘जब हम अलग-अलग रास्तों पर चलेगें तो मंजिलें तो अलग होंगी ही पर कोई गिल्ट न पालें। कभी कोई कायदे का मिला तो तलाक की बावत सोचा जाएगा। वैसे हमारे बीच जो याराना है, उसमें कई रंग शुमार हैं। वैसे मैंने आपके साथ नैनीताल चलने की प्लानिंग की है। देखो दी, मना मत करना। हाँ, मैंने पहले से ही टिकट करवा लिए।’

‘बिना मुझसे पूछे ही?’ उसने मजाकिया लहजे में पूछा।

‘सरप्राइज रहा न, जस्ट, से यस… आँखों में आँखें डालकर पूछा उसने।

‘हूँ, अच्छा चलो, देखते हैं, इंटरव्यू तो ठीक-ठाक निबट गया सो कायदे से ये जॉब तो मिलनी चाहिए।’

‘दी, श्योर, आपका ही होगा। इसी की ट्रीट हो जाएगी। तो कल हम निकल रहे हैं दी संग, अन्नी दी जिंदाबाद, जिंदाबाद।’

रेवती ने आँखों के इशारों से कुछ कहना चाहा तो उसके स्टायल से उचारे डायलॉग सुनकर अन्नी को जोरदार हँसी आ गई तो वह हँसने हुए बोली – ‘तू दोस्त भी मानती है और दी भी कहती है तो दोनों तो एकदम नहीं चलेगा…।

‘बिल्कुल सही। अन्नी, मैंने भी कुछ ऐसा ही सोच रखा था। ओ यस, हम नैनीताल चल रहे हैं।’

मगर उसके जीवन की ये दो घटनाएँ अप्रत्याशित मोड़ लेकर आई कि इधर पहली बार अन्नी का भैया को बिना बताए दिल्ली से बाहर निकलना और उधर भैया उसका सिलेक्शन लेटर लिए अचानक उसे सरप्राइज देने खुद भाभी संग चले आए। भैया-भाभी के लिए तो अन्नी अभी भी उतनी बड़ी नहीं हुई कि बिना उन्हें बताए वो कहीं अन्यत्र अकेले घूमने का फैसला खुद ले ले। ये उनकी कल्पना से परे था और अन्नी के लिए भी भैया का पहली बार अचानक यूँ आ जाना भी तो अप्रत्याशित था सो उनके आने की खबर सुनते ही वह परेशान हो उठी और उसी रात दिल्ली के लिए लौट पड़ी मगर तब तक भैया-भाभी वापस जा चुके थे तब से भाभी के मन में उसे लेकर जो गाँठ एक बार बनी फिर वे उसके प्रति कभी पूर्ववत सहजता नहीं बरत पाई। वे गाहे व गाहे भैया से अन्नी के बारे में कुछ न कुछ उल्टा-सीधा कहती रहतीं – ‘अब वे बड़ी हो गई हैं, कमाने लगी हैं सो अपनी मर्जी से रहने लगी हैं। हमने अपनी ड्युटी पूरी कर ली पर आगे की जिंदगी के बारे में तो वे खुद फैसला लेंगी। हमें नहीं लगता कि वो वापस अपनी ससुराल जाने के बारे में सोचेंगी भी?’

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सुनकर वे चुप रहे। वही जानलेवा चुप्पी।

‘देखिए, आपने ही उन्हें इतना ऊँचाई पर लाकर खड़ा कर दिया कि आज वे इतने बड़े महकमे में ऊँचे पद पर हैं मगर अब तो वे अपने मन की करने लगीं हैं। क्या पता, इसी तरह अचानक वे कहीं और शादी-वादी भी कर लें। सोच लो, उनके लिए हमने क्या-क्या नहीं किया, कितनों से क्या। क्या नहीं सुनना पड़ा, यहाँ तक कि हमने अपनी सुख, सुविधा और खर्चो को काटकर उन्हें सालों पैसा भेजा मगर हाथ में पैसा आते ही वे सबसे पहले हमसे ही किनारा करने लगीं…

‘गलत आरोप मत लगाओ अन्नी पर। अभी उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके लिए उसे भला-बुरा कहा जाए। सुनो, ये उसकी जिंदगी है सो उसे खुद तय करने दो। तुम क्यों उसे जबरन ससुराल भेजना चाहती हो जहाँ से कितनी बदनामी झेलने के बाद सब कुछ तजकर वो हिम्मत करके बाहर निकली थी। कितना सहना पड़ा था उसे, नहीं क्या?’

