बदलना | आलोक पराडकर
बदलना | आलोक पराडकर

बदलना | आलोक पराडकर

बदलना | आलोक पराडकर

शास्त्रीय रागों के वादी-संवादी में
अक्सर उलझती रही हैं
या फिर शरीक हो जाती है
रंगमंच के पात्रों के द्वंद्वों में
दोस्तों को अब वक्त होता है कम
जोरदार कहकहों में
कुछ साल घट जाती है उम्र
अगर कभी जाए बैठक जम
कई बार यह भी होता है हाल
बनारस में घाट किनारे
अचानक सुस्ताने लगती है वह
मेरी ही तरह घंटों निढाल
शाम, मेरी शाम
इसमें कभी नहीं रहा
बाजारों का कोई काम
राजा की नीबू वाली चाय
संगीत-नाटक, गंगा-घाट, यार-दोस्त
बस ये ही कुछ हैं इसके नाम
पर अब हूँ इनका गुनाहगार

शाम जल्दी घर खींच ले जाता है कोई प्यार
सारे सुरों, संवादों
यारों के हँसी-ठहाकों

पर भारी है
दरवाजा खोलते ही गूँजने वाली
उसकी स्मृति के थोड़े से शब्दों में से एक
पापा की आवाज
मेरी शामों में रंग भरने वाली महफिलों से
अधिक मोहक है
उसके स्वागत का अंदाज

मेरी क्या बिसात
असफल हुए हैं शब्दों के कितने ही बड़े धुरंधर
उस मुस्कान की व्याख्या में
जो खिलती है
बेटियों के चेहरे पर
बचपन में ही अकस्मात

कई बार बड़ी खामोशी से
जीवन में बदलने लगती हैं आपकी प्राथमिकताएँ
बच्चों के साथ जीते हुए
माँ-बाप कुछ और करीब आए

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