एक उचटी हुई नींद का स्वप्न था,
जागरण में न जाने कहाँ खो गया।

विश्व बाजार के इस घटाक्षेप में
कामनाएँ बिकीं, आचरण भी बिका,
आज संदेह के बादलों में घिरी
जगमगाते हुए सूर्य की भूमिका,
स्नेह सौहार्द की उर्वरा भूमि में
कौन ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, भय बो गया।

आस्थाएँ हिलीं, सत्यनिष्ठा हिली
प्यार, विश्वास, श्रद्धा समर्पण हिले,
गीत के नाम पर, खुरदरे शब्द कुछ,
गद्य की पंक्तियों में समाहित मिले,
राग खंडित हुए, रंग दंशित हुए
मन इन्हें जोड़ने में विफल हो गया।

क्या उजाला यहाँ, क्या अँधेरा यहाँ
लग रहा है यहाँ पर सभी एक-सा
हाथ में थाम मृगजल कलश यह हवा
भोर का कर रही मौन अभिषेक-सा,
तेज तूफान ऐसा उठा मेघ का
एक बनते हुए चित्र को धो गया।

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दृश्य कैसा उपस्थित हुआ आज यह
जो कि नायक कभी था, विदूषक हुआ
लिजलिजाता हुआ दौर भी है गजब
बाघ की भंगिमा बन गई केंचुआ
बुझ गई ज्योति आकाशदीपों सजी
प्रेरणा का शिखर बिंदु ही सो गया।