‘मगर तब तो हमने यही सोचा था कि जब ये पढ़-लिखकर कमाने लगेंगी तो पति के पास वापस चली जाएगी। वो लड़का तो आज भी इसके नाम की माला जपता है किसी और से शादी करने के लिए कभी हामी नहीं भरी उसने।’

‘पर हमने तो इस बारे में कभी लड़के को कोई आश्वासन दिया नहीं, न ही उसने कभी ऐसा कुछ कहा तो वो क्यूँ कर ऐसा सोचने लगेगा? अगर वो सोचता भी है तो सोचने दो। कितना तंग किया था उसने अन्नी को, सब भूल गई क्या? बात-बात पर शक करना, गाली-गलौज करना…’

‘मगर अभी तक तो उनका तलाक नहीं हुआ?’ सवाल पूरा जबड़ा खोले निगल जाने के लिए तैयार था।

‘हाँ, यही तो मुसीबत है। अन्नी के मन में क्या है, नहीं पता। हमें तो ये डर लगता है कि कहीं किसी रोज वो पति नाम की तख्ती टाँगे उससे पैसे माँगने न चला आया? तो क्या करेगी अन्नी? मुश्किलें पैदा कर सकता है वो।’ वे चिंतातुर आवाज में सोचते हुए बोले।

‘मगर अब वो क्यों नहीं रहना चाहती अपने पति के संग? बोलिए न, लो इस सवाल पर आप तो फिर से चुप्पीं लगा गए तभी उनके पास बैठी अम्मा बीच में बोल पड़ी – ‘सालों से छूटे संबंधों के तार अब फिर से नहीं जुड़ पाएँगे। सुनो, इन्हें जबरन जोड़ने की कोशिश भी मत करना वरना सालों से अन्नी के प्रति वह आदमी गुस्सा व नफरत पाले-पोसे बैठा है तो वो क्या उसके प्रति सहज बरताव कर पाएगा? कतई नहीं। भलाई इसी में है कि अन्नी कानूनन तलाक ले ले।’ अम्मा का दोटूक जवाब सुनकर वे सकते में आ गई।

‘अम्मा, ये सब बातें आप कैसे सोच सकती हैं? आप तो इतनी पूजा-पाठ करती हैं और आप ही दूसरी शादी की वकालत करने लगी…’ अपना पक्ष कमजोर पड़ते देख वे भड़क पड़ीं और फिर किसी से कुछ कहते सुनते नहीं बना।

इस तरह तारीखें खिसकती रहीं और उम्र का एक पूरा दशक शांत बहती नदी की तरह सरकता गया।

आभासी दुनिया के दौर में अनायास सालों बाद जब वह फेसबुक पर रेवती से टकराई तो फिर से उनके बीच छूटे संवाद शुरू हो गए। पहले मैसेजिंग, चैटिंग व वीडियो पर बातें भी शुरू हो गई और इस तरह जुड़ने लगीं पुरानी छूटी बातों की कड़ियाँ।

‘रेवती, तुमने क्यों छोड़ा था उसे? पहले अपना किस्सा पूरा बताओ न, मेरे घनचक्र में तुम्हारी कहानी तो बीच में ही छूट गई। बोलो न?’ रेवती को कुरेदने पर वह बोल पड़ी।

‘लिसन, जिंदगी की भगदड़ में से जो एक बार छिटक जाता है तो वो फिर छूट ही जाता है पर तुम्हारी तरह न तो मैं हूँ, न हो सकती हूँ। तब से दर्जनों लड़कों से दोस्ती हुई और हम तेजी से आगे भी बढ़े मगर फिर पहले जैसी बात नहीं बनी सो नहीं बनी। आगे की जिंदगी अपनी शर्तो पर जीने के लिए चुन लिया नया साथ। आई हैव फन, मस्ती एंड नो रिग्रेट…

‘पर तेरा ये दूजा पति कहाँ टकराया था तुझसे?’अन्नी ने उत्सुकतावश कुरेदा।

‘मेरी बहन का पुराना आशिक। बहन के दफ्तर में हमारी आँखें मिलीं और हम महीनों लिव इन में रहे फिर एक दिन अचानक शादी का शौक भी पूरा कर डाला।’ उसने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया।

‘अब कैसी चल रही है जिंदगी? तेरा ये साथ मजेदार रहा या फिर कुछ और नया जोड़ा जिंदगी में यानि नया कुछ और?’

