बचा लेती थी, माँ | रति सक्सेना
बचा लेती थी, माँ | रति सक्सेना

बचा लेती थी, माँ | रति सक्सेना

बचा लेती थी, माँ | रति सक्सेना

कैसी भी परिस्थिति में
किसी भी दुविधा में खाली नहीं होता था,
माँ का भंडार, थोड़ा बहुत बचा कर रख लेती थी
तेल, अनाज, दाल या अचार
भड़िया में नमक के दाने, मर्तबान में गुड़
जी लेते थे सदियाँ, उस जादुई कोठरी में
सिम सिम कहे बिना माँ निकाल ले आती थीं
थोड़ा बहुत जरूरत का सामान, किसी भी समय

See also  ग्यारहवाँ घर | नरेंद्र जैन

माँ बचा कर रखती थीं, थोड़ा बहुत मांस
कमर और कूल्हों पर
एक के बाद एक जनमते सात बच्चों की
भूख के लिये,
और अगली पीढ़ी के
गुदगदे अहसासों के लिये

बचा कर रखती थी, वे किस्से कहानियाँ
अनजानी धुनें, सपनों की सीढ़ियाँ
नाती पोतों के लिये,
ठिठके रहे जो नानी की कहानियों में
उसके जाने के बाद भी

See also  लोककथा | केदारनाथ सिंह

आखिरी समय बचा कर रखी कुछ साँसें
बचा रहे बेटियों का मैका जिससे
वह खुद घुलती रही
पानी में पड़ी शक्कर की बोरी सी

Leave a comment

Leave a Reply