‘अन्नी, मैं जोड़-घटाव या गुणा-भाग के घनचक्कर में नहीं पड़ती। इतना जरूर देखा था कि सामने वाला बंदा पैसे वाला हो। वो सरकारी महकमे में डायरेक्टर है। मुझसे पाँच साल छोटा मगर मेरी हर शर्तें कुबूल।’ कहते हुए उसने ठहाका लगाते हुए कहा देख रही हो मेरी वही बिंदास स्टायल, बस ऐसी ही हूँ मैं। और आप? उन गैस एजेंसी वाले से तेरी दोस्ती तो शादी में बदल गई थी, फिर कैसा रहा साथ?’

‘कुछ नहीं, खल्लास। मेरी किस्मत ही ऐसी निकली कि जहाँ भी जमीन खोदकर पानी निकालने का जतन करती हूँ, वहीं से रेत व कंकड़ पत्थर निकलने लगते। पानी का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं।’ बोलते हुए गला रुँधने लगा उसका।

‘ये अन्नी, दिल छोटा नहीं करते। तेरे आँसू देखकर मन खराब हो गया। तुझे तो हम आयरन लेडी कहते थे न?’

‘कोई आयरन-वायरन नहीं थी मैं, बस हालातों के हिसाब से ढलना पड़ा था तब मुझे। पहले वाला मेरे कैरेक्टर को लेकर धज्जियाँ उड़ाने में सुख महसूसता था और गाहे-वगाहे कॉलेज आकर परेशान करता था ताकि मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब हो और मैं पढ़ न सकूँ। उसे बखूबी पता था कि मुझे कहाँ, किस जगह पर वार करके किस कदर तोड़कर कमजोर किया जा सकता है, सो वो उसी नस को दबाकर मुझे जकड़ना चाहता था मगर उसी समय मैंने खुद को आयरन लेडी में तब्दील होने दिया। तभी से मेरे स्वभाव में वैसी जिद या कठोरता या अनुशासन वगैरा शुमार होता गया।’ बीते समय का टुकड़ा सामने फेंकते हुए आवाज में तिक्तता आ गई।

‘और ये दूसरा वाला? इसे चुनने में कहाँ कैसे चूक हो गई आपसे?’ बातें थी कि एक के बाद दूसरी कड़ियाँ बनने लगीं।

‘इसे खुद के सिवाय किसी और से यानि मुझसे भी खास लेना-देना था ही नहीं। किसी से भी कोई लगाव ही नहीं तो पजेशन कहाँ से आता?’ बोलते हुए उसकी आँखें भर आईं कि रेवती ने इशारे से अपनी हथेलियाँ मिलाते हुए प्यार से कहा – ‘तो क्या हुआ? हम गिरेंगे नहीं तो सँभलेंगे कैसे? जीने की ताकत तो तभी बनती है जब हम बार-बार कुआँ खोदें, बार-बार पत्थर आएँगे तो क्या? आने दो, हम नए सिरे से फिर दूसरी जगह कुआँ खोद लेंगे। तेरा जिंदा रहना जरूरी है हम सबके लिए, सुन रही है न?’

‘एक बात बताऊँ, भैया के न रहने पर अब तो किसी और से मुझे कोई लगाव नहीं बचा, जीने की ताकत भी जाती रही।’

‘अरे, अन्नी, ऐसे मत बोल। पता नहीं कितनी साँसें बची हैं अभी जिंदगी की? हाँ,’

सुनते ही हँस पड़ी वह – ‘लिसन रेवती, जिसका जिंदगी से मोह न रहा हो, वो भला मौत से क्या डरेगा? पहले ऐसा जरूर लगता था कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ फिर सोचती कि अगर मैं इतने उठा-पटक से न गुजरी होती तो जीवन के इतने विपुल रूपों को भला कैसे देख-समझ पाती? यहाँ भावनाओं का भी सौदा होता है। आए दिन रिश्ते भी बदलते बिकने देखे हैं। हमारी सोच व संवेदनाएँ भी हमेशा एक जैसी नहीं रह पाती यानि यहाँ सब कुछ नश्वर है। खैर, मेरी रामकहानी छोड़, अपनी सुना, तेरा बेटा तो अब खूब बड़ा हो गया जिसे फेसबुक पर देखा था उस दिन।’

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‘हाँ, जब हमारे अपना बच्चा नहीं हो पाया तो हमने उसे एडॉप्ट किया। मेरा मन था कि कोई मुझे ममा कहकर बुलाए सो एक दिन अचानक निर्णय ले लिया पर आपने तो नया कुछ नहीं जोड़ा न अपनी जिंदगी में?’ वह कुरेद-कुरेदकर पूछने लगी।

‘हाँ, मैं भी बेबी एडॉप्ट करना चाहती थी पर वो इसके लिए कतई तैयार नहीं था। तेरी तरह बोल्ड तो हूँ नहीं कि खुद फैसला लेकर आगे कदम बढ़ा देती। हम अक्सर तमाम तरह के कहे-अनकहे डरों और असुरक्षाओं के तंग घेरे में कैद बेमजा जिंदगी जीते रहे और तूने जिंदगी को आगे ले जाने का फैसला कर लिया। मेरा हर एक्सपेरिमेंट हर बार फेल होता पर तू हर बात जीतती रही। जितनी बार नए सिरे से जिंदगी सँवारने की कोशिश की मगर हर बार वही हताशा, वही नाउम्मीदी हाथ लगी़ यानि जिंदगी मेरी मुट्ठी में नहीं आनी थी सो नहीं आई, मगर अब अतीत के मुर्दों पर लाठी मारने से क्या होने वाला? खैर, मेरी छोड़ मगर तू तो लकी रही, यस यू आर द विनर ऑफ द डिकेड…।

सुनते ही बहुत जोर का ठहाका लगाते हुए बोल पड़ी वह – ‘न, अन्नी, ये पूरा सच नहीं है। हमारी ये जिंदगी तभी तक बोझिल लगती है जब तक हम तमाम मूल्यों या उसूलों को अपने कंधों पर ढोने का ठान लेते हैं। जब भी जिस घड़ी हम खुद की बनाई हदबंदियों को ओढ़ने-बिछाने लगते हैं तो वही जिंदगी अझेल बन जाती। सोचते जरूर है कि हमने अपने मन का किया होता तो जिंदगी शायद मीठे रस का झरना बन सकती थी, मगर ये पूरा सच नहीं है। अब मेरी हकीकत सुन, गोद लिया बेटा नालायक निकल गया और 10 वीं में दो बार फेल हो गया तो हमारे कुछ साल तनाव में गुजरने लगे फिर किसी तरह उसे तकनीकी शिक्षा दिलाने की भी कोशिश की जिससे वह बिजनेस वगैरा करके खुद के बूते जीना सीख ले मगर वहाँ भी नाकामयाबी हाथ लगी। कभी पुचकारती तो कभी डाँटती फटकारती। लेकिन हमारी नसीहतें सुनकर वह बुरा सा मुँह लेकर आक्रामक तेवर अपना लेता फिर एक दिन किसी बात पर डाँटने पर अचानक वह बिफर पड़ा – ‘आप दोनों की लव मैरिज ठीक-ठाक चल रही थी तो मुझे क्यों बीच में खामखाह ले आए आप लोग? मुझे पता है कि आप मुझे जरा भी प्यार नहीं करते तभी तो अपनी प्रॉपर्टी मेरे नाम नहीं कर रहे। मुझे लगता है कि मैं आप दोनों के गले की हड्डी बन गया हूँ तभी तो आपकी रासलीला ठीक से नहीं चल पा रही…। सुनते ही अचानक रंजन ने आपा खो दिया और तैश में आकर जोर से तमाचा जड़ दिया लेकिन तब से वह गायब है। पूरे 6 महीने बीत गए।’ कहते हुए उसने लंबी उसाँस भरी।

‘वाकई दुखद है ये। सच तो ये है कि जिंदगी जीने का कोई तयशुदा फार्मूला तो है नहीं कि ऐसा-ऐसा करने से ऐसा-ऐसा सुखद नतीजा निकलेगा ही। हम सब अपनी-अपनी सोच-समझ से आगे बढ़ने के लिए एक कदम आगे बढ़ाते हैं मगर ऐन मौके पर जिंदगी पीछे से पलट वार करने लगती और हम मुँह के बल गिर पड़ते” …अन्नी ने ऐसा कहते हुए पता नहीं उसे दिलासा दी या खुद को इसके बाद कुछ देर खामोशी तनी रही फिर दुबारा बोलने लगी अन्नी – ‘रेवती, एक बात तो साफ है कि स्त्री को अपने अंदरूनी अहसास का अभिन्न हिस्सा बनाने से कतराते हैं पुरुष जब कि स्त्री उसे अपने भीतर इतना बड़ा स्पेस देती जाती और उसके अहसास को इतने रंगों और महक से भरती जाती कि ऐसा करते हुए वह अपने हिस्से के स्पेस को कम से कम करती जाती बल्कि कई बार तो ऐसा करते हुए वह खुद को शून्य पर ला पटकती। कुछ समय बाद पता चलता कि जिसकी खातिर स्त्री ने अपना सब कुछ कुर्बान कर डाला, वह पुरुष तो केवल स्त्री द्वारा बनाए घेरे के बाहरी आउटलाइन तक ही सिमटकर रह गया यानि जोखिम उठाकर स्त्री के अंदरूनी घेरे के अंदर आने का हौसला ही नहीं जुटा पाते वे जबकि स्त्री-पुरुष की महक से बौरा उठती है लेकिन वह दूर से ही उसके होने के अहसास को सूँघकर कहीं से भी भागने की फिराक में रहता है, हर बंधन से मुक्त, किसी भी कमिटमेंट से परे।’ वह दूर देखते हुए बोलती जा रही थी किसी ज्ञानी की तरह।

‘वाह, कितनी शानदार फिलॉस्फी अन्नी दी, ग्रेट। वह स्त्री के वजूद को नकार तो नहीं पाता पर दूर से ही उसे महसूस करने को लालायित। न तो वह स्त्री शक्ति से इनकार कर पाता और न उसे पाने के लिए उतनी जबरदस्त। इच्छाशक्ति अपने अंदर जगा पाता जबकि हम औरतें रिश्तों की औपचारिक दीवारें लाँघकर तमाम जोखिम उठाकर भी उस तक जा पहुँचते मगर वे स्त्री से मिले हर तरह के स्पेस पर आन-बान-शान से इतराकर चलते और बाद में उसे हासिल कर उसी को तवज्जो देना बंद कर देते। फिर शादी के बाद वही महज पति की आश्रिता बनकर रह जाती।’

कुछ सोचते हुए रेवती रुक-रुककर बोलती जा रही थी – ‘पर तेरा करियर तो ठीक-ठाक चल रहा है। दर्जनों सेमिनारों में शिरकत करने देश-विदेश की यात्राएँ करती है, बुद्धिजीवियों के बीच तेरा उठना-बैठना है। तूने जीवन को नया अर्थ देने की कोशिशें तो की हैं न? बेशक हमारी जिंदगी के रंग-बदरंग जरूर हो गए पर दीवार के उस पार नया सूरज भी तो झाँक रहा है, नहीं क्या? यार हम साथ-साथ हैं और आगे भी रहेंगे।

‘देख, रेवती, अब इस स्टेज पर जाकर ये बखूबी समझ में आ गया कि अपनी खुशियों के लिए हमें अब किसी भी पुरुष की मुखापेक्षी होने की जरूरत नहीं। बात-बात पर उन पर निर्भर रहने के जमाने लद गए। नो, नॉट एट ऑल। हम दोनों एक-दूसरे के पूरक भी है और अपने आप में कंपलीट भी, हैं न डियर?’

‘यस, सौ बात की एक बात कह दी आपने। सौ परसेंट खरी बात; कहते हुए दोनों ने आभासी दुनिया में एक-दूसरे के गले मिलने वाले स्माइलीज की अदला-बदली की। अनायास धूमिल झरोखे से ठंडी हवा का झोंका आया जिसमें बेला की महक शुमार थी। आत्मीयता की महक से सराबोर अन्नी बोल पड़ी’- तू ठीक कहती है रेवती। टिपिकल ट्रेडीशनल राह पर चलना तो हमारी फितरत में कभी था ही नहीं और उन घिसे-पिटे रास्तों पर चलना हमें रास नहीं आया। शायद वे परंपरागत मूल्य हमारे लिए बने ही नहीं थे सो हमने इनका मोह तजने में पल भर की देरी नहीं की। हम विशिष्ट तो हैं ही और रहेंगे भी जिसे तूने कभी इंटेलेक्चुअल कीड़ा नाम दिया था, याद है न?’

‘हाँ, ये ऐसा कीड़ा है जो एक बार दिमाग में रेंगने लगता फिर ताजिंदगी साथ नहीं छोड़ता, मरते दम तक, हमारी दोस्ती की तरह?’ फिर दोनों की समवेत हँसी से माहौल महक उठा।

‘चल, बहुत देर हो गई। जल्द ही मिलते हैं, अपनी उसी खुली हुई पसंदीदा जीटी रोड पर लंबी वाक पर निकलेंगे। हमारी ये जुगलबंदी जीने के लिए जरूरी रसायन है जिसे हर हाल में बचाए रखना है। तू कल मिलेगी न वहीं, उसी खुली सड़क पर?’

‘श्योर… हल्के अँधेरे में स्याह उनके चेहरों पर बिछी थी सुकून की लकीरें। हवा अभी भी फूलों की मादक महक लिए सब जगह बेफिक्री से आवारागिर्दी कर रही थी।

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बदरंग दीवार के पार – Badarrang Devar Ke Par

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